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THE FREE INDOLOGICAL
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-The TFIC Team.
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आत्मा ही अपने दुःखों और सुखों का कर्ता तथा भोक्ता है अच्छे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा अपना मित्र है और
बुरे मार्ग पर चलनेवाला आत्मा शत्रु है ।
-चीर वाणी
हनुमानमल बेंगानी
१२, इण्डिया एक्सचेंज प्लेस
कलकत्ता-१
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* मंगलाचरण *
ॐ णमो अरिहंताणं ॐ णमो सिद्धाणं ॐ णमो आयरियाणं ॐ णमो उवज्झायाणं
णमो लोए सव्व साहणं एसो पंच णमोकारो, सव्व पावप्पणासणो मंगलाणंच सव्वेसिं पढ़मं हव्वई मंगलम्
-ॐ नमो
COVER
Stele of black basalt carved with seated Risabhanath and Tirthankar's standing in Kayotsarga, Circa 10th century AD. Sat Deuliya Burdwan, West Bengal.
Courtesy .-Director of Archaeology, West Bengal
Block : Jain Bhawan, Calcutta
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शुभ कामनायें
राष्ट्रपति सचिवालय,
राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली-४
सत्यमेव जयते
पत्रावली सं०८-एम/७३
मार्च २६, १९७३
प्रिय महोदय,
राष्ट्रपति जी के नाम भेजे २२ मार्च, १९७३ के आपके पत्र से यह जानकर प्रसन्नता हुई कि भगवान महावीर जयन्ती समारोह समिति, कलकत्ता द्वारा महावीर जयन्ती १५ अप्रेल, १९७३ को मनायी जा रही है। जयन्ती समारोह की सफलता हेतु राष्ट्रपति जी अपनी शुभकामनायें भेजते हैं।
भवदीय, रे० के० राघवराव राष्ट्रपति का अपर निजी सचिव
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"GOVÉRNOR OF MYSORE
राज भवन
बेंगलोर
२२ मार्च १९७३ सत्यमेव जयते प्रिय श्री कमल कुमारजी,
आपका ता० १७ मार्च का पत्र मुझे प्राप्त हुआ। ता० १५ अप्रेल को मैसूर राज्य के दो स्थानों पर इस अवसर पर सम्मिलित होने को मै बहुत पहले स्वीकृति दे चुका है, अतः इस अवसर पर - मेरा वहाँ आ सकना सम्भव नहीं होगा, इसके लिये क्षमा चाहता हूँ। आप लोगो ने इस योग्य समझा
उसके लिये मै आपका वहत आभारी हूँ।
शेष कुशल ।
आपका मोहनलाल सुखाडिया
ASSISTANT SECRETARY TO THE GOVERNOR
WEST BENGAL Raj Bhavan,
Calcutta, The 23rd March, 1973
D.O. No. 1571-G
सत्यमेव लगते
Dear Sir,
Please refer to your letter dated the 22nd March, 1973, inviting the Governor to attend, as Guest-in-chief, the Bhagwan Mahavira Jayanti Celebrations to be held on the 15th April, 1973 at 7 pm. under the auspices of the Bhagwan Mahavira Jayanti Samaroha Samiti, Calcutta
I am desired to thank you for the kind invitation and to say that the Governor regrets very much his inability to accept the invitation to attend the function on that day due to other engagements.
- The Governor, however, sends his good wishes for the success of the Mahavira Jayanti Celebrations to be held by your Samiti.
Yours faithfully
A K. Banerjee Asstt. Secretary to the Governor,
West Bengal
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CHIEF MINISTER
सत्यमेव जर
Dear Shri Jain,
I have received your letter dated the 7th March, 1973 inviting me to be the Chief Guest of Bhagwan Mahavira Jayanti Celebrations, for which I thank you. I regret, it will not be possible for me to come to Calcutta due to prior
engagements.
With good wishes,
Bhopal No. 1831 C..M.S. Dated 3rd April 1973
प्रिय श्री कमलकुमार जैन,
आपका ता० १७ मार्च का पत्र मिला । धन्यवाद । के लिए मुझे आमन्त्रित किया इसके लिए बहुत आभारी हूँ । कलकत्ता न आ सकूँगा । क्षमा करे ।
Your sincerely, P. C. Sethi
जीवन कुटीर वर्धा
( महाराष्ट्र ) २६ मार्च, १६७३
आपने जेन कान्फ्रेन्स के उद्घाटन किन्तु मुझे दुःख है कि में अप्रैल में
विनम्र श्रीमन्नारायण
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प्रतिवेदन
भगवान् महावीर की २५७१ की जयन्ती के अवसर पर स्मारिका प्रकाशित करते हुये परम प्रसन्नता हो रही है । स्मारिका के लिये आये, प्रायः सभी लेख व कविताएँ प्रकाशित की गई है पर कुछ लेखो को स्थान की कमी तथा विलम्ब से आने के कारण प्रकाशित नही किया जा सका, जिसके लिये उन लेखक बन्धुओ से क्षमा चाहते है । लेख प्रायः यथावत् प्रकाशित किये गये हैं । कई लेखो को स्थानीय अंग्रेजी, हिन्दी, बंगला व उर्दू पत्रों में छापने के लिये भी भेजा गया है और आशा है, कई पत्रो मे लेख प्रकाशित होगे ।
प्रत्येक वर्ष की तरह गत वर्ष भी भगवान् महावीर की २५७० की जयन्ती बडी धूम-धाम से मनाई गई । सप्ताह व्यापी कार्यक्रम का आयोजन किया गया था । चैत्र शुक्ला त्रयोदशी वी सं० २४६७ तदनुसार ता० २७-३७२ को जो श्री जैन विद्यालय में श्री विजयसिंह नाहर ( भूतपूर्व पश्चिम बंगाल राज्य उप मुख्यमन्त्री ) की अध्यक्षता में एक आम सभा की गई। प्रधान अतिथि श्री रामकृष्णजी सरावगी, राज्य मन्त्री पश्चिम बंगाल ने कहा था कि भगवान् महावीर के सिद्धान्त आज भी उतने ही महत्वपूर्ण है जितने कि २५०० साल पहले और अगर उनके उपदेशो व सिद्धान्तो को अपना लिया जाय तो सारे समाज, राष्ट्र व विश्व का भला हो जाय ।
प्रधान वक्ता श्री सुमेरुचन्द दिवाकर "न्यायतीर्थ” ने कहा कि भगवान महावीर के अपरिग्रह व स्यादवाद के सिद्धान्त को अपनाया जावे तो विश्व मे शान्ति शीघ्र सम्भव है । डा० रामचन्द्र अधिकारी ने बताया कि भगवान महावीर एक वैज्ञानिक थे ।
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अध्यक्ष श्री विजयसिंह नाहर ने भगवान् महावीर को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुये कहा कि भगवान् महावीर की २५०० वी निर्वाण शताब्दी के उपलक्ष में जहाँ-जहाँ भगवान् का पदार्पण हुआ वहाँ रचनात्मक कार्य कर जनता को भगवान् के उपदेशो का स्मरण करवाना चाहिये ।.
भगवान महावीर का २५०० वाँ निर्वाणोत्सव
भगवान् महावीर के २५०० वॉ निर्वाण महोत्सव के सम्बन्ध में विचार-विमर्श हेतु श्री जैन सभा के तत्वावधान में कई बार सभा का आयोजन किया गया पर अभीतक कोई सक्रिय कार्यक्रम नही हुआ है। प्रयास जारी है। और शीघ्र ही प्रान्तीय स्तर पर एक कान्फ्रेंस बुलाने का प्रोग्राम है ।
राष्ट्रीय समिति के गठन को प्रायः एक वर्ष हो चुका है पर उसके द्वारा अभी तक कोई रचनात्मक कार्य । इस सन्दर्भ में पश्चिम बंगाल में राज्य स्तर पर समिति का गठन भी अभीतक नही हुआ है ।
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नही हुआ
भगवान् महावीर निर्वाणोत्सव के लिये कई सुझाव हैं जैसे यहाँ पर जैन कालेज, छात्रावास व अस्पताल बनाये जाँय । कलकत्ता व वर्दवान विश्वविद्यालय के जैन दर्शन की चेयर की स्थापना हो । मैदान में महावीर का एक म चिह्न हो । जैन कला मूर्तियो का चित्र, प्राचीन जैन चित्र, शिल्प, हस्तलिखित जैन ग्रन्थो की प्रदर्शनी
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की जाय। जेनेतर लोगो के लिये छोटी-छोटी पुस्तके सुलभ भाषा मे छपवाकर वितरित की जाय । भगवान् महावीर के जीवन पर चित्रो व लेखो का संकलन कर उसे प्रकाशित किया जाय। अगले वर्ष भगवान महावीर का २५०० वॉ निर्वाणोत्सव मनाना है, समय कम है। अतः समस्त जैन समाज को संगठित होकर इस कार्य को शीघ्र आरम्भ कर देना चाहिये।
सामूहिक क्षमपना सम्मेलन
रविवार ता० २४ दिसम्बर १६७२ को प्रातः कलकत्ते के मैदान (शहीद मिनार ) में श्री जैन सभा के तत्वावधान मे-श्री विजयसिह नाहर की अध्यक्षता में सामूहिक क्षमापना सम्मेलन का विराट आयोजन किया गया। इसमें दस हजार से अधिक व्यक्ति उपस्थित थे। विभिन्न जैन सम्प्रदाय के कई साधु-साध्वी भी इस सम्मेलन में उपस्थित थे। सम्मेलन के एक दृश्य का चित्र इस स्मारिका में प्रकाशित किया जा रहा है।
विविध
स्मारिका के लिये भेजने वाले लेखको व विज्ञापन दाताओ के हम आभारी है। श्री जैन भवन के सहयोग से स्मारिकामें पश्चिम बगाल, उडीसा व तामिलनाडु के प्राचीन चित्र प्रकाशित किये गये हैं। स्मारिका भगवान महावीर के सिद्धान्तो के प्रचार हेतु प्रकाशित की जा रही है और आशा है हमारा यह प्रयास सफल होगा । स्थानीय पत्रो के भी हम आभारी है जिसमें लेख छप रहे हैं तथा जो समय-समय पर इस सम्बन्ध में सूचना प्रसारित करते रहते हैं।
अन्त में समिति के पदाधिकारियो व सदस्यो का भी मै आभारी हूँ जिनके सहयोग से महावीर जयन्ती समारोह सम्बन्धित कार्य व स्मारिका का प्रकाशन, सम्भव हो सके हैं।
कमलकुमार जैन
संयोजक
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श्रीमहावीर जयन्ती
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Post
भगवान महावीर जयन्ती समारोह की आम सभा मंच पर बांये से दायें सर्वश्री रामकृष्ण सरावगी (उपमन्त्री पश्चिम बंगाल) डा० रामचन्द्र अधिकारी,
श्रीबिजय सिंह नाहर (भूतपूर्व उपमुख्य मन्त्री प० बंगाल) प्रो० श्री कल्याणमल लोढ़ा, श्री सुमेरुचन्द दिवाकर एवम् श्री रामचन्द्र सिंघी
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शहीद मिनार के मैदान में आयोजित सामूहिक क्षमापना सम्मेलन ( २४, सितम्बर १९७२) का एक दृश्य
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भगवान महावीर, विश्व चिन्तन और वैज्ञानिक सन्दर्भ
___-डा० गोकुलचन्द्र जैन
भगवान् महावीर और उनके चिन्तन का अध्ययन अब तक धार्मिक परिवेश में हुआ है। मेरी समझ से अध्ययन का यह एक पक्ष है। भगवान महावीर और उनके चिन्तन को पूरी तरह समझने के लिए उनका अध्ययन विश्व चिन्तन तथा वैज्ञानिक सन्दर्भो मे किया जाना आवश्यक है।
महावीर का जन्म ईसा पूर्व छठी शताब्दी मे हुआ था। यह युग सम्पूर्ण विश्व के लिए विचार-क्रान्ति का युग था। भारत में भगवान् महावीर, महात्मा बुद्ध तथा कुछ अन्य महापुरुषो ने ईश्वरवाद की अबूझ पहेली तथा धर्म मे केन्द्रित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन के विरुद्ध आवाज उठायी थी। चीन मे लाओत्से और कन्फ्यशियस ने विचार क्षेत्र मे क्रान्ति पैदा कर दी थी। ग्रीस में सुकरात, पाइथागोरस और प्लेटो ने क्रान्ति की आवाज बुलन्द कर रखी थी। ईरान या परसिया मे जरथुस्त्र चिन्तन को नयी दिशा दे रहे थे। अन्य देशो मे भी चिन्तन की धारा प्रकृति के अध्ययन से हटकर व्यक्ति और सामाजिक जीवन की समस्याओ को अध्ययन की ओर मुड गयी थी।
इन महापुरुषों के चिन्तन का अध्ययन विश्व-दर्शन की आधार-भूमि के रूप मे किया जाता है। वे विश्व के महान दार्शनिक माने जाते है। महावीर का अध्ययन अभी तक इस प्रकार के व्यापक सन्दर्भ मे नही हुआ। मेरी स्पष्ट मान्यता है कि महावीर ने जो चिन्तन दिया उसका सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन से गहरा सम्बन्ध है। यदि महावीर ने मात्र धर्म को ही नया रूप दिया होता, तो महावीर को जितनी बडी सफलता अपने जीवन मे अपने मिशन या तीर्थ को व्यापक रूप देने में मिली, वह कदापि सम्भव नही थी।
इससे भी महत्त्वपूर्ण है महावीर के वाद पच्चीस सौ वर्षों से चली आ रही उनकी जीवन्त परम्परा। यदि सामाजिक जीवन को महावीर का चिन्तन समग्र रूप से व्याप्त न करता, तो इतनी लम्बी अवधि तक उन का चलना सम्भव नहीं था। महावीर के समय मे बुद्ध के अतिरिक्त और भी पॉच महापुरुष भारत में क्रान्ति का वीडा उठाये हए थे। उनको भी गणनायक, संघनायक, तीथेङ्कर, बहुजनसेवी, यशस्वी आदि कहा गया है। किन्तु इनमे से किसी के भी चिन्तन की जीवन्त परम्परा आज मौजूद नहीं है । , अधिकांश तो अपने शास्ता के जीवनकाल मे ही मतप्राय हो गये थे। जो आगे चले, वे भी थोडे समय बाद समाप्त हो गये।
महात्मा बद्ध को अपने काल में जितनी सफलता मिली उससे भी अधिक व्यापक प्रसार वाद के युगो में ला। समाट अशोक ने बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए संसार व्यापी प्रयल किये। इस सबके बावजूद जिस देश में
और जहॉ पर उन्होने अपने मिशन की स्थापना की, वही पर वह नाम शेष हो गया। इसका वडा कारण सोयही प्रतीत होता है कि बुद्ध के चिन्तन ने सामाजिक जीवन को समग्र रूप से व्याप्त नही किया था।
इन बातो को ध्यान में रखकर महावीर के चिन्तन का अध्ययन करने के लिए कुछ आधार सूत्र इस प्रकार तोसते हैं
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Be not angry when smitten, nor fly into a rage when abused
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-वर्गविहीन समाज रचना
महावीर के युग में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, इन चार वर्गों में समाज बॅटा था। समाज रचना के ये नाधार विन्दु थे । जन्म के आधार पर ऊँच-नीच का वर्ग-भेद तीव्र था । महावीर ने कहा-वह समाज कैसा, जिसमें आदमी आदमी के निकट न आ सके । वह समाज रचना केसी, जिसमें जाति और कुल को ऊँच और नीच होने का आधार बनाया जाय ? मानव मात्र की जाति एक है-मानव जाति, पशुओ की तरह उसमें गौ और अश्व का भेद नही किया जा सकता। कार्य के आधार पर समाज व्यवस्था होनी चाहिए । वर्ग-विहीन समाज रचना। २-व्यक्ति की प्रतिष्ठा
___ व्यक्ति समाज की सबसे महत्त्वपूर्ण इकाई है। महावीर के युग मे ईश्वरवादी चिन्तन के कारण व्यक्ति का अस्तित्व समाप्त होता जा रहा था। ईश्वर की कृपा या अकृपा पर उसका जीवन निर्भर हो गया था। महावीर ने कहा-इस प्रकार के किसी ईश्वर को मानने की आवश्यकता नही, जो विषमतापूर्ण विश्व को बनाये और सफाई के लिए कहे कि यह तो अपने-अपने कर्मों के आधार पर बनाया गया है।
महावीर ने कहा-आत्मा स्वयं परमात्मा है । वह अपना ईश्वर स्वयं है। अपने ईश्वरत्व को पहचानो और परमात्मस्वरूप को पाने का प्रयत्न करो। अपने किये का फल स्वयं भोगना होगा। इसलिए सत्कर्म करो।
महावीर के इस चिन्तन ने व्यक्ति को जो आत्मबोध कराया, वह सामाजिक जीवन का मूल आधार बना। ३- यज्ञों का विरोध
महावीर के युग मे यज्ञ धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन के केन्द्र विन्दु थे। यज्ञ मूलक संस्कृति ने समाज के आर्थिक जीवन को पूर्ण रूप से अस्तव्यस्त कर दिया था। इसलिए महावीर ने कहा कि ऐसे यज्ञो से क्या लाभ जो समाज को उजाडें । जीवन के लिए उपयोगी सामग्री को अग्नि मे जलाने में धर्म नही हो सकता।
महावीर के इस यज्ञ विरोध से समाज के आर्थिक जीवन को बड़ा बल मिला। ४-विचार मूलक आचार
समाज व्यवस्था के लिए ही महावीर ने अनेकान्त का चिन्तन और अणुव्रत की आचार संहिता दी । उनका आचार-विचार मूलक था । वह सबके लिए समान था। उसमें वर्गभेद नही था। ५-राजनीतिक जीवन
महावीर ने कहा-जो अपना शासन नही कर सकता, वह दूसरो का प्रशासन क्या करेगा। युद्ध में हजारो योनाओ को जीतने की अपेक्षा अपने-आप को जीतना महत्त्वपूर्ण है। उन्होने कहा-जिस प्रकार फूलो को कष्ट पहुँचाये बिना भौरा फूलो से रस ले लेता है, उसी प्रकार अपना भागदेय ग्रहण करना चाहिए।
महावीर स्वयं राजपुत्र थे। उस युग के प्रसिद्ध और प्रभावक राज्य परिवारो से उनका घनिष्ट सम्बन्ध
बाज चेटक तथा श्रेणिक विम्बसार उनके निकट सम्बन्धी थे । इस सबके कारण भी राजनीतिक जीवन पर महावीर के चिन्तन का विशेष प्रभाव पडा ।
महावीर के चिन्तन का इन सन्दी मे अध्ययन करने पर महावीर एक बहुत बड़े समाजशास्त्री के रूप में
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हमारे सामने आते है उनका चिन्तन एक ऐसा समाज शास्त्रीय दर्शन प्रस्तुत करता है, जो देश और काला का सामाना । से परे हैं। मानव मात्र के लिए है। सारे विश्व के लिये है।
भगवान महावीर के चिन्तन का अध्ययन अब इस दृष्टिकोण से किया जाना चाहिए । विश्व के दार्शनिको के चिन्तन के साथ महावीर के चिन्तन का अध्ययन करके विश्व कल्याण के लिए महावीर के चिन्तन का अमृत प्रस्तुत करना चाहिए। दूसरी वात वैज्ञानिक सन्दभों की है। यह और अधिक महत्वपूर्ण है इस विषय मे दो वाते ध्यान में रखनी होगी। एक यह कि महावीर की पच्चीस सौ वर्षों में व्याप्त परम्परा के साहित्य मे जो वैज्ञानिक तथ्य उपलब्ध होते है, उनका अध्ययन किया जाये। दूसरे यह कि सेद्धान्तिक मान्यताओ का प्रायोगिक अध्ययन किया जाये। उदाहरण के लिए कुछ विषय ये हैं
१: लोक की रचना के विषय मे वातवलय का सिद्धान्त बहुत महत्वपूर्ण है। तीन वातवलय इस विश्व के आधार वताये गये है। अन्तरिक्ष की खोज से वातवलयों की मान्यता थोडी-थोडी समझ मे आ जाती है। इसका पूरा अध्ययन किया जाये तो आन्तरिक्ष यात्रा के नये आयाम खुल सकते हैं।
लोक के स्वरूप की जो मूलभूत मान्यता थी, संभवतया बाद के व्याख्या ग्रथो मे वह डूब गयी है। इस कारण हम उसके अध्ययन सूत्र नही पकड पा रहे है और हमें लगता है, जैसे ये मान्यताएं काल्पनिक रही हो। जव तक इनका सम्यक् परीक्षण न कर लिया, तब तक इनको झुठलाने की बात मेरी समझ में नही आती।
२: जीव के विकाश की प्रक्रिया का प्रायोगिक अध्ययन ससार की अनेक गुत्थियो को सुलझा सकता है। डार्विन ने विकासवाद का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। हमारे यहाँ निगोद से लेकर मोक्ष तक की विकास प्रक्रिया का विधिवत वर्णन किया है ।
इसका अध्ययन डार्विन के सिद्धान्त तथा अन्य नवीन खोजो के साथ तुलनात्मक दृष्टि से अपेक्षित है।
३ कर्मबन्ध की रासायनिक प्रक्रिया का अध्ययन एक महत्वपूर्ण विषय है। स्निग्ध और रूक्ष कर्म पुञ्ज पदगलो का वन्ध किस प्रकार होता है ? किन परमाणुओ का आस्रव होने के बाद भो बन्ध नहीं होता ? बंधे हए कर्म परमाणओ की निर्जरा किस प्रकार होती है, इत्यादि का अनुसन्धान होने पर कई नये तथ्य उद्घाटित होगे।
४: कर्म सिद्धान्त में जो गणितीय सामग्री है, उसमें आधुनिक गणित सिद्धान्त की सबसे जटिल 'सेट्थ्योरी' के समाधान की सामग्री उपलब्ध है। इसका अध्ययन प्रायोगिक रूप में आवश्यक है। इसी प्रकार के अन्य अनेक विषय है, जिनका अध्ययन प्रायोगिक स्तर पर होना चाहिए।
नो प्रकार से अर्थात समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण से तथा प्रायोगिक रूप में महावीर के चिन्तन का ' अध्ययन परम्परागत ढंग की पाठशालाओ, विद्यालयो या साहित्यिक अनुसन्धान के लिए स्थापित संस्थानो मे संभव नही है। मानविकी तथा विज्ञान के निष्णात और निष्ठावान अध्येता तथा सिद्धान्तो के सच्चे ज्ञाता जब सम्मिलित रूप से इस दिशा में प्रवृत होगे तभी इस प्रकार के अध्ययन सम्भव है।
क्तिदा
मैं इस बात को वर्षों से कहता आ रहा हूँ। आचार्य तुलसी जी ने जव जेन विश्व भारती की स्थापना की बात प्रारम्भ की थी तब उनके समक्ष भी मैने यह बात रखी थी। बम्बई में महावीर निर्वाण शताब्दी के लिए
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राष्ट्रीय समिति ने सिद्धान्त रूप में काउन्सिल बनाने की बात स्वीकार की है। यदि यह काउन्सिल अन्य काउन्मिलो की तरह केन्द्रीय अनुसन्धान संस्थान की स्थापना करती है और उसमें कार के अध्ययन अनुसन्धान की व्यवस्था होती है, तो एक बहुत बडे अभाव की पूर्ति हो जायेगी, किन्तु यदि यह काउन्सिल विश्वविद्यालयी में चेयर खुलवाने वाली अनुदान संस्था के रूप में ही काम करती है, तो इससे अधिक लाभ नहीं होगा।
जैन विद्याओ को एक व्यापक सन्दर्भ देने के लिए, इसे जैनिज्म की अपेक्षा जैनोलाजी शब्द बहुत सोचविचार के बाद दिया गया है। इसमें मानविकी तथा विज्ञान ( ह्यूमनिटीज एण्ड साइन्सेज) से सम्बन्धित सभी विषयो को अन्तर्भक्त माना गया है। जैनोलाजिकल रिसर्च सोसाइटी उपर्युक्त प्रकार के अध्ययन-अनुसन्धान की भूमिका तैयार कर रही है। कुछ विषयो पर कार्य आरम्भ भी हआ है, किन्तु जब तक ऐसे संस्थान की नही हो जाती, जिसमें उपर्युक्त प्रकार के अध्ययन और अनुसन्धान कार्य सम्भव हो, तब तक कार्यों को आगे बढ़ाने में अनेक प्रकार की कठिनाइयाँ है । हम इस वात के लिए पूर्ण प्रयत्नशील हैं कि इस प्रकार के संस्थान की स्थापना शीघ्र हो। नयी और पुरानी पीढ़ी तथा भगवान महावीर की सभी परम्पराओ के श्रद्धय साधुओ और श्रावको को इस दिशा में आगे बढ़कर बीडा उठाना चाहिए ।
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महावीर का धर्म - विश्व शान्ति का साधक
(डा० ज्योति प्रसाद जैन, लखनऊ )
यह एक तथ्य है कि आज विश्व अशान्त है, प्रत्येक व्यक्ति अशान्त है । अनेक प्रबुद्ध विचारक एवं राजनीतिक शान्ति स्थापना के लिये सतत प्रयत्नशील है, किन्तु शान्ति की सम्भावना उत्तरोतः दूर होती प्रतीत होती है । स्वर्गीय राष्ट्रपिता महात्मा गॉधी आधुनिक युगमें शान्तिके अग्रदूत थे । उनका समस्त जीवन शान्ति के लिये प्रयत्न करते ही बीता और उसीके लिये उनका बलिदान भी हुआ । उनके जीवन मे दो-दो विश्वयुद्ध हुये । उक्त युद्धो मे भी उनकी भूमिका एक शान्तिदूत की ही रही। कुछ विद्वानो का कहना है कि वह ईसाई धर्म से प्रभावित थे, कोई कहता है कि वह रूसी मनिषी टालस्टाय से अथवा अंग्रेज चिन्तक रस्किन के विचारो से प्रभावित थे । भगवद्गीता के भी वह परम भक्त थे । यो उनके प्रारम्भिक जीवन में जिस विचारधारा ने उन्हें अत्यधिक प्रभावित किया था वह जेन थी । जैन सन्त श्रीमद् राजचन्द्र भाई को गाँधीजी अपना गुरु मानते थे और उनके सम्पर्क से ही अध्यात्मिकता, अहिसा एव सत्य में बापू की आस्था दृढ़ हुई थी । धर्म की दृष्टि से सम्प्रदाय विशेष का ही नाम लिया जाय तो गाँधीजी परम वैष्णव हिन्दू थे, किन्तु सभी धर्मों के प्रति उनका समभाव था। सभी धर्मों को आदर की से देखते थे और स्थायी शान्ति के लिये इस सर्वधर्मसमभाव को वह आवश्यक भी समझते थे ।
इस प्रसङ्ग में यह कहना अत्युक्तिपूर्ण नही है कि जैनधर्म सर्वाधिक शान्तिपूर्ण धर्म परम्परा है। प्राचीन भारत में एक के बाद एक, चौबीस श्रमण तीर्थङ्कर हो गये हैं। इनमें एक दूसरे के मध्य पर्याप्त अन्तराल रहे है | आदिनाथ ऋषभदेव इस परम्परा के प्रथम तीर्थंकर थे और वर्तमान महावीर अन्तिम । इन्ही तीर्थङ्कर महावीर का निर्वाण ईसा के जन्म से ५२७ वर्ष पूर्व हुआ था । अगले वर्प, देश-विदेश मे उनका २५०० वॉ निर्वाण महोत्सव मनाया जा रहा है । इन श्रमण तीर्थङ्करो द्वारा पुरस्कृत, प्रतिपादित, स्वयं आचरित तथा जन-जन में पदातिक विहार करके प्रचारित धर्म ही जैन धर्म के नाम से प्रसिद्ध है । महावीर आदि निग्रन्थ धर्म का प्रचार - 'सर्व सत्वानां हिताय, सर्व सत्वानां सुखाय' किया था । समुदाय के लिये नही वरन् मनुष्य मात्र के —— प्राणीमात्र के हितसुख्य के लिये समभाव से किया था ।
तीर्थङ्करो ने इस अहिंसा प्रधान
किसी एक जाति, वर्ण, वर्ग या
इस धर्म के मूलाधार तीन कहे जा सकते हैं—-आत्मोपम्य, अनेकान्त और अहिंसा, और तीनो का ही लक्ष्य शान्ति प्रदान करना है, सर्वत्र शान्ति की स्थापना करना है— व्यक्ति को, परिवार को, समाज को, देश और राष्ट्र को सम्पूर्ण विश्व को शान्ति प्राप्त हो, कही भी किसी प्रकार की अशान्ति न रहे ।
आत्मोपम्य का सिद्धान्त बताता है कि संसार में जितने भी देहधारी प्राणी है, छोटे-से-छोटे जीव-जन्तु पशु-पक्षियो से लेकर मनुष्य पर्यन्त, सभी आत्म तत्व विशिष्ट है । आत्माओ की अपनी-अपनी स्वतन्त्र सत्ता है, और ये समस्त आत्माये अपने स्वभाव, क्षमताओ गुण धर्मों से समान हैं । दुःख-सुख की जैसी अनुभूति हमें होती है वैसी ही अन्य सब प्राणियो को होती है । प्राणी प्राणी में, व्यक्ति, व्यक्ति मे कोई भेद नहीं है, और न ही होना चाहिये ।
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अतएव 'सबो सव्व भूस्सु' सवको अपने समान समझो, उनके साथ वैसा ही वर्ताव करो जैसा कि तुम चाहते हो वे तुम्हारे साथ करे । उन सबमें समान रूप से देवत्व या परमात्मत्व निहित है । धर्माचरण द्वारा अपना कल्याण करने का सवको समान अधिकार है। आत्मोपम्य का यह सिद्धान्त विश्वमैत्री और विश्ववन्धुत्व का प्रतिपादक तथा सार्वभौमिक शान्ति का विधायक है।
अनेकान्त का सिद्धान्त, जो वस्तु तत्व विषयक वैज्ञानिक अनुभव पर आधारित है, व्यक्ति को उदार एवं सम्यक दृष्टि प्रदान करता है। प्रत्येक वस्तु में अनेक गुण धर्म होते है, उसके अनेक पहलू होते है। भिन्न-भिन्न व्यक्ति भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणो से उसका वर्णन करते हैं। सत्य की व्यक्ति या धर्म की बपौती नही है। सब की बात सहिष्णुता पूर्वक सुनो और जिस दृष्टिकोण से वह कही गई है उसे समझने का प्रयत्न करो। हमारे वडे-से-बड़े विरोधी की बात भी किसी न किसी एक दृष्टिकोण से सही हो सकती है। उदार समन्वय बुद्धि से उस बात को सुनने और उस पर विचार करने की आवश्यकता है। ऐसी दृष्टि प्राप्त होने पर कारागृह, हठधर्मी पक्षपात आदि के लिये गुन्जायश नही रहती। समस्त पारस्परिक विवाद एवं झगडे समाप्त करने का यह अमोघ उपाय है। अनेकान्त विचारधारा वाला व्यक्ति जो कथन करता है वह स्याद्वाद पद्धति से करता है.-"ही" के स्थान में "भी" का प्रयोग करता है, अपनी बात ही सम्पूर्ण सत्य है और अन्य सब का मत सर्वथा असत्य है, ऐसा एकान्त दावा वह नही करता। इस प्रकार की सहिष्णुतापूर्ण उदार समन्वय बुद्धि पारस्परिक शान्ति की विधायक है। इसका प्रयोग दार्शनिक और धार्मिक क्षेत्र में ही नही, सामाजिक, राजनैतिक, आदि लौकिक जीवन के भी प्रत्येक क्षेत्र मे सफलता पूर्वक किया जा सकता है और उसके द्वारा शान्ति का सम्पादन होगा ही।
अहिंसा को तो भ० महावीर आदि निग्रन्थ तीर्थकारो ने ‘परमोधम्म'-परमधर्म कहा, उसे साक्षात परमब्रहा की पदवी प्रदान कर दी (अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्मपरमम् ) धर्म का लक्षण ही अहिंसा और जीवरक्षा बताया। जैन तीर्थकारो ने कहा कि धर्म जो स्वयं में सर्वोत्कृष्ट मंगल है वह अहिंसा रूप ही है। जहाँ हिंसा है वहाँ धर्म नही-धर्म हिंसा रहित ही हो सकता है। उनका कहना था कि संसार मे जितने प्राणी है सभी को सुख साता प्रिय है, दुख को सभी अपने प्रतिकूल समझते हैं, बद्ध-बन्धनादि सभी को अप्रिय है, जीवन सभी की प्रिय है, सभी जीवित बने रहना चाहते हैं, अतएव किसी भी प्राणी की मन-वचन काय तथा कृत-कादित-अनुमोदन द्वारा किसी प्रकार भी हिंसा न करो, उसे मानसिक व शारीरिक कष्ट और पीडा न पहुँचाओ। इस प्रकार हिसा न करना ही अहिंसा है। जीवरक्षा, दया, करुणा, लोक सेवा, विश्वमंत्री आदि के रूपो में अहिंसक प्रवृत्ति चरितार्थ होती है, और परिणाम उसका शान्ति है। युद्धो से युद्धो का अन्त नही होता। हिंमा के द्वारा हिंसा समाप्त नही हो सकती। हिंसा और युद्धो की समाप्ति अहिसा द्वारा ही सम्भव है । अहिंसा की ही पर्याय सत्य, अस्तेय, शील एवं अपरिग्रह है। स्थूलस्प में भी इन व्रतो का पालन करने वाले, उन्हे अपने जीवन में उतारने वाला व्यक्ति अपनी और दूसरों की सुख शान्ति का विधायक होता है। संसार में जितने झगडे टंटे, कलह विवाद युद्धादि अशान्ति के कारण है उन सबकी जड ईर्ष्या-दुष, मद-मत्सर्य, बर-विरोध, धन सम्पत्ति की लोलुपता, पर प्रभुता या सत्ता की लोलुपता अथवा विषय लोलुपता आदि ही होते हैं। किन्तु अहिंसा-सत्य औचर्य-ब्रह्मचर्य-अपरिग्रह की जितने अंशों में भी व्यक्ति के, अतः समुदाय या समाज के जीवन में प्रतिष्ठा होती है, अशान्ति के उपरोक्त कारणो का निराकरण भी स्वतः होता जाता है।
नित्य प्रति कालिक मामायिक के समय एक जेन यह भावना करता है कि-'प्राणी मात्र से मेरी मैत्री है, सम्पूर्ण लोक मेरा मित्र है, मेरा किसी से देर नहीं है, सब प्राणियों में परम्पर अवेर हो, वेर कही नहीं। मैं फिमी के दुःख की चाह न करूँ, कोई भी किमी का दुग्य न चाहे, सभी प्राणी सुखी रहे।
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और अपने इष्ट देव की उपासना का समापन भी वह इस प्रार्थना से करता है कि हे भगवान जिनेन्द्र देव ? देश में, राष्ट्र में, नगर में, राज्य में, सर्वत्र शान्ति रहे, समस्त जनता का सुख क्षेम हो, शासक शक्तिशाली एवं न्यायानुकूल आचरण करने वाले ईमानदार जन सेवक हों, वर्षा उचित समय पर पर्याप्त हो, समस्त प्रकार की व्याधियों का नाश हो, दुर्भिक्ष, चोरी, डाका आदि विविध अपराध क्षणमात्र के लिए भी मनुण्यो के जीवन का स्पर्श न कर पावें।
अस्तु, उपरोक्त जैन दृष्टि को अपनाने तथा जैनाचार को जीवन का अंग बना लेने से विश्व में शान्ति अवश्यमेव स्थापित हो सकती है, और वह सच्ची शान्ति होगी।
ॐ शान्ति । शान्ति ।। शान्ति ।
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श्रमण भगवान महावीर जयन्ती के शुभ अवसर पर
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भगवान महावीर-उनका जीवन और सन्देश
लेखक-कैलाश जिन्दल, एम. ए. एल. एल. बी. आई. आर. एस. ऐडवोकेट
भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५०६ वर्ष पूर्व हुआ था। उसके पिता वैशाली गणतन्त्र राज्य की क्षत्रीय जाति के नाम बंश के प्रमुख थे। पटना से २७ मील उत्तर आज कल वेसढ़ गॉव है। वही पहले वैशाली गणराज्य था। वर्धमान स्वामी-जिन्हे सन्मति, वीर, और महावीर भी कहते है-३० वर्ष की अवस्था मे अपने कुटुम्बी जन से विदा लेकर, जंगल मे एकान्त-वास के लिये चले गये। वारह वर्ष ध्यान लगाने के उपरान्त उन्हें ससार के दुःखो का कारण पता लगा और उनसे मुक्ति पाने का द्वारा भी। बारह वर्ष की तपस्या और ध्यान से जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसका महावीर स्वामी ने तीस वर्ष तक प्रचार किया। और फिर बिहार में पावापुरी स्थान से निर्वाणगति को प्राप्त हुये।
__ केवली बर्द्धमान के मुख से जो वाणी मुखरित होती थी-उसका मुर्ख और पण्डित, पशु और पक्षी सभी अपनी अपनी भाषा मे समझ लेते थे। वाणी का सन्देश था कि आत्मा-अहम-अनादि और अनन्त है । ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। आत्मा के विना ज्ञान नही, और ज्ञान के विना आत्मा नही। संसारी जीव केवल आत्मा नही है। संसार में दो ही वस्तु है-जीव और अजीव । जीव का अजीव के विना अस्तित्व ही नहीं, किन्तु अजीव का जीव के विना अस्तित्व है। जड और चेतन के सम्मिश्रण को ही “जीवात्मा” कहते है। आत्मा स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ से
थोडे समय के लिये या अधिक समय के लिये, भारी तौर पर या हल्की तौर पर, निरन्तर बॅधी रहती है, घिरी ) रहती है, ये ही वन्धन समस्त सृष्टि की अभिव्यक्ति है-मानवी और अमानवी।
"कर्म शब्द से सभी परिचित है। भगवत् गीता में इसका विवरण है ।" जैसा बोवोगे, वैसा काटोगे प्रचलित जनश्रुति है । परन्तु जैन दर्शन मे "कर्म” शब्द का दूसरा ही विशेष अर्थ है । "कर्म" जैन धर्म के अनुसार सूक्ष्म परमाणु को कहते है, जो इन्द्रियो के परे है, वैज्ञानिक यन्त्रो को अप्राप्य है। यह परमाणु सारी सृष्टि मे प्रचुर मात्रा में फैले है। जीवात्मा की इच्छाओ और वासनाओ से प्रचोदित परमाणु ही "कर्म” का रूप धारण करता है।
जीव जड पदार्थ से सर्वदा और सर्वथा प्रभावित होता रहता है । लिखित शब्द, बनाई हुई तस्वीर, ढली हुई मति, इमारत और खण्डर, मेज, कुर्सी-सभी पदार्थों से भावो का उद्रेक होता है, भले ही वह उद्रेक हानिकर होयस्कर, शरीर और मन को शान्ति देनेवाला हो, या विचलित करने वाला। ये अदृष्ट अगोचर "कम" का महान प्रभाव है। आत्मा को को भिन्न रूप और स्वरूप में भिन्न तादाद और घनत्व में, भिन्न समय के लिये अपनी और आकष्ट करती है और अपने में मिला लेती है। मन-वचन-काय की हर क्रिया की प्रतिक्रिया “कर्म-बन्धन" है। कर्मों का आना अथवा कर्मों द्वारा आत्मा का बंध जाना "बंध" कमों का रूकना “संवर" कर्मों से
छटकारा “निर्जरा” इन चार अवस्थाओं का निरूपण और विवेचन जैन आचार्यों ने सहत ही सक्षमता से और । गणित के आधार पर किया है।
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शरीर धारी आत्मा मे वह शक्ति है कि वह कर्म-बन्धन से मुक्त हो सकती है और अपने स्वच्छ, निर्मल और केवल ज्ञान स्वरूप को प्राप्त हो सकती है। मुक्ति की गति को प्राप्त होने के लिये कई अवस्थाएं है। हर अवस्था भली प्रकार निर्धारित है। आत्मिक उन्नति मिथ्यात्व से सम्यग्दर्शन की ओर होती है, अज्ञान से ज्ञान की ओर, नियम-पालन से पूर्ण नियन्त्रण की ओर, वासनाओं और इच्छाओ के त्याग से मन-वचन-काय की स्पन्दन सहित शान्ति को ओर। यह प्रगति का मार्ग सबके लिये एक सा खुला है। मूल सिद्धान्त है "जीओ और जीने दो-और ऐसे जीओ की तुम्हारे जीने से औरो को कम से कम हानि हो।" इसी सिद्धान्त को मौटी तौर से अहिसावाद कहते है।
अहिसा का पूर्णतया पालन तो पहुँचे हुये साधु ही कर सकते है-वह साधु जिन्होने "अहम् का आत्मा का असली स्वरूप जान लिया है, जो अपने ध्यान में इतने मग्न है कि उनको काया को कोई कुछ भी करे या उसके विषय मे कुछ भी कहे, उन्हे कोई भी फरक नही पडता। उन्हे कोई भी असर नही होता। फिर भी अहिंसा का पालन सवही लोग यथाशक्ति कर सकते हैं। जितना अहिसा का पालन किया जायगा, उतनो ही मन को सुख और शान्ति मिलेगी।
