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कहि गणपति हरिजस कथन, प्रगट पुण्य बल पाजकी।
हहै ता उमर सदी विधू , कृपा ब्रजराज की ॥ ३९ ॥ इति श्री सनिचरित लीलायां विक्रमादित्य अवन्तिका पुरी प्रवेश निज स्थान प्राप्ति राज्य प्राप्ति वर्णनम् पंचमो उल्लास संपूर्णम् ।
लेखन काल-१९ वीं शताब्दी। प्रति-(१) गुटकाकार । पत्र २६ । पंक्ति २१ । अक्षर १३ । साइज ६॥xau
चिपकने से कुछ पाठ नष्ट हो गया है । प्रति-(२) गुटकाकार । पत्र १७ । पंक्ति १६ । अक्षर २९ । साइज ७llx५|| विशेष-ग्रन्थ में ५ उल्लास हैं पद्य ४६-४४-१०७-४१-३९%२७७ हैं।
(अभय जैन ग्रन्थालय) ( २३ ) ज्ञान दीप । पद्य ८६० । कवि जान । सं० १६८६ वैशाख कृष्णा १२ । आदि
अथ ज्ञान दीप ग्रथ कवि जान कृत लिख्यते प्रथम जपवै नांव जगदीस, ज्यों प्रगटै बुधि विसथा बीस । कर्ता भेद न बरने नाहि, ना कछु आवतु है बुधि माहि ॥१॥ जो कछु है धरनी आकास, रचनहार सबको अविनास । मानस आपहिं ना परिचानत, करता की गति कैसे जानत ।। १॥
+ साहिजहां साहन मन प्रह, जगपर साहिब कीयो इलाह। जंदीप दीपनि में दीप, छहु मुगता रलवे पट सीप ॥ मानत है दूरी लों ऑन, जस प्रगट्यो जग साहि जहांन । साहिमहां सम भाज न कोह, पाछे भयो न भागें होह॥ जहांगीर छत्रपति है दाता, तो ऐसौ सुत दयौ विधाता । नाको दादौ साहि अकम्बर, कोन जु जासों करै तकबर ।। खुरासॉन कों पठवे माल, रोम सांम के देहि रसाल । मानत हैं सांतों हकलीम, कर जोरे करिहैं तसलीम ॥ रही चिरंजीव कहि जान, कोटि बरस लौं साहिजहांन । कक्ष मोहि वधि को परोन, साहिजहां नस करों बखान ॥ सुनहुं कॉन दे सब ससार, ज्ञान दीप कौ करों विचार । जामें ज्ञान होइ सो मानत, दीप ज्ञान याकों परि जानत ।। पढ़े याहि भावतु है ज्ञान, तात भाख्यों दीपग ज्ञान । यामें तो यान वह राम, सष काहू के आवै काम । सुनि सुनि जगत सपानों होइ, सीख्यौई जनमत ना कोइ ।
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