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(२) कवि प्रमोद । पद्य २९४४ । मांन । सं० १७४६ कार्तिक शुक्ला । आदि
कवित्त प्रथम मंगल पद, हरित दुरित गद, विजित कमद मद, तासों चित्त लाईयइ । जाके नाम कूर करम, छिनही म होत नरम, जगत विख्यात धर्म, तिनही को गाईयइ । अश्वसेन वामा ताको अंगज प्रसिद्ध जगि, उरंग लछन पग जिनमत गाईयइ । धर्मध्वज धर्म रूप परम दयाल भूप, कहत मुमुक्ष मांन ऐसे ही को ध्याईयइ ॥ १ ॥
युगप्रधान जिनचंद प्रभु, जगत मांहि परधान । विद्या चौदह प्रगट मुख, दिशि चारो मधि आंन ॥ ९ ॥ खरतर गच्छ शिर पर मुकुट, सविता जेम प्रकाश । जाके देखै भविक जन, हरखै मन उल्लास ॥ १० ॥ सुमतिमेर वाचक प्रकट, पाठक श्री विनैमेर । ताको शिव्य मुनि मानजी, वासी बीकानेर ॥ १॥ संवत सतर छयाल शुभ, कातिक सुदि तिथि दोज । कवि प्रमोद रस नाम यह, सर्व ग्रंथनि को खोज ॥ १२।। संस्कृत वानी कविनि की, मूढ़ न सममें कोई । तातै भाषा सुगम करि, रसना सुललित होइ ॥ १३ ॥ ग्रंथ बहुत अरु तुच्छ मति, ताकी यह परधान । सब ग्रन्थनि को मथन करी, कीयो एह मई आन ॥ १४ ॥
वाग्भट शुश्रुत चरक मुनि, अरु निबंध आत्रेय । खारनाद अरु भेड़ ऋषि, रच्यो तहां सौ लेय ॥ ९ ॥ मन मैं उपजी बुधि यह, भाषा कीजे आन । सब सुख दायक ग्रंथ मत, भाषा में परधान ॥ ९३ ॥ घटि बधि अक्षर चूक यह, सुजन होय के सोध । रस ही मंहि जु विरस जउ, ताहिन उपजे बोध ॥ ९४ ।। रोग हरन सब सुख करन, सबही के हित काज ।।
और जु भाषा नाव सम, कीनौ एह जहाज ।। ६५ ।। कवित्त छंद दोहे सरस, तां महि कीने जोग । प्रथम कीए मह आप कर, भए प्रसन सब लोग ।। ९६ ।। अभिमांनी अक उपजसी, हीन शास्त्र नर होय । हाथ न ताके दीजियो, अवगुन काढ़े कोय ॥ ९७ ।।