यदि हम इतिहास के पन्ने उलटे तो हमे स्पष्ट ज्ञात हो जायगा कि मनुष्य हिसा से अहिंसा की ओर झुकता गया है। हमारे आदि पूर्वज नर-भक्षक थे। फिर समय जब मनुष्य ने मनुष्य को खाना छोड़ दिया और आखेट करके शशु-पक्षियो का मांस खाना शुरु कर दिया। फिर आगे चलकर मनुष्य ने आखेट के लिए पीछे जंगलो में भटकना छोड दिया , और एक जगह स्थिर होकर खेती करना शुरु कर दिया। धरती माता से अन्न उपजाने लगा। चरागाह और रमते गडेरिये का जीवन छोडकर, सॉस्कृतिक जीवन अपनाया। गॉव और शहर बसाये। कुटुम्ब की सीमाओ से निकलकर जाति और समाज की ओर देखने लगा। यह सब चिन्ह बढ़ती हुई अहिंसा और घटती हुई हिसा का द्योतक है। ऐसा न होता तो मनुष्य-जाति का कभी भी अन्त हो गया होता, जेसे कि बहुत से निम्न श्रेणी के जीवो का हो गया है।
सभी पीर-पैगाम्बरो ने अहिसा का मार्ग दिखलाया है। किसी ने भी हिंसा का प्रचार नही किया। और ऐसा हो भी कैसे सकता था। अहिसा मनुष्य-जाति का नियम है, जैसे हिसा पशु जाति का। आत्मा पशे में निद्रित अवस्था मे रहती है और पशु शारीरिक-शक्ति के अतिरिक्त और कोई शक्ति जानता नही । परन्तु मनुष्य की मानवता उसे दूसरी और पुकारती है और आत्मिक बल का संकेत देती है।
"योद्धाओं में जैसे वासुदेव श्रेष्ठ हैं, पुष्पों में जैसे अरविन्द श्रेष्ठ हैं, क्षत्रियों में जैसे दन्तवक्र श्रेष्ठ हैं उसी तरह वर्द्धमान ऋषियों मे श्रेष्ठ थे।
दानों में जैसे अभयदान श्रेष्ठ हैं, सत्य में जैसे निरवद्य वचन श्रेष्ठ हैं, तप में उत्तम ब्रह्मचर्य तप हैं, उसी तरह नायपुत्त लोगों में उत्तम श्रमण थे।
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भगवान महावीर की साधना पद्धति
-मुनि श्री महेन्द्र कुमारजी "प्रथम'
भगवान महावीर राजकुमार थे। उनके लिए सभी प्रकार के सुख-साधन प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थे। वे उनका अपने लिए उपयोग भी करते थे। तीस वर्ष की अवस्था तक वे भौतिक सुविधाओ मे रहे। सहसा उन्होने प्रव्रज्या का निर्णय लिया। सभी प्रकार की सुविधाओ को ठुकराकर वे कठोर चर्या के लिए निकल पडे। उनकी प्रतिज्ञा थी, मै व्युत्सृष्टकाय होकर रहूंगा अर्थात शरीर की किसी भी प्रकार से सार-सम्भाल नही करू'गा। इसमें वे पूर्णतः सफल रहे।
दुरुह साधना
महाबीर ने जिस साधना-पद्धति का अवलम्बन लिया था, वह अत्यन्त रोमांचक थी। वे अचेलक थे, तथापि शीत से त्रसित होकर वाहुओ को समेटते न थे, अपितु यथावत् हाथ फैलाये ही विहार करते थे। शिशिरऋतु में पवन और जोर से फुफकार मारता, कडकडाती सर्दी होती, तब इतर साधु उससे बचने के लिये किसी गर्म स्थान की खोज करते, वस्त्र लपेटते और तापस लकडियाँ जलाकर शीत दूर करने का प्रयत्न करते, परन्तु, महावीर खुले स्थान में नंगे वदन रहते और अपने बचाव की इच्छा भी नही करते। वही पर स्थिर होकर ध्यान करते ।
नंगे बदन होने के कारण सर्दी-गर्मी के ही नही, पर, दंश-मशक तथा अन्य कोमल-कठोर स्पर्श के अनेक कष्ट भी वे • झेलते थे।
महावीर अपने निवास के लिये भी निर्जन झोपडियो को चुनते, कभी धर्मशालाओ को, कभी प्रथा को, कभी हाट को, कभी लुहार की शाला को, कभी मालियो के घरो को, कभी शहर को, कभी श्मशान को, कभी सूने घरो को, कभी वृक्ष की छाया को तो कभी घास की गंजियो के समीपवर्ती स्थान को। इस स्थानो मे रहते हुए उन्हे नाना उपसगों से जूझना होता था। सर्प आदि विषेले जन्तु और गीध आदि पक्षी उन्हे काट खाते थे। उद्दण्ड मनुष्य उन्हे नाना यातनाएं देते थे, गॉव के रखवाले हथियारो से उन्हे पीटते थे और विषयातुर स्त्रियाँ उन्हे कामभोग के लिए सताती थी। मनुष्य और तिर्यचो के दारूण उपसगों और कर्कश-कठोर शब्दो के अनेक उपसर्ग उनके समक्ष आये दिन प्रस्तुत होते रहते थे। मारने-पीटने पर भी वे अपनी समाधि में लीन रहते।
आहार के नियम भी महावीर के बडे कठिन थे। नीरोग होते हुए भी वे मिताहारी थे। रसो मे उन्हें आमक्ति न थी और न वे कभी रसयुक्त पदार्थों की आकांक्षा ही रहते थे। भिक्षा मे रूखा-सूखा, ठण्डा, वासी, उडद सूखे भात, मथु, यवादि नीरस धान्य का जो भी आहार मिलता, उसे वे शान्त भाव से और सन्तोष-पूर्वक ग्रहण करते थे । एक बार निरन्तर आठ महीनो तक वे इन्ही चीजो पर रहे। पखवाडे, मास और छ:-छः मास तक जल नही पीते थे। उपवास मे भी विहार करते । ठण्डा-वासी आहार भी वे तीन-तीन, चार-चार, पाँच-पाँच दिन के अन्तर से करते थे।
शरीर के प्रति महावीर की निरीहता बडी रोमाचक थी। रोग उत्पन्न होने पर भी वे औषध-सेवन नही करते थे। विरेचन, वमन, तेल-मर्दन, स्नान और दन्तप्रक्षालन नही करते थे। आराम के लिये पैर नही दवाते थे।
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आँखो में किरकिरी गिर जाती, तो उसे भी वे नही निकालते । ऐसी परिस्थिति मे ऑख को भी वे नही खुजलाते। वे कभी नीद नही लेते थे। उन्हे जब कभी नीद अधिक सताती, वे शीत में मुहूर्तभर चक्रमण कर निद्रा दूर करते । वे प्रतिक्षण जागृत रह ध्यान व कायोत्सर्ग में ही लीन रहते ।
उत्कटक, गोदोहिका, वीरासन, प्रभृति अनेक आसनों द्वारा महावीर निर्विकार ध्यान करते थे। शीत में वे छाया में बैठकर ध्यान करते और ग्रीष्म में उत्क्टुक आदि कठोर आसनो के माध्यम से चिलचिलाती धप मे ध्यान करते। कोई उनकी स्तुति करता और कोई उन्हे दण्ड से तर्जित करता या बालो को खीचता या उन्हे नोचता, वे दोनो ही प्रवृत्तियो में समचित रहते थे। महावीर इस प्रकार निर्विकार, कषाय-रहित, मूर्छा-रहित, निर्मल ध्यान और आत्म-चिन्तन में ही अपना समय विताते ।
महावीर दीक्षित हुए, तब उनके शरीर पर नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यो का विलेपन किया हुआ था। चार मास से भी अधिक भ्रमर आदि जन्तु उनके शरीर पर मंडराते रहे, उनके मांस को नोचते रहे और रक्त को पीते रहे । महावीर ने तितिक्षाभाव की पराकाष्ठ कर दी। उन जन्तुओ को मारना तो दूर, उन्हे हटाने की भी वे इच्छा नही करते थे।
महावीर ने इस प्रकार की शारीरिक कृच्छ्र साधना पर इतना वल क्यो दिया तथा शरीर के स्वभावी पर वे विजय किस प्रकार हुए, जवकि सामान्यतः कोई भी व्यक्ति शरीर के धर्मों की अवगणना नही कर सकता? ये दो प्रश्न ही महावीर की साधना-पद्धति की विभिन्न भूमिकाओ पर प्रकाश डालते है।
कष्ट-साध्य साधना क्यों ?
सभी अध्यात्मवादियो का दृढ़ विश्वाम है कि आत्मा शरीर रूप कप्सूल मे आबद्ध है। चेतन पर जड का यह आवरण इतना सघन हो गया कि संस्कार विकार में बदल गये हैं और चेतन्य की क्रिया विकारो को सबल करने में प्रयक्त होने लगी है। साधना-चेतन्य और जड की इस दुरभिसंधि को समाप्त करने की क्रिया का आरम्भ करती है। उसकी पहली व्यूह-रचना शरीर के साथ होती है। शरीर के द्वारा आत्मा के होने वाले संचालन को रोकने के लिये उपक्रम आरम्भ होता है और सारा नियन्त्रण आत्मा के केन्द्र से उदभूत होने लगता है। ऐसी स्थिति में अनिवार्यतया अपेक्षा हो जाती है, कृच्छ्र साधना की। एक बार उससे छटपटाहट अवश्य होती है, क्योकि जन्म-जन्मान्तरो से लगा हुआ अनुबन्ध-टूटना प्रारम्भ होता है। किन्तु, ऐसा हुए विना जड-चेतन का पृथककरण नही भी हो सकता।
प्राण-वायु पर विजय
कुछ कप्ट-साध्य साधना से विचलित हो गये। उन्हे अपने मार्ग को भी बदलना पडा। महावीर अपने निर्धारित क्रम मे सफल होते गये। उन्हे मार्गान्तरण की आवश्यकता नहीं हुई। दोनो का एक ही उद्देश्य था। फिर इतना अन्तर क्यो हुआ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये कुछ यौगिक क्रियाओं की गहराई में उतरना आवश्यक होगा। माधक को सबसे पहले भूख-प्याम. सर्दी-गर्मी धादि शरीर की अनिवार्य आवश्यकताओं पर विजय पाना होता है। इन सबका सम्बन्ध है, प्राणवायु से | शरीर में पाँच प्रकार की वायु होती है। प्राण-वायु उसमें उत्कट है और उनका सम्बन्ध मन की सूक्ष्म क्रियात्री के साथ है। यही वायु स्नायुयो की प्राण-शक्ति को प्रत्येक कार्य में उदबुद्ध, प्रेरित तथा क्रियाशील करती है। किन्तु, एक प्रक्रिया ऐनी होती है, जिनके द्वारा क्रियाशीलताको में बदला जा सकता है। जब वह इस प्रकार परिवर्तित हो जाती है, शारीरिक अपक्षात्री की पूर्ति न होने पर भी
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व्यथा की अनुभूति नही होती। फिर देह होता है, किन्तु, देहाध्यास नही होता । महावीर ने इसी प्रक्रिया का आरम्भ किया था और वे इसके द्वारा शरीर - विजय मे पूर्णतः सफल हुए । शरीर उनके अधीन रहा, वे शरीर के अधीन नही रहे ।
एक प्रवाह चलता है । उसे यदि बदला नही जाता है, तो जो होता आया है, वही भविष्य मे चलता रहेगा । उसे बदलने के लिये जितना श्रम अपेक्षित होता है, उससे अधिक मार्गान्तरण के चयन में सजगता अपेक्षित होती है । महावीर जब प्रव्रजित हुए, चालू प्रवाह को बदलने की उस प्रक्रिया को ही उन्होने अपना लक्ष्य बनाया और उसमें वे सफल भी हुए । यही कारण है कि उग्र तपश्चरण में भी वे कभी म्लान नही हुए ।
शरीर-विज्ञान के अनुसार भी जब-जब रक्त की गति में वेग और गतिमंदता आती है, तब-तब सम्बन्धित अन्य अवयव प्रभावित होते हैं और किसी विकार का आरम्भ हो जाता है । यह विकार रोग के रूप में भी व्यक्त होता है और इन्द्रियज उद्व ेग, आवेश, अहं आदि के रूप मे भी प्रकट होता है । प्राण वायु का जागरण तथा अन्य चार प्रकार की वायुओ की श्लथता रक्त की सम स्थिति को उजागर करती है । यही से सम्बन्धित नाना अनुभूतियो गौण हो जाती है और स्व-केन्द्रिता जागरूक । महावीर इस क्रिया मे आरम्भ से ही निष्णात थे, इसीलिए कष्ट साध्य साधना में उन्हे कष्टो की अनुभूति नही होती थी । जनता को भी इसका ही प्रशिक्षण देते थे । मानसिक उगो के इस वर्तमान युग में प्राणवायु पर विजय पाने की इस प्रक्रिया की अत्यन्त आवश्यक है ।
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चैत्र
भगवान महावीर, प्रेरणा के खण्ड स्रोत दर्शनाचार्य साध्वी श्री चंदनाजी
शुक्ल त्रयोदशीका मंगलमय दिन !
भगवान महावीर का जन्मदिन ।
अतः उत्सव का दिन !
दिन का अर्थ है अंधकार का मिट जाना और प्रकाश का आना । केवल बाहर ही अंधकार नही है और न बाहर ही प्रकाश है । मनुष्य के जीवन में भी अंधकार और प्रकाश है। आज से ढाई हजार वर्ष पूर्व विहार की पुण्यभूमि में भगवान महावीर का जन्म हुआ था । और कहना चाहिए विषमता विवाद और वैर के अधकार को मिटाकर समानता संवाद और क्षमा के तेज पुंज भगवान महावीर का जन्म हुआ और उन्होने उस अमृत प्रकाश को जन-जीवन में विकीर्ण किया था ।
प्रतिवर्ष इसी मंगलमयी भावना के साथ हम जन्म दिन मनाते हैं । इस घटना को ढाई हजार वर्ष व्यतीत हो चुके है और यह दिन समानता, मैत्री का प्रतीक बनकर जिसने हमें व्यक्तिगत और सामूहिक विकास की आज भी प्रेरणा देता है ।
किसी भी महापुरुष का जन्म जयन्ति मनाने का अर्थ है सद्वृत्तियो का विकाश ! हमें आज के दिन जन्मोत्सव के मूल मे निहित इस भावना को अक्षुण्ण रखने का संकल्प करना है। इस संकल्प पर ही उत्सव की सार्थकता सिद्ध होगी । यह दिन भारतीय जन मानस के लिए प्रेरणापूर्ण और प्रकाश पूर्ण बने । ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर ने जिस महान संदेश को प्रवाहित किया था आज उसकी अत्यन्त आवश्यकता है वर्गभेद, वर्णभेद, जातिभेद, प्रांतभेद और भाषाभेद सत्ता की दौड़, अमीरो की आवश्यकताएं, गरीवो के अभाव, दलित, पीडित और शोषित वर्ग के प्रति उपेक्षा, नए और पुराने विचारो के संघर्ष, इन प्रश्नो ने जीवन की जडे हिला दी है । ऐसे विकट समय में मैत्री करुणा और सहयोग की भावना से ही प्रश्नो का हल ढूंढा जा सकता है। भगवान महावीर ने यही कहा था—प्रश्न और नही है । समस्या कोई नहीं है । बाहर के भेद तो मिटने से रहे और अगर बाहर से समानता को प्रतिष्ठित भी किया गया और मनुष्य की भावनात्मक समानता की उपेक्षा की तो उस आरोपित समानता से मनुष्य का जीवन निष्कंटक नहीं हो सकता । आज भी हम देख रहे हैं समानता के हजार-हजार प्रयास के वाद विषमता उतनी ही अधिक है । और उस विसमता से निष्पन्न विषम समस्याएं भी उतनी ही है ।
आज के इस महान मंगलमय दिन पर पुनः हम गंभीरता से भगवान महावीर के उपदेश पर विचार कर हमें अपनी समाज रचना के लिए कुछ महत्वपूर्ण संकेत एवं संकल्प लेने की आवश्यकता है I
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निजी स्वाथों से ऊपर उठकर मनुष्य जाति के व्यापक हितो की सुरक्षा के लिए प्रयास करने का मार्ग खोजे । आज सामान्य जनता नही जानती है कि उसे किधर जाना है महावीर संदेश से उदात्त मार्ग-दर्शन ले, तो हमें प्रकाश, प्रेरणा और प्रगति प्राप्त हो सकती है ।
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भावना
रचयिता-हीराचन्द बोहरा बी. ए एल एल वी विशारद बजवज
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कर्तव्य पथ पर हम चलें,
सबकी यही हो कामना । हँसकर सहें सब आपदा
___जीवन की यह हो साधना । न बुरा किसी का करे कभी, मन में रहे यह भावना । सुख से जिएँ जग मे सभी, प्रभु से यही इक प्रार्थना ।।
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जग मे दुखी इन्सान की सेवा करें यह चाहना विश्वास हो प्रभु में सदा
है बस यही इक अर्चना ॥ चाहे प्राण जाएँ या रहे, अन्याय से बचते रहे संघर्प के हर कदम पर, बढ़ते रहें हँसते रहे।।
आपस की रंजिश दूर हो, सब प्रेम से मिल कर रहें, सुख शान्ति का वातारण
इस विश्व मे हरदम रहे ॥ पापो से हम बचते रहें, बस इक यही है चाहना बन जाऊँ प्रभु मैं आपसा, मेरी यही इक भावना ।।
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समष्टि भगवान महावीर भो० पृथ्वीराज जैन, एम० ए०, शास्त्री अम्बाला शहर
भारतीय धर्म एवं दर्शन के मर्मज्ञ अव इस विषय में प्रायः एकमत है कि इस पवित्र भूमि पर अतीव प्राचीन काल से दो सास्कृतिक धाराएं प्रवाहित रही है वैदिक अथवा ब्राह्मण, श्रमण दोनो मे कौन सी पूर्ववर्ती है, यह अभी विवाद का विषय है। तदपि इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि दोनो समकालीन अवश्य रही है। उपलब्ध साहित्य मे ऋगवेद प्राचीनतम माना जाता है। उसके अध्ययन से यह स्पष्ट है कि उस समय वेद-विरोधिनी विचार धारा की भी प्रबलता थी। उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व वर्तमान ज्ञात धाराओ मे जैन धर्म सबसे अधिक करता है । बौद्ध-धर्म का उदय पर्याप्त समय वाद हुआ और साख्य दर्शन, वैदिक दर्शन मे ही समाविष्ट हो गया। ऐसे भी विद्वान है जो युक्ति और प्रमाण के आधार पर जेन विचार धारा को भारत की मौलिक विचार धारा मानते है। वेदानुयायी आर्य बाहिर से आए, यह निश्चित प्रायः तथ्य है।
बैदिक व श्रमण परम्परा :
वैदिक और श्रमण परम्परा में जो मूल भेद है, उसे एक शब्द में समया या समत्व से प्रतिपादित किया जा सकता है। श्रमण धर्म का आचार-विचार समता की आधार शिला पर स्थिर है जब कि वैदिक आचारविचार के मूल में वैषम्य अथवा विषमता के दर्शन होते हैं। यत्र-तत्र श्रमण परम्परा मे असमानता की झलक दृष्टिगोचर होगी और वैदिक परम्परा में समता पोषक उल्लेख उपलब्ध होगे, परन्तु वे अपवाद रूप अथवा आयतीत हैं । वैदिक जीवन वर्णाश्रम धर्म पर आधारित है जो मानव-मानव में उच्च-नीच की दिवारें खड़ी करता है। श्रमण जीवन अथवा जैन तीर्थंकरों की संघ-व्यवस्था, समानता समानाधिकार मानव क्या प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव पर अवलम्बित है। इस लेख मे जेनो के इस युग के चरम तीर्थकर भगवान महावीर द्वारा भिन्नभिन्न क्षेत्रो मे प्रतिपादित समता परकिचित् प्रकाश डालने का प्रयास किया जाएगा।
श्रमण शब्द का अर्थ ही इस बात का द्योतक है कि यह विचार-धारा विश्व मे समता की सन्देशवाहक है। श्रमण को प्राकृत मे 'समन' कहते है। इससे तीन अर्थों की ध्वनि परिस्फुटित होती है-सम, शम, श्रम। सम का अर्थ समानता किंवा समभाव का है । 'मिन्ती मे सव्व भूएसु,-समस्त प्राणियो से मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी से भी वेर भाव नही, यह भावना इसी सम का सुमधुर फल है। शम का अर्थ शमन, शान्ति उपशम है। आत्मा मे उपसम भाव का उदय तभी सम्भव है जब हम हरेक प्राणी को आत्मोपम्य दृष्टि से देखें। उपशम तभी होगा जब राग दूष का नाश होगा। राग द्वष उस अवस्था में होते है जब हम प्राणियो को समान दृष्टि से नही देखते. किसी में ममता भाव रखते है और किसी से वेर-विरोध पनपने देते है। भगवान महावीर कहते है-'उवसमसार सामण्णं' अर्थात् श्रमण धर्म का सार उपशम या शान्ति भाव है । अतः शम का ध्येय भी सम का पोषण है। श्रम का भावार्थ पुरुषार्थ और तप आदि से है। अनादि काल से सांसारिक आत्मा कर्ममल से अवलिप्त होने के कारण मोह एवं तदजनित विषमता से लिप्त है। उस अवलेप को दूर करने का साधन श्रम किवा तप है जो कर्मों के आवरण को दर कर हमे समता-आराधना की ओर अग्रसर करता हुआ शुद्ध परमात्म-स्वरूप की अनुभूति कराएगा। इस प्रकार
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श्रम समभाव का मानो पर्यायवाची शब्द है । भगवान महावीर जब गौतम को यह कहते है कि जो प्राप्त का समविभाजन का नही करता, उसकी मुक्ति नही होती, तब यह सुस्पष्ट हो जाता है कि वे कितने महान समतावादी थे और किस प्रकार साम्य को आध्यात्मिक एवं सामाजिक जीवन का मूलाधार समझते थे। आचारांग मे स्पष्ट है कि जो तीर्थकर भूतकाल में हो गये, इस समय या भविष्य मे होगे वे सभी उपदेश देते हैं कि किसी प्राणी का न तो वध करना चाहिये ओर न उमे किसी प्रकार पीड़ित करना चाहिए। भ० महावीर की समता किसी विशेष समुदाय, समाज, देववर्ग, मानव वृन्द या दानव समूहतक ही सीमित न थी, वह छोटे से छोटे प्राणी के प्रति भी समान रूप से व्यवहृत थी । हम उनकी समदृष्टि का अनेक क्षेत्रो में स्पष्ट रूपेण अवलोकन कर सकते है ।
सर्व प्रथम हम आध्यात्मिक क्षेत्र को ले । सिंह चिह्नवाले वर्धमान महावीर की सिंह गर्जना थी कि प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है । कहाँ तो वैदिक परम्परा की उस युग मे यह मान्यता कि 'स्त्री शूदौनाधीताम्' नारीव शूद्रो को पढ़ाया ही न जाय, और कहाँ महावीर का उद्घोष कि साधना द्वारा हरेक मोक्ष या मुक्ति का अधिकारी है । मोक्ष के द्वार लिङ्ग, ओर जाति के बिना प्रत्येक साधक के लिए खुले है । वे मानते थे कि कोई भो आत्मा शत प्रतिशत दुष्ट नही, आध्यात्मिक विकास के अंकुर सब मे विद्यमान है । उन्हे परिस्फुटित करने के लिए आलोक और ज्ञान रूपी वर्षा की आवश्यकता है । प्रत्येक वाल्मीकि कभी बलिया डाकू था और प्रत्येक बलिया महर्षि बाल्मीकि बन सकता है । कषायमुक्तिः किलमुक्तिखे - मुक्ति किसी विशेष धर्म या मान्यता अथवा आचार नही, आन्तरिक कषाय रूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने में है । नवकार मंत्र मे इसीलिए किसी व्यक्ति विशेष को चयन न कर गुणधारी पच परमेष्टी को नमस्कार किया जाता है। आचार्य हेमचन्द्र कहते है कि भवचक्र के बीजांकुर राग-द्वेष जिसके नष्ट हो गए हो वह ब्रह्म हो, शिव हो, जिन हो, उसे मेरा नमस्कार । आचार्य हरिभद्र का कथन है— महावीर के प्रति मेरा पक्षपात नही, कपिलादि दार्शनिको से द्व ेष नही, जिसका कथन युक्तियुक्त हो उसे माना जाय ।
सामाजिक क्षेत्र पर दृष्टिपात करे । महावीर ने उच्च स्वरेण घोषणा की कि मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय, कर्म से वैश्य और कर्म से शुद्र होता है, जन्म से कदापि नही । वाह्य वेश भूषा और जन्मजात उच्चनीच भाव पर कुठारघात करते हुए उन्होने कहा –— ओम का जाप करने से कोई ब्राह्मण नही होता, सिर मुंडा लेने से कोई साधु नही वन जाता, केवल कुशावस्त्र किसी को तपस्वी नही बनाते और नही अरण्य निवासी किसी को मुनि के सिहासन पर बिठा देता है । ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण, समता से साधु, तपश्चर्या से तपस्वी और ज्ञान से मुनि होता है । संगठन कर गृहस्थ सन्यास दोनो जातियो व सम्प्रदायो के लिए था । आन्तरिक पवित्रता विहीन बाह्य स्नान ही मुक्ति का दाता हो तो
उन्होने साधु-साध्वी, श्रावक, श्राविका रूपी चार स्तम्भों पर आश्रित संघ का जीवन में नारी को समानाधिकार प्रदान किया। उनका धर्म सभी वर्णों, वे मानते थे कि दुराचारी साधु को उसका मुनिवेश रक्षित नही कर सकता । क्रियाचार की व्यर्थता वे सुरीत्या समझते थे । वे कहा करते थे कि यदि बाहरी जलचर जीव सर्व प्रथम मुक्त हो जाते ।
अन्य प्राणियों के प्रति हमारा दृष्टिकोण कैसा हो ? आचारांग में आदेश है कि दूसरों को उसी दृष्टि से देखो जिससे निज आत्मा को देखते हो। महावीर की मान्यता थी कि दूसरे प्राणी केवल जीए, यही पर्याप्त नही, प्रद्युत हमें यह प्रयास करना है कि वे सुखपूर्वक जी सके । उनका आदेश था कि यदि हम शरीर से किसी का हित करने मे असमर्थ हो तो अन्तरात्मा में भावना-चतुष्टय का ही आराधना करे। वे चार भावनाएँ है- सभी प्राणियो से मैत्री भाव, गुणीजनो के लिए प्रमोद- हर्प का भाव, दुःखियो के प्रति करुणा भाव, विरोधियो के प्रति माध्यस्थ अथवा तटस्थ भाव । निस्सन्देह ये सभी विचार महावीर को सम-दृष्टि सिद्ध करते है ।
इससे भी एक पग आगे जाकर भगवान् महावीर अन्य धर्मों के प्रति भी समता पर आधारित उदार दृष्टि
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कोण अपनाने का आग्रह करते है । स्याद्वाद समदृष्टि से प्रत्येक मान्यता में सत्यांश की, गुणात्मकता को खोज करता है। वह यह कहता है कि जो मेरा, वह सच्चा यह ढिढ़ोरा मत पीटो। यह कहो कि जो सच्चा वह मेरा। कितनी विशाल हृदयता, सहिष्णुता और गुणग्राहकता है इस स्याद्वाद सिद्धान्त मे । महावीर के उपदेश मे कही भी ऐसी लक्ष्मण रेखा नही, जिसका उलघन किसी के लिए वर्जित हो। उन्होने मानव-जीवन की श्रेष्ठता, पवित्रता, परमात्मरूपकता पर बल दिया।
अन्त मे श्रमण शब्द की कुछ व्याख्याएँ इस मान्यता को संपुष्ट करती है कि भगवान महावीर पूर्णतः समदृष्टि थे। "श्रामण ममता, अहंकार से रहित, आसक्ति विहीन होता है। वह सब मे समान भाव रखता है। लाभालाभ, सुख दुःख, जीवनमरण, निन्दा प्रशंसा, मानापमान मे समभाव ही रहता है ।" "जो किसी से दुष नही करता, सब से प्रेम करता है, वही सच्चा श्रमण है।" "श्रमण न इस लोक की कामना करता है न परलोक की। सर्प हो या चन्दन, आहार हो या अनाहार, वह समभाव ही रहता है।"
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क्षमा और अहिंसा की सर्वग्राह्यता
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शान्ति और सुख ऐसे जीवन-मूल्य है जिसकी चाह मानवमात्र को रहती है। अशान्ति और दुःख । किसी को भी इष्ट नही, ऐसा सभी का अनुमान है अस्पताल के उस रोगी से पूछिये, जो किसी पीड़ा से कराह रहा है और डाक्टर से शीघ्र स्वस्थ होने के लिये कातर होकर याचना करता है । वह रोगी यही उत्तर देगा कि हम पीड़ा की उपशान्ति और चेन चाहते है। उस गरीब और दीन-हीन आदमी से प्रश्न करिये, जो अभावो से , पीडित है । वह भी यही जवाब देगा कि हमें ये अभाव न सताये और हम सुख से जियें। उस अमीर और साधन सम्पन्न व्यक्ति को भी टटोलिये जो वाह्य साधनो से भरपूर होते हुए भी रात-दिन चिन्तित है। वह भी शान्ति ।'
और सुख की इच्छा व्यक्त करेगा। युद्ध भूमियो मे लड रहे उस योद्धा से भी सवाल करिये जो देश की रक्षा के । लिये प्राणोत्सर्ग करने के लिये उद्यत है। उसका भी उत्तर यही मिलेगा कि वह अन्तरग में शान्ति और सुख का इच्छुक है। इस तरह विभिन्न स्थितियो में फंसे व्यक्ति-व्यक्ति की आन्तरिक चाह शान्ति और सुख की प्राप्ति की मिलेगी। मनुष्य संवेदनशील है । यह संवेदनशीलता हर मनुष्य में चाहे वह किसी भी देश, किसी भी जाति और किसी भी वर्ग का हो, पायी जायेगी। इसका संवेदन होने पर उसे शान्ति और सुख मिलता है तथा अनिष्ट का संवेदन उसके अशान्ति और दुःख की परिचायक है।
इस सर्वेक्षण से हम इस परिमाण पर पहुंचते है कि मनुष्य के जीवन का मूल्य शान्ति और सुख है। यह बात उस समय और अधिक अनुभव मे आ जाती है जब हम किसी युद्ध से विरत होते है या किसी भारी परेशानी से मुक्त होते हैं । दर्शन और सिद्धान्त ऐसे अनुभवो के आधार से ही निर्मित होते और शाश्वत बन जाते है।
जब मन में क्रोध की उदभूति होती है तो उसके भयंकर परिणाम दृष्टि गोचर होते है। अमेरिका ने जब । जापान पर युद्ध में उसके दो नगरो को वमो से ध्वस कर दिया तो विश्व ने उसकी भत्र्सना की। फलतः सब ओर से शान्ति की चाह की गयी । क्रोध के विपेले कीटाणु केवल आस-पास के वातावरण और क्षेत्र को ही ध्वस्त नही करते । खुद का भी नाश कर देते है। हिटलर और मुसोलनी के क्रोध ने उन्हें विश्व के चित्र पर से सदा के लिये अस्त कर दिया। दर न जाये, पाकिस्तान ने जो क्रोधोन्माद का प्रदर्शन किया उसने पूर्वी हिस्से को उससे हमेशा के लिये अलग कर दिया। व्यक्ति का क्रोध कभी-कभी भारी से भारी हानि पहुंचा देता है। इसके उदाहरण देने की जरूरत नहीं है यह सर्वविदित है।।
क्षमा एक ऐसा ही अस वल है जो क्रोध के वार को निरर्थक ही नहीं करता, क्रोधी को नमित करा देता है । क्षमा से क्षमावान की रक्षा होती है. उससे उनकी भी रक्षा होती है, जिनपर वह की जाती है। क्षमा कर है जो आस-पास के वातावरण को महका देती है और धीरे-धीरे हरके हृदय में वह बेठ जाती है। क्षमा भीतर से उपजती है, अतः उसमें भय का लेशमात्र भी नही रहता । वह वीरो का वल है, कायरो का नही, कायर तो क्षण-क्षण में भयभीत और अविजित होता रहता है । पर क्षमावान निर्भय और विजयी होता है। वह ऐसी विजय प्राप्त करता है जो शत्रु को भी उसका बना देती है। क्षमावान को क्रोध आता नही, उससे वह कोसो दूर रहता है।
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वास्तव में क्षमा-क्षमता सहन शीलता मनुष्य का एक ऐसा गुण है जो दो नही, तीन नही, हजारो, लाखो और करोडों मनुष्यी को जोडता है उन्हे एक-दूसरे के निकट लाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ जेसी विश्व संस्था, इसी केबल पर खडी हो सकी है और जब तक उसमे यह गुण रहेगा तब तक वह वना रहेगा।
तीर्थकर महावीर में यह गुण अतीव था। फलतः उनके निकट जाति और प्रकृति विरोधी प्राणी-सर्पनेवला, सिंह-गाय जैसे भी आपसी बैर भाव को भूलकर आश्रय लेते थे। मनुष्यों का तो कहना ही क्या १ उनकी दृष्टि में मनुष्य मात्र एक थे। हॉ, गुणो के विकास की अपेक्षा उनका दर्जा ऊँचा होता जाता था। और अपना स्थानग्रहण करता जाता था। जिनकी दृष्टि पूत हो जाती थी वे सम्यकृष्टि, जिनका दृष्टि के साथ ज्ञान पवित्र (असदाभवमुक्त) हो जाता था वे सम्यकज्ञानी और जिसका दृष्टि और ज्ञान के साथ आचरण भी पावन हो जाता था वे सम्यक चारित्री कहे जाते थे और वैसा ही उन्हे मान सम्मान मिलता था।
क्षमा यथार्थ में अहिंसा की ही एक प्रकाशपूर्ण किरण है, जिससे अन्तरतम सुआलोकिस हो जाताहै। अहिसक प्रथमतः आत्मा ओर मन को वलिष्ठ बनाने के लिये इस क्षमा को भीतर से विकसित करता, गाढ़ा वनाता और उन्नत करता है । क्षमा के उन्नत होनेपर उसकी रक्षा के लिये हृदय मे कोमलता सरलता और निर्लोभवृति की बाकी (रक्षकावलि) रोपता है । अहिसा को ही सर्वा गपूर्ण बनाने के लिये सत्य, अचौर्य, शील और अपरिग्रह की निर्मल एवं उदान्त वृतियो का भी वह अहर्निश आचरण करता है।
अहिंसा का वास्तिवक स्वरूप
सामान्यतया अहिसा उसे कहा जाता है जो किसी प्राणी को न मारा जाय । परन्तु वह अहिंसा की बहुत स्थूल परिभाषा है । तीर्थकर महावीर ने अहिसा उसे बतलाया जिससे किसी प्राणी को मारने का न मन में विचार आये, न वाणी से कुछ कहा जाय और न हाथ आदि की क्रियाए की जाये । तात्पर्य यह कि हिंसा के विचार, हिंसा के वचन और हिंसा के प्रयत्न न करना अहिसा है। यही कारण है कि एक व्यक्ति हिसा का विचार न रखता हुआ ऐसे वचन वोल देता है या उसकी क्रिया हो जाती है जिससे किसी जीव की हिसा सम्भव है तो उसे हिंसक नहीं माना गया है। प्रमत्तयोग कषाय से होनेवाला प्राण व्ययरोपण ही हिंसा है। हिंसा और अहिमा वस्तुतः व्यक्ति के भावो पर निर्भर है। व्यक्ति के भाव हिसा के है तो वह हिसक है और यदि उसके भाव हिंसा के नही है तो वह अहिसक है। इस विषय में हमे वह मछुआ और कृषक उदाहरण है मछुआ जो जलाशय में जाल फेलाये वेठा है और प्रतिक्षण मछली ग्रहण का भाव रखता है, पर मछली पकड मे नही आती तथा कृपक जो खेत जोतकर अन्न उपजाता है
और किसी जीव के घात का भाव नही रखता, पर अनेक जीव खेत जोतने से मरते हैं। वास्तव में मछुआ के क्षणक्षण के परिणाम हिंसा के होने से वह हिसक कहा जाता है और कृषक के भाव हिमा के न होकर अन्न उपजाने के होने से वह अहिंसक माना जाता है। महावीर ने हिसा-अहिमा को भाव प्रधान बतलाकर उनकी सामान्य परिभाषा से कुछ ऊँचे उठकर उक्त सुक्ष्म परिभाषाएं ऐमी है जो हमे पाप और वंचना से वचाती है तथा तथ्य को स्पर्श करती है।
अहिसक दृष्टिकोण व आवश्यक हिंसा
अहिंसक खेती कर सकता है, व्यापार धन्धे कर सकता है और जीवन रक्षा तथा देश रक्षा के लिये शस्त्र भी उठा सकता है क्योकि उसका भाव आत्मरक्षा का है, आक्रमण का नहीं। यदि वह बाक्रमण होनेपर उसे सह लेता है तो उसकी वह अहिसा नही है, कायरता है। कायरता से वह आक्रमण महता है और कायरता में भय था
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हो जाता है तथा भय हिंसा का ही एक भेद है । वह परघात न करते हुये भी स्वघात करता है। अतः महावीर ने अहिसा की वारीकी की न केवल स्वय समझा और आचरित किया, अपितु उसे उस रूप में ही आचरण करने का उन्होंने उपदेश दिया।
- यदि आज का मनुण्य मनुष्य से प्रेम करना चाहता है और मानवता की रक्षा चाहता है तो उसे महावीर की इस सूक्ष्म क्षमा और अहिंसा को अपनाना ही पडेगा। वह सम्भव नही कि बाहर से हम मनुष्य प्रेम की दुहाई दें ओर भीतर से कटार चलाते रहे । मनुष्य प्रेम के लिये अन्तस और वाहर दोनो में एक होना चाहिये। कदाचित हम वाहर प्रेम का प्रदर्शन न करें तो न करें, किन्तु अन्तस में तो वह अवश्य हो। तभी विश्वमानवता जी सकती है और उसके जीनेपर अन्य प्राणीयो पर भी करुणा के भाव विकसित हो सकते हैं।
क्षमा और अहिंसा ऐसे उच्च सद्भावपूर्ण आचरण है जिनके होते ही समाज में, देश में, विश्व में और जन-जन मे प्रेम और करुणा के अंकुर उगकर फूल-फूल सकते हैं तथा सभी सुखी बन सकते हैं।
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पधारो भगवान महावीर विश्व का करने को कल्याण ( रचयिता-अनूपचन्द जैन, न्यायतीर्थ जयपुर)
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तुम्हारा अभिनन्दन हे वीर ! अहिंसा साक्षात् अवतार तुम्हारा शत शत वंदन नाथ
सत्य की सुखद मूर्ति साकार ।। तुम्हारा विश्व शाति के दूत नाम से होता है सम्मान ।। पधारो ।।
जन्म ले कुण्डलपुर में देव! बने सिद्धारथ राजकुमार कहाये महावीर अति वीर
मिटा कर विषधर की फुकार ॥ अल्प वय में ही सन्मति आप हो गये थे प्रकाण्ड विद्वान |पधारो।
जगत परिवर्तन शील विचार! चले वन छोड़ राजसी ठाठ तोड़कर जन परिजन से मोह
पढ़ाने सत्य अहिंसा - पाठ ।। दिखाने सीधा सच्चा मार्ग करे जो स्व पर का कल्याण |पधारो॥
स्वयं हो आत्म साधना लीन ! किया उस दिव्य ज्योति को प्राप्त मिला सुख दर्शन ज्ञान अनन्त हो गये आप्त पूर्ण पर्याप्त ।।
रहा कुछ नहीं जाना शेष दिया तय यह संदिश महान पधारो।
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नहीं है प्राणि मात्र में भेद । सभी है जग के जीव समान नहीं है धनिक दीन में भेद
राव औ रंक समझ अज्ञान ॥ दलित दुखियो से करना प्यार, पापसे घृणा करो नादान पधारो।।
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समन्वय सीखो आग्रह छोड । वचन में स्याद्वाद सिद्धान्त कथन में अनेकान्त का योग
मिलाओ सभी द्वंद हो शान्त ॥ सभी धर्मों का ये ही सार अहिसा मय आचार प्रधान पधारो।
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बुरे हैं जाति पाति के रोग । साम्प्रदायिकता की यह होड़ बुरे है रूढ़ि अन्ध विश्वास
बढ़ो अब आगे इनको छोड़। त्याग छल, छद्म और पाखण्ड, बढ़ाओ आज राष्ट्र की शान ॥१०॥
परिग्रह आवश्यक से अधिक | कभी ना रखो अपने पास बाट दो सबको युग के अनुसार
यही है सच्चा आत्म-विकास ॥ विपय में अनाशक्ति ही योग, धार कर कर लो अभ्युत्थान |पधारो।।
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R
A
A.COMKALA
परस्पर वैर भाव को छोड़ । विषमता की दो खायी पाट प्रेम बंधन में बंधो 'अनूप'
दिखा दो अपना रूप विराट । विश्व वन्धुत्व भावना जगे यही हो पावन लक्ष्य महान पधारो।
पधारो महावीर भगवान . विश्व का करने को कल्याण !!
