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[ ५७ ] कहिये वचन विचारि, कपट तजि दीजिये ।
भज कमला-पति चरण, सुरग-सुख लीजिये ॥ १३६ ।। इति रत्नपरीक्षा ग्रन्थ । लेखनकाल–संमत् १९०४ कातिक वदि ९ लि० महात्मा हरखचंद विक्रमपुर मध्ये। प्रति-गुटकाकार नं० ३९
(वृहद् ज्ञानभंडार) (४) रत्न-परीक्षा । तत्व कुमार । सं० १८४५ श्रावण कृष्णा १० भादि
आदि पुरख आदीसरु, आदिराय आदेय ।
परमातम परमेसरु, नमो नमो नाभेय ॥ १ ॥ अंत
श्रावण वदि दसमी दिन, संवत अढार पैंताल । सोमवार साचो सुखद, ग्रन्थ रच्यो सुविशाल । खरतर गच्छ जाणे खलक, मोटिम बड़े मंडाण ।। ३ ।। सागरचद सूरीस की, ता मक्षि साखा भाण ॥ ४ ॥ ता शाखा में दीपते, महोपाध्याय जगीस । आगम अरथ भंडार है, पदमकुशल गणिश ॥ ५॥ प्रथम शिष्य तिनके कहूँ, वाचक के पद धार । दशनलाभ गणि कहें, ताहि शिष्य सुविचार ।। ६ ॥ पं० संज्ञा धारक प्रवर, तत्वकुमार सुजाण ।
ग्रन्थ रच्यो बहु हेत धर, दिन दिन अधिक बखाण ।। ७ ।। लेखनकाल–सं० १८४७ विशेष-बंग देश के राजगंज के चंडालिया आसकरण के लिये रचित । प्रति-(१) प्रतिलिपि-अभयजैन ग्रन्थालय ।
(२) गुटकाकार-वृद्धिचंद्रजी यति संग्रह जेसलमेर ।
(३) मुनि कांतिसागरजी साहित्यालंकार । (२) रत्न परीक्षा। पद्य ५७० । रत्नशेखर । सं० १७६१ मार्गशीर्ष शुक्ला ५ गुरुवार । सूरत । शंकर के लिये। आदि
ऊंकार अनेक गुण, सिद्ध रूप परगात । पांच पद यामैं प्रगट, सुमिन पूरन आस ॥ १ ॥