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(४) आतमबोध नाममाला । पद्य २७३ । चेतनविजय । सं० १८४७ माघ शुक्ला १०॥
भादिअथ नाममाला लिख्यते ।
* दोहासिद्ध सरभ(सर्व)चित धारि के, प्रणमुं सारद पाय । मुझ ऊपर कीजै कृपा, मेधा दीजै माय ॥ १ ॥ गुरु उपगारी जगत मे, जानें सब संसार । चरन क्मल संसार के, वंदो बारमवार ॥२॥ भाषा आतम बोध की, रचना रचौ सुदाम । बहुत वस्तु है जगत में, तिनको कहूँ वखान ॥ ३ ॥
अंत
इह शुद्ध भातमबोधमाला, किये रचना नाम को । सुभ कुसुम मेधा सरस गुंथ्यौ, हिय धर इह दाम को ।। अति महक आवै, ग्यान पावै, चतुरता उपजे सही। चित चेत चेतन समझ लीज, नाम जग सोभा नही ।। २७१ ।। इक अष्ट चार अरु सात धरिये, माघ सुद दसमी रची। इह साख विक्रमराज का है, चित्त धार लीजे कची ।। इह नासमाला भति विसाला, कठ धारे जे नरा ।
बहु बुद्धि पजै हिय माहि, ज्ञान जग में है खरा ।। ७३ ॥ इति श्री आतमबोध नाममाला समाप्तं । लेखनकाल-लिपिका ऋ. भज्जू सं० १९२३ । प्रति - पत्र १८ । पंक्ति २२ । अक्षर ५० । साइज १०४४।।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (५) आरंभ नाममाला । सुबुद्धि । आदि
आदि गुरुन गुरु शिष कर, जियदाता जगपाल । पावन पतित उधार अरु, दीनानाथ दयाल ॥१॥ X
X अमर ग्रन्थ मैं जे कहे, सुने लहे करि शुद्ध । कछु उपजाये अर्थ सों, नए नांउ निज बुद्ध ॥ ५ ॥