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त्यागवीर भगवान महावीर
-श्री अगरचन्द नाहटा
जैन धर्म के अनुसार काल अनन्त है, उत्थान एवं पतन व रूप परिवर्तन का चक्र निरन्तर चलता रहता है, परिवर्तन को प्रधानता देते हुए काल चक्र को दो भागो मे बॉट दिया गया है, उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी इनमे से प्रथम मे क्रमशः विकास होता है और दूसरे मे ह्रास, वर्तमान काल को अवसर्पिणी काल कहा जाता है, इसके प्रारम्भ मे मानव जीवन भोग प्रधान था। यद्यपि उस समय भोगोपभोग के साधन बहुत ही सीमित थे पर उस काल के मानव त्याग व धर्म को अपना नही सके थे, इसलिए उसे भोग भूमि का काल कहा जाता है, इसके पश्चात् यद्यपि भोगोपभोग के साधन पूर्वापेक्षा बहुत अधिक अविष्कृत प्रादुर्भत हुए पर साथ ही उनके त्याग ने वाले महापुरुष भी अनेक हुए।
प्रारम्भिक तीनो आरो मे मनुष्य का जीवन एक प्राकृतिक ढॉचे मे ढला हुआ-सा था। जन्म के समय मे एक बालक और बालिका साथ ही उत्पन्न होते थे अतः उन्हे युगलिक कहा जाता है वे प्राकृतिक प्रकृति की छाया मे वडे होते और स्त्री-पुरुष का व्यवहार ( संगम-काम भोग) करते उनके खान-पान वस्त्रादि की आवश्यकताएँ पूर्ण हो जाती, इसलिए उन्हे अन्य काम या श्रम करके उत्पादन करने की आवश्यकता नही रहती, जेन मान्यता के अनुसार आज भी इस विश्व में कई क्षेत्र ऐसे है जिन्हे युगलिको की भोग भूमि की संज्ञा प्राप्त है।
त्याग मार्ग के प्रथम पुरस्कर्ता : तीसरे आरे के अन्त मे भ० ऋषभदेव उत्पन्न हुए। उन्होने युग की आवश्यकता के अनुसार विवाहादि के सम्बन्धो मे परिवर्तन किया । राजनीति, विद्या, कलाका प्रवर्तन किया । कृषि, असि, मसिका व्यवहार होने के कारण तव से यह क्षेत्र 'कम-भूमि' कहलाने लगा। प्राकृतिक साधनो वृक्षो के फल की कमी और आवश्यकताओ की वृद्धि द्वारा जो लोक-जीवन में असंगति एवं असुविधा उत्पन्न हो गई थी, उसका समाधान भगवान ऋषभदेव ने किया, अतः वे सर्वप्रथम 'राजा' व लोक-नेता कहलाये। गृहस्थी भोगी जीवन के अनन्तर उन्होने त्यागमय जीवन को अपनाया और सर्वप्रथम त्याग का आदर्श उपस्थित कर जनता को उसकी ओर आकर्षित किया। त्याग धर्म के प्रति आस्था रखने वाले श्रावक-श्राविका, साधु-साध्वी इन चतुर्विध तीर्थ-संघ के स्थापक होने से वे प्रथम तीर्थ कर कहलाये। उनकी भव्य एवम् उदात् परम्परा मे अन्य २२ तीर्थ करो के हो जाने के बाद २४वें तीर्थकर भ० महावीर हए। उनके पश्चात अन्य कोई तीथें कर इस अवसर्पिणीकाल मे इस भरत क्षेत्र मे नही होने के कारण वे चरम तीर्थङ्कर कहलाते है।
भगवान महावीर का मूल याने जन्म नाम वद्ध मान था, पर उनकी अद्भुत धीरता की ख्याति उतनी अधिक बढ़ी की वर्तमान नाम केवल शास्त्रो मे ही सीमित रह गया, प्रसिद्धि 'महावीर' नाम को ही मिली भार तीय संस्कृति मे वीर शब्द केवल रणवीर के लिये ही प्रयुक्त नहीं होता, अपितु दान एवं त्यागादि धर्मों में प्रकर्षता करने वाले भी दानवीर से सम्बोधित किये जाते है । महावीर का तप भी महान था, अतः उन्हें तपवीर भी कहा जा सकता है। दीक्षा के पूर्व १ वर्ष तक निरन्तर दान देते रहने से 'दानवीर' तो थे ही, पर दान एवं तप दोनो का
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समावेष त्याग में ही किया जा सकता है । अतः मैने प्रस्तुत लेख के शीर्षक मे उनके आगे त्यागवीर विशेषण रखा है । अब भगवान महावीर की आदर्श त्याग - वीरता पर संक्षिप्त विवरण उपस्थित किया जा रहा है ।
यह शरीर भोगो के द्वारा उत्पन्न होता है और उन्ही से बढ़ता है अतः जीवन मे पौद्गलिक भागो का भी महत्वपूर्ण स्थान है । एक तरह से आहार, मैथुन आदि की जीवो की प्राकृतिक आवश्यकताएँ भी कहा सकता है, क्योंकि इनके बिना जीवन चल नही सकता, टिक नहीं पाता पर बन्धन का कारण होने से भोग, मोक्ष मार्ग का विरोधी है। यह संसार इन भोगो की आसक्ति पर ही आश्रित या आधारित है। इसलिये महापुरुषो ने भोग-रूपी कीचड़ से ऊपर उठकर त्याग को प्रधानता दी । जीवन धारण के लिये खान-पान का उपयोग जितने परिमाण में अनिवार्य है, उसको अनासक्ति पूर्वक ग्रहण करते हुए भोगोपभोगो को घटाते जाना और त्याग की ओर वढते
ही आध्यानिक जागृति है विषय भोगो का आदर पौद्गलिक आसक्ति है। जहाँ तक हमारा देहाध्यास आत्मा । । गौण रहेगी । भोगो को वन्धन का कारण एवं त्याग की मुक्ति का मार्ग बतलाया है।
वैदिक संस्कृति मूलतः यश प्रधान थी पर भ्रमण संस्कृति के प्रभाव से उसमे भी सन्यास या त्याग मार्ग को सर्वोच्च स्थान देना पडा यद्यपि उसमे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रम के बाद त्याग को धारण किया जा सकने का विधान है। जैन संस्कृति मे त्याग निवृति प्रधान है जो व्यक्ति सन्यास धारण नही कर सकते, वे गृहस्थ धर्म अणुव्रत का पालन करे, यह विधान होने पर भी महत्व त्याग को ही दिया गया है । अत्रती, गृहस्थ ही साधारण कोटि है। अणुवती ही गृहस्थ जीवन का वैशिष्ठय है। व्रत ग्रहण से ही त्याग मार्ग आरम्भ होता है, वैसे वस्तुओं की अप्राप्ति में या अनिच्छा पूर्वक भी त्याग होता है । वैसे वस्तुओ की अप्राप्ति में या या अनिच्छापूर्वक भी त्याग होता है। पर वह व्रत नहीं है। मत को आंशिक रूप में धारण करने वाले देश विरति श्रमणोपासक या आपक कहलाते है और व्रतो को पूर्ण रूप से धारण करने वाले 'महावती' होते है । इनका आशिक त्याग ही देश विरति या अणुव्रत है।
भगवान महावीर ने गृहस्थावस्था में भी त्याग को अपना लिया था। निश्चयानुसार अपने माता-पिता के स्वर्गवास के अनन्तर उन्होने जब सन्यास ग्रहण की भावना व्यक्त की तो उनके बडे भाई नन्दी वर्धन ने उन्हे रोका । वे उनके अनुरोध से दो वर्ष ओर घर मे रहे पर अनासक्त साधु की तरह, पिछले एक वर्ष तो उन्होने प्रतिदिन दान दिया जिससे साम्वत्सरिक दान कहा जाता है, दो वर्ष पूरे होते ही तीस वर्ष की पूर्ण यौवनावस्था मे भगवान महावीर ने अणगार धर्म का स्वीकार किया और निग्रन्थ बने । कुटुम्ब, परिवार, वस्त्राभूषण, धन, जन, भूमि आदि समस्त वाह्य पदार्थों एवं देहासक्ति आदि अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग को स्वीकार किया। उनके श्रमण होने का सर्वप्रथम प्रतिज्ञा वाक्य यह है " करेमि सामाइयं, सव्वं सावज्ज पच्चक्खामि” अर्थात् उन्होने सम भाव का स्वीकार स्वयं सर्व सावध पाप कर्मों का त्याग करने की प्रतिशा ली। पाँच इन्द्रियों के विषय भोग सावध पाप कार्य होने से एवं धन, परिवार शरीर की ममता सावध पाप होने से महावीर नि कोटि का था । श्रमण होने के बाद उन्होने कभी भी अपने मुड़कर नहीं देखा अर्थात उनकी कभी इच्छा तक नहीं की तनिक भी मोह नही रक्खा, परिग्रह का त्याग इतना उच्चकोटि का किया कि शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक वस्त्रादि का भी सर्वथा परित्याग करके वे पूर्ण दिगम्बर वन गये इतना ही नही, उन्होने अन्न पान आदि आहार को त्याग कर उग्र तप को अपनाया । साधनावस्था के १२ ॥ वर्षो मे पूरे वर्ष भर ( ३६० दिन भी ) उन्होंने आहार ग्रहण नहीं किया, शीत ताप आदि प्राकृतिक शारीरिक कष्टों की सहन किया साथ ही देव मनुष्य, तिर्वच के दिये हुये कठोर एवं मरणान्तिक कष्टो को भी समभाव से सहा यह उनके देहा-शक्ति परित्याग की सर्वोच्च स्थिति थी। इस प्रकार उन्होने मोह ममत्व का सर्वथा त्याग कर महान त्यागी या त्यागवीर का आदर्श उपस्थित किया । वास्तव
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बने । उनका परित्याग बहुत ही विलक्षण एवं उच्च परिवार की सुधि नहीं ली, राजभोगो की ओर कभी जन्मभूमि एवं भाई पुत्री आदि स्वजन परिजनो का
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"मैगुणी को उत्कर्प अवगुणो के त्याग के विना सम्भव नही। इसी लिये धर्म के दो रूप माने गये हैं-विधि और निषेध अमुक काम करना चाहिये, इस विधान के साथ उससे विरोधी अमुक काम नही करना चाहिये ऐसा निषेध रूप धर्म (शिक्षा ) का सम्बन्ध जुडा हुआ है । अर्थात् विधि के साथ निषेध का घनिष्ठ सम्बन्ध जुडा हुआ है । जैन +धर्म में तो निपेध का विधि से भी अधिक महत्व दिया गया है। जैसे हिंसा के त्याग रूप धर्म का नाम ही अहिसा है । इसी तरह असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह के त्याग की प्रतिज्ञा भी हिंसा, मृषा अदत्ता दान, मैथुन परिग्रह विरामण आदि शब्दो द्वारा की जाती है। “विरमण” अर्थात् विराम लेना-त्यागना, पाप कार्यों से विरत होना ही है।
हेय, ज्ञय, उपादेय इस त्रिपटि रूप विवेक ज्ञान में त्यागने के योग्य पापो के त्याग का विधान 'हेय' शब्द में सूचित है, मन की चंचलता त्याग विना ध्यान नहीं होता। ध्यान की साधना करने वाले को बोलना छोड कर मौन रहना पडता है एव पद्यासन न अन्य आसनादि द्वारा काया की अस्थिरता का त्याग जरूरी होता है। जैन धर्म में मन, वचन, काया की गुप्ति का विधान है उसका तात्पर्य यही है कि इन योगो को अपने वश मे किया जाय, उन्हे बुरे कार्यों से हटाया जाय, सामयिक करना इसी विधि वाक्य के साथ ही विशेष सच्चे सर्व सावध योगो के प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा की जाती है। आवश्यको में प्रत्याख्यान तो 'त्याग' का ही जेन पारिभाषिक पर्यायवाची शब्द है, वैसे कायोत्सर्ग में भी देहाध्यान के त्याग का भाव ही प्रधान है। प्रतिक्रमण का अर्थ है पाप स्थानो से पीछे मुडना उससे भी अट्टारह पाप स्थानो के त्याग ही भाव स्पष्ट है । १० श्रमण धर्मों में क्षमा आदि धर्म है। उनमें भी क्रोध का त्याग क्षमा, माया का त्याग-आज-सरलता, अभिमान का त्याग-सन्तोष, परिग्रह का त्याग रूप-अकिंचन धर्म है और त्याग को स्वतन्त्र धर्म भी माना है। इस प्रकार दोषो या पापो का त्याग ही धर्म है । असत् अकुशल कों को छोडना और सत्वे कुशल कमों का करना ही तो धर्म है । मोक्ष मार्गत्रयमें मिथ्यात्व का त्याग ही सम्यकत्व हैं । इच्छाओ का निरोध त्याग तप है पौद्गलिक सग के निवारण से ही आत्म स्वरूप की उपलब्धि होती है।
का त्याग ही स्वभाव रमणता है । स्वार्थ का त्याग किये विना परमार्थ नही सधता, कमों का त्याग ही तो मुक्ति है । आठ कमो का नाश होने पर ही तो मुक्ति है, आठ कर्मों के नाश होने पर ही आत्मिक गुणो का पूर्ण प्रगटीकरण होता है। भारतीय साधना प्रणाली में सत प्रवृति और निवृति इन दोनो को धर्म की संज्ञा दी गई है। जैन धमों सत्प्रवृति से कार्य ले इन दोनो को धर्म की संज्ञा दी गई है । जैन धर्म तो निवृति प्रधान धर्म माना जाता है, .iq उसमें तो त्याग ही प्रधान है।
भारतीय संस्कृति में त्याग को आदरणीय एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । बडे से बडे भोगी राजा, महाराजा, चक्रवर्ती तक एक अंकिचन-सन्त महात्मा के चरणो झुकते रहे है। भोगियो का कोई नाम भी नही लेता, जबकि त्यागियो का नित्य स्मरण व जाप किया जाता है । जो व्यक्ति अपने ही स्वार्थ या भोगो में मस्त रहता है उसे कोई भी श्रद्धा से नही देखता। श्रद्धा भाजन वही बनता है जो दूसरे के भले के लिये अपने स्वार्थ का परित्याग करें। त्याग, दोषो का होता है, गुणो का नही। जितने अशो मे दुर्गुण, दुर्व्यसन असत् अंग व असत् प्रसंगो का त्याग किया जाएगा, उतना ही गुणो का विकास होगा। इस प्रकार भगवान महावीर जेसे आदर्श त्यागी से हमे त्याग की महान शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को धन्य बनाना चाहिये। पर ये ध्यान रहे कि हमारा त्याग दिखाऊ न हो, किसी दवाव से न हो, अतः वाहर की वस्तुओ को त्याग देने पर भी यदि अन्तर मे उनकी इच्छा बनी रहती है तो वह वास्तव में त्याग नही, त्याग और वैराग्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है । वैराग्य में पुनः शिथिलता आना सम्भव है । भगवान महावीर की स्मृति रूप जयन्ती मनाते हुए हम त्याग धर्म को अधिकाधिक अपनावे यही जयन्ती मनाने की सार्थकता है।
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साम्यवाद, समाजवाद एवं अपरिग्रहवाद
डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल (जयपुर)
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विश्व के सभी राष्ट्र आज के युग में किसी-न-किसी वाद के आधार पर अपने-अपने राज्य की नीति निर्धारण करते है । अमेरिका, ब्रिटेन एवं फ्रांस जेसे राष्ट्र अपने को पूँजीवाद राष्ट्र कहते है । रूस और चीन ने अपने को साम्यवादी राष्ट्रों की पंक्ति मे खडा किया है तथा भारत जैसे देश ने अपने को समाजवादी राष्ट्र घोषित किया है। इन तीनो ही प्रणालियो में जनता की भलाई एवं लोककल्याणकारी राज्य की परिकल्पना की जाती है। लेकिन पूँजीवाद में जहाँ पूंजी की अनियन्त्रित संचय, उपभोग एव वितरण है वहाँ साम्यवाद एवं समाजवादी व्यवस्था में पूंजी पर एकाधिकार की समाप्ति तथा उसके उपभोग एवं वितरण पर अंकुश है । पूँजीवाद मे सम्पत्ति का खुला प्रदर्शन है । धनी, निर्धन एवं वर्गभेद की खुली छुट है वहाँ साम्यवाद एवं समाजवाद मे एक वर्ग रचना की परिकल्पना है। लेकिन इन सबसे भिन्न एक और वाद है जो अपरिग्रहवाद के नाम से जाना जाता है जिसमें नैतिकता के आधार पर परिग्रह की सीमा का निर्धारण होता है जिससे दूसरो को भी अवशिष्ट संपत्ति का लाभ मिल सके।
पूँजीवाद राष्ट्र भी अपने आपको समाजवादी राष्ट्र घोषित करते है क्योकि पूँजीवाद का उद्देश्य भी समाज के सभी वर्गों को विकास के उचित अवसर प्रदान करना है। समाजवाद एक आधुनिक विचारधारा है जिसका उद्देश्य आर्थिक जीवन को नियमन द्वारा समाज में फैली हुई व्यक्तिगत असमानताओ को दूर करना है। समाजवाद उन प्रवृत्तियो का समर्थक है जो सार्वजनिक कल्याण पर जोर देती है तथा उसकी मान्यता है कि राष्ट्र को पुलिस राज्य न होकर लोककल्याणकारी वनाने का सकल्प होना चाहिए किन्तु साम्यवाद वर्गहीन समाज का निर्माण करने का उद्देश्य प्रस्तुत करता है जिसमे ऊँच नीच, धनी निर्धन का कोई भेद नही तथा जाति धर्म, रंग एवं रष्ट्रीयता को कोई स्थान नही । अपरिग्रहवाद की परिकल्पना में ऐसे समाज का निर्माण करना है जिसमें राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति अपनी आवश्यकताओ पर नियन्त्रण करे तथा आवश्यकता से अधिक संग्रह को लोक कल्याण के लिये स्वमेव वितरण कर दे । अपरिग्रहवाद मे दूसरो के प्रति सहानुभूति होती है जिससे प्रेरित होकर वह अपने राष्ट्र एवं समाज के व्यक्यिो के स्तर को उन्नत करने का प्रयास करता है। साम्यवाद बनाम अपरिग्रहवाद
अपरिग्रहवाद के सिद्धान्त को पार्श्वनाथ एवं महावीर ने देश को उस समय दिया था जब यहाँ धनी निर्धन, ऊंच नीच, शिक्षित अशिक्षित, ब्राह्मण अब्राह्मण का वर्ग का भेद अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। जब उन्होने देखा कि एक व्यक्ति के पास तो इतना अधिक संग्रह है कि वह उसके कारण अपने आपको संत्रस्त मानता है किन्तु एक ऐसा वर्ग भी है जिसको दो जून पेट भर खाने को भी नहीं मिलता। एक व्यक्ति के पास अशर्फियो का भण्डार है, हाथी घोडो की पंक्ति खडी है तथा नौकर चाकर की कोई सीमा नही है तो दूसरी ओर कुछ ऐसे भी व्यक्ति है जिनके पास ये सभी कल्पनामात्र है । महावीर से यह सव नही देखा गया और उन्होने अपनी दशना में अणुव्रत एवं महाव्रतो के माध्यम से समस्त राष्ट्र में व्यक्ति के वर्ग भेद मिटाने के लि परिमाणवत अथवा अपरिग्रह को जीवन मे उतारने की व्यवस्था की।
साम्यवाद को राष्ट मे व्यवहत करने के लिये क्रान्तिकारी एवं हिसात्मक पद्धति की व्यवस्था औ र गोली, रक्तपात, एवं मारकाट सभी क्षम्य है। शासन एवं समाज सचालन सगीनो की नोक पर होता है। समाजवाद में अधिनियमो के आधार पर समाज में परिवर्तन किया जाता है । वैको का, वीमा व्यवसाय का.
