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[ १३ ] (६) लघु पिंगल । पद्य १११। चेतनविजय । सं० १८४७ पौष शुक्ला २ गुरुवार । बंगदेश।
आदिअथ लघु पिंगल भाषा लिख्यते
दोहा चरन कमल गुरुदेव के, बंदी शीश नवाय । लघुपिंगल भाषा करूं, सारद देहु बताय ।। १ ।। छाया बिन नही कर सके, पिंगल छद अपार । रूपदीप चिंतामणि, ए पिंगल मन धार ।। २ ।। चेतन लघुपिगल कहे, सुनियो वचन प्रमान । कवित्त छंद केइ जातके, जानें चतुर सुजान ।। ३ ।। लघु दीरघ गण गण है, अक्षर मत्त समान । चेतन बरनै ग्यान सुं, लघुपिगल गुन खान ।। ४ ।।
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रूपदीपक चितामणि, इन पिगल को देख । भाषा लघुपिंगल रची, कीन्हा सुगम विशेष ।। १०५ ।। छद व्यालिसे जात के, लघु पिगल मों जान । भणे गुणे कठे करै, उपजै बुद्वि निधान ॥ १०६ ।
ऋद्वि विजय पाचक गुरू, बहु आगम के जान । तस शिष्य लघु चेतन भये, जनमें बग सुथान ॥ १०९ ।। दिक्षा ले यात्रा किये, फिरि आए निज देश । संगत पायें साध की, मेटे सकल कलेश ॥ ११ ॥ चट' सिद्धप वेदा मुनि, मास पोप गुनखान ।
स्वेत बीज गुरुवार को, पूरे ग्रन्थ सुजान ।। १११ ।। इति लघु पिगल भाषा संपूर्ण । लेखनकाल-संवत १९२३ मिती श्रावन बद ७ मी । लिखते भज्जूलाल । प्रति-पत्र ११ । पं० २२ । अक्षर ५० । साइज़ १०x४||
(अभय जैन ग्रन्थालय)