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[४] खरतर गच्छ परसिद्ध जगि, वाचक सुमतिमेर । विनयमेर पाठक प्रगट, कीयै दुष्ट जग जेर ।। १८ ।। ताको शिष्य मुनि मानजी, भयो सबनि परसिद्ध । गुरु प्रसाद के वचन ते, भाषा को नव निद्ध ॥ ९९ ।। कवि प्रमोद ए नाम रस, कीयो प्रगट यह मुख । जो नर चाहे याहि कों, सदा होय मन सुख ॥ १०० ।। सब सुख दायक ग्रन्थ यह, हरै पाप सब दूर ।
जे नर राखै कंठ मधि, ताहि मह सब पूर ।। १ ॥ इति श्री खरतर गच्छीय वाचक श्री सुमति मेरु गणि तद्भात पाठक श्री विनैमैरु गणि शिष्य मांनजी विरचिते भाषा कविप्रमोद रस ग्रन्थे पंच कर्म स्नेह वृन्तादि ज्वर चिकित्सा कवित्त बंध चौपई दोधक वर्णनो नाम नवमोदेसः ॥ ९॥
लेखन-१८ वी शताब्दी प्रति - पत्र १८० । पंक्ति १२ । अक्षर ३२ । पद्य २९४४ ।
(श्री जिनचारित्र सूरि संग्रह) ( ३ ) कवि विनोद, । मान । सं० १७४५ वैशाख शुक्ला ५ सोमवार । लाहोर ।
आदिउदित उद्योत, जगिमगि रह्यौ चित्र भानु, ऐसह प्रताप आदि ऋष को कहत है । ताको प्रतिबिब देख, भगवान रुप लेख, ताहि नमो पाय पेखि मंगल चहत है । ऐसी दया करो मोहि, ग्रंथ करौ टोहि टोहि, धरो ध्यान तव तोहि, उमंग गहतु है । बीच न विघन कौऊ, अच्छर सरल दाउ, नर पढ़े जोऊ सोऊ सुख को लहतु है ॥ १ ॥
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गुरु प्रसाद भाषा करूं, समझ सफै सब कोई ।। ओपद रोग निदान कछु, कविविनोद यह होई । ५ ॥
संवन सतरहसइ समइ, पैताले वैशाख । शुक्ल पक्ष पंचम दिनइ, सोमवार यह भाख ।। ९ ।। और ग्रंथ सब मथन कार, भाषा कही बखांन । काढ़ा औषधि चूर्ण गुटी, करै प्रगट मतिमांन ।। १० ।। भट्टारक जिनचद गुरु, सब गच्छ के सिरदार । खरतर गच्छ महिमानिलो, सब जन को सुखकार ।। ११ ॥ जाको गच्छवासी प्रगट, वाचक सुमति सुमेर । ताको शिव्य मुनि मानजी, वासी बीकानेर ॥ १२ ॥