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वसो का राष्ट्रीयकरण इसी का एक अंग है। गेहूँ एव चावल के व्यापार एव वितरण का राष्ट्रीयकरण भी समाज - बाद की दिशा में पहले सीठी बतायी जाती है। स्वयं इन्दिरा गाँधी ने इन सबको समाजवाद की दिशा में अग्रसर होना बतलाया है। लेकिन अपरिग्रहवाद में अहिंसा की प्रधानता है । वहाँ न संगीनो का भय है और न अधिनियम को व्यवस्था है किन्तु व्यक्ति स्वयंमेव अपनी आवश्यकताओ को कम से कम करता है । इस व्यवस्था में हृदय का परिवर्तन है तथा अहिंसा प्रेम एवं सहानुभूति की प्रधानता है । साम्यवाद परस्पर में घृणा, इर्ष्या एवं मनमुटाव को जन्म देता है । समाजवाद में अधिनियमो के अधार पर दूसरो की सम्पत्ति पर अधिकार कर जाता है जब कि अपरिग्रहवाद मे मनुष्य स्वयंमेव त्याग की ओर प्रवृत होता है तथा समाज में एक दूसरे के प्र प्रेम एवं सद्भाव को प्रोत्साहन मिलता है ।
साम्यवाद विचारधारा मे व्यक्ति मे सार्वजनिक कल्याण की कोई भावना नही रहती । यद्यपि वहां सभी को विकास के समुचित अवसर प्रदान किये जाते है फिर भी मनुष्य अपनी बुद्धि, प्रतिभा एवं साधनो के आधारपर अपना विकास करता है। इसी तरह समाजवादी व्यवस्था मे भी स्वपर कल्याण की भावना कम होती जाती है । सो का राष्ट्रीयकरण के पहले निज बसो के मालिको द्वारा स्थान-स्थान पर जलग्रह की व्यवस्था की जाती थी, वृद्धो अपाहिजो एवं असहायों के लिये कल्याणकारी कोष स्थापित थे लेकिन अब उसका कोई प्रश्न नही है क्योकि सभी राष्ट्रीय संपत्ति बन चुकी है । अपरिग्रहवाद मे दया एवं दान का विधान है। त्याग का सर्वोपरी स्थान है तथा मनुष्य में दूसरो के प्रति कल्याण करने की भावना की प्रमुखता है । औषध - दान, ज्ञानदान, अहारदान एवं अभयदान, सभी का इसमे विद्यमान है । समाजवादी व्यवस्था मे यद्यपि हिसा को कोई स्थान नही है लेकिन कानून के आधार पर दूसरो की सम्पत्ति पर जबरन कब्जा करने का विधान है। देश मे जो आज राष्ट्रीयकरण का जोर है वह सब इन्ही विचारो के कारण है । इस व्यवस्था में मनुष्य अपने विकास को अन्तिम सीमा तक नही जा सकता । व्यापारी अपने व्यापार को विस्तार करने से डरता है । उद्योगपति बड़े-बडे उद्योग लगाने मे हिचकता है और किसान को उन्मक्त रूप से खेती करने का अवसर नही मिलता। सबको सिमित कर दिया गया है । सीमाएं बाँध दी गयी है और सीमा से अधिक होने पर उसे राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित कर दिया जाता है । लेकिन अपरिग्रहवाद में सीमा का बन्धन होने हुए भी उसमें व्यक्ति को अपने विकास का पूर्ण अवसर मिलता है। इसके अतिरिक्त अपरिग्रहवाद में केवल वाध्य में परिग्रह पर ही अंकुश लगाने की व्यवस्था ही नहीं है किन्तु मनुष्य को अपनी आन्तरिक बुराइयो एवं कमियो से बचने का भी प्रावधान है । वह केवल खेत, मकान, धन, धान्य, वस्त्र, पशुधन, सवारी, सय्या, एवं आसन आदि की आवश्यकताओ पर ही अंकुश लगाने को नही कहता किन्तु, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा रति, अरति, शोक, भय और घृणा जैसी बुराइयो पर भी अंकुश रखने की व्यवस्था करता है । वास्तव में महावीर ने मानव की स्वभाविक कमजोरी पर ध्यान दिया और उसको दूर करने का उपदेश किया। आज देश में जो संस्कृति के स्थान है, पूजा एवं उपासना के स्थान है वे भी हमारी इसी अपरिग्रहवादी विचार धारा के प्रतीक है | साम्यवाद एवं समाजवाद में ऐसी प्रवृतियो के लिए कोई स्थान नही |
इस प्रकार अपरिग्रह वर्तमान युग के लिये सबसे अच्छी रामवाण दवा है जो एक और मनुष्य के अपने विकास की पूर्ण स्वतन्त्रता देता है वहाँ दूसरी ओर वह अतिसंग्रह पर अंकुश लगाने की भी प्रेरणा देता है । यह एक ऐसी अहिंसक पद्धति है जिसमें कल्याणकारी समाज की व्यवस्था है। ऊँच-नीच, धनी निर्धन के भेद भाव को भुलाकर मानव मात्र में प्रेम, सद्भावना एवं कल्याणकारी भावना को प्रोत्साहित करता है । यही नही वह मनुष्य की आन्तरिक बुराइयो के सग्रह पर भी रोक लगाता है और इन बुराइयो को जीवन से निकाल कर शुद्ध एव पावन जीवन निर्माण की ओर प्रेरणा देता है क्योकि जब तक मानव जीवन मे इन बुराइयों पर नियन्त्रण नही होगा तब तक जीवन मे सुख एवं शान्ति के साथ ही कल्याणकारी भावना की उत्पत्ति भी नही हो सकेगी।
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हिंसा-रत विश्व के लिये भगवान महावीर का अमर सन्देश
राजवैद्य जसवन्त राय जैन, कलकत्ता
समयं गोमय ! मा पमायए
-हे गौतम ! तू क्षण मात्र भी प्रमाद न कर ।
भगवान महावीर की यह अमर वाणी समस्त मानव-जाति के लिये है। आज जब कि हम प्रमत्त है, उन्मत । है, युद्ध-रत है हिसा व घृणा से भरे है-उस समय भगवान वर्धमान प्रभू सम्पूर्ण मानव जाति के मानो जागरण का
अमर स्वर प्रदान करते हुये कह रहे है
जागो, उठो, क्षण मात्र भी प्रमाद न करो।
भगवान् महावीर तप, संयम, त्याग व वैराग्य के मूर्तिमान अवतार थे। उन्होने विपुल वैभव, ऐश्वर्य एवं भोग को ठुकराकर संयम का मार्ग लिया था।
भगवान महावीर का अवतरन २५७१ वर्ष पहले वर्तमान बिहार प्रांत के क्षत्रिय कुण्ड ग्राम महाराज सिद्धार्थ की महरानी त्रिशला की पवित्र कुक्ष से चैत्र शुक्ला त्रियोदशी को हुआ था । तीस वर्ष की अवस्था में आपने साधु धर्म ग्रहण किया और कठोर तपश्चर्या के परिणाम स्वरूप आपने कैवल्य ज्ञान प्राप्त किया। भव बन्धन के खुल जाने से महावीर निगण्ठ या निग्रन्थ की उपाधि से विभूषित हुये। राग द्वष रुपी शत्रुओ पर विजय पाने के कारण आप ही जिन (जैना) है आप ही तीर्थकर अर्हत् एवं महावीर हैं।
भगवान महावीर ने मनुष्य जाति को आशा, उत्साह व पौरूष से उद्दीप्त किया। आपने सन्देश दिया कि सभी को मुक्त होने का अधिकार है और सभी अपने पुरुषार्थ से कैवल्य प्राप्त कर सकते हैं। भगवान महावीर की सन्देश किसी एक देश के लिये नही, एक जाति के लिये नही, एक वर्ग के लिये नही. एक काल विशेष के लिये नहीं-यह सन्देश सनातन है, सार्वभौम है, सार्वकालिक है।
“अहिसा" का महान सन्देश ही आज मनुष्य जाति को महाविनाश, महाध्वंस एवं सर्वनाश से बचा सकता है। महावीर का जीवन अडिसा की विराट प्रयोगशाला थी-आपने अहिसा का परम साक्षात्कार कर अपने को अभय बनाया था। अहिसा का आमोघ अस्त्र ही मानव जाति को पाशविक प्रवृतियों से बचा सकता है। संयमहीन जीवन की ओर बढ़ते हुये दुनियाँ के लिये सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान एवं सम्यक् चरित्र ही एक ऐसा मार्ग हैजहाँ उसकी रक्षा, प्रगति एवं विकास सम्भव है।
उनका भौतिक उपदेश यही था कि स्वयं सत्य रूप बनो और सत्य का माक्षात्कार करो। असत्य से घिरे रहकर सत्य की प्राप्ति असंभव है। दुःख का मूल कामना है-दुःख के महासागर से सन्तरण करने का एक मात्र गय है-कामना पर अंकुश लगाना परिग्रह घटाने मे ही सच्चा सुख व सन्तोप है।
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आज मनुष्य जाति अनेक राष्ट्रो, दलों, विभिन्न राजनीतिक शिविरो व सग्राम-संघो में बंटी हुई हैरात-दिन परस्पर घृणा वैमनस्य व विरोधो का तुफान उठ रहा है कोई किसी के दृष्टिरोण को समझाने के लिये तेयार नही-उस समय केवल अनेकान्तवाद ही एक ऐसा उपाय है जो विश्व मैत्री, मानव एकता एवं परस्पर सहानुभूति को जगा सकता है दुरग्रहो से मनुष्य जाति को मुक्त कर सकता है ।
भगवान् महावीर भास्कर है-जिनके प्रकाश के सभी अधिकारी है। भगवान महावीर अमृत वर्षा मेघ है-जिनकी शीतल ताप हरनेवाली वर्षा पर सभी पीडितो का अधिकार है। महावीर की वाणी शान्त, गंभीर एवं वैराग्य की आभा से आलोकित है । व्यक्ति, समाज, राष्ट्र सभी स्तर पर महावीर की वाणी सारी समस्याओ का समाधान है।
हमारे सामने २५००वॉ निर्वाण शताव्दी का स्वर्णावसर है, इस अवसर पर हम अपना आत्म निरिक्षण करें, अपने को उन्नत बनावें, तभी महावीर की पूजा सार्थक है । विश्व मंगल, विश्व शान्ति के लिये महावीर वाणी का अमर मन्देश पहुंचाने का दायित्व हमारे पर है, यदि हम आज की हिसा व घृणा से भारी दुनियाँ मे महा प्रभु महावीर का शुद्ध, शान्त, निर्विकार विश्व मैत्री, संयम, अपरिग्रह का सन्देश किचित्मात्र भी पहुंचा सकें तो यह शताब्दी वर्ष सार्थक होगा।
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लौकिक जीवन में धर्म की प्रतिक्रिया
लेखक-प्रकाश हितैपी शास्त्री दिल्ली
यदि प्राणी धर्म पथ पर चलने लग जाय तो उसका जीवन अपूर्व सुख शांति मय बन जायगा। क्योकि धर्म के सिद्धान्त लौकिक और पारलौकिक जीवन को सुखी बनाने के लिये है किन्तु अज्ञानी मानवो ने यह मान रहा है कि यदि धर्म सिद्धान्त पर जीव चलने लगे तो भूखो मर जायगा। बल्कि देखा यह जाता है जो अधर्म का मार्ग अपनाते हैं वे निरन्तर चिन्तातुर रहकर दुखी बने रहते है।
जैनधर्म में अध्यात्म की प्रधानता है। यदि इस अध्यात्मवाद को प्राणी समझ ले तो कभी भी किसी से वर भाव नही कर सकता है। क्योकि अध्यात्मवाद बतलाता है कि सभी द्रव्य स्वतन्त्र है कोई भी द्रव्य किसी अन्य . द्रव्य का साधक बाधक नही है । सभी प्राणी अपनी करनी का फल भोगते है। कोई भी किसी को सुखी-दुखी नही कर सकता है। यदि इस सिद्धान्त को स्वीकार कर ले तो जीव किसी दूसरे से राग द्वेष क्यो करेगा? क्योकि जो भी अनुकूल के प्रतिकूल संयोग हो रहे है वे सब अपनी ही करनी का फल है, उसमें जो सामने वाला निमित्त दिख रहा है वह तो मात्र वाह्य निमित्त है । जब हमारे पुण्य पाप का उदय आता है, तब वह निमित्त बन जाता है। यदि कोई भी पदार्थ प्रतिकूल हो गया है तो वह पाप के निमित्त से हुआ है और अनुकूल हुआ है तो पुण्य फल के निमित्त से हुआ
इसलिये आचार्य कहते है कि यदि अपकार करने वाले पर यदि क्रोध करते हो तो सबसे बड़ा अपराध करने वाला तुम्हारा विकारी भाव है । उस पर क्रोध करो, मारते हो तो उस विकारी भाव को मारो।
धर्म का दूसरा सिद्धान्त अहिसा है-उसमे निश्चय अहिसा का सम्बन्ध अध्यात्म से है | अर्थात् राग देष का न होना अहिसा है । और राग द्वेष का होना हिंसा है। जब जीव अपने शुद्ध स्वभाव की पहचान कर उस ओर झुकता है, उसमें रुकता है तव राग द्वष अपने आप नष्ट होने लगते है। इसी को राग द्वष का अभाव कहा जाता है।
एक संस्कृत कवि ने कहा है जो आत्मा में परमात्मा को देखता है तथा परमात्मा मे आत्मा को देखता है, वही सच्चा अहिसक है। क्योकि जो प्रत्येक आत्मा मे कारण परमात्मा के दर्शन करेगा वह किसी जीव को कैसे सता सकता है ? धर्म सिद्धान्त के अनुसार एक छोटे-सा छोटा जीव भी परमात्मा होने की शक्ति रखता है । इसलिये एक परमात्मा को पूज्य मानकर उसकी पूजा करे और दूसरे भावी परमात्मा का तिरस्कार करे तो यह परमात्मा की पूजा कहाँ हुई यह तो परमात्मा का मखौल हुआ।
____ इसीलिये आचार्यश्री समन्त भद्र ने जीवो को सर्वोदय का उपदेश दिया है। उन्होने कहा है आपका धर्म सर्वोदय है, जिसमे सबको समान विकास का अवसर प्राप्त है। सभी प्राणी अपना-अपना . आत्मा से परमात्मा वन सकते है । सर्वोदयवादी मे स्वभावतः सर्व धर्म सम-भाव, सर्व .. भाव भाव होता है। वह कभी किसी का विरोध नहीं करता है। वह सोचता है
जग की तन्त्री वजने दे तु कभी न उसको . तुझे पराई क्या पडी
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एक अहिसक प्राणी परम सहिष्णु होता है । जहाँ देश धर्म की रक्षा करने को युद्ध भी कर सकता है । देश धर्म के ऊपर मर मिट सकता है किन्तु वह घृणा किसी से नही करता है । युद्ध तो अन्याय मिटाने के लिये है । जैसे रामचन्द्रजी ने अन्याय को मिटाने के लिये रावण पर विजय प्राप्त की किन्तु लंका का राज्य जीत कर भी उसके भाई विभीषण को सौप दिया। अहिसक में इसीलिये सत्वेणु में भी जीव मात्र मे मित्रता की भावना होती है। वह पाप से घृणा अवश्य करता है किन्तु पापी से भी घृणा नही करता है । क्योकि पापी जीव तो पहले ही भूला हुआ है अतः वह तो दया का ही पात्र है।
अहिंसक जीव के सत्य अचौर्या ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत नियम से होते ही हैं। अन्यथा अहिसा व्रत पल ही नही सकता। और यह नियम है कि जिस के अहिंसादि व्रत होगे उस पर सरकार की कानून की कोई भी धारा नही लगती है। अतः वह अपना जीवन सानन्द व्यतीत करता है।
अहिंसक प्राणी अपने जीवन मे सह अस्तित्व और अनाक्रमण का सिद्धान्त अपनाता है। सबके साथ मिल कर रहता है किन्तु किसी भी परद्रव्य पर आक्रमण नही करता। सबको अपने २ अस्तित्व मे रहने का अवसर देता है । उसमें सहज स्वभाव जीव मात्र में मैत्री, गुणियो पर प्रमोद भाव, दुखी जीवो पर करुणा भाव और धर्म से या अपने से विरोधी जीवी पर माध्यस्थ भाव होता है।
अहिंसक सबकी वात सुनता है किन्तु अपनी अनेकांत बुद्धि से उसका सही अर्थ लगा कर अपना प्रयोजन साधता रहता है । व्यर्थ के वादविवाद में अपने मूल्यवान जीवन को नष्ट नहीं करता है ।
कोई धर्म का मार्ग प्रेम से पूछता है तो उसे अपनी सुधा वाणी से उसके हृदय को सन्तुष्ट करता है। यदि कोई उसकी बात नही मानता है तो मध्यस्थ रहता है। वह किसी के भी विगाड सुधार का ठेकेदार नही है। अन्य जीव धर्म मार्ग पर लग कर सुखी बने, मात्र यह भावना ही कर सकता है । विगाड सुधार या सुख दुख तो जीव अपने परिणामो पर निर्भर है।
देखा जाता है कि किसी का विगाड करते हुए उसका भला हो जाता है और बुरा करते हुए भी उसका भला हो जाता है । जेन इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण भरे पडे है। ज्ञानी धर्मात्मा जीव लौकिक जीवन मे भी परम शान्त गम्भीर और सम दृष्टि होता ही है किन्तु इसके फलस्वरूप भाविरूप भी उसका उज्ज्वल होता है। उसकी हमेशा स्वाधीनता दृष्टि रहती है। वह परम स्वावलम्बी होता है । कभी भी वह परमुखा-पेक्षी नही बनता है। वह मानता है कि जब हम अपने पुरुषार्थ से मुक्ति भी प्राप्त कर सकते हैं, तो जगत के दूसरे कार्यों में भी क्यो पराधीन वृत्ति अपनाये । अतः एक ओर जहाँ उसे समृद्धि पर रच मात्र भी अभिमान नही होता है, वहाँ वह कभी भी अपने आत्म-गोरव को विस्मृत नही करता है । दीनता और हीनता उससे कोसो दूर भाग जाती है। वह सम्पत्ति मे इतराता नही ओर विपत्ति में कभी घबराता नही । ये दोनो अवस्था उसकी अपनी वस्तु नहीं है। मात्र उसके ज्ञान के क्षेत्र हैं । अतः वह लौकिक जीवन में भी अपूर्व सुख शान्ति से रहता है ।
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6TRI-RATNA” Dr. ROMA CHAUDHURI, Vice-Chancellor,
Rabindra Bharati University, Calcutta.
What is end of Life? This, after all, is the most primary, most urgent, most fundamental question of our lives, and, as natural, various answers have been given by different thinkers, different philosophers, different theologicians, all over the world, all throughout the ages But Indian thinkers, Indian philosophers, Indian theologicians have always a ready answer, an incontrovertible answer to it-viz, Moksa or Salvation "DharmaArtha-Kama-Moksa”--these are ordinarily taken to be the "Caturvarga" or "Four-fold Aims" of human life, viz "Religion ; Wealth : Worldly Gain : Salvation". But staunchly rejecting all-even Religion, generally supposed to be the main cause of bringing down the Kingdom of God on earth-Indian Satya-drasta-Risis or Truth-seeing Truth-manifesting saints and sages and seers of India, have fixed on one thing only as the summum bonum, as the supreme, or, rather the only end of life-- viz, as pointed out above- Moksa or Salvation.
And, simultaneously, we come to be confronted with a two-fold equally fundamental question : viz, what exactly is this state of Moksa, Siddhi or Salvation, the Supreme Goal ? Again, what is the means or Sadhanas to this Supreme Goal ?
Here. Sri Mahavira of immortal fame, one of the greatest saviours of Mankind, the world has ever produced, has given us totally new conceptions regarding both the end and the means, Moksa or Siddhi and its Sadhanas or ways or paths to the same. This is his worldfarnous Doctrine of Tri-Ratna or the Doctrine of Three-fold Gems. "Tri-Ratna", "Threefold Gems" : --what an exhilarating, exalting, exquisite Name! When we are born here on earth, where “Sarvam Duhkham Duhkham", "Sarvam Ksanikam Ksanikam", "Sarvam Supayam Sunayam"-everything is full of sins and sorrows, everything is transitory. ponpermanent in nature, everything is void, with no real worth or basis--we are, naturally, destitute, desolate, degraded, the poorest of the poor, the weakest of the weak, the sorriest of the sorry. But then, Lord Mahavira our great Saviour and Path-Director, appears before us with three great and grand and glorious boons for us all, in the form of three priceless "Gems", which in a moment, make us the richest of the rich, the strongest of the strong, the happiest of the happy- beggars, as we were, faltering and lagging behind, crouching and weeping in a corner, with none to help and encourage us at all-we are, in a minute, transformed into all-conquering heroes, sovereign kings, proceeding towards our great goal of life in firm, unfaltering, bold steps, with a smile on our lips and a song in our hearts, with sweetest hope and deepest joy, with coolest courage and clearest conviction, with firmest determination and surest ability. And, who works out this great change in us ? Our most reverential, most loved, most gracious, most merciful Lord Mahavira, by his
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opreme and sublime Jaina Doctrine, a Doctrine for conquerors, conquerors of Amana or Ignorance, conquerors of Jadatva or materiality, conquerors of Dulkha or sorrows
Now what are these three wonderful “Gems"? These are Gems of "SamyakDarsana?' or Right-Faith ; "Samyak-Jnana" or Right Knowledge, "Samyak-Caritra" or Right Conduct.
"Samyak-dai sana" or Right Faith is the first beginning of knowledge ; for without such a kind of initial faith reverence (Sraddha), none can make any real progress in the difficult path of knowledge The first thing that we have to get rid of here, is an attitude of utter scepticism or disbelief towards any and everything great or good or noble This kind of bombastic pride helps none, on the contrary, isolates and alienates the over-confident, over-self-relying, over-satisfied person from the rest, leaving him to his fate, with none to help and lead him at all As we are human beings, mortal beings, feeble beings, fallible beings, it is but normal and natural that we should need guides and helpers, in the beginning to lead us aright in the thorny, pebbly, crooked, cruel Path of Life. And Right Faith stands for this and this much alone. As a matter of fact, it is not a kind of blind belief or dogmatic clinging to some unproved and unreasonable and upjustifiable belief But it is only faith in a Truth with which the seeker after Truth has some preliminary kind of acquaintance and thinks it to be one having at least some chance of being finally true Otherwise, he has no impetus for any study at all. Thus, starting with a partial faith, the beginner studies further, and if he finds that the Jaina teachings are reasonable, his faith becomes stronger and stronger. As a matter of fact, the more he studies Jaina principles, the more does his faith increase.
Then, secondly, he attains "Right Knowledge”, or knowledge of the fundamentals of Jainism-viz, that of the nature of Dravyas or Substances of various kinds, of the Self and the Non-Self etc ; the salvation of the self, the means thereto and the like.
Thirdly, he should have "Samyak Caritra" or "Right Conduct" For, it goes without saying that mere theoretical knowledge is useless-theory must end in practice. knowledge in action. Or, our whole lives must be reformed and revolutionised in the golden light of the knowledge we have gained our every thought, every feeling, every desire must be uplifted, upgraded, purified and perfected in this way to make us "Jinas" or "Conquerors" in the most real, most correct, most lasting sense of the term.
This kind of "Right Conduct consists of "Panca-Mahavratas" or "Five-fold Great Vows", Viz, Abimsa-Satyam-Asteyam-Brahmacaryam-Aparigraha" : Non-violence-Truth Non-stealing-Self-control-Non-attachment
"Ahimsa" or Non-violence means respect for Life, in any form whatsoever, or not injuring or hunting anyone at all. According to the Jaina view, the entire world is a living one, some kind of life or consciousness being present in any and everything on earth. So, the great maxim of the Jainas is "Ahimsa Paramo Dharma", "Non-violence is Sunreme Virtue and this vow must be practised for all human beings, lower animals, beasts and birds and worms and gnats, even material objects.
"Satyanı" or Truth-speaking means speaking the Trutn under all circumst whatsoever, even at the cost of one's life. At the same it means refraining from all kinde
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of hard, cruel, frivolous, malicious, garrulous, villifying talk-for-these, too, may hurt our fellow-beings not a little , as a matter of fact, much more than mere physical violence
“Asteyam”-or Non-stealing means respect for the properties of others; and it is a corollary of the first and fundamental maxim of "Abimsa" For if you respect life, you have to respect property also on which earthly life invariably depends.
"Brahmacaryam" or Self-control is an essential pre-requisite of any kind of higher, spiritual life For, as well-known, we have dual personalities, so to speak-with a higher spiritual side and a lower physical life, and here, the higher must control the lower, the spiritual the physical Otherwise, no stepping into the Path to Progress, Path to Fulfilment, Path to Salvation will be possible at all Hence, we have to refrain from all sorts of Selfindulgence, external or internal, subtle or gross, mundane or extra-mundane, director indirect.
Lastly, , 'Apaiigi aha" or Non-attachment This is a wider form of the above, and is as such, also an essential condition of any kind of spiritual striving worth the name
The above may seem to be well-known, common forms of moral discipline, yet, as we all know, these are very difficult ones, and if practised properly, may easily bring about Salvation for all. After all, for ordinary persons, like us, such so-called small things count much-for, what more is there in common lives like ours? As we are ordinary persons, our salvation, too, should be attainable through ordinary means, and it goes to the great credit of the great Teacher Mahavira and others that they, in their infinite glory and grandeur, did not-never for a single moment-ignore or look down upon us common people ; on the contrary, came to our levels lovingly and kindly, stretching out their gracious hands for our help, for lifting us up But they did not, in their infinite wisdom, impose impossible conditions on us, or, compel us to follow Paths, altogether beyond our comprehension and ability Rather, they set up before us something suited to us, and most encouragingly assured us that this path of ordinary ethical disciplines, too, can take us to the coveted goal of Salvation. To, Jainism is a Universal Philosophy-not a Philosophy of mere high speculations, profound thinking, hair-splitting argumentations, but a Philosophy of correct behaviour, pure action, proper endeavours. This is within the reach of allhigh knowledge is not, but right action is It is also a Universal Religion-not a Religion of God, not a Religion of Ritualism, not a Religion of mere empty forms and codes and conventions—but a living, loving Religion of Humanism, involving Love of Man, Service of Man, Sacrifice for Man
Our gratefulness to Lord Madavira knows no bounds for this, simply for this His was a System for the masses, for the man in the street, for the common people, for ordinary individuals, and so it is a very modern system, aiming at awakening for masses, equal rights and privileges for all, and finally, at "One World"-where there will no distinctions whatsoever between man and man on grounds of castes and creeds and status and position at all, but all will be taken to be absolutely equal, with equal rights, equal oppornities, equal dignity, equal honour, equal status
Our salutation to Lord Mahavira, who so many years ago, envisaged and actualised such a lofty World-Ideal with so such ease and perfection, heralding a new golden dawn of Visva-Prıtı-Visva-Maitri, Visva-Santi-Visva-Seva-Visva-Tyaga Universal-Love- Universal-Fraternity - Universal-Peace - Universal-Service- Universal-Sacrifice May we all follow his noble foot-steps, and fructify his eternal message for the benefit and uplift of all,
years at ing a Javversal
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GLIMPSES OF JAINOLOGY
(Dr RAM CHANDRA ADHIKARI)
1. The term "Jainology” is not very familiar to most people. It includes within its purview Jaina religion and philosophy, art and architecture specific in character, buicography by Jaina samants; contribution to various sciences like medicine, botany, zoology etc, some of them have been handed down from hoary antiquity, while many are compiled after the date of the last pathfinder Bhagwan Mahavira Swami (an older contemporary of gautama Buddha). Certainly he is more known than the pathfinder in the world who preceded him but he is not the founder of the extensive philosophy and religion of the Jainas. Foreign scholars, curiously enough, have written-Jainism is a branch of Buddhism The earliest Tirthankara is mentioned in the Rigveda, regarded as the most ancient treatise in India.
2. The twenty two Tirthankaras are not regarded as historical personalities History is not constant always and so-called historical facts are not necessary mathematical truths. Jainism has a very long history, the predecessors of Bhagwan Mahavira Swami transmitted down the tenets successively through centuries, possibly millenia Sri Aurobindo once wrote "that Jesuschrist existed is not proved beyond doubt". The older pathfinders are 'bridge personalities" Linking the past with present
3. History of a religion or philosophy is not so important as their influence on the thoughts of people that the religion of the Shramanas (as distinguished from Vedicexponents) spread for and wide in the south and West even in Sri Lanka is solid truth of observation.
4. Bhagwan Mahavira demonstrated the way of life to be followed by his example as well as precepts. Man is the highest of creation and the level of humanity is reached in the process of evolution. Possessed of an eternal unperishable soul. man is capable of reaching the state of bliss and be atitude here or hereafter by personal individual endeavour. independent of any supermundane agency or heavenly grace Men differ from one another vecause their souls are polluted with dirt of their own karma-action in life, good or bad according to ethical standard. Life span, birth in a particular environ misery or happinessal are the resultant of his personal karma Naturally, many births have to be recognised to
u the goal of bliss, not to come down to the world full of misery and evil.
5. Thus Jainism is not a sectarian religion nor limited to any particular region or Tace There is evidence of the fact that Bengal was influenced by Lord Mahavira The city Bardhaman (anglicised into Burdwan) was a place where he preached Archaeological
ave shown relics of Jainism in the Eastern parts of Bengal.
finds have shown relle
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6 The master taught us, there are souls everywhere but polluted by karma which needs be purged souls are discrete but similar in all characteristics, capable of rising eminence or degradation So the soul of another creature are not be hated or ignored Toleration is the watchword of the teaching. Tolcrance of others viewpoints, sins and crimes naturally endangers humility and charity We do not like to be hated, molested so we should not think of others to be low or inferior
7 This is the real significance of Ahimsa in mind speech and body. If one follows that all throughout his life, he banishes ego-hood and his example will inspire all members of the society, community or a nation
8. Right vision, right knowledge and right conduct are difficult to obtain quickly All our views are tainted with subjective personal peculiarities to reach perfection is the Sumum Bonum in earthly life, when there is no bar in knowing everything and all Otherwise, egoism will lead us astray, cloud our vision, Hatred and enmity will prevail in society
9 There have been attempts to stabilise equality amongst men in different times and fratenrity has been an oft quoted term But an unperfect creature can not rectify the ills of society
10 This is the lesson we have learnt from the master, mere precepts will not go far "Iness" & "Myness" have got to be obliterated to make the earth clean, pure and perfect. We make mistakes very often, do wrong to others as well as to ourselves but unless we are humble to confess those and at one for them, the state of affairs will be worse and worse For the fleting pleasures of the earth people have created disasters History 1S-replete with instances of personal aggrandisement of megalomaniacs But all worldly possessions are short lives, sucalled fame and glory sink into oblivion
11 Living examples of the world teachers show the path, We bow down to them
12 They are the heroes in the strict sense of the term rules by blood and sweat but all his senses are under his control and arrogance can not allure him. We offer our submission to them
Not a conqueror who Lust and anger, malice
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The Spiritual and Ethical Values
of Jainism.
Dr. PUSHPA BOTHRA
Jainism as a religious process, has two aspects, the inner and outer. From one point of view, it is a state of belief and feeling, an inward spiritual disposition, and from the other point of view, it gives ground to the ethical values It is not very different from the other developed religious in its aim Spiritual realisation is the aim of Jainism, as well as it accepts the moral ends for the developing spiritual life. Bodily and mental discipline and meditation are necessary for the purification of the self Without perfection of the self, the spiritual realisation is not possible, according to Jainism. Therefore the Tuthankaras have shown the way of life which leads to perfection of the self.
Every self (Jiva), according to the Jainas, is perfection its own nature, but due to ignorance and worldly affairs it becomes imperfect It possesses different kinds of passions and it has to take birth in the world. But gradually, when it gives up all passions or it conquires all the passions, it gains the highest perfection and becomes supreme self (Jina or arthanta). And it reaches above the stage of bondage. The passions are called as enemy of the self, one who kills them is called arıhanta or one who conquires them is called Jina.
But it is very difficult to give up all passions at once. It requires a long practice of mental and bodily discipline and meditation. The Jaina Tirthankaras have shown the way, it is called the path of three jewels.
The three jewels are samyaka darsana, samyaka Jnana, and Samyaka CHARITRA (right faite, right knowledge and right conduct) In other words, the three jewels are the three aspects of the path to perfection These three cannot exist exclusively of each other. but they are the supplementary to one another. In this article I will try to explain the pature and value of Triratia of the Jainas, which become helpful to lead a moral life as well as to reach the spiritual.
(1) Samyaka Dur sana-Generally, it is called as a faith in the principles of Jaunism. But from the real point of view or from niscayadrsti, samyaka darsana means 'a sense or a feeling of the realisation of self. Thus samyaks darsana" means true vision of self. One has the experience of the self itself other than the body. We may compare it with Viveka Jnana' of the Sainkhya yoga and the Advaita systems of philosophy. Therefore samyaka darsana is the first necessary condition in the way to perfection One should know at first, what is self, and what is the relation between self and body. But the realisation of
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vow of non violence. This practice of Samiti or carefulness in his activities will make him a good civilised citizen.
We
The five vows are the basis for the spiritual and etbical practice in Jainism will try to explain them one by one in the Jaina sense
(A) Ahimsa or the Vow of non-violence-The Jaina attitude of ahimsa is based on the feeling of kindness and sympathy. All living beings are equal as they all possess consciousness of pleasure and pain Therefore one should be kind to every living being Ahimsa is not only limited to not killing of any living being but also none should be forced to do anything against his wish. One should not commit violence even in thought. Thoughts and ideas must be pure. If one thinks to kill or to give troubles to others, he commits violence in thought it is called bhavahimsa Violence in action as well as in thought should be omitted according to Jainism
On the other hand, the Jainas are not narrow minded They have realised that in some cases or in some cases or in some special circumstances one has to comit violence, as for example, in the time of war or inself-defence or for the defence of country, society or religion etc But in all such cases the aim should be 'to save something, or the aim should be pure The Jainas therefore has divided himsa or violence in four types.
(a) Udyamıhımsa or violence in profession—One should not do any profession which depends on violence or one have to kill some living beings, just as the profession of butcher fisherman, eggman, profession of leather and hear etc Udyamıhımsa should be onimutted in any case
(b) Samkalpılımsa or intentional violence-One should not commit violence intentionally. Samkalpıhimsa includes violence for the sake of fun or violence performed under intense passion.
(c) Aramhlılımsa or unintentional violence-Inspite of carefulness, we commit violence some times ; unintentionally, as in walking, cooking etc A householder cannot save himself for committing this types of violence but oneshould be careful to do his daily routine.
(d) Virodhihimsa or violence in defensive works-Violence in defensive works is called virodhilumsa Although Virodluhimsa is a type of violence, but in some special conditions a householder has to commit it, as for example, in self defence or for the defence of people, country or religion etc But the aim should be 'to save' something, not agreessive. A householder can take part in war in order to save his country
(B) Satya or the vow of faithfulness-Truthfulness is not speaking what is only true, but speaking what is true as well as good and pleasant Truthfulness should be used in thought, speech and action Even one should not favour any false argument.
(C) Asteya or the vow of non-stealing-Generally, this vow consists in not taking what is not given But abatement of theft receiving stolen property, violating state rules. use of false weights and measures and adulteration etc all should be ommitted.
(D)
Brhmacharya or the vow of self control—This vow is generally interpreted as
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the self is not easy task. One should develop some moral qualities. A right beliver or samyaka dristi must possess the following four essential virtues :
(a) Prasama or calmness (b) Samvega or detachment. (c) Anukampa or kindness.
(d) Astikya or realisation.
One should do practice seriously these virtues in his life. Due to a long practice of these virtues, one can realise the true nature of the self. Only a faith in the existence of self or in the principles of Jainism is not enough. But samyaka darsana has its spiritual and........Practical values, these are necessary conditions for one, who wants to know true nature of the self. Calmness, detachment, kindness and self-realisation make the self more pure and perfect. One should practice these virtues in the every field of life.
(2) Samyaka Jnana-Right knowledge, does not here mean a knowledge epistemologically right But right knowledge is that which leads to spiritual insight. Right knowledge should help in the realisation of truth. In other words, the knowledge which helps to know the true nature of the self. Such knowledge teaches us what are theessential qualities of the self, how one can get them, what are the causes of bondage, (BANDH), how can one remove ignorance and how one can get perfection. One can acquire right knowledge. either from scriptures or from great saints.
(3) Samyaka Charitra-As mentioned before, the mental and bodily discipline are necessary for the perfection of the self. The passions can be removed by the practice of moral laws. In other words, moral end helps for the developing spiritual life. Therefore the jains have introduced a way of life, based on some moral laws and this is called Samyaka Charitra or right conduct. I will try to explain the important rules of right conduct, these are the five vows, the three fold path of self discipline and the practice of six kinds of carefulness. The five vows are the vow of ahimsa or non violence, the vow of satya or truthfulness, the vow of asteya or non-stealing, the vow of Brahmachrya or self control and the vow of aparıgraha or non possession. The three fold path of self discipline are the manogupti, vacanagupti and kayagupti (the discipline of mind, speech and body). And the six kinds or carefulness (samiti) are :
(a) irya samiti (Carefulness in walking) (b) bhasa samit (Carefulness in speech). (c) esana samiti (Carefulness in eating),
(d) dana samiti (Carefulness in lifting),
(e) niksepa samiti (Carefulness in laying down),
(f) utsarga samiti (Carefulness in deposing waste) products.
One could do his every day work as carefully as possible to him, that his activities would not be harmful to others, even to a small ant or worm. The practice of samuti or the carefulness in his all activities would make his kind and would be helpful to deserve the
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that of celibacy. But a householder has advised to consider all women except one's wife as mother, sister or daughter.
(E) Aparigrala or the vow of non-possession-A house holder should try to limit his activities for possessions Because parigraha is the cause of all attachments and it is also an obstacle to self realisation
Again, the Jainas have divided the five vows in two grades, the small vows (Anuvrata) and the great vows (mahavrata) The small vows are for the householders, these are the partial vows. These are not very strict, because a householder has some responsibilities towards his family. society and country And the great vows are for the monks who have not any attachment towards either the family or society or country Therefore, the vows for the monks are more strict than the householders, as for example, a householder can comit virodhihimsa in self defence but a monk cannot commit any kind of violence. He must over power all difficulties due to his high moral and spiritual power
The difference between the anuyrata and mahavrata lies in quantity not in quality, The fundamental spirit behind the vows is the same We can say that the vows of the householder is the first step towards self discipline, while the mahavratas are the final stage of discipline All vows should be observed in thought, speech and action. Otherwise they would not fulfil the aim to reach high moral and spiritual end.
We have gone through a short description of the triratna or the threefold path of the Jainas. Right faith, right knowledge and right conduct cannot exist exclusively to each other Right conduct with right faith and right knowledge only can lead to perfection of the self. Bodily and mental discipline is useless if one follows it blindly Therefore the Jainas assert samyaka darsana and samyakajnana as the necessary conditions for the success of samyaka caritra. In other words, samyaka darsana and samyaka jmana are the states of belief and feeling and have their spiritual significance while, samyaka charitra is a ground for moral end All the three have theu equal value and the three are the supplementary to each other
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বীর স্তুতি গণেশ লালওয়ানী
পৰ্বতে যেমন সুমেক শ্রেষ্ঠ বৃক্ষে শাল্মলি বৃক্ষ, বনে নন্দন বন ' জ্ঞানে ও চবিত্রে তেমনি ভগবান মহাবীব শ্রেষ্ঠ।
ধবনিতে যেমন মেঘমন্ত্র শ্রেষ্ঠ, নক্ষত্র শশাঙ্ক, সৌবভে চন্দন বাস, মুনিদেব মধ্যে তেমনি ভগবান মহাবীব শ্রেষ্ঠ।
সমুদ্রে যেমন স্বীযম্ভ, বমণ শ্রেষ্ঠ, নাগে ধবনেন্দ্র, বসে ইক্ষুবস, তপস্বীদের মধ্যে। তেমনি ভগবান মহাবীব শ্রেষ্ঠ।
হস্তীতে যেমন ঐবাবত শ্রেষ্ঠ বনচবে সিংহ, জলে গঙ্গোদক, পক্ষীতে বেনুদেব গরুড, নির্বানবাদীদের মধ্যে তেমনি ভগবান মহাবীব শ্রেষ্ঠ।
যােদ্ধায যেমন বিশ্বসেন শ্রেষ্ঠ, ফুলে তাববিন্দ, ক্ষত্রিয়ে দানবাক্য, ঋষিদের মধ্যে তেমনি ভগবান মহাবীব শ্রেষ্ঠ
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দেবতাৰ যেমন বৈমানিক শ্রেষ্ঠ, সভায সুধর্ম সভা, ধর্মে মােক্ষ ধর্ম, জ্ঞানীদেব মধ্যে তেমনি ভগবান মহাবীব শ্রেষ্ঠ।
দানে যেমন অভযদান শ্রেষ্ঠ, সত্যে অনবদ্য বাক্য, তপস্যায় ব্রহ্মচর্য্য, তেমনি লােকত্তম ভগবান মহাবীব শ্রেষ্ঠ।
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অনুপম ছিল ভঁৰ ধর্ম। অনুপম ছিল তার ধ্যান, সেই ধ্যান , শংখেব চাইতে ও শুক্ল, বাঁদেব চন্দ্রিকাব চাইতে ও ধবল।
তিনি উত্তম ধ্যানে ক্ষ্য কবে ছিলেন কর্ণ বজ, লাভ কবে ছিলেন পবা সিন্ধি, যাব আদি আছে কিন্তু অন্ত নেই।
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ভগবান মহাবীর ও অনেকান্তবাদ
গণেশ লালওয়ানী
ভগবান মহাবীব তখন সাধনায় সিদ্ধিলাভ কবে নানাস্থানে ঘুবে বেড়াচ্ছেন। এমনি একবাব ঘুবতে যুবতে তিনি এসে উপস্থিত হলেন বৎস দেশের বাজধানী কৌশাম্বীতে। তিনি কাকব ঘবে অবস্থান করতেন না। সাধাৰণতঃ নগবেব বাইবে বা চৈত্যে অবস্থান কবতেন। এখানে এসেও তাই চন্দ্রাবতবণ চৈত্যে অবস্থান কবলেন।
এই সময বৎস দেশের সিংহাসনে ছিলেন বাজা উদযন। উদযনেব কথা সকলেই জানেন। এব সম্বন্ধেই কালিদাস তাঁব মেঘদূতে বলেছেন—উদযন-কথা-কোবি গ্রামবৃদ্বাম্ ? উদয়ন ও বাসবদত্তাব গল্প নাটকে আখ্যাযিকায নানাস্থানে ছডিযে বযেছে।
এই উদযনেব মা ছিলেন মৃগাবতী। মৃগাবতী ছিলেন বৈশালী গণতন্ত্রেব নাযক শ্রীমান্ মহাবাজ চেটকে মেযে। সাংসাবিক সম্পর্কে ভগবান মহাবীব-এব মামাতাে বােন। তিনি যখন সংবাদ পেলেন যে মহাবীব কৌশাম্বীতে এসেছেন , তখন তিনি উদযনকে সঙ্গে নিযে চন্দ্রাবণ চৈত্যে তাঁব সঙ্গে দেখা কবতে গেলেন। সঙ্গে আবাে এলেন উদযনেব পিসী বাজা শতানীকে মেযে জয়ন্তী।
মহাবীব ধর্মোপদেশ দিলেন। তাবপব প্রশ্নোত্তব। জয়ন্তী শ্রমণােপাসিকা ছিলেন। শ্ৰমণ ধর্মে তব গভীব অনুবাগ ছিল প্রশ্নোত্তবেব সময় তিনি তাই ভগবান মহাবীবকে অনেক প্রশ্ন কবলেন। সে সমন্ত প্রশ্নে একটি : ভগবান্, ঘুমিয়ে থাকা ভালাে না জেগে থাকা ?
মহাবীব বললেন, কাক ঘুমিয়ে থাকা ভালাে, কাৰু জেগে থাকা। জয়ন্তী বললেন, ভগবান, সে কি কম?
মহাবীব বললেন, যে অধার্মিক, যে অধর্মের অনুষ্ঠান কবে, অধর্ম যাব প্রিয, তার ঘুমিয়ে থাকাই ভালাে, তাহলে সে অনেক লােকের অনিষ্ট করা হতে বিবত থাকবে এবং এই বিবত থাকার জন্য তার পাপ সঞ্চযও কম হবে। কিন্তু যে ধার্মিক, ধর্মান্তবাগী, ধর্মই যাব প্রিয় তাব জেগে থাকাই ভালাে। সে যদি জেগে থাকে তবে সে অনেক লােককে ধর্মে প্রবর্তিত কবে এবং নিজেও কল্যাণ সাধন কববে। জ্যন্তী, তাই কাকব ঘুমিয়ে থাকা ভালাে, কাক
জয়ন্তী আবার প্রশ্ন কবলেন, ভগবান, দুর্বলতা ভালাে না সবলতা ? মহাবীব বললেন, কাকব দুর্বলতা ভালাে কাব সবলতা। ভগবান্ সে কি কম ?
জয়ন্তী, যে অধার্মিক, যে অধর্ম দ্বারা জীবিকা অর্জন কবে, তার দুর্বলতাই ভালাে। সে যদি দুর্বল হয় তবে অনেকেব দুঃখেব কাবণ হয় না। কিন্তু যে ধার্মিক তাৰ সবল হওবাই ভালাে। সে অনেক সৎকাজেব অনুষ্ঠান করতে পাবে।
জয়ন্তী আবার প্রশ্ন কবলেন, ভগবান, উদ্যমী হওযা ভালাে না অলস ? মহাবীব বললেন, কাৰুব উদ্যমী হওয়া ভালো, কাকব অলস। জন্তী বললেন, সে কি বকম ?
