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[ ६३ 11 भादि
अथ रागमाला लिखतेगुरु प्रसाद सागर सुकवि, कृष्ण चरण रिदै धारि । उतपंत जो षट राग की, ताका कहै विचार ॥ १ ॥ कहां तां उपजे रागषट, सुत नारी पित मात ।
देस समो रुति पर तिनिह, तिनकी वरनो वात ॥ २ ॥ भंत
राग रागिणी पन सपौं, गावत समे ज कोइ ।
सख सिध सागर सुकवि, सो फल दायक होइ । लेखनकाल–१८ वीं शती।
प्रति-पत्र २ । पंक्ति ११-१२। अक्षर २५ से ३२ । साइज १०x४। पद्य २५+११ के बाद (आगे के पत्र न होने से ) ग्रन्थ अधूरा रह गया है । अतः अन्त का अंश अनूप संस्कृत लायब्रेरी के गुटके से लिखा गया है।
(अभय जैन ग्रन्थालय)
(२) रागमाला-पद्य ६१ । हीरचन्द । सं० १६९१ । मांडलिनगर ।
भादि
अकल अरुप अमेय गुन, सुंदर रै जसु दीन । परम पुरुष पय लागि के रागमाल यह कीन ॥५॥ ब्रह्मादिक हरिहर सबै अहि निसि सब जग आहि । कोटि कल्प युग धीहि(ति) गए, भेद न पायो ताहि ॥ २ ।। सुर नर मुनिवर गन असुर, नाद ध्यान सब छीन । आप आपनी बुद्धि तें, है कोई नहीं हीन ॥ ३ ॥
अन्त
असित देह रमणी कलभ, लिखित कुसुम पीय हास । मुगध धनासी लोचनह, मृगमद तिलक सुवास ।।५९।। सपत सोले एकानधैं मांडलि नयरि मझारि । राग रागिनी भेव कीय, गुणी जन लेहु विचार ॥६॥ सब जन कारन यह रची, रागमाल सुचि मेघ ।
हीरचन्द कवि सुचि कीय, नागरि जन के हेव ॥६॥ इति रागमाला समाता। लेखन काल-१८ वीं शती।