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अंत
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सब गुन जन सुजानसिंघ, सब रायनि के राय । कविराज सु करि कृपा, बहुरि दयो सिरपाय ॥ ७८ ॥ जिन महाराज सुजांन फै, जोरों कुंवर सुजान | कलि में दाता कर्ण सो, सूरज तेज समांन ॥ ७९ ॥ जिनके नामै ग्रन्थ यहु, करयो दास कवि जान । राज कुंवर की रीझ को, अब कवि करै बखान ॥ ८० ॥
नयन २ खंड६ सागर७ अवनि १, ऊजल आश्विन मास दसम धौंस कवि दास कहि, पूरन भयो प्रकाश ॥
इति श्रीमन्महाराज कुंवार जोरावरसिह विरचितायां वैद्यक सारे । प्रथम पुरुप मर्दी
स्त्री कष्टी छूटे नाल परावर्त्ति
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उपाय
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वर्ननं नाम सप्तमो अध्याय: । ७ शुभं भवतु | कल्याण मस्तु ||
लेखन --- १९ वीं शताब्दी |
प्रति--पत्र ३९, पंक्ति १०, अक्षर ३२, साईज ९×५
( अनूप संस्कृत पुस्तकालय )
( १८ ) वैद्य विनोद ( सारंगधर भाषा ) । पद्य २५२५, । रामचन्द्र | सं०१७ शु० १५ । मरोट
२६ वै०
भादि
परधान ॥ ३ ॥
श्री सुखदायक सलहीये, ज्योति रूप जगदीस । सकत करी सोभइ सदा, श्री भगवत निशदीस ॥ १ ॥ हेमाचल ओषद करी, ज्यूं राजै भू मांह | युं उमापति राज है, प्रणम्यां आपद जांहि ॥ २ ॥ युगवर श्री जिनसिंहजी, खरतर गच्छ राजांन । शिष्य भए साके भले, पदमकीर्ति ताके विनय घणारसी, पदमरंग रामचन्द गुर देव कों, नीकै प्रणयें सारंगधर अति कठिन है, बाल न पावे ता कारण भाषा कहूँ, उपजै पहिली गुरु मुख सांभली, भाव ता पीछे भाषा करी, मेटन पंडित भाषा देखि के, करिस्यै मोकुं हासि । सारंगधर तो सुगम है, योंहि कयौं प्रकास ॥ ७ ॥
ज्ञान
भेद
परिज्ञान ।
सकल अज्ञांन ॥ ६ ॥
गुणराज ।
आज ॥ ४ ॥
भेद |
उमेद ॥ ५ ॥