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মহাবীব বললেন, যে অধার্মিক, যে অধর্মেব আচরণ করে বেড়ায় তাৰ অলস হওয়াই ভালো। তাতে সে অনেকের সামান্যই ক্ষতি করতে পারবে। কিন্তু যে ধার্মিক, ধর্মানুষ্ঠান করে, তাৰ উদ্যমী হওয়াই ভালাে, কারণ তাতে সে অনেকের মঙ্গল সাধন করতে পারবে।
| এ সমস্ত প্রশ্নোত্তৰ সামান্যই মনে হতে পাবে, কিন্তু এদের পেছনে যে দৃষ্টিভঙ্গী রয়েছে তা সামান্য নয়। সে দৃষ্টিভঙ্গী আপেক্ষিক বা অনেকান্তবাদের। আপেক্ষিকবাদ বা Relativity আজ আমাদেব কাছে নূতন নয় কিন্তু আজ হতে ২৫০০ বছর আগে এই দৃষ্টিভঙ্গী নিশ্চয়ই নৃতন ছিল। ভারতীয় মনীষার ক্ষেত্রেও নৃতন কারণ আপেক্ষিক দৃষ্টিভঙ্গী একমাত্র জৈন দর্শন ছাড়া আর কোথাও দেখা যায় না। এজন্য জৈন দর্শনকে অনেক সময় অনেকান্ত দর্শন বলে অভিহিত কৰা হয়। আব এই যুগান্তকারী অনেকান্ত দর্শনের প্রবর্তক ছিলেন ভগবান মহাবীব।
সংক্ষেপে আপেক্ষিকদের তাৎপৰ্য হল বিভিন্ন প্রকার দৃষ্টিকোণ হতে বিচাব বা দেখা। পদার্থ মাত্র যখন অনন্তধর্ম তখন একান্ত ব্য নিশ্চযাত্মকৰূপে কোন বস্তুর ধর্ম নিরুপণ কৰবাব চেষ্টা কখনাে সত্য হতে পাবে না। তাকে নানা ধর্ম দিয়ে বিচার কবে দেখতে হয়। লােকটি পিতা বলে তার সম্পূর্ণ পরিচয় দেওয়া হয় না। পুত্রেব অপেক্ষা সে যেমন পিতা, পিতাব অপেক্ষায় সে তেমনি পুত্রও। তাই লােকটিকে যথার্থভাবে জানতে গেলে তার সমস্ত ধর্মকে গ্রহণ করতে হয়। আমাদের উপবােক্ত উদাহবণেব ঘুমিয়ে থাকা ভালাে না জেগে থাকা, সবল হওয়া ভালাে না দুর্বল, উদ্যগী হওয়া ভালাে না অলস—অন্য কেউ হলে নিশ্চয়ই বলত, জডত্ব ভালাে নয়, দুর্বলতা পাপ, উদ্যমী হওযাই পুরুষার্থ। কিন্তু মহাবীর তা বলেননি। বলেননি তাব কাবণ তব অনেকান্ত দৃষ্টি। জডত্ব যেমন দোষ, ক্ষেত্রও সময় বিশেষে তা আবাবগুণও। যে দুরাচাব, যে সমাজ বিবােধী, সে সদি ঘুমিয়ে থাকে তাতে যেমন সামূহিক মঙ্গল, তেমনি তাতে তার ব্যক্তিগত কল্যাণও। কুম্ভকর্ণ বছবেব পৰ বছৰ না ঘুমিযে যদি জেগে থাকতাে, তবে সংসাবেব কি হত ভাবতেও ভযু কবে ! বাবণ যদি উদ্যমী না হতেন তবে সীতা হবণ কবতেন না, লাবও বিনাশ হত না।
দুষ্ট লােকেব কোনাে যুগেই অভাব নেই। সেদিনও ছিলনা, আজো নেই। তাদেব দিকে চেযে ভগবান মহাবীরের সেই কথাই মনে পডে—এবা যদি ঘুমিযে থাকত বা বলহীন হত বা উদ্যমহীন তাহলে সমাজের যেমন তাতে কল্যাণ ছিল, তেমনি তাদেব নিজেদের ব্যক্তিগত ভাবেও কল্যাণ ছিল।
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1
सन् १६६५
सन् १६६६
सन् १६६७
सन् १६६८
सन् १६६६
सन् १६७०
सन् १६७१
सन् १९७२
भगवान महावीर जयन्ती समारोह समिति
भूतपूर्व अध्यक्ष एवं संयोजक
अध्यक्ष
श्री मोहनलाल लल्लू चन्द शाह
श्री विजय सिह नाहर
श्री दीपचन्द काकरिया
श्री विजय सिंह नाहर
श्री हनुमानमल वेगानी
श्री जुगमन्दिर दास जैन
श्री शीतलप्रसाद जैन
श्री शीतलप्रसाद जैन
संयोजक
श्री कमलसिह दुधोडिया
श्री पन्नालाल नाहटा
श्री पन्नालाल नाहटा
श्री पन्नालाल नाहटा
श्री पूनमचन्द गीया
श्री तिलोक चन्द डागा
श्री तिलोकचन्द डागा
जैन
श्री कमलकुमार
सयुक्त संयोजक
श्री पन्नालाल नाहटा श्री सम्पतकुमार श्री सम्पतकुमार गधैया
श्री सोहनलाल पारसान
श्री सोहनलाल पारसान श्री पूनमचन्द गीया
श्री अनिल कोठारी श्री हिम्मत सिंह जैन
श्री रिखवदास भंसाली
श्री नन्दकिशोर जैन
""
श्री प्रफुल्ल आर० कोठारी
श्री धन्नालाल काला
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भगवान महावीर जयन्ती समारोह समिति संचालक - श्री जैन सभा, ७ शम्भूमल्लिक लेन, कलकत्ता-७
वी० सं० २४६६ की कार्यकारिणी समिति के सदस्य
सभापति
श्री हनुमानमल बॅगानी
उपसभापति
श्री गम्भीरचन्द बोथरा
श्री रिखवचन्द पहाडिया
श्री विजय सिंह नाहर श्री रामकृष्ण सरावगी
श्री परीचन्द बोथरा श्री मिश्रीलाल जैन
श्री रामचन्द्र सिंघी
श्री नथमल सेठी श्री जुगमन्दिरदास जैन
श्री दीपचन्द कांकरिया
श्री मदनलाल पाण्डया श्री गोविन्दलाल सरावगी
प्रो० कल्याणमल लोढा
संयोजक कमल कुमार जैन
संयुक्त संयोजक
श्री अनिलकुमार कोठारी
श्री नन्दकिशोर जैन ( सम्पर्क विभाग )
कोषाध्यक्ष
श्री रिखवदास भसाली
श्री केशवलाल जे० खण्डेरिया.
श्री विहारीलाल जैन
श्री विजयकुमार छाजेड (स्मारिका विभाग )
सदस्य
श्री पूनमचन्द घीया
श्री प्रफुल्ल आर० कोठारी
श्री कुमारचन्द्र सिंह दुधोडिया
श्री मोहन भाई झवेरी
श्री हरकचन्द कांकरिया
श्री भंवरमल सिंघी
श्री नवरतनमल सुराना
श्री छगन भाई चूडावाला
श्री सीताराम पाटनी
श्री खेमचन्द सेठिया
श्री सूरजमल बच्छावत
श्री दीपचन्द नाहटा
11
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C
"श्री-लाभचेन्द्र राय सुराना
श्री छोटालाल हरीदास गांधी
श्री जयचन्दलाल वगडा
श्री हरीसिंह श्रीमाल
श्री प्रेमचन्द मोघा
श्री रामस्वरूप जैन
श्री कन्हैयालाल घोडावत श्री हिम्मत सिंह जैन
श्री छतर सिंह वैद
श्री नागरमल जैन
श्री जयकुमार काला श्री कांतिलाल श्रीमाल श्री तिलकचन्द जैन
श्री नन्दलाल जैन श्री केवलचन्द नाहटा
श्री कल्याणचन्द जैन
श्री केशव भाई शाह
श्री मन्नालाल बरडिया
श्री मोहनलाल वैद
श्री धन्नालाल काला श्री बाबूलाल लक्ष्मीचन्द शाह
श्री गणेश ललवानी
श्री रसिकलाल सेठ
श्री नरेन्द्र देशाई
जैन
श्री पुरणचन्द
श्री मोहनलाल पारसान
श्री प्रभुदयाल डावडीवाला श्री सन्तोषचन्द वरडिया
श्री ताजमल बोथरा
श्री दिलीप सिंह नाहटा
श्री किशनलाल काला
1
श्री रमणिकलाल मेघानी श्री सिद्धराज भण्डारी श्री महेशचन्द जैन श्री माणिकचन्द नाहटा श्री धिरेन्द्र कुमार जैन श्री राजेन्द्र सिंह लोढा श्री कैलाशचन्द जैन श्री प्रद्योत कुमार नाहटा श्री इन्द्र प्रकाश मेहता श्री तिलोकचन्द डागा श्री भंवरलाल सिंघी श्री श्रेणिक कुमार सिंघी श्री राजेन्द्र कुमार जैन श्री झवरलाल वैद श्री श्रवणकुमार जैन श्री भरत भाकडा श्री शांतिलाल बाकलीवाल श्रीमती सूरज देवी बेंगानी श्रीमती उदयकुमारी दुधोडिया श्रीमती शकुन्तला चिंतामणी
श्रीमती सुलेखा जैन श्री भंवरलाल करनावट
श्री भंवरलाल नाहटा श्री ओकारलाल वोहरा श्री सुगनचन्द पाण्डया
श्री वछराज सेठिया
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भगवान
भगवान महावीर जयन्ती समारोह समिति
वि० सं० २४६६ के सदस्य
श्री हनुमानमल वेंगानी श्री विजयसिंह नाहर श्री शीतल प्रसाद जैन श्री परीचन्द बोथरा श्री केशवलाल जे० खण्डेरिया श्री मिश्रीलाल जैन श्री रामचन्द्र सिधी श्री जुगमंदिर दास जैन श्री गोविन्दलाल सरावगी श्री मदनलाल पाण्डया श्री हरकचन्द कांकरिया श्री नथमल सेठी प्रो० कल्याणमल लोढ़ा श्री रिखबचन्द पहाडिया श्री मोहनलाल वैद श्री गम्भीरचन्द बोथरा श्री मदनलाल काला श्री कुमारचन्द्र दुधोडिया श्री नन्दलाल सरावगी श्री पारसमल कांकरिया श्री मोहनलाल पारसान श्री नवरतनलाल सुराना श्री हिम्मत सिंह जैन श्री मोहनलाल बांठिया श्री कमल कुमार जैन श्री लाभचन्द राय सुराना श्री हरकचन्द पाण्डया श्री सूरजमल बच्छावत श्री भंवरलाल नाहटा
श्री अनिलकुमार कोठारी श्री छोटालाल हरीदास गाधी श्री विजयकुमार छाजेड़ श्री दीपचन्द नाहटा (सरदार शहर) श्री रिखवदास भंसाली श्री पूममचन्द गीया श्री नन्दकिशोर जैन श्री बिहारीलाल जैन श्री रसिकलाल सेठ श्री प्रफुल्ल आर० कोठारी श्री भंवरलाल बेद श्री किशनलान काला श्री भरत भाकडा श्री समुद्रगुप्त जैन श्री कांतिलाल श्रीमाल श्री रामस्वरूप जैन श्री इन्द्रप्रकाश मेहता श्री नन्दलाल जैन श्री प्रद्योतकुमार नाहटा श्री जयकुमार काला श्री विरेन्द्रकुमार जैन श्री बाबूभाई लक्ष्मीचन्द दोसी श्री ताजमल बोथरा श्री राजवैद्य जसवंतराय जैन श्री जगतसिह चोपडा श्री शांतिलाल बाकलीवाल श्री जयचन्द लाल बगडा श्री मानकचन्द नाहटा श्री श्रवणकुमार जैन
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या-नागरमल जन 'श्री श्रीचन्द रामपुरिया
श्री धर्मचन्द जैन श्री सुगनचन्द पाण्डया श्री विजयचन्द मोघा श्री गणेश ललवानी श्री अवधनारायण जैन श्री झवरलाल वोथरा श्री सीताराम पाटनी श्री भंवरलाल करनावट श्री तिलकचन्द जैन श्री राजेन्द्र सकलेचा श्री चुन्नीलाल भायचन्द्र शाह श्री बलदेवराज जैन श्री भंवरलाल सिंघी श्री केवलचन्द नाहटा श्री चन्दनमल भूतोडिया श्री मोतीलाल मालू श्री मानकचन्द जेन श्री धर्मचन्द राखेचा श्री बछराज सेठिया
श्री अशोककुमार जैन श्री कन्हैयालाल माल श्री शोभाचन्द सुराना डा० भूपेन्द्रकुमार कोचर श्री महेशचन्द जैन श्री छतरसिह वैद श्री अमरचन्द जेन श्री रमणिकलाल मेघानी श्री पूरणचन्द जैन श्री राजेन्द्रकुमार जैन श्री कन्हैयालाल घोडावत श्री धन्नालाल काला श्री प्रेमचन्द चोपडा श्री दिलीपसिंह नाहटा श्रीमती सूरजदेवी वेगानी श्रीमती कुसुम कुमारी जैन श्रीमती सुलेखा जैन । श्रीमती इन्दिरा देवी जैन श्रीमती मधु मंसाली श्रीमती उत्तमदेवी मेहता मती गणपति छाजेड
नोट-उपरोक्त प्रत्येक सदस्य से ११ रु० की सहायता मिली है।
श्री परीचन्द वोथरा से २५१) की विशेष सहायता प्राप्त हुई है।
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પુષ્પા શાહ
દિવ્ય દીપ મહાવીર
વસંતના વધામણા લઇને અહાક વાયુ વસંતની પહેલા જ આવે છે તત્વની આગાહી વાતાવરણમા પહેલેથી જ વર્તાવા માડે છે
તેમજ મગળ
જે
ધીમેથી સમીર સૌના કાનમા કહી રહ્યો છે ચૌત્ર સુદી તેરસનુ મંગલ પ્રભાત એક અદ્વિતિય મ ગલના સ દેશે। લઇ, જનતાને ધીમે ધીમે ઢ ઢાળી ચેતનવદંતી મનાવી રહ્યુ છે દુનિયાની ચીર:કાળની નિદ્રાને પેાતાના પ્રખળ પુરૂષા દ્વારા ક્ષણમાત્રમા વિખેરી નાખવાના છે, તેવી મહાન વિભૂતીના પૃથ્વીપરના આગમનને વધાવવા સજ્જ અને
પ્રજાના
વીર વધુ માનના
નહિ,
મનુષ્યને
અને રાજમહેલમા નેાખતા ગગડી ઉઠી
રાજકુમારના જન્મના વધામણાની આનંદને પાર નથી. ઉત્સાહથી પ્રજા રાજમહેલ તરફ ઉમટી રહી છે જન્માત્સવમા પેાતાની આનંદ ઊર્મિએ વહાવવા, વધુ માનના જન્મ એકલા પર તુ દેવેને પણ આકર્ષી રહ્યો છે
વધમાન શિશુમાંથી ધીમે ધીમે ખાળવયના પ્રાગમા પગલા પાડી રહ્યા તેઓની નીડરતા, અદ્ભુત સાહસિકતાથી તેના સાથીએ આશ્ચય ચકિત બની રહેતા
or
બાળવયની
જીવનના કૌશવને વટાવી યુવાવસ્થામાં આતરિક શત્ર એને જીતવા માયાના ગાઢ સાંસારિક બંધનેાને તેાડી વમાન સાધના માટે નીકળી પડ્યા. ક શત્ર એને પરાજીત કરવા માટે તેએએ જે પ્રમળ પુરૂષાથ કર્યાં, નિરંતર સાડાબાર વર્ષો સુધી માનવ તથા દેવ સત અસહ્ય કષ્ટોને લગીરે ખેદની લાગણી વગર સમભાવથી સહન કર્યાં, તેનાથી આશ્ચય કિત દેવેએ તથા જનતા જનાર્દને ફકત વીરજ નહિ, પરતુ મહાવીરનું બિરૂદ આપ્યુ. યુગ યુગાતર સુધી એજ નામ અમર રહ્યુ અને રહેશે
આ વાતનુ કેટલે અંશે સમન “સભાવામિ યુગે યુગે' ઘણા લેકે માને છે, કે પૃથ્વી ઉપર પાપ જ્યારે મૂખજ વધી જાય છે, ત્યારે ભગવાન તેના નિવારણ માટે અવતાર લેય છે પર તુ એટલુ તેના જરૂર છે, કે પૃથ્વી કયારેય સંપૂણુ પુણ્યવંતી થઈ શકે, તે કહી શકાય નહિ, જો તેવું થઈ શકયુ હેાત, તેા સ્વગ' પૃથ્વી ઉપર જ ઊતરી આવ્યું હાત ! મની નથી.
હા! પણ મહાપુરૂષાના પ્રખળ પુરૂષાથ થી અધમ અને તેને અ ગે વસ્વ જમાવી બેઠેલા અંધશ્રદ્ધા અને વહેમેાના જરૂર નાશ થાય છે.
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ભગવાન મહાવીર તે યુગના પ્રખર ક્રાતિકારી પુરૂષ હતા, જે યુગ વ ક્રિકધમ ની વ્યાપકતને અને બ્રાહ્મણાના વ સ્વના યુગ હતા ધર્મોના નામે હામ, હવનમા પશુઓને અને કેટલીકવાર માનવીએના પણ અલિ ચઢાવાતે રાજાએ ઉપર પણ બ્રાહ્મણેાનુ રાજગુરૂ તરીકે સ પૂર્ણ વ`સ્વ હતું તેથી પ્રજા તે અ ધશ્રદ્ધામાથી નીકળીયેાગ્યા ચેાગ્યતાના વિચારની કલ્પના પણ કરી શકતી નહિ એવા હતા એ વદિક ધર્મના વ્યાપકપણાના કાળ
જેને
આવા કાળના રચતાને કેશુ લલકારી શકે ? જે સ પૂર્ણપણે નિસ્વાર્થ છે માહ્ય, અભ્ય તર કેાઈ શત્ર એ રહ્યા નથી જે પેાતાના સ પૂર્ણ જ્ઞાનમા યથાતથ્ય જોઇ રહ્યા છે. તેજ તેવા યુગમા જીવા અને જીવવાદ્યો” જેવા મહાન સંદેશને લેાકેા સમક્ષ મૂકવાની હિંમત કરી શકે પ્રભુએ કહ્યુ કે સવ્વ ભૃપ ભૃચેસુ સમ્મ ભૂયાઇ પાસએ” દરેક જીવને તારા જીવ જેવાજ સમજ અને જાણુ તને તારા જીવ ખ્યાા છે, તેવી જ રીતે દરેક જીવેાને પેાતાના જીવ પ્યારા છે તેને અગ્નિમા હેામી દેવાના તને શુ અધિકાર છે ? હેામ કરવા જ હાય તેા તમારા વિકારાને વાસનાઆના કરેા અને જનતા આ નવા સ દેશ સાભળી ચાકી ઉઠી જોવા ઉમટી પડી કે આવેા નિ`ય, ક`પ્રિય અને હૃદય ગમ સ દેશ આપનાર કાણુ મહાન તેજસ્વી, પ્રભાવશાળી, નિર્માંહી પ્રભુના વ્યકિતત્વને જોઇને જ ચરણામા મમર્પિત થઈ ગઈ
એવી મહાન વિભુતીના દનની એ કાળે સ્ત્રીએને સુવિદ્યા ન હતી દાસી, પુરૂષનુ રમકડુ, અને ગૃહસ ચાલન માટે વગર પગારનુ બૈતરૂં કરનાર લાગણી સ્ત્રીએ માટે હતી નહિ
પ્રગતિશીલ ગણાતા આ યુગમા સમાન હક્ક માટે ઘણી જ ચળવળ કરવી જે ધમ ના સિધ્ધાત ઘણાજ ઉચ્ચ છે સવ જીવાને સમાન ગણનારા છે સ્ત્રીએ માટે ઘણી ઘણી મર્યાદાએની પાળ ખાધેલી છે વ રિાત રાખવામા આવી છે.
સ્ત્રી એટલે એક તેનાથી કાઇ અધિક
પડી છે અને પડે છે. તેમા અત્યારે પણ
ધર્માંના ઘણા ઉચ્ચ આદર્શોથી સ્ત્રીએને
પ્રભુ મહાવીરને મહત્વપુણ્ સ દેશ હતા,
અને
?
એને આ અવદશામાથી ઉગારવાના ધર્મ સમભાવનુ સ્તોત્ર વહાવી રહ્યો છે, તેમા ઉચ્ચ शु ? અને નીચ શુ ? સ્ત્રી શુ પુરૂષ શુ દરેકને પેાતાના આત્મ કલ્યાણ માટે સ પુણુ સ્વતન્ત્રતા છે દરેક જીવ પેાતાના પુરૂષા વડે મુક્ત અને સિદ્ધ અની શકે છે પ્રભુએ પેાતાના સઘમા સ`પ્રથમ સ્થાન આવ્યુ રાજકુમારી ચ દનબાળાને, સાધ્વી ચ દનબાળા તરીકે જે સ્થાન સ ઘમા ગૌતમ સ્વામીનુ તથા દરેક સાધુએનુ હતું, તેજ સ્થાન ચ ઇનખાળા તથા દરેક સાધ્વીએનુ હતુ આવી રાતે આજથી લગભગ અઢી હજાર વર્ષ પહેલા ભગવાન મહાવીરે સ્ત્રીએના ઉત્કર્ષોં માટેનુ ‘ખી’ વાળ્યુ અને તે ફાલી ફૂલીને વૃક્ષ થયુ સાધ્વીએની પર પરા અત્યારે પણ જૈનધમ મા ઘણી જ છે મલકે સાધુએની સ ખ્યા કરતા સાધ્વીઓની સ ખ્યાતા વિશેષ છે જ પર તુ પ્રખર વિદ્વતામાં પણ ઘણા સાધ્વીજીએ આગળ છે
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વચ્ચેના સકાઓમાં રાજકીય અસ્થિરતાને અગે સામાજીક વ્યવસ્થા પણ ઘણી ડામાડોળ થઈ ગઈ. જ્યાં પુરૂષોને જ પુર્ણ સ્વતંત્રતા ન હતી, ત્યા સ્ત્રી સ્વાતંત્રયની તો વાત જ ક્યા ? પરંતુ પૃથ્વી સદાયે “બહુ રત્ના વસુધરા” રહી છે અને તેમાયે ભારતવર્ષની ભુમિએ જેટલા સ તોની શૂરવીરોની ભેટ આપી છે તેટલી બીજા કોઈ દેશોને ભાગ્યે જ મળી હશે
કોઈપણ રીત, રિવાજ પ્રથા સારી યા ખરાબ તેને ઉખેડીને નવા વિચાર યા આચારને સ્થાપિત કરવા હોય, ત્યારે ઘણાં માનસિક બળની અને નૈતિક હિંમતની જરૂર હોય છે નૈતિક હિંમતના અભાવે દુનિયા હમેશા નવી વસ્તુને એકવાર તો ઘેલછા સમજીને ઉપહાસ કરી ઉડાવી દેવા પ્રયત્ન કરે છે. પરંતુ દ્રઢતાના સિંચને સિચાયેલ વ્યક્તિ જ અડોલ અને એક પ રહે છે.
ઝાસીની રાણીએ દેખાડી આપ્યું કે સ્ત્રીએ કયાયે શારિરીક અથવા બુદ્ધિબળમાં પુરૂષથી ઉતરતી નથી કુદરતે તે બાબતમાં પક્ષપાત કર્યો નથી માનવ સમાજની વ્યવસ્થાએ અમૂક ક્ષેત્રથી સ્ત્રીઓને વંચિત રાખી બુદ્ધિહીન દેખાડવાનો પ્રયાસ કર્યો હતો
અત્યારે સ્ત્રીઓ ઘણા ક્ષેત્રે સમાનતા ભોગવી રહી છે સ્ત્રીઓનું સ્થાન ઘણું ઊંચુ આવ્યુ છે. દરેક સ્ત્રીએ સ્વમાનતાપૂર્વક જ જીવવું જોઈએ પરંતુ કયારેક લાગે છે કે વિચારરૂપી વલોણામાથી નીતરેલું આ નવનીત નથી ઉપરના ફીણ પરપોટા જેવું છે.
દરેક ક્ષેત્રની, વાતાવરણની, વ્યક્તિની મર્યાદા હોય છે વિચારપૂર્વક તેને સમજીને, અનકળ બનીને જે આગળ વધે છે, તે જ ધ્યેયને પામી શકે છે આ ળી દોટમાં ક્યારેક ગય ડી પડવાનો ભય છે અનેક બલિદાનોના પવિત્ર પાયા ઉપર ચણાયેલી આ ઇમારતમાથી આપણે મહેલ બનાવવો જ છે વા, વ ટોળા સામે યુગ, યુગાન્તર સુધી અણનમ રહે તેવો અને તે માટે દોટ નહિ પણ સ્થિર પગલાની અતિ આવશ્યકતા છે
આ સ્થિર પગલાં અહિસા અનેકાન્તવાદ અને અપરિગ્રહના સિદ્ધાંતો દ્વારા જ માડી શકાશે સમાજવાદ, સામ્યવાદ કોઈ પણ વાદ દ્વારા વ્યક્તિની શક્તિઓને રૂંધીને સમાનતા લાવી શકાય નહિ
પ્રભુએ સમાજવાદનુ નીરૂપણ કરી તેનું હાર્દ ખૂબજ સરસ રીતે સમજાવ્યું છે વ્યકિતની શકિતઓને રૂંધીને નહિ, પણ તેને ખીલવીને તેના વડે ભાવનાઓને ઉદ્દાત બનાવી છે અહિંસા અપરિગ્રહનો અર્થ નિષ્કિયતા નથી. અસત્ આચરણ લાચાર બની જોયા કરો નહિ જ્યારે જરૂર હોય, ત્યારે ખમીરવ તા બની ખડા થઈ જાવ ગાધીજી આ અહિંસાના સિદ્ધાતને બરાબર સમજ્યા હતા અને તેથી જ અહિંસા દ્વારા આટલી મોટી સિદ્ધિ હાસલ થઈ, અપરિગ્રહના નામે નિષ્ક્રિયતાને અપનાવો નહિ ન્યાયના માર્ગે તમારી શકિતઓને ખીલવી તેના દ્વારા મેળવેલું આસકિત ભાવ વગર જરૂરિયાત પુરતું રાખી, બાકીનુ જેનામાં તે શકિત નથી, તેને વહેચી દે. તેથી ઉત્પાદન ઘટતું નથી અને આપોઆપ જ દરેકની જરૂરિયાત જળવાઈ જાય છે
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છે અરિગ્રહનો વ્યાપક અર્થ. આ છે સાચે સમાજવાદ તેને બરાબર સમડ, અપનાવવાથી જ જીવન જીવવા માટેના અનિવાર્ય સાધનો અન્ન અને વસ્ત્રની આજની કટોક નિવારણ થઈ શકશે.
આવતાકાળના એંધાણ પારખી, પ્રત્યક્ષ જોઈને જ, પ્રભુ મહાવીરે કરૂણાભાવથી પ્રે જનતાના સુખ અને શાંતિ માટે અહિંસા, સત્ય અને અપરિગ્રહનો મહાન ઉપદેશ આપેલો જેના આપણી ઉપર આવા અગણિત ઉપકારો છે, તે પ્રભુ મહાવીરની જન્મ જ્ય તિ આવી છે અને “પચ્ચીસમી નિર્વાણ તિથિ પણ નજીકના ભવિષ્યમાં જ આવી રહી છે તે એ દેવાધિદેવ, પરમકૃપાળુ પરમાત્મા પ્રત્યે આપણું શું કર્તાવ્ય છે ? તે વિચારવાની એક ડગલું આગળ વધી આચરણમાં મૂકવાની ક્ષણ આવી પહોચી છે
ક્ષણજીવી કાર્યક્રમો તો દર વર્ષે થતા રહે છે અને ભુલાઈ જાય છે “પચીસસે નિર્વાણ તિથિ” ઉપર તો કેઈસ ગીન કાર્ય કરવાનું છે જે યુગ યુગાન્તર સુધી દશે દિશા પ્રભુના સ દેશને ફેલાવતું રહે, પ્રસારિત કરતું રહે.
