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[ १०१ ] फतै जु गरुर फजर, रिधु अमरसिह जू · राना उदयापुर जु अनूप, अजब कायम कमटाना वाडी तलाव गिर बाग वन, चक्रवर्ति ढलते चमर मन भंग जंग कीरत अमर, अमरसिंह जुग जुग अमर ॥ ७९ ॥ संवत सतरै सतावन, मिगसर मास धुर पख धन्न ।
कीन्ही गजल कौतुक काज, लायक सुणतसु मुख लाज) ८० ॥ लेखनकाल–१८ वी शताब्दी। प्रति-पत्र ३ । पंक्ति १६ । अक्षर ४७ । साईज ९॥४४॥।
(अभय जैन ग्रन्थालय) (५) कापरड़ा गजल- पद्य ३१ । यति गुलाबविजय । संवत १८७२ चैत्र कृष्णा ३।
आदि
सरस्वती पाय प्रणमुं सदा, रिद्धि सिद्धि नित देय । दुख विनाशन सुख करण, अविरल वाणी देय ॥ १ ॥ देश चिहु दिसि दीपतो, सदा सुरंगो देश । तिह कापरडों वर्णवु , भैरु वली विशेष ॥ २ ॥ गजल करुं गोरातणी, सुणता उपजै स्नेह । बालक बुद्धि वधारबा, भकल उपजै एह ।। ३ ।। ज्ञानी ध्यानी बहु गुणी, पाखड रहै न कोय ।। इण खंडे जन पुर अधिक, रग रली घर होय ॥४॥
अंत
संवत अठारह जाणुंक, बरस बहुंतर आणुक । चन्न मास है चगा, वद पख तीज दिन रंगा ।। २९ ॥ सपा गच्छ यति है गुलाब, किया इस गजल का जाय । जिसने कहिये कैसीक, भांखियो देखी ऐसीक ।। ३० ॥
निजरी
बावन वीर सधीर धार चामुंड माई, राज कली रस मंद भाटी घर सुभ सवाई । माम नृपति महाराज आज अधिक यश गाजै, कापरड़े कमवज खुशालसिंह नित राजै ॥
(प्रतिलिपि--अभय जैन ग्रन्थालय)