________________
[ १०७ ] (१५) पाटण गजल । पद्य १४५ । कर्त्ता देवहर्ष । सं० १८५९ फागुन । मादि
सरस वचन यो सरसती, पामी सु गुरु पसाय । विघन व्याधि भवभय हरण, विकल ज्ञान वर दाय ॥ १ ॥ परम बुध परगट कवि, अर्णव जिम गंभीर । मेरी बुध अति मद है, ज्यूं छीलर सरनीर ॥२॥ खरी धरा नव खंड में, सतर सहस्स गुजरात । संखलपुर राणीश्वरी, मोटी वेथ मात ॥ ३ ॥ धर नीली मंदिर धवल, अक्षय लाछि अलक्ष्य । सर्व लोक सुखिया बसै, खूबी कहै खलख्य ॥ ४ ॥ रथ पायक हय गय घणा, दिन दिन चढते दाव । गायक वाल गाजै गुहिर, राज करै हिन्दू राव ॥ ५ ॥
सखी मिल करत बयणं रसाल, ज घर केन हाय नीहाल संवत अठार उणसठ परस, फागण वाणी सु दिखी सरस ।। १४४ ।। गाइ गजल गुणमालाक, खोल्या सुजस का तालाक धरके भक्षर मन सुभ ध्यान, सुनता होष नित कल्याण ॥ १४५ ॥
कलश कवित्त छप्पय सुणता नित कल्याण, दरे दुख दालिद दूरे । प्रणमो सद्गुरु पाय, सदा मन वांच्छित परै ।। खरतर गच्च सिर ताज, श्री जिन हर्ष सूरि गुरू राजे । सेवै पवन छत्तीस, गच्छ सगलां सिर गाजै ।। पाटण जस कीधौ प्रगट, जिहाँ पंचासर त्रिभुवन धणी ।
कवि देवहर्ष मुखथी रटै, कुशल रग लीछा घणी ॥ १ ॥ लेखनकाल–१९ वीं शताब्दी। प्रति-पत्र ६ । पंक्ति १४ । अक्षर ४५ । साइज १०।४४
. (अभय जैन ग्रन्थालय ) (१६) पाली नगर वर्णन ( कवित्त ढालादि में) मादि
पाली नगर सुहामणों, देख्याँ आवै दोय । वर्णन ताको अब घदूं, सामण करत सहाय ।। १ ॥