પ્રભુ મહાવીરના ભકતો ! ઉઠો, યતા સાધો અને સંગીનકાર્યની રૂપરે વીરાયતન” આકાર લઈ રહી છે, તેમાં કાર્ય રૂપી અંજલી આપી કૃતાર્થ થાઓ
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जैन कथाओं में नारी
युगों के परिवर्तन के साथ नारी की स्थिति परिवर्तित हुई और उसने कभी सम्मान प्राप्त किया तो कभी निरादर की विषाक्त घट पीकर स्वय को धिक्कारा । कभी वह नर की दासी बनी और उसे आराध्य माना तो कभी सेविका बनकर उदर-पूर्ति के लिए दर-दर मारी फिरी । स्वार्थी पुरुष ने इस त्यागमयी नारी को अपने दासत्व मे रखकर ही सुख की सांस ली । उसे ज्ञात था कि एक बार स्वतत्र होने पर नारी अपनी प्रतिभा के बल पर सारे विश्व को प्रभावित कर सकती है। धर्मशास्त्री ने नारी की स्वतन्त्रता पर अनेक अ कुश लगाए और सदैव उसे शका की भावना से देखा । सहिष्णुता की प्रतिमा इस देवी ने सब कुछ सहा और शन शन अपने आपको चेरी मानने मे ही आनन्द का अनुभव किया, किन्तु निरन्तर अपमानित होने से उसकी आत्मा ने विद्रोह किया और नीति-निपुण पुरुष ने अपना दृष्टिकोण बदलकर उसे कुछ अधिकार देने का आश्वासन दे दिया।
नारी की बर्बादी और आजादी की एक लम्बी कहानी है । सन्त कवियो ने तो इसी जननी रूपा नारी को विषय-वासना की प्रतिमूति कहकर नरक द्वार के रूप मे इसे अपमानित किया और सर्पिणी से भी अधिक भयानक इसे बताया । हाँ कतिपय काव्यकार एव लेखक ऐसे भी हए जिन्होने नारीनिंदा की कटु आलोचना की और शक्ति स्वरूप नारी को विश्व-सस्कृति की आधार-भूमि बताया। श्री अद्भुत शास्त्री ने अपनी 'नारी' शीर्षक कविता मे इस महिमामयी की इस प्रकार वदना की है:
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जैन कथानो मे नारी
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प्रवल शक्ति री, जग की धात्री नारी
नव निर्माण करो तुम । आशाओ की चिर अभिनेत्री,
प्रतिपल जग का मान करो तुम । तेरे स्वर के ही सयम ने, सर्जनकर ससार बसाया, जगती के कल्पित सपनो मे, वह पावन सा प्यार जगाया । तेरे अभिनव इन अधरो ने, उल्लासित शृ गार किया था, प्रलय-पुरुष मनु को श्रद्धा बन, मीठा सा उपहार दिया था । महिमा मयी महामाया हो, चपला सी प्रतिमा चचल, तेरे चरणो की छाया में गिरता-उठता जग प्रतिपल । अधरो मे तुम विश्व छिपाए, जीवन मे बढती जाती हो, आँधी आए बिजली कडके, तूफानो को सहती जाती हो। युग देवी, तेरी सत्ता का आदि नहीं है, अन्त नहीं है, तुझ मे जो कुछ मिल जाता है, उसका भी तो अन्त नही है।
कविवर प्रसाद ने नारी को श्रद्धा-रूप मे सम्मानित कर अपने महाकाव्य कामायिनी की सृष्टि को सफल माना है। इसी प्रकार कवि पन्त ने 'पल्लव' मे कल्याणी, सुकुमार, स्नेहमयी आदि सम्बोधनो से नारी को सम्मानित किया है
स्नेहमयि । सुन्दरतामयि ! तुम्हारे रोम-रोम से नारि ! मुझे है स्नेह अपार, तुम्हारा मृदु उर ही सुकुमारि। मुझे है स्वर्गागार । तुम्हारे गुण है मेरे गान, मृदुल-दुर्बलता, ध्यान, तुम्हारी पावनता अभिमान, शक्ति, पूजन, सम्मान, अकेली सुन्दरता कल्याणि, सकल ऐश्वर्यो की सधान ! तुम्हारे छूने मे था प्राण, सग मे पावन, गगा-स्नान । तुम्हारी वाणी मे कल्याणि ।
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जैन कथाओ का सांस्कृतिक अध्ययन
त्रिवेणी की लहरो का गान । उषा का था, उर मे आवास, मुकुल का मुख मे मृदुल विकास, चाँदनी का स्वभाव मे भास, विचारो मे बच्चो के सास ।
सामाजिक सीमा की परिधि में आबद्ध नारी के विविध स्वरूप हमे जैन कथा मे देखने को मिलते है । भगवान् जिनेन्द्रदेव की जननी के रूप मे वह विश्व वन्दनीय है तो वैधव्य के शाप से शापित वह सर्वत्र अपमानित है। कभी वह महिपी बनकर राज सभा मे बैठती है तो कभी चेरी बनकर अपने सतीत्व को भी कतिपय मुद्रा की उपलब्धि के लिए बेचने को बाध्य होती है। कभी वह अपनी प्रवीणता से राजाओ को चकित करती है तो कभी सीत से प्रपीडित बनकर आत्महत्या के कूप मे स्वयं को पटक देती है । कभी वह आवेश में आकर पाप कर्म करने के लिए कटिबद्ध होती है और फलत अपने सौन्दर्य को खोकर अपकीर्ति के दल-दल मे फंस जाती है तो कभी साध्वी बनकर आध्यात्मिक उपदेशो की वर्षा करने लगती है। कभी वह वेश्या बनकर अपनी उदर पूर्ति हेतु जघन्य से जघन्य पाप करने को आतुर होती है तो कभी अपने सतीत्व के कारण देवताओ की आराध्य देवी बन जाती है । कभी वह पतिव्रता वनकर एक महान आदर्श की स्थापना करती है तो कभी व्यभिचारिणी बनकर अपनी कामानुरता का प्रदर्शन कर लोक मे घृणा की दृष्टि से देखी जाती है प्रादि आदि। यहाँ जैन कथाओं के माध्यम से नारी के विविध बाञ्छनीय एव प्रवाञ्छनीय रूपो की झांकियां प्रस्तुत की जाती है
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(१) माली की दो लडकियाँ केवल जिन मंदिर की देहली पर एकएक फूल चढाने के कारण मरने के उपरान्त सौधर्म इन्द्र की पत्नियाँ बनी थो । माली की लडकियो की कथा - पुण्याश्रव कथा कोश, पृष्ठ १ (२) श्रावस्ती नामक नगरी के सेठ सागरदत्त की पत्नी नागदत्ता सोमशर्मा नामक ब्राह्मण से अनुचित सम्बन्ध स्थापित कर अपनी पतन - शीलता का परिचय देती है । कर कुण्ड की कथा - पुण्याभय कथा कीरा रानी अभयवती लज्जा के कारण की सखी भागकर पटना में वेश्या पुण्याभव कथा कोश
(३) सुदर्शन सेठ की कथा मे प्रात्मघात करती है और पडिता नाम बनकर रहने लगती है ।
(४) रानी प्रभावती अपने शील के प्रभाव से देव पूज्या बनती है और नारी के आदर्श को ससार के सम्मुख रखकर नारी जाति की प्रतिष्ठा बढ़ाती है। प्रभावती रानी की कथा, पु० क० को०
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जन-कथाओ मे नारी
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(५) नीलीबाई ने अपने पीलव्रत की परीक्षा मे सफलता प्राप्त की
और नगरदेव ने उनकी प्रशस्ति का गान किया। गीली चाई की कथा, पु० फ० कोश (६) काश्मीर नरेश की त्रिभुवनरति नामक पुत्री अपने वीणा वादन कुशलता का प्रदर्शन करती है और घोषणा करती है कि जो उसे बीणा के बजाने मे पराजित करेगा वही उसका पति होगा ।
म
नागकुमार मानदेव की कथा, पृ० क० कोश (७) मैना सुन्दरी अपनी व्रत साधना के बल पर ग्रुपने पति को कुष्ठरोग से मुक्त करती है ।
श्रीपाल एव मैना सुन्दरी की कथा, पुण्याव्यव कथा कोश (८) सोम शर्मा ब्राह्मण की पत्नी अकारण ही स्वपति से डडो की मार खाकर अपने भाग्य को कोसती है और अपने प्रबोध बच्चो को साथ लेकर गिरनार पर्वत पर भगवान की शरण में रहने लगती है।
"
श्रग्निला ब्राह्मणी को कथा, पुण्याश्रव कथा कोश
(१) रानी मदन सुन्दरी अपनी हडता एवं सत्याग्रह से जैन धर्म की प्रभावना करती है और प्रभावती देवी के ग्रासन को कम्पायमान कर देती है । श्राराधना कथा कोश भाग १, पृष्ठ १८२ (१०) रानी चेलिनी सम्राट् श्रणिक को प्रबोधन देकर अपने कर्तव्य का पालन कराती है ।
प्रा० क० कोश भाग १- महाराज सिह की कथा-पृष्ठ १५४ श्र (११) राजा सिंहसेन की रानी रामदत्ता अपने चातुर्य से पुरोहित के कहने से समुद्रदत्त के रत्नो को प्राप्त करती है और न्याय का एक आदर्श उपस्थित करती है। श्रीभूति पुरोहित की कथा, आ० क० को० भाग २ (१२) चारु दत्त सेठ की कथा से स्पष्ट है कि नारी वेश्या बनकर कितनी कठोरता से मानवता का नाश करती है ।
(१३) विवाह एक धार्मिक सस्कार है जिसमे दो हृदयों का आजीवन बन्धन स्वीकृत किया जाता है । ऐसी स्थिति मे कन्या के विचारों का जानना आवश्यक है । इस सदर्भ मे प्रभावती का कथन उल्लेख्य है । प्रभावती के सकल कलाओ मे निपुरा तथा जवान होने पर एक दिन वायुरथ प्रभावती से बोला बेटी, सम्पूर्ण विद्याधरों के कुमारो मे तुझे कौन घंष्ठ जान पडता है, जिसके साथ तेरा विवाह कर दूँ । प्रभावती वोली, पिताजी, मुझे जो गति - युद्ध मे जीत लेगा, उसी के साथ विवाह करूँगी अन्य के साथ नही ।" जयकुमार सुलोचना की कथा - पुण्याश्रव कथाकोश
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
(१४) ऐसी अनेक जैन कथाएँ हैं जिनमे बताया गया है कि अनेक विद्यानो मे निपुण बनकर नारियो ने धर्म प्रचार किया एव सासारिक माया का परित्याग कर मानव सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया भगवान महावीर की शिष्या चन्दनवाला ऐसी ही एक स्त्री-रत्ल थी। इसी चन्दना (चन्दनवाला) ने महावीर के धर्म मे दीक्षा लेकर और उनकी प्रथम शिष्या बनकर सघ का नेतृत्त्व किया था। दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ, डॉ० चन्द्र जैन ,पृष्ठ १०१
(१५) मनुष्यो की तुलना मे नारी अधिक दृढ प्रतिज्ञ होती है । एक बार जो वह निर्णय ले लेती है उसके पालनार्थ वह दृढ सकल्पी बन जाती है । राजीमती की दृढता यहां उदाहरण के रूप मे उल्लेख्य है । नेमिकुमार जब (दीक्षा लेकर) साधु बनकर गिरनार पर्वत पर तपस्या करने लगे, तब राजीमती ने भी अविवाहित रहने का दृढ निश्चय किया और श्री नेमिनाथ की अनुगामिनी बन गई । तपस्विनी बनकर जिस साहस का प्रदर्शन राजीमती ने किया वह नारी के स्वाभिमान एव दृढ़ता को प्रमाणित करता है। राजीमती की दृढ़ता, दो हजार वर्ष पुरानी कहानियां, ले० डा० जगदीशचन्द्र जैन, पृष्ठ १८३ ।
यहां यह कहना उचित ही है कि अधिकाश कथाओ की प्रमुख पात्र नारी ही हैं।
___ इन जैन कथाओ मे चित्रित नारियो को देवी, मानवी और राक्षसी इन तीन रूपो मे साधारणत विभाजित किया जा सकता है । समाज की सुदृढ नीव नारी मे धार्मिकता पुरुष की तुलना में अधिक है । वे अपेक्षाकृत अधिक धार्मिक, पवित्र, त्यागशीला और भावुक हैं । राष्ट्रपिता बापू के मतानुसार जीवन मे जो कुछ पवित्र तथा धार्मिक है, स्त्रियां उसकी विशेष सरक्षिकाएँ हैं । स्त्री जाति मे छिपी हुई अपार शक्ति उसकी विद्वत्ता अथवा शरीर बल की बदौलत नही है, इसके कारण उसके भीतर भरी हुई उत्कट श्रद्धा, भावुकता और त्यागशक्ति है । हमे यह स्वीकारना होगा कि जगत मे धर्म की रक्षा मुख्यत स्त्री जाति के बदौलत हुई है।
सक्षेप मे हम कह सकते हैं कि जैन धर्म की सबसे बडी उदारता यह है कि पुरुषो की भांति स्त्रियो को भी तमाम धार्मिक अधिकार दिये गये हैं । जिस प्रकार पुरुष पूजा-प्रक्षाल कर सकता है उसी प्रकार स्त्रियां भी कर सकती हैं। यदि पुरुष श्रावक के उच्च व्रतो का पालन कर सकता है तो स्त्रियाँ भी उच्च श्राविका बन सकती हैं। यदि पुरुष ऊँचे से ऊँचे धर्म ग्रन्थो
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जैन कथाओं में ऐतिहासिकता
इतिहासकारो ने कथानो की उपयोगिता को स्वीकार किया है। कई देशो के इतिहासो की सृष्टि तो इन कथाओ के आधार पर ही हुई है । लोकमानस मे बसी हुई ये कथाएँ निष्पक्ष भाव से इतिहास के तथ्यो को दुहराती है और काल के प्रभाव से अप्रभावित रहकर ये कहानियाँ कई युगो तक इतिहास के तथ्यो को नष्ट होने से बचाती है। इतिहास शब्द के सकीर्ण अर्थ को न स्वीकार कर मैने इसे व्यापक अर्थ मे व्यवहृत किया है और इसीलिए विभिन्न दृष्टियो से ऐतिहासिकता का इन कथाओ के आधार पर परीक्षण करने का भी प्रयास किया है। धार्मिक विकास, सामाजिक उत्थान, राजनैतिक विकास आदि मे भी तो ऐतिहासिकता अपेक्षित है । ऐसी परिस्थिति मे ये कथाएँ विशेष महत्वशालिनी सिद्ध हो सकती है ।
श्रद्धय डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने अपनी पुस्तक 'दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ' मे सगृहीत ऐतिहासिक कहानियो के सम्बन्ध मे जो कुछ लिखा है वह तर्क सगत एव मनन करने योग्य है । वे लिखते है "इन कहानियो का सकलन यथासभव ऐतिहासिक सूत्र से किया गया है । महावीर और बुद्ध के समकालीन अनेक राजा-रानियो का उल्लेख प्राकृत और पालि साहित्य मे आता है। जैनो ने इन राजाओ को जैन कहा है और बौद्धो ने बौद्ध । वस्तुत राजाप्रो का कोई धर्म विशेष नही होता, वे प्रत्येक महान पुरुष की सेवा उपासना करने मे अपना धर्म समझते हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन काल मे
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जैन कथाओ मे ऐतिहासिकता
साम्प्रदायिकता का वैसा जोर नही था जैसा हम उत्तर काल मे पाते है । इसीलिए उस समय जो साधु-सन्त नगरो मे पधारते थे, उनके आगमन को अपना अहोभाग्य समझकर नगर के सभी नर-नारि उनके दर्शनार्थ जाते थे । ऐसी दशा मे श्रेणिक विम्बसार कुणिक ( अजातशत्रु) और चन्द्रगुप्त आदि राजा के विषय मे सभवत यह कहना कठिन है कि वे महावीर के विशेष अनुयायी थे या बुद्ध के
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तत्पश्चात् नन्द राजाश्रो का जिक्र आता है । जैन परम्पराओ के अनुसार कुणिक का पुत्र उदायी विना किसी उत्तराधिकारी के मर गया । उस समय एक नापित पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठा, और यह प्रथम नन्द कहलाया । नन्दो का नाश कर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को किस प्रकार पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठाया, इसका विस्तृत वर्णन श्रावश्यकचूर्णी तथा बौद्धो की महावश टीका मे आता है ।
तत्पश्चात् उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल का जिक्र आता है । जैन परम्परा के अनुसार ईरान के शाहो ने गर्दभिल्ल को हराकर उज्जयिनी मे अपना राज्य कायम किया । उसके बाद गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शको को हराकर फिर से उज्जयिनी पर अधिकार किया 1 इसी समय से विक्रम संवत् का प्रारम्भ माना जाता है | ईरान के दूसरे वादशाह नभोवाहन या नहपान का उल्लेख जैन ग्रन्थो मे आता है । नभोवाहन भरनयकच्छ ( भडोच ) मे राज्य करता था, और उसके पास अटूट धन था । नभोवाहन श्रौर पइट्ठान ( पैठन) के राजा सालिवाहन ( शालवाहन) के युद्ध का उल्लेख प्राता है, जिसमे अन्त मे सालिवाहन की विजय वतायी गयी है । सालिवाहन के मंत्री अपने राजा को छोडकर नभोवाहन से जा मिलने सवन्धी कूटनीति की तुलना अजातशत्रु के मंत्री वर्षकार के लिच्छवियों से जा मिलने के साथ की जा सकती है । इन कहानियो से प्राचीन भारत की सामाजिक अवस्था पर भी प्रकाश पडता है । उस समय के सामन्त लोग बहुत विलासी होते थे, बहुपत्नीत्व प्रथा का चलन था । कूटनीति के दाँव-पेच काम मे लाये जाते थे । महायुद्ध होते थे । राजा की ग्राज्ञा पालन न करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था । कैदियो को वन्दीग्रह मे ast यातनाएं भोगनी पडती थी, सामन्त लोग छोटी बातो पर लड वठते थे । राजा यथासंभव क्षत्रिय धर्म का पालन करते थे । शरणागत की रक्षा करना परम धर्म समझते थे, और नि शस्त्र पर हाथ उठाना क्षत्रियत्व का अपमान समझते थे । राजा और सेठ साहूकार अतुल धन संपत्ति के स्वामी होते थे ।
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
परन्तु दरिद्रता का अभाव नही था । दा
साधारणतया लोग खुशहाल थे, प्रथा मौजूद थी, ऋरण आदि न चुका सकने कारण दास-वृत्ति अगीकार करनी पडती थी । स्त्रियो की दशा बहुत अच्छी नही थी, यद्यपि वे मेले उत्सव यादि के अवसर पर स्वतंत्रता पूर्वक बाहर आ जा सकती थी । वेश्याएँ नगरी की शोभा मानी जाती थी, और राजा उनके रूपबल की प्रशंसा करता था । व्यापार बहुत तरक्की पर था । व्यापारी लोग दूर-दूर तक अपना माल लेकर बेचने जाते थे ।
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कुछ जैन कथाएँ तो हजारो वर्ष पुरानी है, जिनके अध्ययन से भारत के प्राचीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश पडता है । समय के अन्तराल से अनेक ऐतिहासिक तथ्य धूमिल हो रहे है और उनकी सच्चाई पर सन्देह भी होने लगा है, लेकिन सतत निप्पक्ष अन्वेषण से सत्य स्पष्ट हो ही जाता है । कतिपय ऐसी जैन कथाएँ हे जिनमे कल्पना के सहारे रोचकता की अभिवृद्धि की गई है लेकिन ऐतिहासिकता की उपेक्षा नही हो पाई है ।
चाणक्य के क्रोध ने किस प्रकार की कूटनीति की सर्जना की और किस ढंग से नन्द वंश को विनाश की आग मे पटका, इसका परिज्ञान नन्दिमित्र की कथा ( पुण्याश्रव कथाकोष - पृष्ठ १९३ ) से हो सकता है । रामकथा से सम्बन्धित जैन कथाओ के अनुशीलन से कई ऐसे तथ्य सामने आते है जो प्राचीन इतिहास की सच्चाई को प्रभावित करते है और वानर-वश एव राक्षस - बश की ऐतिहासिकता को अक्षुण्ण रखते है | पटना ( पाटलिपुत्र ) राजगृही, वनारस, विन्ध्यदेश, उज्जयिनी विदिशा, अयोध्या, हस्तिनापुर, खानदेश कौशाम्बी, चम्पापुर, चौल देश, बुन्देलखड, बघेलखड, विहार, उडीसा, महाराष्ट्र, कु तलदेश, सोरठ आदि की राजव्यवस्था क्या थी ? इन भू-भागो की प्राचीनता क्या है, यहाँ के शासको की पुरातन शासन प्रणाली क्या थी ? इत्यादि का परिचय हमे जैन कथाप्रो से उपलब्ध हो सकता है ।
द्यूत,' स्वयवर' नाग पूजा ", यक्ष-पूजा, दहेज प्रथा, वेश्या - वृत्ति ", नरमास-भक्षरण े, बहुपत्नी प्रथा, विजातीय विवाह' आदि की पुरातनता को जानने के लिए निम्न जैन कथाओ का अध्ययन भी सहायक सिद्ध हो सकना है ।
1 नागकुमार कामदेव की कथा
2 पूतिगधा और दुर्गन्धा की कथा -
1 दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ - ( भूमिका पृष्ठ १० - ११ )
पुण्याश्रव कथाकोश पुण्याश्रव कथाकोश
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जैन कथानो मे ऐतिहासिकता
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3 सूर्य मित्र और चाडाल पुत्री की कथा 4 लोक-देवता (प्रो० चेतनप्रकाश पाटनी) मरुधर केशरी अभिनन्दन
ग्रन्थ
5 मृगसेन धीवर की कथा
या क को दूसरा भाग 6 दृढ सूर्य चोर की कथा
पुण्याश्रव कथाकोश 7 जैन रामायण चतुर्थ सर्ग (कृष्णलाल वर्मा) पृष्ठ १५३ 8 श्री वकिरण राजा की कथा
या कथा कोश 9 नागकुमार कामदेव की कथा
दिगम्बर एव श्वेताम्बर आम्नायो का क्या इतिहास है और इनका विकास किस प्रकार हुअा है ? इस सन्दर्भ मे नन्दिमित्र की कथा, पुण्याश्रव कथाकोष पुष्ठ २६८ पर्याप्त प्रकाश डालती है।
वेश्या-वृत्ति का भी एक इतिहास है। प्राचीन काल में राजकुमार शिष्टाचार की शिक्षा प्राप्त करने के लिए वेश्याग्रो के यहाँ भेजे जाते थे और ये राजपुत्र वहाँ रहकर जीवनोपयोगी बहुत सी बातो को सीखते थे। ये गान-नृत्य विशारदा वेश्याएँ अपने सद्व्यवहार एव शिष्टाचार-पद्धति से अनेक युवको को सहज ही मे विमोहित कर लेती थी । कुछ ऐसी कथाएँ भी उपलब्ध होती है जिनसे ज्ञात होता है कि कभी-कभी नवयुवक वेश्या की पुत्रियो से विवाह भी कर लेते थे। इस सम्बन्ध मे नागकुमार कामदेव की की कथा उल्लेख्य है। इस कथा को उद्धृत करते हुए श्री परमेष्ठीदास जी जैन लिखते है कि जैन शास्त्रो मे विजातीय विवाह के अनेक प्रमाण उपलब्ध है । नागकुमार ने तो वेश्या पुत्री से विवाह किया था, फिर भी उनने दिगम्बर मुनि की दीक्षा ग्रहण की थी। इतना होने पर भी वे जैनियो के पूज्य : बने रहे । जैन शास्त्रो मे जब इस प्रकार के सैकडो उदाहरण मिलते है जिनमे विवाह सम्बन्ध के लिए किसी वर्ण, जाति या धर्म का विचार नहीं किया गया है और ऐसे विवाह करने वाले स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त हुए है, तब एक ही वर्ण एक ही धर्म और एक ही प्रकार के जैनियो से पारस्परिक सम्बन्ध (अतर्जातीय विवाह) करने मे कौन सी हानि है ? 2
1 पुण्याधव कथाकोश, दूसरी वृत्ति, प्रकाशक जिनवाणी प्रचारक
कार्यालय, कलकत्ता, पृष्ठ १२६ 2 जैनधर्म की उदारता पृष्ठ ६८
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
। स्वयम्बर-प्रथा की यदि हम इतिहास-क्रम से समीक्षा करे तो हमे ये जैन-कहानियाँ बडी सहायक होगी। इसी प्रकार म्लेच्छो के प्रति जो अनुदारता आज दिखाई जा रही है वह पूर्व मे न थी । अनेक नरेशो ने म्लेच्छ कन्यानो के साथ विवाह करके प्राचीन काल मे उनके साथ (म्लेच्छो के साथ) आत्मीयता स्थापित की थी। वस्तुत ये मानव ही हैं और इनकी आत्मा को हमे अमानवीय व्यवहार से नही दुखाना चाहिए।
__ जैन शास्त्रो को, कथा ग्रन्थो को या प्रथमानुयोग को उठाकर देखिए। उनमे आप को पद पद पर वैवाहिक उदारता दिखाई देगी। पहले स्वयम्वर प्रथा चालू थी, उसमे जाति या कुल की चिन्ता न करके गुण का ही ध्यान रखा जाता था। जो कन्या किसी भी छोटे या बडे कुल वाले को उसके गुणो पर मुग्ध होकर विवाह लेती थी उसे कोई बुरा नही कहता था। हरिवश पुराण मे इस सम्बन्ध मे स्पष्ट लिखा है कि स्वयम्बर गत कन्या अपने पसद वर को स्वीकार करती है, चाहे वह कुलीन हो या अकुलीन। कारण कि स्वयम्बर मे कुलीनता-अकुलीनता का कोई नियम नही होता। (जैन धर्म की उदारता पृष्ट ६३) जैन-पुराणो के अध्येतानो से यह तथ्य छिपा हुआ नहीं है कि तद्भव मोक्षगामी महाराजा भरत ने बत्तीस हजार म्लेच्छ कन्यानो से विवाह किया था, किन्तु उनका स्तर कम नही हुआ था । जिन म्लेच्छ कन्याओ को भरत ने विवाहा था वे म्लेच्छ धर्म-कर्म विहीन थे। उसी प्रकार भगवान शान्तिनाथ (चक्रवर्ती) सोलहवे तीर्थकर हुए हैं । उनकी कई पत्नियाँ तो म्लेच्छ कन्याएं थी । जैनधर्म की उदारता, पृष्ठ ६६,६७ चक्रवर्तित्व की विभूति के प्रमाण मे बत्तीस हजार म्लेच्छ राजाओ की पुत्रियो का भी उल्लेख किया गया है। देखिए-प्रण्यास्त्रव कथाकोश पृष्ठ ३५७ ।
__इस प्रकार इन कथानो का अध्ययन इतिहास के विविध दृष्टिकोणो को ध्यान मे रख कर किया जा सकता है तथा इस अध्ययन में पर्याप्त ऐतिहासिक सामग्री प्राप्त हो सकती है ।
सस्कृत भाषा मे लिखे हुए जैन पुराण ग्रन्य अति प्राचीन है। उनमे अपेक्षाकृत बहुत अधिक ऐतिहासिक सामग्री सीधी-सादी भाषा मे सुरक्षित है। अलवत्ता कही-कही पर उसमे धार्मिक श्रद्धा की अभिव्यजना, कर्म सिद्धान्त की अभिव्यक्ति को लिए देखने को मिलती है।
जैन पुराणो के साथ ही जैन कथाप्रो के महत्व को नहीं भुलाया जा सकता जिनमे बहुत सी छोटी-छोटी कथाएं सगृहीत है । ऐसे कथा ग्रन्थ, प्राकृत, सस्कृत, अपभ्र श, हिन्दी, कन्नड आदि भाषाओ मे मिलते है। इनमे
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जैन कथाओ के ऐतिहासिकता
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अनेक कथा ऐतिहासिक तत्व को लिए हुए है। किसी मे भेलसा (विदिशा) पर म्लेच्छो (शको) के ऐतिहासिक माक्रमण का उल्लेख है तो किसी मे नन्द राजा और उनके मत्री शकटार आदि का वर्णन है। किसी मे मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त और उनके गुरु श्रुतकेवली भद्रवाहु का चरित्र-चित्रण किया गया है तो किसी अन्य मे उज्जैन के गर्दभिल्न और विक्रमादित्य का वर्णन है । साराश यह कि जैन कथा ग्रन्थो मे भी बहुत सी ऐतिहासिक सामग्री बिखरी पडी है । महाकवि हरिषेण विरचित कथाकोश विशेष रूप से दृष्टव्य है।
__ जैन साहित्य मे कुछ ऐसे काव्य एव चरित्रग्रन्थ भी है जो विशुद्ध ऐतिहासिक है। उनमे ऐतिहासिक महापुरुषो का ही इतिहास ग्रन्थबद्ध किया गया है। इस प्रकार का पर्याप्त साहित्य श्वे० जैन समाज द्वारा प्रकाशित किया जा चुका है। ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह, ऐतिहासिक रास सग्रह आदि पुस्तके उल्लेखनीय है। पार्श्वचरित्र, महावीर चरित्र, भुजबलि चरित्र, जम्बूस्वामी चरित्र, कुमारपाल चरित्र, वस्तुपाल रास इत्यादि अनेकानेक चरित्र ग्रन्थ इतिहास के लिए महत्व की वस्तु है ।
जेन सस्कृत साहित्य मे पुरातन प्रबध ग्रन्थ इतिहास की दृष्टि से विशेष मूल्यवान है । ये प्रबध-ग्रन्थ एक प्रकार के विशद निबन्ध है, जिनमे किसी ऐतिहासिक घटना अथवा विद्वान् या शासक का परिचय कराया गया है । श्री मेरुतु गाचार्य का प्रवन्ध चिन्तामरिण प्रबध-ग्रन्थो मे उल्लेखनीय है, जो सिंघी जैन ग्रन्थमाला मे छप भी चूका है। इस प्रकार जैन साहित्य मे इतिहास की अपूर्व सामग्री बिखरी पड़ी है। दक्षिण के जैन कन्नड और तामिल साहित्य मे भी अपार ऐतिहासिक सामग्री सुरक्षित है किन्तु उसके अन्वेषण की आवश्यकता है। तामिल का 'शिलप्पाधिकारम्' काव्य और कन्नड का 'रावली कथा' नामक ग्रन्थ भारतीय इतिहास के लिए अनूठे ग्रन्थ रत्न है ।।
1, जैन साहित्य मे प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री-ले० श्री कामता प्रसाद जैन
(प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ) पृष्ठ ४५८
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जैन कथात्रों में अलौकिक तत्व
अलौकिकता जैन कथानो की एक विशेषता है जो इनकी रोचकता को बढाती है और कथानक मे एक विशिष्ट मोड को जन्म देकर उसकी अभिवृद्धि मे नूतनता उत्पन्न करती है । यही अलौकिता पाठक एव श्रोता के मानस मे कौतूहल समुत्पन्न करके कथा के प्रति नूतन आकर्षण बनाये रखती है । पात्रो के चरित्रो के विकास मे इस अलौकिकता का निशेष महत्व है। ,
वस्तुत लोक-समाज मे हास्य-कथानो के समान अलौकिक कथाएँ भी अत्यधिक प्रिय है तथा उनका विशिष्ट स्थान है। मनुष्य अलौकिक तत्वो की कल्पना सदैव से किसी न किसी रूप मे अवश्य करता रहा है जो उसके सब कार्यों को सुगम बना सके तथा जिसके माध्यम से वह अलभ्य वस्तुओं को भी प्राप्त कर सके । वह अपने जीवन का अधिक समय कल्पना लोक मे व्यतीत करता है तथा अपनी अतृप्त इच्छाप्रो को इसी के द्वारा पूर्ण करता है । इन सब भावनामो की पूर्ति इन्ही कहानियो के द्वारा होती है । अलौकिक कहानियाँ यद्यपि असत्य होती है और मनुष्य को वास्तविक जगत से दूर ले जाती है पर मनुष्य की अतृप्त आकाक्षानो को पूरा करती रहती है। इसीलिए उसे इस प्रकार की कहानियो को सुनकर बडा आनन्द मिलता है जो क्षणिक ही होता है । यही कहानियाँ मनुष्य के अन्तर्मन मे उपस्थित उस अद्भुत मानव की परोक्ष रूप से पूर्ति करती रहती है जो ऐसे दानव को विजय करना चाहता है जो उमकी सेवा मे रह सके तथा उसको धन दे सके, ऐश्वर्य दे सके और यही
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जैन कथानो मे अलौकिक तत्व
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का अद्भुत मानव अमी जल आदि पीकर अमर हो जाना चाहता है । इन अलौकिक कहानियो मे सदा यह देखने को मिलता है कि जो सत्यनिष्ठ है वह बडी से बड़ी विरोधी शक्तियो से भी संघर्ष करके अत मे विजयी होता है । इन कहानियो की अलौकिकता मे लोक-मानव का इतना ही विश्वास है जितना अन्य अधविश्वासो मे । वह दानव, परी, भूत, प्रत, जादू अादि मे विश्वास करने के कारण इन कहानियो को भी बहुत आस्था से कहता और सुनता है । कई वार ये लोग भूत, प्रेत, दानव तथा जादू भी सिद्ध करते पाये जाते है ।"1
जन-कथाओ मे अलौकिकता का अश पर्याप्त मात्रा में पाया जाता है लेकिन इस प्रकार की अलौकिक कथाएँ सर्वथा असत्य नही होती है । एक मोर ये कहानियाँ महापुरुषो तथा जैन मुनियो के अलौकिक प्रभाव को प्रदर्शित करती है और दूसरी ओर जैन धर्म के अनुयायियो के सन्मुख यह प्रमाणित करती है कि जैन-धर्म का प्रभाव प्रदर्शन प्राय विश्व की समस्त धर्म सम्बन्धी कहानियो मे देखने को मिलता है। यही अलौकिक तत्व धर्म के प्रति आस्था उत्पन्न करता है एव मानव-समाज को धर्म-भीरु बनाता है। ऋपि-मुनियो ने इसी प्रकार की अलौकिक कथाओ की सृष्टि करके लोक-जीवन मे धार्मिकता को स्थिर किया है जो कई युगो के व्यतीत हो जाने पर भी आज लोकमानस मे पूर्ववत् सुदृढ है ।
आज के इस वैज्ञानिक युग मे इस प्रकार के अलौकिक तत्वो को कपोल कल्पित कहा जा रहा है, लेकिन जिस प्रकार विज्ञान ने अपनी गरिमा के माध्यम से अनेक विचिन तथ्यो को ससार के आगे सहज रूप मे प्रमाणित कर दिया है उसी प्रकार यदि अन्वेषण किया जाय तो जैन-कथायो मे वरिणत कई 'पाश्चर्य' सत्य सिद्ध हो सकते है । वीतरागी जिनदेव द्वारा कथित अलौकिक तत्वो को हम निस्सार नहीं मान सकते है । मानव अपनी सीमित मेधा से इन्हे नापने का असफल प्रयत्न न करे तो श्रेयस्कर ही है। यह पूर्ण सम्भव है कि आज के वैज्ञानिक यदि जैन-अाश्चर्यो की पूर्ण खोज करे तो उन्हे ऐसे तथ्यो का परिज्ञान होगा जो उन्हे शाश्वत सत्य की ओर आकर्षित करेगे और विश्व के सन्मुख कई नूतन सत्य साकार बनेगे ।
जैन धर्म आत्मा की अनन्त शक्ति मे विश्वास करता है और इसकी यह चिरन्तन मान्यता है कि कर्मो का क्षय करके आत्मा परमात्मा बन जाती
1 खडी बोली का लोक-साहित्य-ले० डॉ० सत्या गुप्त-पृष्ठ १८७ तथा
१६३।
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
है । ऐसी स्थिति मे अनन्त शक्ति सम्पन्न आत्मा के प्रभाव से जो अलौकिकता प्रदर्शित होती है वह कैसे कल्पित कही जा सकती है । तप पूत दिगम्बर मुनियों के प्रभाव को प्रमाणित करने वाले ग्राश्चर्यो को क्या हम कल्पित कह सकेगे ? भले ही ये ग्राज के मानव के लिए सन्देहास्पद हो लेकिन जैनाचार्यो के लिये तो ये निर्णीत ही थे तथा आज भी है । ग्रात्मा की पावनता से यदि दुर्भिक्ष शान्त होता है एव भयावह रोग शमित हो जाते है तो कोई आश्चर्य नही है । मत्रादि के प्रभाव से जो विद्वान परिचित है वे इस तथ्य को ग्रस्वीकृत न करेगे कि मत्रो की सिद्धि से हिंसक पशु मृग की भाँति विनम्र हो जाते है, असाध्य रोग शीघ्र ही नष्ट हो जाते है एव विनाशक आक्रमण निष्फल हो जाते है । भक्तामर स्तोत्र की कथाएँ इस नदर्भ मे उद्धृत की जा सकती है । ग्रा के कतिपय विद्वान् कथाओ मे उल्लिखित इस प्रकार के ग्रलौकिक तत्वो को कथानक रूढियो अथवा लोक - विश्वासो के रूप मे स्वीकार करते है ।
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सामान्यत जैन कथाओ मे इन अलोकिक तत्वों को निम्नलिखित प्रयोजनार्थं समाविष्ट किया गया है |
( १ ) जैन धर्म के प्रभाव को प्रदर्शित करने के लिए । (२) कथावस्तु को आकर्षक बनाने के लिए |
(३) मत्रादि के प्रभाव को बनाने के लिए । ( ४ ) महापुरुषो की गरिमा को चित्रित करने के लिए ।
( ५ ) प्रमुख पात्रो के चरित्रो के विकास के लिए |
( ६ ) उत्सुकता समुत्पन्न करने के लिए ।
( ७ ) समुचित वातावरण की सृष्टि के लिए ।
( 5 ) परम्परा के निर्वाहार्थ |
(९) कथानक की अभिवृद्धि के लिए ।
(१०) उद्देश्य की पूर्ति हेतु ।
(११) कथावस्तु मे नए मोड लाने के लिए ।
(१२) विशिष्ट अभिप्राय की पुष्टि हेतु आदि ।
जैन कथाओ मे विविध प्रकार के अलौकिक तत्वों को प्रदर्शित किया गया है । यहा ऐसे कतिपय तत्वो की सामान्य चर्चा की जा रही है
(१) ब्रह्मचर्य व्रत के प्रभाव से हथियारो का पुष्पादिक के रूप मे परिवर्तित हो जाना एव उसी समय यक्षादि का प्रकट होकर राजादि के नौकरी को जहाँ का तहाँ कील देना तथा माया से चतुरगिरणी सेना को तैयार करना । पुण्यात्रव - कथाकोष, सुदर्शन सेठ को कथा, पृष्ठ ११६ ।
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जैन कथानो मे अलौकिक तत्व
(२) नगर देवता के आसन का कपित होना, नगर के बाहरी दरवाजो को कीलित करना एव महासती के वाम चरण-स्पर्श से ही उनका वुलना । नोली बाई की कथा-पुण्यास्रव कशाकोप पृष्ठ १६५
(३) विद्या के प्रभाव से सुन्दर विमान का निर्माण और उसके माध्यम से आकाश-यात्रा करना। नागकुमार कामदेव की कथा-पुण्यातव कथाकोष पृष्ठ २२८
(४) चार घातिया कर्मो के नष्ट होने से भगवान के दण अतिशयो का समुत्पन्न होना । यथा चारसी कोस पर्यन्त कही भी दुर्भिक्ष का न पडना, आकाश मे निराधार गमन करना, भगवान के समवसरण मे किसी भी जीव के द्वारा अन्य किमी जीव का घात न होना, भगवान का सदा निराहार रहना, चारो दिशामो मे भगवान के चार मुखो का दिखाई पडना, सर्व विद्ये रखरता भगवान के परम औदारिक शरीर की छाया का न पडना आदि । पुण्यालय कथाकोश पृष्ठ ३४८
