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सोरठा सब रस लता सुनाउं, मधि सिंगार अरु प्रेम रस । विरह अधिक फुनि ताम, सुनति अधिक सुख ऊपजै ॥ ७७ ॥
चौपाई
संघत सोलह सै श्रेयानु भाद्रमात सुकल पख जानु । पंचमि चौथ तिथें संलगना दिन रविवार परम रस मगना ॥७९॥
दोहा सिंध नदी के कंठ पइ मेवासी चो फेर । राना बली पराक्रमी कोऊ न सके घेर ॥ ७९ ॥
चौपाई पूरा कोट कटक फुनि पूरा, पर सिरदार गाठ का सूरा । मसलत मंत्र बहुत सु जाने, मिले खांन सुलताण पिछाने ॥८॥
दोहा
सइदा को सहिबाजखां यहरी सिर कलपत्र । जानत नाही जेहली, सब अचान को छत्र ॥८॥
चौपाई
रईयत बहुत रहत सुंराजी, मुसलमान सुखा सनि माजी। चोर जार देख्या न सुहावै, बहुत दिलासा लोक वसावै ॥४२॥
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दोहा
वसै अढोल जल्लालपुर, राजा थिरु सहिबाज । रईयत सकल वसै सुखी, जव लगि थिर न राज ॥८३॥
चौपाई यहाँ वसत जटमल लाहौरी, करनै कथा सुमति तसु दोरी । नाहर वंश न कुछ सो जाने, जो सरसति कहै सो आने ।।८४॥
सोरठा
धतुर पढो चित लाय, सभ रसलता कथा रसिक । सुनस परम सुख दाय, श्रोता सुन इह श्रवण दे ॥८५।।