________________
अव हौ वरनों शब्द निधि, पार होन की आस । चित विलास ग्घुनाथ कवि, नाना उकति प्रकास ॥ ४ ॥
अंत
विविध नाम रत्नावली, सुनत हर दुख दंद । कृत रघुनाथ प्रदीपिका, विष्णुदत्त के नंद ॥ ३५५ ॥
इति रघुनाथ विरचिता रत्नादिप्रदीपिका नाममाला सम्पूर्णम् । प्रति-पत्र २३ । पंक्ति ९ से १२ । अक्षर २७ से ३२ ।
____ (श्री जिन चारित्रसूरि संग्रह) (९) भारती नाममाला । पद्य ५२६ । भीखजन सं० १६८५ आश्विन शुक्ला पूर्णिमा, शुक्रवार । फतेहपुर ।
आदि
प्रथम निरंजन बंदि हौ, जगवंदन सुखकंद । दिन छिन दोछिन छिन जपे, अनदिन होत अनंद ।। १ ।।
राज ताहि राजत अवनि, कयों अन्य पुन चाहि ।। ८ ।।
x
बागर सधि गुन आगरी, सुबस फतेहपुर गांव । चक्रवर्ति चहुवांन निरप, रान करत तिहां ठांव ।। १० ।। राज करत रस सो भयों, ज्यों जगतीपति इंद। अलिफखान नंदन नवल, दोलतिखान नरिंद ।। ११ ॥ दान क्रिपान सुजान पन, सकल कला संपूर । रवि विरंचि ऐसौ रच्यो, वचन रचन सति सूर ।।। १२ ।। ता नंदन बंदन जगत, गुन छंदनह निधान । कवि पंछी छाया रहे, तरवर ताहरखान ।। १३ ॥ अजा सिघ नित एकठां, धर्म गति आनंद । सकल लोक छाया रहे, घिनैराज हरिचंद ॥ १४ ।। तहां मुभग सोभा सरस, बसै बरन छत्तीस । तहां भीखजनु जानिके, इह मनि भई जत्तीस ॥ १५ ॥ नाममाल गुन सहसक्रिति, दुगम लखी जीय जांनि । इह टपजी जनु भीख जीय, रचि जु भापा आंनि ।। १६ ॥ मध्यो प्रन्य गुन सारदी, यानि लेउ नग सिंधु । पछुक और सुनि आन ते, रचौ जु दोहा बंध ।। १७ ।।