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१७ वीं और १८ वी शताब्दी में हिन्दी के अनेक सुकवियों का प्रादुर्भाव हुश्रा जिनके ललित कान्यों ने इसकी सुख्याति सर्वत्र प्रचारित करदी। इधर राजसभाओं में इन कवियों द्वारा हिन्दी की प्रतिष्ठा बढ़ी उधर कबीर, सूर के पदों एवं तुलसीदासजी की रामायण ने जनसाधारण मे हिन्दी की धूम सी मचादी फलतः इसका साहित्य इतना समृद्ध, विशाल एवं विविधतापूर्ण पाया जाता है कि अन्य कोई भी भाषा इसकी तुलना में नही खड़ी हो सकती। हिन्दी साहित्य की शोध
___प्राचीन हिन्दी साहित्य की विशालता की ओर ध्यान देते हुए नागरीप्रचारिणी सभा ने सर्वप्रथम हिन्दी ग्रन्थो के विवरण संग्रह करने की उपयोगिता पर ध्यान दिया । सभा ने सन् १८९८ तक तो एशियाटिक सोसायटी एवं संयुक्त प्रदेश की सरकार का ध्यान इस ओर आकर्षित किया पर वह विशेष फलप्रद नही होने से १८९९ मे प्रान्तीय सरकार का ध्यान आकृष्ट किया । उसने ४००) रु० वार्पिक सहायता देना व रिपोर्ट अपने खर्च से प्रकाशित करना स्वीकार किया। यह सहायता बढ़त-बढ़ते दो हजार तक जा पहुंची । इस प्रकार सन् १९०० से लगाकर ४७ वर्ष होगये । निरन्तर खोज होते रहने पर भी हिन्दी भाषा का अभी आधा साहित्य भी हमारी जानकारी मे नही आया । अनेक स्थान तो अभी ऐसे रह गये है जहाँ अभीतक विलकुल अन्वेषण नहीं हो पाया । राजपूताने को ही लीजिये इसमे अनेक रियासतें है और बहुतसे राज्यो में कई राजा बड़े विद्याप्रेमी हो गये हैं । उनके आश्रय एवं प्रोत्साहन से बहुत बड़े हिन्दी साहित्य का निर्माण हुआ है पर उनमे से जोधपुर आदि के राज्य-पुस्तकालयों के कुछ ग्रन्थों को छोड़ प्रायः सभी ग्रन्थ अभीतक अन्वेषक की बाट जो रहे हैं । जहॉतक मुझे ज्ञात है इसकी ओर सर्वप्रथम लक्ष्य देने वाले अन्वेषक मुंशी देवीप्रसादजी हैं। आपने 'राज रसनामृत', 'कविरत्नमाला', महिलामृदुवाणी' आदि मे राजस्थान के हिन्दी १-खेद है कि सरकार ने कुछ रिपोर्ट प्रकाशित करने के पश्चात् कई वर्षों से प्रकाशन
बंद कर दिया है। प्रकाशित सब रिपोर्ट अब प्राप्त भी नहीं। अतः आजतक की खोज से प्राप्त हिन्दी ग्रंथा के विवरणो की संग्रहसूची प्रकाशित होनी अत्यावश्यक है। नागरी प्रचारिणी सभा के हस्तलिखित हिन्दी पुस्तकों का संक्षिप्त विवरण (१९४३ तक का ) प्रकाशन प्रारंभ किया था वह भी अधूरा ही पड़ा है। सभा को टसे शीध्र ही प्रकाश में लाना चाहिये ताकि भावी अन्वेषकों को कौन-कौनसे कवियों एवं ग्रंथों का पता आजतक लग चुका है जानने में सुगमता उपस्थित हो। 'हिन्दी पुस्तक साहित्य' ग्रन्थ से जिस प्रकार मुदित 'हिन्दी पुस्तको' की आवश्यक जानकारी प्राप्त होती है उसी ढंग से प्राचीन ग्रन्यों के सम्बन्ध में भी एक ग्रन्थ प्रकाशित होना चाहिये।