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[ ११२ ] योग भष्ठ विध जाण. वाण अमृत सत पदियत । संग सकल मिल सदा, निज उच्छव करते नित ।। देश परदेश माहे दीपत, जीपत अष्ट कम्ह अरी । कीरत सत गच्छ पति तणो, कव जोद्धण सैह रह करी ।।१४ ।
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय ) (२५) मरोट गजल । यति दुर्गादास । सं० १७६५ पौष कृष्ण ५ । आदि--
सम्मत सतरै पैस, पोह यदि पांचम्म । मी गुर सरसती सानिधे गजल करी गुण रम्य ॥१॥ गुणीयल प्राहक हुसी, खलह हुसी कोई खोट । दुरस कही दुरगेस मुनि, किले कोट मरोट ॥२॥
जब जग भाग माही करी, तब लग कोट नींघ खरी । मौसा कोट बरणाव, चित में चूप धरता चाय ।। भाग्रह दीपचन्द उल्हास कहता नती यूँ दुर्गादास । सुण है दीजियो स्यावास गजल खूब कीनी रास ॥
(प्रतिलिपि-अभय जैन ग्रन्थालय) (२६) मेड़ता वर्णन गजल । पद्य ४८ । मनरूप । सं० १८६५ का सु० १५ । मादि
मरूधर देश अति मोटाक, नित नित फबै नव कोटाक। .
विनही देश की सुन ताम, निज ही कीर्ति नव खण्ट नाम ॥ अंत
सम्बत अठारह पैंसट* साच, वलि सुद मास कार्तिक वाच । पखही सुकल पुनम पेख, दाखी गजल कषि नन देख ॥४६॥ सब ही गच्छ में सिरताज, राजत भरल तप गच्छ राज । भकि ही विजय गुण भारीक, नाकुं खबर धर सारीक ॥४॥ तिनके शिश्य मनरूप ताह, वदी है गजल वाह जी चाह ।
वांचे सुनै नर वहरीत, पामै अचल मन बहु प्रीत ।।४८॥ अन्य प्रति में
संवत अठारह तयासी साच, धलि कार्तिक मास हो वाच । पख ही सकळ पूनम पेख, दाखी गजल कधिजन देख ॥४६॥