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प्रस्तावना भारतीय वाङ्मय बहुत ही विशाल एवं विविधतापूर्ण है । अध्यात्मप्रधान भारत में भौतिक विज्ञान ने भी जो आश्चर्यजनक उन्नति की थी उसकी गवाही उपलब्ध प्राचीन साहित्य भली प्रकार से दे रहा है । यहाँ के मनीषियो ने जीवनोपयोगी प्रत्येक विषय पर गंभीरता से विचार एवं अन्वेषण किया और वे भावी जनता के लिये उसका निचोड़ ग्रन्थो के रूप मे सुरक्षित कर गये । उस अमर वाङ्मय का गुणगान करके गौरवानुभूति करने मात्र का अब समय नहीं है। समय का तकाजा है-उसे भली भाँति अन्वेषण कर शीघ्र ही प्रकाश में लाया जाय । पर खेद के साथ लिखना पड़ता है कि हमारे गुणी पूर्वजों की अनुपम एवं अनमोल धरोहर के हम सच्चे अधिकारी नहीं बन सके । हमारे उस अमृतोपम वाङमय का अन्वेषण एवं अनुशीलन पाश्चात्य विद्वानो ने गत शताब्दी मे जितनी तत्परता एवं उत्साह के साथ किया हमने उसके एकाधिकारी-ठेकेदार कहलाने पर भी उसके शतांश में भी नहीं किया, इससे अधिक परिताप का विषय हो ही क्या सकता है ? जिन अनमोल ग्रन्थों को हमारे पूर्वज बड़ी श्राशा एवं उत्साह के साथ, हम उनके ज्ञानधन से लाभान्वित होते रहे-इसी पवित्र उद्देश्य से बड़े कठिन परिश्रम से रच एवं लिखकर हमें सौंप गये थे, हमने उन रत्नों को पहिचाना नहीं । वे नष्ट होते गये व होते जा रहे हैं तो भी उसकी भी सुधि तक नहीं ली ! किसी माई के लाल ने उसकी ओर नजर की तो वह उसे व्यर्थ का भार प्रतीत हुआ और कौड़ियों के मौल पराये हाथों सौंप दिया । सुधि नहीं लेने के कारण जल एवं उदेई ने उसका विनाश कर डाला । कई व्यक्तियो ने उन ग्रन्थो को फाडफाड़ कर पुड़ियां बांध कर लेखे लगा दिया । कहना होगा कि इनसे तो वे अच्छे रहे जिन्होंने अल्प मूल्य मे ही सही बेच डाला, जिससे अधिकारी व्यक्ति आज भी उनसे लाभ उठा रहे हैं। जिन्होंने पैसा देकर खरीदा है वे उसे संभालेंगे तो सही । हमें तो पूर्वजों के श्रम का मूल्य नही, पैसे का मूल्य है, अतः विना पैसे प्राप्त चीज को कदर भी कैसे करते ?
भारतीय साहित्य की विशेषता एवं उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए लाहोर निवासी पं० राधाकृष्ण के प्रस्ताव को सं० १८९८ मे स्वीकार कर भारत सरकार ने