(५) चक्रवर्तित्व की विभूति का वर्णन अठारह करोड घोडे, चौरासी लाख हाथी, चौरासी लाख रथ, चौरासी करोड प्यादे, बत्तीस हजार शरीर की रक्षा करने वाले यक्षाधीश, छयानवे हजार रानियाँ, तीन करोड गाये, नव निधि आदि कम पाश्चर्यजनक नही है। इसी प्रकार काल निधि, महाकला निधि, पाइकनिधि माणवक निधि, नैसर्प निधि, सर्वरत्न निधि ग्रादि के द्वारा क्रमश इच्छित वस्तुप्रो की प्राप्ति होना, सोना, चाँदी, लोहा आदि खनिज पदार्थों की इच्छानुसार उपलब्धि होना, सुगधित चावल, गेहू आदि धान्यो का इच्छानुसार प्राप्त होना । कवच तलवार गदा यादि अनेक प्रकार के शस्त्रो की अावश्यकतानुसार प्राप्ति होना आदि ।
(६) दिगम्बर मुनि को अन्तराय रहित एव विधिवत पाहार देने से पचाश्चर्यो का होना । एव पुण्य-प्रभाव से करोडो रत्नो की सहसा वर्षा होना । सुफेत नामक सेठ की कथा-पुण्यालय कथा कोष-पृष्ठ २५७
(७) किजल्क जाति के पक्षियो के निवास से महामारी, दुभिक्ष, रोग, अपमृत्यु आदि का न होना । आराधना कथा कोष दूरारा भाग पृष्ठ ५५
(८) विद्यावत से दुर्गन्ध से दूपित शरीर का सुगध मय हो जाना । पाराधना कथा कोष भाग २ पृष्ठ ६५
(6) मत्रसिद्धि से आकाश गामिनी विद्या की उपलब्धि । आराधना कथा कोष प्रथम भाग पृष्ठ ६५
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
(१०) ऋद्धि के प्रभाव से वडा और छोटा रूप बनाना तथा तीन डगो मे समस्त भू-मण्डल को नाप लेना आदि। विष्णु कुमार मुनि की कथा श्रा. क कोष प्रथम भाग पृष्ठ १२०
(११) तपस्या मे सलग्न दिगम्बर मुनि के सामने शिकारी कुत्तो का नत मस्तक हो जाना एव विपाक्त और तीक्ष्ण वाणो का पुष्पवत् होना। महाराज श्रेणिक की कथा, आ. क कोष प्रथम भाग पृष्ठ १५७
(१२) व्रत के प्रभाव से हिंसक जल-जीवो से भरे हुए जलाशय मे फेके गए मतुष्य की रक्षा होना तथा तालाब में उसके सम्मानार्थ देवो द्वारा भव्य सिंहासन का निर्माण । यमपाल चाडाल की कथा, प्रा. कथा कोष प्रथम भाग पृष्ठ १८४
(१३) पूज्य चारण ऋद्धि धारी मुनिराज को आहार देने से स्वर्ग के देवो द्वारा रत्नो की वर्षा का किया जाना, कल्पवृक्षो के सुन्दर और सुगन्धित फूलो की वर्षा होना, अनायास दुन्दुभि वाजो का बजना, मद-सुगव वायु का चलना एव जय-जयकार का चारो दिशाग्रो मे होना आदि । दान करने वालो की कथा, प्रा कथा कोष तृतीय भाग पृष्ठ २२३
(१४) भक्तामर स्तोत्र का जाप करने से असाध्य रोगो का शमन होना, दावाग्नि का शान्त होना, क्रुद्ध पारावार का शमित होना, भयावह तूफान का विलीन होना हिंसक पशुओ का दया होना, निर्धन का धनपति बनना, विपत्तियो का नष्ट होना, सर्प-दश से बचना आदि । भकामर स्तोत्र की कथाएँ।
(१५) व्रत-पूजादि से असाध्य कुष्ठ रोग का निर्मूल होना । मैनासुन्दरी की कथा ।
(१६) मुनि दर्शनादि से जाति स्मरण हो जाना । (१७) कल्पवृक्षो से मनोकामना की पूर्ति होना ।
(१८) विभिन्न प्रकार के देवी देवताओ से असभव कार्यों का सभाव्य रूप मे प्रदर्शन ।
(१६) जिनेन्द्र भगवान की माता की सेवामे देवियो का सलग्न रहना, इनके (जिनेन्द्र देव के) जन्मोत्सव पर स्वर्ग से इन्द्रो का आना, सुमेरु पर्वत पर क्षीर सागर के जल से इनका स्नान कराना, इस मगलमय अवसर पर देवागनायो का नृत्य करना एव गधर्व देवो द्वारा प्रशस्ति-गान आदि । आराधना कथा कोष भाग पृष्ठ १९६
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जैन कथाओ मे अलौकिक तत्व
(२०) तीर्थ कर का जन्म होते ही भवनवासी देवो के घर शख बजना, व्यतरो के निवास स्थान मे भेरी का, ज्योतिषियो के यहाँ सिंहनाद का और कल्पवासियो के यहाँ घण्टा का शब्द होना । पुण्यात्रव कथा कोष पृष्ठ ३३५
(२१) जिनेन्द्र देव के जन्म-समय उनके सौन्दर्य को देखने के लिए इन्द्र का हजार नेत्र करना तथा पाण्डुक वन की ईशान दिशा मे स्थित शुभ्र चन्द्राकार पाण्डुकशिला पर रत्नजडित सिंहासन पर विराजमान जिनेन्द्रदेव (वाल रूप मे) का बारह योजन ऊँचे, आठ योजन चौडे, एक योजन मुख वाले १००८ घडो से पांचवें क्षीर सागर के जल से अभिषेक करना ।
(२२) देवकृत चौदह अतिशयो का होना-(१) अर्द्धमागधी भाषा (२) सर्वजन मैत्री (३) समवशरण का समस्त ऋतुमो के फल-पुष्पादि से सुशोभित होना (४) रत्नमयी मही (५) विहारानुकूल मारुत (६) वायुकुमार देवो द्वारा धूलि को शान्त करना। (७) मेघकुमार जाति के देवो द्वारा समवशरण मे गन्धोदक की वर्षा करना (८) भगवान के गमन करने मे जहाँ उनका पैर पडता था, वहाँ उनके पैर के नीचे आगे पीछे दोनो जगह सात-सात कमलो की रचना देवो-द्वारा किया जाना । (६) समस्त पृथ्वी का हर्पित होना (१०) जन मोदन (मनुष्यो का प्रमुदित होना) (११) आकाश का सदा निर्मल होना (१२) देवो का भगवान के दर्शनार्थ परस्पर बुलाना (१३) धर्मचक्र का गमन काल मे आगे-आगे चलना (१४) अष्ट मगल द्रव्य ।
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जैन कथाओं में लोक विश्वास
जैन कथाओ मे लोक विश्वासो का भी अनेक रूपो मे चित्रण हुआ है । स्वप्नो के सम्बन्ध मे इन कथाओ मे अधिक चर्चा हुई है । कहा जाता है कि आगामी घटनाओ का सकेत स्वप्नो के माध्यम से सहज ही मे मिल जाता है । ये स्वप्न ही होने वाले लाभ लाभ का परिचय दे देते है । देवी-देवता अपने भक्तो की सफलता एव असफलता का निर्देश स्वप्नो के द्वारा ही किया करते है । जैन विद्वान भलीभांति जानते है कि जब कोई तीर्थ कर किसी भाग्यवती नारी के गर्भ मे आते है तब उस पुण्यवती ललना को १६ स्वप्न आते है जिनके फलो को सुनकर वह स्वयं को भाग्यशालिनी मानती है और शीघ्र ही तीर्थ कर की जननी बनने की प्रतीक्षा करने लगती है । इन स्वप्नो की तालिका इस प्रकार है - ( १ ) श्वेत हाथी ( २ ) श्वेत बैल (३) सिंह (४) लक्ष्मी (५) मालायुग्म ( ६ ) चन्द्र (७) सूर्य (८) मीन युग्म ( 2 ) कुम्भ युग्स ( १० ) निर्मल सरोवर (११) समुद्र (१२) सिंहासन (१३) विमान (१४) हर्म्य (१५) रत्नराशि न का फल यही है कि महापुण्यवान् विश्व-विश्रुत देवाधिदेव लोक-पूज्य श्री तीर्थ कर देव जन्म लेगे । पुण्याश्रव कथा कोश - पृष्ठ ३३४
(१६) अग्नि । ` इन स्व
राजा चन्द्र गुप्त ने किसी रात्रि के पिछले पहर में निम्नस्थ स्वप्न देखे थे—
(१) सूर्य का अस्त होना ( २ ) कल्प वृक्ष की शाखा का टूटना ( ३ ) आते हुए विमान का लौटना ( ४ ) वारह फरर्णो का सर्प ( ५ ) चन्द्रमा मे
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जैन कथानो मे लोक विश्वास
छिद्र (६) काले हाथियो का युद्ध (७) खद्योत (८) सूखा सरोवर (६) धूम (१०) सिहासन (११) सुवर्ण के पात्र मे खीर खाता हुआ कुत्ता (१२) हाथी के सिर चढा हुआ बदर (१३) कूडे मे कमल (१४) मर्यादा का उल्लघन करता हुया समुद्र (१५) तरुण बैलो से जुता हुआ रथ (१६) और तरुण बैलो पर चडे हुए क्षत्रिय । एक मुनिराज ने प्रार्थना करने पर इन स्वप्नो का फल इस प्रकार बताया था -
(१) राजन् । पहले स्वप्न मे जो सूर्य को अस्त होता देखा है, वह सूचित करता है कि सकल पदार्थो का प्रकाश करने वाला जो परमागम (केवल ज्ञान) है उसका अस्त होगा । (२) दूसरे स्वप्न मे जो कल्प वृक्ष की डाली का टूटना देखा है, उसका फल यह है कि क्षत्रिय लोग न तो राज्य करेगे और न दीक्षा ग्रहण करेगे (३) प्राते हुए विमान के लौट जाने का फल यह है कि आज से यहाँ पर देव तथा चारण मुनियो का यागमन न होगा । (6) वारह फणो के सर्प से जानना चाहिये कि यहाँ बारह वर्षों का दुष्काल पडेगा (५) चन्द्रभडल मे छिद्र होने से समझना चाहिए कि जैनमत मे सघ आदि का भेद हो जायगा। (६) काले हाथियो के युद्ध से जान पडता है कि अव से यहाँ पर यथेष्ट वर्षा न होगी। (७) खद्योत के देखने का फल यह होगा कि परमागम (द्वादशाग) का उपदेश कुछ ही दिनो तक रहेगा। (८) मध्य मे सूखा सरोवर सूचित करता है कि ग्रार्य खड के मध्य देश मे धर्म का विनाश होगा। (६) धूम का देखना बताता है कि अव दुर्जन और धूर्त अधिक होगे । (१०) सिंहासन पर बदर का बैठना स्पष्ट कह रहा है कि आगे नीच कुल वालो का राज्य होगा। (११) सोने के पात्र मे कुत्ते का खीर खाना बतलाता है कि पागे राज सभाओ मे कुलिगियो की पूजा होगी (१२) हाथी पर बदर का बैठना सूचित करता है कि राजकुमार नीच कुल वालो की सेवा करेगे । (१३) कूडे मे कमल के देखने से विदित होता है कि रागद्वप सहित कुवेपी कुलिंगियो मे तपादिक की क्रिया दीख पडेगी (१४) समुद्र मर्यादा का उल्लघन होना जो देखा है वह सूचित करता है कि राजा पडाग भाग से अधिक कर लेगे। (१५) तरुण वैलो सहित रथ दिखलाता है कि वालक तप करेगे और वृद्धावस्था मे उस तप मे दोप लगावेगे । (१६) तरुण बैलो पर चडे हुए क्षत्रिय प्रकट करते है कि क्षत्रिय लोग कुवर्म मे लीन होगे ।
पुण्याश्रय कथा कोश पृष्ठ २८०-८१ इसी प्रकार उज्जयिनी नगरी के निवासी धनपाल वैश्य की पत्नी प्रभावती ने रात्रि के अन्तिम भाग मे स्वप्न मे एक ऊँचा बैल, कल्पवृक्ष,
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जैन-कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
चन्द्रमा आदि देखे थे । इनका फल यह हुआ कि वह एक भाग्यशाली एव पुण्यवान पुत्र की जननी बनी।
धन्यकुमार की कथा, पुण्याश्रव कथा कोश-पृष्ठ २८१ शुभाशुभ स्वप्नो की चर्चा के उपरान्त शकुनापशकुनो का भी कथानो मे उल्लेख हुआ है । पडित विश्वदेव का कथन है कि प्रस्थान करते ममय अथवा किसी नगरादि मे प्रवेश करते समय यदि दिगम्बर मुनि, राजा, घोडा, मयूर, हाथी और बैल मिले तो जानना चाहिये कि उस काम मे सिद्धि होगी।
पुण्याश्रव कथा कोश पृष्ठ २५६
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जैन कथाओं के पात्र
कथानो मे पात्रो की अनिवार्यता असदिग्ध है। ये पात्र ही है जो कथा को जन्म देते है और उनके ही सहारे कथावस्तु समुचित विस्तार प्राप्त करती है । पात्र ही कथानक मे अलौकिकता लाते है और ये ही कथावस्तु मे नये मोड लाकर पाठको के सम्मुख जीवन की सम-विषम परिस्थितियो को प्रस्तुत करते हैं । सत्य तो यह है कि कथानो के निर्माण के प्रमुख आधार पात्र ही है। दूसरे शब्दो मे हम यो कह सकते है कि पात्रो के अभाव मे कथा का अस्तित्व भी असभावित कहा जा सकता है। कथाकार अपने जीवन के कटु एव मधुर अनुभव पात्रो के माध्यम से ही प्रकट करते हैं।
चरित्र-चित्रण की सार्थकता पात्रो पर ही अवलवित है एव वातावरण की सृष्टि को सफल बनाने वाले ये विविध पात्र ही तो है । पात्रो की विविधता कथावस्तु मे वैविध्य लाती है और रोचकता मे नवीनता समुत्पन्न करने का श्रेय इन पात्रो को ही है । कथाओ के ही लिए पात्रो की आवश्यकता नहीं होती है अपितु महाकाव्य, खडकाव्य, नाटक, उपन्यास आदि साहित्य की विविध विधानो के लिए भी पात्रो की सतत आवश्यकता अपरिहार्य है। कल्पना के माध्यम से जो कथानो मे पात्रो की विशिष्ट सृष्टि की जाती है अथवा उनमे (पात्रों मे) जो वर्गगत विशेषताग्री का उल्लेख किया जाता है वह कथा की चारित्रिक विकास-गरिमा को मुखर करता है। पात्र -कथात्मक साहित्य का अन्यतम तत्व, एव चरित्र वे व्यक्ति हैं जिनके द्वारा कथा की घटनाएं घटती है
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
अथवा जो उन घटनायो से प्रभावित होते है। इन्ही व्यक्तियो के क्रिया-कलाप से कथानक और कथावस्तु का निर्माण होता है। अत भले ही किसी कृति मे घटनाप्रो की वहुलता और प्रधानता हो, पात्रो या चरित्रो का उसमे अभाव नही हो सकता । कथा की कल्पना मे ही पात्रो की विद्यमानता निहित है।
___ कथा के पात्रो को किस प्रकार उपस्थित किया जाय, यह कलाकृति के रूप लेखक की रुचि तथा योग्यता और उसकी कृति के उद्देश्य पर निर्भर है । काव्य, नाटक, उपन्यास, कहानी आदि मे पात्रो के प्रयोग, अर्थात चरित्र चित्रण के अपने-अपने ढग और विधान होते है। सब मिलाकर पात्रो का चरित्र-चित्रण तीन प्रकार से हो सकता है (१) पात्रो के कार्यो के द्वारा (२) उनकी बातचीत के द्वारा तथा (३) लेखक के कथन और व्याख्या द्वारा।
___कथा की घटनाएँ तो प्राय पात्रो के स्वभाव और प्रकृति से ही प्रसूत होती है। उसके वातावरण या देश-काल का निर्माण चरित्रो को स्वाभाविकता और वास्तविकता प्रदान करने के लिए ही किया जाता है। कथनोपकथन धटनाग्रो से भी अधिक चरित्र को ही व्यजित और प्रकाशित करता है तथा कथा के उद्देश्य की महत्ता भी चरित्र मे ही निहित होती है।
___ जैन कथानो मे जिस सार्वभौतिकता एव विश्व कल्याण की दिशद भावना को अपनाया गया है उसकी परिधि इतनी विशाल है कि ससार के समस्त प्राणियो का इसमे समावेश हो सकता है। जैम-धर्म जीवमात्र का हितकारी है। वह विश्व के प्रत्येक प्राणी को सुखी देखना चाहता है और यथाशक्ति उसे सन्मार्ग का पथिक बनाना चाहता है ।
इन कथानो मे देव, असुर, मानव, साधु-सन्यासी, दैत्य, दानव, राजा रानी, विद्याधर, धनिक, दीन, पशु पक्षी, कीट पतगादि सव पात्र बनकर आए है । यदि देवता अपने विशिष्ट वैभव से युक्त है तो असुर भी अपनी आसुरी भावनामो एव कामनामो से परिपूर्ण दिखाये गए है । तोता, मैना, काग, कोकिल, बक, हस मयूर, गृद्ध आदि नभचर यदि इन कथानो मे अपनी वेदना की अभिव्यक्ति करते है तो गाय, बैल, घोडा, वन्दर, सिंह, मृग, व्याघ्र, सूकर, शृगाल, गज, भेडिया आदि भी मुनियो के उपदेशो को सुनकर प्रभावित होते है तथा अपने कुकृत्यो पर पश्चात्ताप करने लगते है। क्रूर वन्य पशु भी धर्मोपदेश के श्रवण से देव-योनि मे मरकर उत्पन्न होते है और अपनी जीवन यात्रा को सफल बनाते है । ब्राह्मण, क्षत्री, वैश्य, शूद्रो के साथ-साथ अरण्य
1. हिन्दी साहित्य कोश भाग १ पृष्ठ ४८८
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जैन कथाओ के पात्र
वासिनी कई जातियो के प्रमुख व्यक्ति भी इन कथाग्रो के पात्र वने है और उन्होने साधना करके एक पुनीत प्रादर्श को समाज के सम्मुख प्रस्तुत किया है । मेढक सा साधारण प्रारणी भी इन कथाओ के माध्यम से शिष्ट जनो का प्रिय बनता है और पनी भक्ति भावना के सहारे मृत्यु का वरण कर स्वर्गवासी देव की अनुपम वैभव वशालिता को प्राप्त करता है । शृगाल रात्रि भोजन का परित्याग कर शिथिल मानव समाज के लिए एक चेतावनी देता है ।
मरणासन्न सुग्रीव बैल पच नमस्कार मन्त्र को सुनकर अपनी भावना को पुनीत बनाता है और वृषभ शरीर का त्याग कर राजा छत्रछाया की रानी श्रीदत्ता की गोद मे वृषभध्वज नामक पुत्र के रूप मे बाल सुलभ क्रीडाएँ करता है । (देखिए सुग्रीव बैल की कथा, पुण्याश्रव कथाकोप पृष्ठ ७८ ) साधारणत- कथाओ के पात्रों का विभाजन इस प्रकार किया जा सकता है. -
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(१) ऋषि-मुनि ( २ ) राजा-रानी (३) सेठ-सेठानी (४) देव-दानव (५) विद्याधर ( ६ ) अरण्यवासी - ग्रादिवासी (७) मानव ( विभिन्न जातियो के नर-नारी ) ( 5 ) पशु-पक्षी ( ६ ) कीट-पतंगादि (१०) देवी-देवता ( ११ ) वेश्या ( १२ ) चोर डाकू (१३) विविध ।
( पात्रो के सन्दर्भ मे वेश्याग्री, राजाग्री एव ऋषि मुनियों की विशेष चर्चा की गई है | )
प्राय देखा जाता है कि कुपात्र भी जीवन की विषम यातनाओ को सहता हुआ कथा के अन्त मे प्रायश्चित्त अथवा धर्म-साधना की पावन आग मे अपने दुष्कृत्यो या दुर्भावनाओ को दग्ध करके अपने आप को सत्पात्र के रूप मे प्रस्तुत करता है । जैन कथाग्रो की यह विशेषता है कि इनमे चित्रित दुष्ट पात्र भी शिष्ट बन जाते हे । ये पात्र अपने कथनो के माध्यम से ग्रपती चारित्रिक विशेषताओ को प्रकट करते है एव जीवन की शुभाशुभ गतिविधियो को सहज रुग मे समाज के सन्मुख अभिव्यजित कर देते हैं ।
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जैन कथाओं में यथार्थवाद एवं आदर्शवाद
यथार्थवाद एब आदर्शवाद दोनो एक दूसरे के पूरक है । यथार्थवाद ही प्रादर्शवाद की उपयोगिता को सिद्ध करता है और आदर्शवाद यथार्थवाद की प्रयोजनशीलता को प्रमाणित कर अपने अस्तित्व को सफल बनाता है । यथार्थवाद के अभाव मे आदर्शवाद निस्सार प्रतीत होता है और वह अपनी गरिमा खो बैठता है । इसी प्रकार आदर्शवाद के प्रति जन-मानस मे तभी ग्राकर्षण उत्पन्न होता है जब वह यथार्थवाद की कटुता से बेचैन हो उठता है । जो श्यामता और श्वेतता मे पारस्परिक सम्बन्ध है वही इन दोनो मे परिलक्षित होता है । इन दोनो को एक दूसरे का विरोधी कहना वस्तुत उचित नही है ।
"यथार्थवाद साहित्य की एक विशिष्ट चिन्तन-पद्धति है जिसके अनुसार कलाकारो को अपनी कृति मे जीवन के यथार्थ रूप का प्रकन करना चाहिए । यह दृष्टिकोण आदर्शवाद का विरोधी माना जाता है पर वस्तुत तो आदर्श उतना ही यथार्थ है, जितनी कि कोई भी यथार्थवादी परिस्थिति । . जीवन मे यथार्थ की कल्पना दुष्कर है । किन्तु अपने पारिभाषिक अर्थ मे यथार्थवाद जीवन की समग्र परिस्थितियो के प्रति ईमानदारी का दावा करते हुए भी प्राय सदैव मनुष्य की हीनताओ तथा कुरूपताओ का चित्रण करता है । यथार्थवादी कलाकार जीवन के सुन्दर अश को छोडकर असुन्दर प्रश काकन करना चाहता है । यह एक प्रकार से उसका पूर्वाग्रह है ।
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
साहित्य में आदर्श शब्द का प्रयोग दर्शन अथवा राजनीति की भांति किसी रूढिगत अर्थ मे नही किया जाता। साहित्य का आदर्शवाद मानवजीवन के आन्तरिक पक्ष पर जोर देता है। जीवन के दो पक्ष है अान्तरिक और बाह्य । आन्तरिक पक्ष मे मानसिक सुख, प्रसन्नता, परितोष, आनन्द प्राजाते है। वाह्य पक्ष मे ऐश्वर्य, वैभव तथा भौतिक उन्नति का स्थान है। आदर्शवादी साहित्यकार का विश्वास है कि मनुष्य जब तक आन्तरिक सुख प्राप्त नहीं करता, उसे वास्तविक अानन्द की उपलब्धि नहीं हो सकती। मानव की चेतना तब तक भटकती रहेगी, जब तक वह शाश्वत, चिरतन सत्य अथवा अानन्द नही प्राप्त कर लेता। इस प्रकार आदर्शवाद मानवजीवन की आन्तरिक व्याख्या करता है। उसकी उच्च सभावनायो के प्रकाशन मे तत्पर होता है। वह उन मानव-मूल्यो को ग्रहण करता है, जो कल्याणकारी है, शुभ है, सर्जनात्मक है ।
आदर्शवादी साहित्यकार भाव और कला की महत्तर ऊँचाइयो पर जाने का प्रयास करता है। अन्तर्मुखी होने के कारण कभी-कभी उसकी चेतना आध्यात्मिक, यहाँ तक कि रहस्यवादी हो जाती है ।' 1
__ जैन कथानो मे यथार्थवाद का चित्रण विषाक्त वातावरण की सृष्टि के लिए नही किया गया है और न मानवीय विकृतियो की कुत्सित अनुभूतियो की रोचकता के हेतु उभारा गया है। मानव को प्रबुद्ध करने के लिए ही यथार्थवाद का सहारा लेकर कथाकारो ने उसे एक 'सभाव्य आदर्शवाद की ओर बढने के लिए सदैव प्रोत्साहित किया है। आदर्शोन्मुख यथार्थवादी परम्परा का पूर्ण विकास हमे जैन-कथाओ मे प्राप्त होता है। नारकीय जीवन कितना वेदना-पूर्ण है, पशु-गति की कितनी भयावह विभीषिकाएँ है, धनिक वर्ग कितना निर्मम होकर निर्घनो को सताता है, कामी पुरुप किस प्रकार उचितानुचित के भेद को भूल जाता है, लोभी कितनी निर्ममता से दूसरो के धन का अपहरण करता है, नारी की काम-वासना जब उद्दीप्त होती है, तब वह सदाचार की सीमा का किस प्रकार उल्लधन करती है, कामिनी व्यभिचारिणी बनकर किस रूप से वह पर पुरुष को आकर्षित करती है, आदि का चित्रण कथाकारो ने बडी सजगता से किया है, लेकिन साथ ही साथ इस चित्रण को आदर्शवाद की तूलिका से ऐसा मनोरम बना दिया है कि पाठक अथवा श्रोता कहानी को पढकर या सुनकर एक विशिष्ट प्रबोधन से स्वय को जागरुक
1 हिन्दी साहित्य कोष प्रथम भाग पृष्ठ १०३
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जैन कथानो मे यथार्थवाद एव आदर्शवाद
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वना लेता है। मुनि-निन्दा से मानव सतप्त होकर दुखी होता है लेकिन व्रतादि करके वह दुख से मुक्ति पाता है तथा अपने आगामी जीवन को परिष्कृत भी बनाता है। इस प्रकार, के विविध मोडो का दिग्दर्शन कथा कारो ने आदर्शवाद की प्रतिष्ठा के लिए निरन्तर क्यिा है । पापोदय से यदि शरीर कुष्ठ रोग मे विकृत बनता है तो जिनेन्द्रदेव की भक्ति पूर्वक पूजा करने से तथा गधोदक लगाने से इस प्रकार के कठिन रोग भी नष्ट हो जाते है। इस प्रकार रोग के कारणो का उल्लेख करते हुए आदर्श वादी इन जैन कथाकारो ने रोग की मुक्ति के साधनो की भी चर्चा की है।
इस सदर्भ मे यह भी उल्लेख्य है कि एक ओर कथाकार ने मानव की निर्वलता को अकित किया है तो दूसरी ओर इसान की कर्मण्यता एव चारित्रिक पावनता को भी चित्रित कर मानव के दोनो रूपो को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इस प्रयास मे मानवीय कमजोरियां परास्त होती हे और चारित्रिक दृढता अनेक सघर्षों के वीच सही बनती है। सुदर्शन सेठ की कथा मे एक तूलिका से वेश्या की उदीप्त काम वासना को गहरे रगो से रगा गया है तो दूसरी तूलिका के सहारे शरीर की अपावनता को चित्रित कर प्रबोधन का सहारा लिया गया है तथा तीसरी तूलिका से सुदर्शन मुनि की चारित्रिक दृढता को निखारा गया है। इस कथा के निम्नस्थ अश विचारणीय है
वेश्या का यह प्रलाप सुनकर परम निश्चल और धीर-वीर सुदर्शन बोले-हेमुग्धे (मूखिणी) यह अपवित्र शरीर दुखो का घर वायु, पित्त, कफ इन विदोपो से पीडित, कृमिकुल से परिपूर्ण और विनश्वर है। यह सासारिक भोगोपभोगो के अनुभव न करने के लिए नहीं है, किन्तु परलोक सिहि की सहायता के लिए है। अतएव इसे तपस्या मे ही लगाना चाहिए । ये सम्पूर्ण भोगोपभोग अविचारित रम्य और दुखान्त है। इनसे प्रागी को कभी सन्तोष की प्राप्ति नही हो सकती है। मोक्ष के अतिरिक्त अन्यत्र सुख नही है, और वह तपस्या के विना प्राप्त नहीं हो सकता । सो हे मूर्ख अब तू इस दुष्कृत्य से अपने आपको वचा और कुछ अपना कल्याण कर।।
यह सुनकर देवदत्ता ने यह कह कर कि 'यह मव पीछे करना और पीछे ही उपदेश देना, अभी वह ममय नहीं है ! सुदर्गन मुनि को अपनी सुकोमल शय्या पर लिटा दिया। परन्तु मुनि ने दूस समय सन्यास धारण कर लिया और प्रतिज्ञा करली कि यदि इस उपसर्ग का निवारण हो जायेगा तो आहारादि ग्रहण करूंगा अन्यथा मर्वथा त्याग है। परन्तु वेश्या ने
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
उनका पिंड न छोडा । उसने तीन दिन तक काम विकारो की नाना चेष्टाएँ की परन्तु जगज्जयी काम को जीतने वाले सुदर्शन मुनि मेरु के समान सर्वथा निश्चल रहे | आखिरकार वेश्या लाचार और निरुपाय होकर रात्रि को उन्हे स्मशान भूमि मे लेजाकर कायोत्सर्ग पूर्वक स्थापन कर आई और अपने घर चली आई |
यहाँ सुदर्शन मुनि कठिन तपस्या के फल से केवल ज्ञान प्राप्त करके गध कुटी रूप समवसरणादि की विभूति से युक्त हुए । उनके केवल ज्ञान के अतिशय को देखकर व्यन्तरी सम्यग्दृष्टी हो गई और पडिता तथा देवदत्ता ने दीक्षा ग्रहण करली ।" पुण्यास्रव कथाकोष पृष्ठ १२१
यथार्थवाद एव आदर्शवाद की इस चर्चा मे यह भी उल्लेखनीय है कि कथाकारो ने पीडित मानव की सन्तुष्टि के लिए जिस आदर्शवाद की स्थापना की है वह केवल कल्पित नही है अपितु मानवीय साधना के भीतर ही है ।
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जैन कथाओं में प्रकृति-चित्रण
प्रकृति और मानव का चिरतन साहचर्य है । अपने जीवन के प्रथम प्रभात मे इसान ने प्रकृति के सुहावने दृश्य को देखा था एव जीवन की सध्या मे भी उसने प्रकृति से सान्त्वना प्राप्त की थी । यह प्रकृति हो तो मानव को कभी जननी के समान वात्सल्य देती है तो कभी प्रेयसी की भाँति उसे अनन्त प्यार प्रदान करती है । कभी शिक्षिका के सदृश यह प्रकृति विह्वल मानव को प्रवोधन देकर आश्वस्त करती है तो कभी अध्यात्मवाद की भावना को अपने क्षरण भगुर रूप के माध्यम से सुदृढ बनाती है ।
साहित्यकार को सतत प्रेरणा देने वाली यह प्रकृति ही है । इसकी सुखद गोद में बैठकर काव्यकार चिरतन काव्य की सर्जना करता है और चित्रकार प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर अपनी भावुक तूलिका प्रारणवती बनाता है । प्रकृति की छाया में निर्मित साहित्य ही सत्य, शिव, सुन्दर का प्रतीक बनता है ।
हमारा प्राचीन समस्त साहित्य प्रकृति की रम्य रगस्थली मे ही रचा गया या । फलत उसमे प्रकृति के विविध रूपो का बडा ही मनोरम चित्रण हुआ है । प्रकृति के अनेक उपकरण इतने रमणीय है कि वे उपमान के रूप मे स्वीकृत हो चुके । मृगो की छलागे किसे विमोहित नही करती है ? मयूरो का नृत्य सबको प्रमुदित कर देता है । मेघो की श्यामल घटाएँ बरबस भावुक मानस को सुखद स्मृतियो से भर देती है । इसी प्रकार कमलो से भरा
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
हुआ सरोवर दर्शक की आँखो को प्रानदित कर देता है । सुरभित पुष्प किस स्नेही की लालसा को मुखरित नही करते ?
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पलाश के फूलो की दहकती लालिमा किस विरहिणी को उद्वेलित नही करती ?
डॉक्टर शान्ति स्वरूप गुप्त के शब्दो मे प्रकृति के साथ मानव का सम्बन्ध तभी से है जब से वह इस धरातल पर आया । शिशु के रूप में उसने प्रकृति जननी की ही उन्मुक्त क्रीड मे नेत्रोन्मीलन किया, उसी की गोद मे उसने स्वच्छन्द विहार किया और अन्त मे उसी के वक्षस्थल पर वह चिर निद्रा मे सोता रहा । महादेवी वर्मा ने प्रकृति और मानव के सम्वन्ध पर विचार करते हुए fखा है - " दृश्य प्रकृति मानव जीवन को प्रथ से इति तक चक्रवाल की तरह घेरे रही है । प्रकृति के विविध कोमल परुप, सुन्दर, विरूप, व्यक्त, रहस्मय रूपो के आकर्षण ने मानव की बुद्धि और हृदय को कितना परिष्कार और विस्तार दिया है इसका लेखा-जोखा करने पर मनुष्य प्रकृति का सबसे अधिक ऋणी है । वस्तुत संस्कार - क्रम मे मानव जाति का भावजगत ही नही उसके चिन्तन की दिशाएँ भी प्रकृति से विविध रूपात्मक परिचय द्वारा तथा उससे उत्पन्न अनुभूतियो से प्रभावित है ।
यो तो धर्म, दर्शन, साहित्य और कला इन सभी मे प्रकृति-चित्रण को स्थान मिला है, किन्तु काव्य मे इसे सर्वाधिक महत्व प्राप्त हुआ है । इसका मुख्य कारण यह है कि काव्य का रचयिता कवि साधारण मानव की अपेक्षा अधिक संवेदनशील होता है और वह प्रकृति के विभिन्न दृश्यों से बहुत शीघ्र और अधिक अभिभूत होता है ।" 1
जैन कथाकारों ने अपने धार्मिक सिद्धान्तो एवं उपदेशो को प्रभावो - त्पादक बनाने के लिए प्रकृति के उपकरणो को विशेष रूप से अपनाया है । त्याग - वृत्ति की उपादेयता सिद्ध करने के लिए इन कथाकारो ने वृक्षो, मेघो सर - सरिता एव पुष्पो के उदाहरण दिये है । इसी प्रकार परोपकार की भावना को जाग्रत करने के लिए इन कथाओ मे गाय, पवन, ग्राकाश, मेघ, कानन, पर्वत आदि की जीवन-गाथा का सकेत किया गया है । जीवन क्षरण भगुर हैइस तथ्य को प्रमाणित करने के लिए फूले हुए वृक्ष एव शुष्क तरु को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है। कही कही पर कथा की रोचकता का
1 साहित्यिक निबंध पृष्ठ ४८२
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जैन कथाओ में प्रकृति - चित्ररण
aढ़ाने के लिए प्रकृति का भी सुन्दर चित्रण इन कथाकारो ने वडी भावुकता मे किया है । सामान्य रूप से प्रकृति का चित्रण इन कहानियो मे निम्नस्थ रूप मे हुआ है - ( १ ) ग्रालम्वन रूप मे (२) मानवीकरण के रूप मे (३) पृष्ठभूमि के रूप मे (४) उपदेशिका के रूप मे ( ५ ) उद्दीपन रूप मे ( ६ ) अलकार प्रदर्शन के रूप मे (७) प्रतीकात्मक रूप मे ( ५ ) विम्ब - प्रतिविम्व रूप मे (२०) दूतिका के रूप मे । यहाँ कुछ उद्धरण दिये जा रहे हे जो प्रकृति के विविध रूपों को प्रस्तुत करते है तथा यह भी बताते हैं कि भावुक कथाकार प्राकृतिक दृश्यों से किस प्रकार प्रभावित हुया है, जैन कथाप्रो मे पशु-पक्षियो का मानवीकरण एक विशिष्ट उद्देश्य का परिचायक है । यह मानवीकरण धार्मिक महत्व को प्रतिपादित करता है । यहाँ गाय, बैल, गज, सिंह, व गाल, मयूर, हस, शुक, सारस, मैना आदि मुनियों के उपदेशो से प्रभावित होकर सन्यास धारण करते हैं, मास-भक्षण का परित्याग करते है, रात मे जल पीना छोड़ते है, विद्व ेश को भूलते हे एव जाति स्मरण से अपने दुष्कृत्यों के लिए पश्चात्ताप करके स्वजीवन को सुधारने का पूर्ण प्रयास भी करते है । बसन्त वर्णन -
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"हरिष पुराण" पृष्ठ क्रमाक १७० से १७३ तक
कदाचित वसत ऋतु का श्रागमन हुआ । वसत के प्रभाव से चारो दिशाओ मे एक विलक्षण शोभा नजर ग्राने लगी । उन समय वनमाला नवीन पुष्प और पल्लवो की लालिमा से व्याप्त हो गई थी इसलिये उनसे वसत ऋतु अतिशय रमणीय जान पड़ती थी ।
मनुष्यों के मन को हरण करने वाले ग्राम के वृक्ष उस समय लाललाल नवीन पल्लवी से व्याप्त हो गये थे । उनसे ऐसा जान पडता था मानो राजा मुरा को वन देवी की प्रीति के लिये सूचना दे रहे है ।
किंशुक (ढाक) के वृक्ष प्रग्नि की प्रच ज्वाला के नमान चौतर्फी रक्त हो गये थे, उनमें ऐसा जान पडने लगा मानो विमुक्त हुये अनुरक्त रनीपुम्पी की उपशात विरह ज्वाला फिर से धन उठो है ।
उस समय अशोक वृक्ष नवीन युवा की तुलना कर रहा था | क्योकि युवा के शरीर पर जिन प्रकार रणनूपुरचारम्नीकोमल नमताडित. पल्लवागर भनवार शव्द करती हुई पानी के प्रति के के समान वृज भी अनकार पत्रों में युकने
कोमल जाते हैं, उसी प्रशोक
का
जीनगया।
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जैन कथा का सास्कृतिक अध्ययन
कुल वृक्ष ( मोलसिरी ) स्त्रियो के प्रखड मद्य के कुल्लो से फूल गया था । इसलिये उसे देख प्रमद जनो को परम आनद होता था ।
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जो मनुष्य उस समय सुखी थे । अपनी अपनी वल्लभाओ से सयुक्त थे, उन्हे तो अपने ऊपर गुजार शब्द करते हुवे भ्रमरो से कुरवक वृक्ष परम ग्रानन्द देता था, किन्तु जो दुखी विरही थे उन्हे दुख कर । अपने अर्थ को कु-खोटे रोना चिल्लाना रूप रवक-शब्द कराने वाला चरितार्थ करता था ।
उस समय चौतर्फा फूले हुये तिलक वृक्षो ने अपनी शोभा द्वारा पटल जाति के वृक्षो की सुगन्धी से व्याप्त वन लक्ष्मी रूपी बनिता को पुण्यवती बना दिया था ।
लिते केशर (गर्दन के वाल)
जिस प्रकार हस्तियो के दमन करने के से शोभित सिंह कूदते फिरते हैं, उसी प्रकार वसन्त ऋतु मे खिले हुवे नाग वृक्षो को दबाने के लिये ही मानो सिंह केशर जाति के वृक्ष खिल
उठे थे ।
जिस प्रकार कोई पुरुष चिरकाल के वियोग से कृश अपनी बल्लभा को आलिंगन कर पुष्ट एव पुण्यवती ( रजोधर्मवती ) कर देता है उसी प्रकार वसत ने चिरकाल से विमुख ग्रतएव सूखी हुई अपनी मालती रूपी वल्लभा को अपने मिलाप से प्रफुल्लित और पुष्पो से व्याप्त कर दिया था ।
उस समय अतिशय रक्त कठ और झूलने के अतिशय प्र ेमी अनेक स्त्री पुरुष राग मे मनोहर गीत गाते थे ।
ग्रधरो की शोभा से मंडित एव झूला पर बैठकर हिंडोल नामक
कोई कोई स्त्रियो के प्र ेमी मनुष्य बसत ऋतु के अनुकूल भूषरण वस्त्र पहन कर बगीचे और वनो मे जाते और बडी प्रीति से मद्यपान करते थे । वन मे हरिण पहिले दूवघास का स्वय आस्वादन करते और पीछे उसे हरिणी को देते । हरिणी भी उसका आस्वादन कर हिरण को देती सो ठीक है कि अपने प्रिया की सू घी हुई भी वस्तु परम ग्रानन्द देती है ।
उस समय मदोन्मत्त हाथी सल्लकी वृक्ष के सुन्दर पल्लवो के खाने मे अतिशय लालायित अपनी प्र ेयसी हथिनी को अपने मुख से चुबन करते श्रीर उन्हे चु बन जन्य सुख मे मस्त कर देते थे ।
नूतन पुष्पो मे स्थित मधु को पीते हुवे भ्रमर भ्रमरी इधर उधर शब्द करते हुवे फिरते थे एव वडी लालसा से एक दूसरे का आधाण और चुन कर आनन्दित होते थे ।
उस समय कोकिला इधर उधर कुहू कुहू मनोहर शब्द करती थी उससे
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जैन कथाश्री मे प्रकृति-चित्ररण
ऐसा जान पडता था मानो अपने समान सुरीले कठो से भूषित रमणियो का गान सुनकर वे उनके जीतने की इच्छा से ही शब्द कर रही है ।
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इस प्रकार वसत राजा के उदित होने पर राजा सुमुखी का भी विलासी मन वन विहार के लिये उत्सुक हुग्रा सो ठीक ही है जिस वसत के प्रभाव से भ्रमर कोयल यादि क्षुद्र जन्तु भी मस्त हो नाना गान गाने की तो बात ही क्या है ?
लगते है तो मनुष्यो
प्रथम ही उसने उत्तमोत्तम वस्त्र और ग्राभूषण पहिने पश्चात् वह भले प्रकार सजाये गये किसी श्रतिशय उन्नत हाथी पर सवार हो सज धज कर वन की ओर चल निकला । उस समय उसके मस्तक पर पूर्ण चन्द्रमा के समान अतिशय स्वच्छ छत्र फिरता था जिससे सूर्य की प्रभा दब रही थी ।
नाना प्रकार के जलो से पूर्ण समुद्र के समान अनेक राजाओ से व्याप्त, वदीगरणो से स्तुत राजा सुमुखी राजमन्दिर से निकल राजमार्ग पर श्रवतीर्ण हुवे । वसत ऋतु के समान सदा से प्रजा के मन मे विराजमान राजा सुख का देखने के लिये नगर की नारियो मे बडा कोलाहल मच गया । चारो ओर वर्धस्व, जय, नद यही ध्वनि सुनी पड रही थी । हाथो को जोडे हुवे अतिशय व्याकुल हो स्त्रियाँ अपने नेत्र रूपी अजलियो से सुमुख के रूप का पान करने लगी ।
प्रकृति प्रकार
स्त्रियो के मध्य में एक अतिशय मनोहर साक्षात् रतिके समान स्त्री वैठी थी । अचानक ही उस पर राजा की दृष्टि पड गई । उसका मुख चन्द्रमा के समान था । नेत्र कमल के समान थे । दोनो ग्रोष्ठ विवाफल सरीखे और कठ शख अनुरूप था । उसके स्तन चक्रवालो की उपमा को धारण करते थे । कटिभाग अतिशय कृश था । नाभि अत्यन्त गहरी थी । दोनो जघन सुघटित थी । नित्तव कुदरूफल से तुलना करते थे और दोनो चरण, विशाल उरु, सुन्दर जघा एव पाष्णियो से अतिशय शोभायमान थे ।
राजा सुमुख उसपर प्रति आसक्त हो गया और लालमा पूर्वक उस पर गिरी हुई ग्रुपनी चंचल दृष्टि को जरा भी न रोक सका ।
उसके मन मे सहसा इस बात की चिंता हुई कि मुग्ध हरिणी के समान नेत्रो से शोभित यह रमणी किसकी प्राज्ञाकारिणी स्त्री है | अतिशय सुन्दर यह चरावर अपने रूप रूपी पान ने मेरे मन को सोच रही है ।
यदि इस जन्म मे मैने हृदय को ग्रानन्द देने वाली इस रमणी के
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
साथ विलास न किया तो मेरा यह ऐश्वर्य व्यर्थ है। यह सुन्दर रूप और नवीन यौवन भी किसी काम का नही ।
चाहे यह समस्त लोक परस्त्री सेवन करने के कारण एक ओर हो सर्वदा के लिये विरोधी हो जाय, परन्तु मेरा जो चित्त परस्त्री मे आसक्त हो गया है, उसे मै रोक नही सकता आदि ।
'शरद ऋतु वर्णन' पृष्ठ क्रमाक १८६ से १८७ हरिवश पुराण---
कदाचित वर्पाकाल के व्यतीत हो जाने पर शरद ऋतु का आरम्भ हुआ । उस समय शरद ऋतु सर्वथा सुन्दर स्त्री की उपमा धारण करती थी। क्योकि स्त्री के जैसा मुख होता है वह कमल रूपी मुख से शोभित थी। स्त्री जैसे अधर पल्लवो से मडित रहती है यह भी बधूक जाति के मनोहर पल्लव रूप अधरो से शोभित थी। स्त्री जैसे श्वेत चमरो से अलकृत रहती है यह भी विकसित कास के वृक्ष रूपी शुभ्र चमरो से युक्त थी। स्त्री जैसे वस्त्रो से वेप्टित रहती है यह भी निर्मल जल रूपी वस्त्रो से वेष्टित थी।
___ उस समय धूम्र के समान काली मेघ पक्ति नजर न पडती थी। उससे ऐसा जान पडता था मानो श्वेत वर्ण गौनो के उन्नत शब्दो ने उसके शब्दो को प्रच्छन्न कर दिया था। इसलिए वह लज्जित हो छिप गई है।
वर्षाकाल मे मेघमडल से आवृत होने के कारण दिशाओ मे सूर्य के पाद (किरण) नही फैल पाते थे, परन्तु इस समय मेघ का आवरण विल्कुल नष्ट हो चुका था। इसलिये उस सूर्य ने अपने पैर (किरण) सब ओर पूर्ण रीति से फैला रक्खे थे।
उस समय मेघ रूपी नितवो से झरते (गिरते) हुवे जल रूपी चित्र विचित्र वस्त्रो से मडित, भवर रूपी नाभि से रमणीय, मीन रूपी नेत्रो से मनोहर, फेन रूपी चूडानो से अलकृत, तरग रूपी विशाल भूजायो से भूषित, नदी रूपी रमणियाँ क्रीडा काल मे भगवान के मन को भी हरण करती थी।
लहर रूपी भ्र कटियो से शोभित मीन के समान चचल कटाक्षो से युक्त कामी पुरुषो के मनोहर अलापो के समान मत्त भोरे और हसो के शब्दो से रम्य विकसित कमलो की पराग रूपी अगराग को धारण करने वाली सरसी रूपी स्त्रिया रतिकाल मे भाग्यवान को अतिशय अनुरक्त करती थी।
शालि क्षेत्रो मे सुगधित शालि वृक्ष फलो के भार से नम्रीभूत हो गये और उन्ही क्षेत्रो मे कमल भी प्रफुल्लित हो गये। उनसे ऐसा प्रतीत होता था मानो सुगध के अतिशय लोलुपी कमल और शालिफल शरीर से शरीर मिलाकर चिरकाल तक एक दूसरे की सुगध सू घना चाहते है ।
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जैन कथाओ मे प्रकृति-चित्ररण
कदव वृक्ष वर्षाऋतु मे पुष्पित होते है । इसलिये शरदऋतु के प्रारम्भ जब कव धूलि से धूसरित विचारे भोरो को कदव पुष्पो का मधु न मिला तो वे मत्त हाथियो के मद की गंध देने वाले सपृच्छद वृक्षो से ही मन बहलाने लगे ।
वर्षाकालीन संध्या का वर्णन:
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वर्ण काल की सध्या का समय था । मेघ मंडल ने अपने अधकार- पूर्ण वातावरण मे सूर्य के सम्पूर्ण प्रताप को ढक लिया था । उसने अपनी घनी और काली चादर से ग्रासमान को ग्रावृत कर लिया था । यह उसके जलदान का समय था । मेघो के हृदय की उदारता का स्रोत प्राज अनिवार्य गति से फूट पडा था । वे भीषण गति से भूमडल को ग्रार्द्र बनाने का सकल्प करने लगे । अरे यह क्या अपने प्रचुर दान की सीमा का आज वे उल्लघन ही कर गए ?
- महात्मा सजयत सुदृढ तपस्वी नामक कथा से
रात्रि- वर्णन
उसी समय सूर्य पश्चिम समृद्र में जाकर डूब गया, मानो ग्राकाश जगल मे चलते हुए थककर उसने स्नान करने के लिए समुद्र मे डुबकी लगाई है | पश्चिम दिशा का उपभोग करने को जाते हुए सूर्य ने सध्या बादल के छल से उसके पश्चिम दिशा के वस्त्र खीच लिए हो—ऐसा मालूम होने लगा । पश्चिस दिशा पर छाई हुई अरुण मेघो की परम्परा ऐसी जान पडने लगी मानो अकाल मे सूर्य को छोडकर तेज जुदा रह गया है । नवीन रागी सूर्य, अव नवीन राग वाली पश्चिम दिशा का सेवन करने लगा ।
जैन रामायण छटा सर्ग
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जैन कथाओं की रचना प्रक्रिया
जैन कहानियो का रचना- विधान बडा ही सरल सरस एव आकर्षक है । इनमे न शाब्दिक काठिन्य है और न भावो की दुर्बोधता । ये कथाएँ सामान्य जनता के लिए लिखी गई थी अत इन्हे इतना सुबोध बनाया गया था कि प्रशिक्षित जन-समुदाय भी इसे समझ सके और मनोरजन के साथ-साथ जीवन की विषमता से भी अवगत हो सके । ये समस्त कहानियाँ एक विशिष्ट लक्ष्य को लेकर निर्मित हुई थी और आचार-व्यवहार, प्रथा-परम्परा और जीवन-जगत् को अपने प्राकार मे सभालती हुई आज भी जीवित है । समयसमय पर इनका स्वरूप परिवर्तित हुआ और स्वरो मे बदलाव ग्राया, लेकिन प्रबोधन की भावना ग्रमिट रही ।
कतिपय कथाओ को छोडकर प्राय समस्त कथाएँ ऐसी है जिनमे प्रस्तावना का अभाव है । साधारणतया कथा का प्रारम्भ किसी नगर अथवा ग्राम के नाम के उल्लेख से होता है तथा साथ ही साथ किसी विशिष्ट शासक, अथवा प्रधान पुरुष का भी सकेत किया जाता है । नृपति के नामोल्लेख के साथ उसकी रानी एव राजकुमारो की भी प्रारम्भिक चर्चा करदी जाती है । बहुसंख्यक कहानिर्या ऐसी है जिनमे साधारण व्यक्तियो की प्रधानता रहती है और कथाओ का प्रारभ व्यक्ति विशेष की साधारण स्थिति के परिचय के साथ किया जाता है । कुछ कथाए ऐसी भी है जिनका प्रारम्भ किसी प्रधान घटना की पूर्व पीठिका से होता है । कथा के प्रारभ मे विशिष्ट पात्र के उल्लेख के
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जैन कथाश्री की रचना प्रक्रिया
साथ उसकी पत्नी के नाम का भी सकेत कर दिया जाता है । कथा के प्रारभ मे मंगलाचरण के रूप मे श्री जिनेन्द्र देव की स्तुति परक कुछ शब्द कह दिये जाते है । और अन्त मे ( कथा की समाप्ति मे ) साराश के रूप मे विशिष्ट लक्ष्य की भी चर्चा करदी जाती है जिससे कि पाठक अथवा श्रोता सहज ही मे उस प्रयोजन को समझ सके जिसके लिए पूरी कथा की सृष्टि की गई है । उदाहरण के रूप में यहाँ दो कथाओ का साराश उद्धृत किया जा रहा है
(१)
पूजन का ऐसा महत्व है कि अत्यन्त मूर्ख, व्रत- रहित शूद्र की कन्याएँ भी भगवान् के मन्दिर की देहली पर केवल फूल चढाने के कारण देव-गति को प्राप्त हो गई । फिर यदि सम्यग्दृष्टि व्रती श्रावक अष्टद्रव्य से प्रौर भाव सहित भगवान् की पूजा करे तो इन्द्र- महेन्द्र की पदवी को क्यो न प्राप्त होवे ? अवश्य ही होवे । इसलिए हम सबको प्रतिदिन भक्ति भाव से जिन पूजा करनी चाहिये । ( माली की लडकियो की कथा, पूजाफल वर्णनाप्टक पुण्यास्रव कथाकोप पृ ३)
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(३)
देखिए 1 मरण-काल मे एक चोर भी विना विचारे अथवा बिना महत्व जाने ही नमस्कार मंत्र के उच्चारण से देव - पद को प्राप्त होगया, यदि अन्य सदाचारी पुरुष शुद्ध मन से इस मंत्र का पाठ करे तो क्यो न स्वर्गादिक सुखो को प्राप्त होवे ? अवश्य ही होवे | ( दृढ सूर्य चोर की कथा - पुण्यास्त्रव कथाकोप, पृ० १०७)
मंगलाचरण एव साराश की प्रवृत्ति प्राय समस्त पुरातन जैन कथाग्रो ये दृष्टव्य है । लेकिन आज के कतिपय कहानीकारो ने प्राचीन जैन कथाओ की कथावस्तु के आधार पर कुछ कहानियाँ लिखी है । उन नव निर्मित कहानियो मेन मंगलाचरण का संकेत उपलब्ध है और न साराश देने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है । इसका कारण यही है कि ग्राधुनिक कहानी का रचना-विधान पाश्चात्य कहनी कला से अत्यधिक प्रभावित है । इस सन्दर्भ मे डॉ० जगदीशचन्द्र जैन द्वारा लिखित दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ भी उल्लेख्य है ।
कथाओ मे रोचकता लाने के हेतु तथा इन्हे प्रभावोत्पादक बनाने के लिये कथाकारो ने सूक्तियो, सुभाषितो दृष्टान्तो, एव उपकथाओ का भी पर्याप्त मात्रा मे प्रयोग किया है । इनके (सूक्तियो एव सुभाषितो के) माध्यम से कथा मे सन्निहित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है और साथ ही साथ जीवन के
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
एक ऐसे विशिष्ट तत्व से भी पाठक-श्रोता परिचित हो जाते हैं जो सामाजिक, धार्मिक एव राजनीतिक जीवन मे विशेष उपयोगी सिद्ध हो सकता है। वेश्या के सम्बन्ध मे कहा गया है कि-"वेश्या धन का अनुभव करती है, पुरुष का नही । धनहीन पुरुष कामदेव के समान हो तो भी वेश्या उससे प्रीति नही लगाती है ।" (अर्द्धदग्ध पुरुप और बकरे की कथा-पुण्यास्रव कथाकोष, पृ० ८५) । -
इसी प्रकार गुरु की महिमा वे विषय मे एक सूक्ति कही गई है कि एक अक्षर, प्राधापद अथवा एक पद के देने वाले गुरु के उपकार को भी जो भूलता है बह पापी है, फिर धर्मोपदेश देने वाले गुरु के विषय मे तो कहना ही क्या है ? (पुण्यास्रव कथाकोष पृ० ६३)
. कया-वस्तु की सुन्दरता मे अभिवृद्धि करने के लिए अथवा कहिए परम्परागत प्राप्त कथा-प्ररूढियो की व्यापकता एव सार्थकता सिद्ध करने के लिए कहानियो मे यत्र-तत्र कथानक-रूढियो का भी प्रयोग किया गया है । इस सदर्भ मे 'जैन-कथानो मे प्ररूढियाँ' शीर्षक अध्याय दृष्टव्य है। कयात्रो की कथावस्तु को विस्तार देने के लिए तथा कथा-शिल्प को आकर्षक बनाने के हेतु कही-कही कथाकारो ने अलौकिक तत्वो को भी अधिक प्रश्रय दिया है । इस विषय मे 'जैन कथाओ मे अलौकिक तत्व' शीर्षक अध्याय अवलोकनीय है।
सामान्यत कथाओ की शिल्प प्रक्रिया साधारण ही होती है । इसमे सीधा सादा कथानक होता है और इसका प्रारम्भ ‘एक समय की बात हैअमुक नगर मे एक सेठ रहता था,' 'एक गाव मे एक माली रहता था, "जम्बूद्वीप-पूर्व विदेह, आर्य खण्ड-अवन्तो देश मे सुसीमा नामक एक नगरी है, "कु तल देश के तेरपुर नगर मे नील और महा नील नाम के दो राजा थे"मगध देश के राजगृह नगर मे एक उपश्रोणिक राजा राज्य करता था"-आदि वाक्यो से होता है । इन सामान्य कथानो मे केवल एक ही कथानक रहता है
और धार्मिक अथवा सामाजिक तथ्य को सरल रीति मे प्रतिपादित कर दिया जाता है । लेकिन कई ऐसी भी कथाएं है जिनमे प्रधान कथावस्तु के साथ कई अनेक उपकथाएँ गुम्फित रहती हैं जो प्याज के छिलको के समान अथवा कहिए केले की छिलका वली (दल) की भाति एक के बाद एक प्रस्तुत की जाती है । ऐमी कथानो की रचना-विधि सामान्य कहानियो की तुलना मे कुछ जटिल सी प्रतीत होती है ।
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जैन कथानो की रचना प्रक्रिया
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कतिपय कथाएँ ऐसी भी उपलब्ध होती है जिनका प्रारभ एक लघु प्रस्तावना से किया जाता है तथा प्रकृति वर्णन, राजवैभव-चित्रण, नागरिक सौन्दर्य चर्चा, नीति-सिद्धान्त-विवेचना, स्वर्ग-विलास-विभूति-दिग्दर्शन, चक्रवर्तीवैभव-निरूपण, आदि के माध्यम से कथानक मे कई मोडो की कल्पना को साकार बनाया जाता है। ऐसी कथानी की रचना-विधि एक विशद प्रकार की कही जा सकती है । कुछ ऐसी भी कथाएं है जो राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर मे गौतम स्वामी द्वारा कही जाती है जिनमे कथा-श्रवण के फल का उल्लेख रहना है एव कथा की गरिमा से सलग्न व्रतादि का विधान बताया जाता है।
एक प्रकार की विशिष्ट कथाएँ और भी है जिनकी कथावस्तु सक्षिप्त मे प्रस्तुत की जाती है। इनका पूरा कथानक प्रश्नोत्तर मे ही समाप्त हो जाता है। एक रोग-पीडित अथवा दुखी पात्र किसो मुनिराज से पापोदय का कारण पूछता है और वे (मुनिराज) उसे पाप के उदय का हेतु बताते है। कथा पूरी हो जाती है। ऐसी कथानो का शिल्प-विधान शरद-कालीन सरिता के प्रवाह के समान बडा ही सरस और सीधा होता है । बोल चाल की भाषा ही ऐसी कथायो में प्रयुक्त होती है एव छोटे-छोटे वाक्यो के द्वारा कथा का प्रारभ होता है और समाप्ति की जाती है
दुर्गन्धा ने बदना करके मुनि से पूछा-मैं किस पाप के उदय से ऐसी दुर्गन्ध युक्त हुई हूँ? मुनि ने कहा-सोरठ (गुजरात) देश मे एक गिरिनगर है । उसका राजा भूपाल और रानी स्वरूपवनी थी। उसी नगर का एक सेठ गगदत्त और उसकी स्त्री सिंधुमती थी। एक समय जब वसन्त ऋतु अपनी निराली छटा और अपूर्व शोभा दिखा रहा था राजा ने कीडा करने और वसन्त की शोभा देखने का विचार किया। इत्यादि (पुण्यास्रव कथा कोष पृष्ठ २५)
ये कथाएं गद्यात्मक, पद्यात्मक, एव गद्यात्मक पद्यात्मक (मिश्रित) इस प्रकार तीन प्रकार की होती है। इन तीनो प्रकार की कथायो का शिल्पविधान पृथक-पृथक होता है। गद्यात्मक कथानो के मध्य मे कथाकार समुचित एव भावपूर्ण पद्य रखकर रचना-प्रक्रिया को विशेष आकर्षक बनादेते है । लोकोक्तियो एव मुहावरो के प्रयोग से भाषा की व्यजना शक्ति अधिक बलवती बन जाती है। मानव-हृदय की गहन अनुभूतियो को चित्रित करनेवाली ये कथाएं कभी दाम्पत्प-प्रेम को प्रदर्शित करती है तो कभी आध्यात्मिक भावना को 'चित्रित करती हैं। प्रेम, घृणा, हिंसा, प्रतिहिसा, वात्सल्य, क्रोध,
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
मैत्री, विश्व वन्धुत्व श्रादि मानवीय भावनाओ के प्रदर्शन मे सफल इन जैन कथाग्रो की रचना-प्रक्रिया वडी विशद, भाव-पूर्ण, वैविध्य परिपूर्ण, सहज एव आकर्षक है । अनेक कहानियो की रचना-प्रक्रिया मे अलकारादि प्रयोग हुए है और फलत उनकी भाषा मे रमणीयता एव मधुरिमा का अधिक समन्वय हो गया है । ऐसी रचना-प्रक्रिया से आवद्ध कथाओ का साहित्यिक महत्व विशेषत उल्लेखनीय है । पुराणादि में गुम्फित कथाग्रो मे अनेक ऐसी कहानियाँ है जो विशुद्ध मनोवैज्ञानिक कही जा सकती हैं । उनकी शिल्प मे समासान्त पदावली का वाहुल्य है, संस्कृत शब्दो की प्रचुरता है एव लम्बे-लम्बे वाक्य है, जिनसे मनोवैज्ञानिक तथ्यो को निरूपित किया गया है । इस प्रकार विभिन्न कथाओ की रचना - विधि मे वैविध्य होता है, जो स्वाभाविक ही है ।
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वस्तुत कथा - रचना-प्रक्रिया कथाकार की कला - सौन्दर्य-प्रियता की परिचायिका है । जिस प्रकार वास्तुकला मे प्रवीण शिल्पकार अपने कौशल से नवीनता, आकर्षण, एव विशिष्टता को साकार बनाता है उसी प्रकार कथाकार अपने नियोजन - कौशल से उपलब्ध कथावस्तु आदि से कहानी एक ऐसी विलक्षणता को चित्रित करता है जिसे देखकर पाठक - समुदाय विमुग्ध हो जाता है । एक ही कथावस्तु को आधार बनाकर जब विभिन्न कथाकार अपनी-अपनी लेखनी से कहानी को भिन्न-भिन्न रूपो मे अकित करते है तभी तुलनात्मक दृष्टि से रचना - शिल्प की उत्कृष्टता का अध्ययन किया जा सकता है । प्रबुद्ध एव कल्पना - शील चित्रकार की तूलिका की साधारण थिरकन भी असाधारण चित्र को जन्म देती है उसी प्रकार प्रतिभा सम्पन्न कथाकार का सुव्यवस्थित नियोजन-शिल्प सामान्य कथानक को लोक-प्रिय कहानी के रूप मे प्रस्तुत कर देता है ।
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जैन कथाओं की सार्वभौमिकता
जैन- कथा - साहित्य ने विश्व की कथाओ को विविध रूपों मे प्रभावित किया है । इन जैन कहानियो के कथानक विश्व की कथाया मे इस प्रकार गुम्फित है कि शोध-दृष्टि सुगमता से इनकी व्यापकता का परिज्ञान कर सकती है ।
प्राचीन काल मे जैन साधु विभिन्न प्रान्तो मे भ्रमण कर जैन-धर्म का प्रचार करते थे एव कथाओ के माध्यम से जैन सिद्धान्तो की गूढता को सुबोध बनाकर लोक - मानस की अभिरुचि को जैन-धर्म के प्रति आकर्षित करते थे । फलत ये कथाएँ लोक-प्रिय बनी और प्रान्तीय बोलियो मे प्रवृत्त होकर लोक-मस्कृति की सरक्षिका कहलाई ।
"बृहत्कल्प भाष्य मे कहा गया है कि देश - देशान्तर भ्रमण करने से साधुओ की दर्शन-शुद्धि होती है तथा महान् आचार्य आदि की संगति से वे अपने आपको धर्म मे अधिक स्थिर और विद्या मंत्र आदि की प्राप्ति कर सकते है । धर्मोपदेश के लिए साधु को नाना देशो की भाषा मे कुशल होना चाहिए, जिससे वे उन देशो के लोगो को उनकी भाषा मे उपदेश दे सके । जन पद - परीक्षा करते समय कहा गया है कि साधु इस बात की जानकारी प्राप्त करे कि कौन से देश मे किस प्रकार से धान्य की उत्पत्ति होती है - कहा वर्षा से धान्य होते है ? कहा नदी के पानी से होते है ? इस प्रकार साधु को यह जानना आवश्यक है कि कौन से देश मे वाणिज्व से ग्राजीविका चलती है और कहा के लोग खेती पर जीवित रहते हैं तथा कहा लोग मास भक्षण
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
करते हैं और कहा पुष्प फल आदि का बहुतायत से उपयोग होता है। जैन-ग्रन्थो से पता चलता है कि देश-विदेशो मे जैन-श्रमणो का बिहार क्रमक्रम से वढा । सम्प्रति उर्जायनी का बडा प्रभावशाली राजा हुआ। जैन-ग्रन्यो मे सम्प्रति की बहुत महिमा गायी गई है। इसने (सम्प्रति ने) अपने योद्धानो को शिक्षा देकर साधु के वेष मे सीमान्त देशो मे भेजा जिससे इन देशो मे जैन-श्रमणो को शुद्ध आहार पान की प्राप्ति हो सके। इस प्रकार राजा सम्प्रति ने अान्ध्र, द्रविड, महाराष्ट्र और कुडुवक (कुर्ग) आदि जैसे अनार्य देशो को जैन-श्रमणो के सुख-पूर्वक विहार करने योग्य बनाया। इसके अतिरिक्त सम्प्रति के समय से साढे पच्चीस देश आर्य देश माने गए, अर्थात इन देशो मे जैन धर्म का प्रचार हुआ।"1
जैन कथानो ने अपनी रचना- प्रक्रिया से विश्व के समस्त कथा साहित्य को विशेषत प्रभावित किया है । किस प्रकार कथा की नियोजना होनी चाहिए तथा किन किन रूपो मे कथाकारो को कथानो मे लोक-जीवन की अभिव्यक्ति करके भाव-व्यजना को बलवती बनाना चाहिए एव रस योजना कहानियो मे किस प्रकार की जानी चाहिए आदि विषयो का जिस गभीरता से जैन कथानो मे निरूपण किया गया है उसका अनुशीलन कर ससार के कहानीकारो ने जो विशिष्ट उपाधिया प्राप्त की है उनका प्रमुख साधन जनकथा साहित्य ही है । जैन-कथा प्ररूढियो से विश्व-कथा साहित्य पर्याप्त रूप रूप से अनुप्राणित हुआ है। जैन-कथानो की भाव-भाषा-शैली से प्रभावित विश्व का कहानी साहित्य अपने प्रारम्भिक उत्थान से ही है। जैन-पुराणो के मूल प्रतिपाद्य विषय ६३ महायुरुषो के चरित्र है। इनमे सन्निहित कथाएँ यूरोपियनो के मत से विश्व-साहित्य मे स्थान पाने योग्य हैं।
जैन कथानो को आधार बनाकर अनेक कवियो एव नाटककारो ने कई महाकाव्य, खड काव्य एव नाटक लिखे है। सूफी कवि जायसी का प्रसिद्ध महाकाव्य 'पद्मावत' की रचना प्राकृत जैन-कथा 'रयण सेहरी नरवइ कहा' पर आधारित है । डॉ० रामसिंह तोमर के मतानुसार जैन साहित्य से इस प्रकार अनेक काव्यमय आख्यायिकानो के रूप हमारे प्रारम्भिक हिन्दी कवियो को मिले और प्रम मार्गी कवियो ने उनपर काव्य लिखकर अच्छा मार्ग प्रस्तुत किया (दृष्टव्य जैन-साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन-प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ४६७) 1 जैन-ग्रन्यो मे भौगोलिक सामग्री और भारत वर्ष मे जन-धर्म का
प्रसार ले० डॉ० जगदीश चन्द्र जैन (प्रमी अभिनन्दन ग्रन्थ पृ० २५१)
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जैन कथानो की सार्वभौमिकता
जैन साहित्य की उपदेश-परक प्रवृत्ति ने (जो जैन-कथानो मे अधिक मिलती है) भारतीय सन्त साहित्य को अधिक प्रभावित किया है -"दूसरी प्रधान धारा जैन साहित्य मे उपदेश की है, यह अधिक प्राचीन है। यह उपदेशात्मकता हमे भारतीय साहित्य मे सर्वत्र मिल सकती है, लेकिन जैन साहित्य की उपदेशात्मकता गृहस्थ जीवन के अधिक निकट आ गई है। भाषा और उसकी सरलता इसके प्रधान कारण है। वर्तमान साधु वर्ग पर जैन साधुनो और सन्यासियो का अधिक प्रभाव प्रतीत होता है। जो हो हिन्दी साहित्य मे इस उपदेश (रहस्यवाद मिश्रित) परम्परा के आदि प्रवर्तक कबीरदास है और उनकी शैली, शब्दावली का पूर्ववर्ती रूप जैन रचनायो मे हमे प्राप्त होता है । सिद्धो का भी उनपर पर्याप्त प्रभाव है । यह कहना अनुचित और असगत न होगा कि हिन्दी की इस काव्य धारा पर भी जैन साहित्य का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।"
कुन्दकुन्दाचार्य, योगीन्दु देवसेन और मुनि रामसिंह इत्यादि कवियो की उपदेश प्रधान शैली और सन्त साहित्य की शैली मे बहुत समानता है ।"
(जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन, ले० डॉ० रामसिह तोमर प्रेमी अभिदन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ४६७)
जैन कथा साहित्य की लोक-प्रियता का सबसे प्रवल प्रमाण यह है कि आज से दो हजार वर्ष पूर्व जैन कथाकारो ने जिन कहानियो का प्रणयन किया वे आज भी लोक कथानो के रूप मे भारत के सभी प्रदेशो मे प्रचलित है। जैन आगमो मे राजा श्रेणिक के पुत्र अभय कुमार के बुद्धिचातुर्य की जो कथा है वह अपने उसी रूप मे हरियाणा के लोक-साहित्य मे अढाई द्वत की कथा के नाम से प्रसिद्ध है और दक्षिण के जैमिनी स्टूडियो ने इस कथा के आधार पर 'मगला' चित्रपट का निर्माण किया है। इसी प्रकार शेर और खरगोश की कहानी जिसमे खरगोश शेर को कुए मे अन्य शेर की परछाई दिखाकर ठगता है । 'भिखारी का सपना' जिसमे स्वप्न मे हवाई किला बनाता हुआ भिखारी अपनी एकमात्र सम्पत्ति दूध की हाडी को फोड डालता है । 'नीले सियार की कहानी' जिसमे सियार अपने को नीला रग मे रगकर जगल का राजा बन बैठता है । बन्दर और बया की कहानी, जिसमे बन्दर वया के उपदेशो को अनसुना करके उसके घोसले को नष्ट कर डालता है आदि अनेक कहानियाँ अाज भी सर्व साधारण में प्रचलित है। ये ही कहानियाँ जैन साहित्य के अतिरिक्त हमे बौद्धजातको, पचतत्र, हितोपदेश, कथा सरित्सागर
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
आदि जैनेतर कथा साहित्य मे भी प्राप्त होती है । इसका अभिप्राय यही है कि जैन कथा साहित्य सार्वभौतिकता की व्यापक भावभूमि पर खडा हुआ है । हम उसे किसी समुदाय या धर्म विशेष की सकुचित सीमात्र मे नही बाध सकते । और न उसका क्षेत्र किसी एक देश या युग तक ही सीमित है । उसका विश्व व्यापी महत्व है और युग विशेष से ऊपर उठकर वह विश्व साहित्य की चिरतन और शाश्वत धरोहर है । समग्र मानव जाति की वह अमूल्य सम्पत्ति है और यह प्रसन्नता की बात है कि इसी सार्वजनीन और सार्वभौमिक रूप मे जैन कथा साहित्य की अमूल्य सम्पत्ति का उपयोग भी हुआ है । जैन कथा साहित्य न केवल भारतीय कथा साहित्य का जनक रहा है अपितु सपूर्ण विश्व कथा साहित्य को उसने प्र ेरणा दी है । भारत की सीमाओ को लाघकर जैन कथाऐ अरब, चीन, लका, योरोप आदि देश - देशान्तरो मे पहुची है और अपने मूल स्थान की भाँति वहाँ भी लोक प्रिय हुई है । योरोप में प्रचलित अनेक कथाए जैन कथाओ से अद्भुत साम्य रखती है । उदाहरण के लिये नायधिम्म कहा, चावल के पाच दाने की कथा कुछ बदले हुए रूप मे ईसाइयो के धर्मग्रन्थ 'बाइबिल' मे प्राप्त होती है । चारुदत्त की कथा का कुछ श जहाँ वह बकरे की खाल मे बन्द होकर रत्नद्वीप पर जाता है सिन्धवाद जहाजी की कहानी से पूर्णत मिलता जुलता है । प्रसिद्ध योरोपीय विद्वान ट्वानी ने कथाकोष की भूमिका मे यह स्पष्ट कर दिया है कि विश्व कथायो का मूल स्त्रोत जैनो का कथा साहित्य ही है, क्योकि जैन कथाकोषो की कहानियो और योरोप की कहानियो मे पर्याप्त साम्यता है तथा यह भी निश्चित है कि ये सब की सब कहानियाँ जैन कथा साहित्य से उधार ली गई है । ट्वानी ने अनेक उदाहरणो द्वारा इस बात को सिद्ध किया है ।
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प्रसिद्ध योरोपीय विद्वान प्रोफेसर जैकोवी ने अपनी 'परिशिष्ट पर्व' की भूमिका मे एक स्त्री और उसके प्र ेमी की एक जैनकथा को उद्धृत किया है । आश्चर्य की बात है कि यही कहानी ज्यो की त्यो चीन के लोक साहित्य मे प्रचलित है और फ्रान्स मे भी कुछ रूपान्तर के साथ लोक प्रिय है । 'अलिफ 'लैला' (आरवोपन्यास) की कहानियों का मूल आधार भी जैन कथा साहित्य है, यह बात कुछ आश्चर्य जनक सी प्रतीत होती हुई भी सत्य है । 'अलिफ लैला' में एक बजीर की लडकी बादशाह की मलिका बनकर प्रति रात्रि एक कहानी सुनाकर अपने प्राण बचाती है । इसी प्रकार श्रावश्यक चूरिंग की कहानी 'चतुराई का मूल्य' है जिसकी नायिका कनकमजरी प्रति रात्रि एक कहानी सुनाने का लोभ देकर अपने पति को, जो कि राजा है ६ मास तक
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जैन कथाग्रो की सार्वभौमिकता
अपने पास रोके रहती है । 'नायाधम्म कहा की 'प्रलोभनो को जीतो' कहानी का कथानक 'अलिफ लैला' की कहानियों से बहुत साम्य रखता है ।
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[ जैन कथा साहित्य - लेखक प्रोफेसर फूलचन्द जैन सारग एम ए साहित्य रत्न, श्रीमद् विजय राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रथ से साभार ।]
डॉ० जगदीशचन्द्र जैन ने जैन - कथा - साहित्य से चुनकर 'दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ' नाम से एक कथा संग्रह प्रस्तुत किया है । इस संग्रह मे संग्रहीत कथाएँ तीन रूपो मे ( लौकिक कहानियाँ, ऐतिहासिक कहानियाँ एव धार्मिक कहानियाँ ) विभाजित की गई है ।
लौकिक कथाओ के सम्बन्ध मे डॉ० जैन ने लिखा है लौकिक कथाओ मे उन लोक- प्रचलित कथाग्रो का संग्रह है जो भारत मे बहुत प्राचीन काल से चली आ रही है, और जिनका किसी सम्प्रदाय या धर्म से कोई सम्बन्ध नही है । इस विभाग मे दो कहानियाँ नाया धम्म कहा (ज्ञातृ धर्म कथा ) मे से ली गई है । इन कहानियो मे चावल के पाँच दाने (नाया धम्म ७) कहानी कुछ रूपान्तर के साथ मूल सर्वास्तिवाद के विनय वस्तु ( पृ० ६२ ) तथा वाइबिल ( सैण्ट मैथ्यू की सुवार्ता २५, सेण्ट ल्यूक की सुवार्ता १६ ) मे भी ग्राती है । मादी पुत्रो की कहानी (नाया धम्म ६ ) काल्पनिक प्रतीत होने पर भी हृदयग्राही तथा शिक्षाप्रद है । इस प्रकार के लौकिक आख्यानो द्वारा भगवान् महावीर सयम की कठोरता और अनासक्ति भाव का उपदेश देते थे । यह कथा कुछ रूपान्तर के साथ वलाहस्स जातक (स० १६६ ) तथा दिव्यावदान मे उपलब्ध होती है । इस विभाग की कई कहानियाँ पहेली साहित्य की दृष्टि से अत्यन्त महत्व की है । पडित कौन ? ( आवश्यक चूरिंग, पृ० ५२२२६) चतुर रोहक (वही पृ० ५४४ - ४६ ) राजा का न्याय ( वही पृ० ५५५५६), चतुराई का मूल्य ( वही पृ० ५७-६० ) नामक कहानियाँ अत्यन्त मनोरजक और कल्पना शक्ति की परिचायक है । इनमे से अनेक कहानियाँ आजकल वीरवल और अकवर की कहानियो के नाम से प्रचलित है । चतुर रोहक का कुछ भाग महा उम्मग्ग- जातक मे पाया जाता है । पडित कौन है ? का कुछ भाग रूपान्तर के साथ शुक सप्तति ( २८ ) मे आता है । दो मित्रो की कहानी (आवश्यक चूरिंग, पृ० ५५१) कथासरित्सागर ( पृ० ३१५ ) शुक सप्तति ( ३६ ) तथा कुछ रूपान्तर के साथ कूट वाणिज जातक और पचतत्र मे पायी जाती है ।" 1
1. दो हजार वर्ष पुरानी कहानिया - प्रास्ताविक से साभार ।
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
प्राचीन जैन कथा-साहित्य मे सर्वप्रथम गुम्फित विना विचार करने का फल, घण्टी वाला गीदड, कपट का फल, वन्दर और वया, लालची गीदड, राजा का न्याय, गीदड की चतुराई, दो पाथली सत्तू, घोडो का सईस, कृतन कौए, वृद्ध जनो का मूल्य, वैद्यराज या यमराज, विद्या का घडा, रानी मृगावती, राजा शालिवाहन का मत्री, विक्रमराज मूलदेव गगा की उत्पत्ति, कपिल मुनि, शम्ब की कील, यक्ष या लकडी का हूँठ, चाण्डाल पुत्रो की कहानी, रोहिणेय चोर, जिनदत्त का कौशल, कल्पक की चतुराई प्रादि कहानियाँ, वघेलखड, बुन्देलखड, छत्तीसगढ, राजस्थान, मालवा, नीमाड, रुहेलखण्ड, वगाल, काश्मीर, गढवाल, पजाव, भोजपुर, कर्नाटक, दक्षिण भारत, गुजरात आदि भू-भागो मे कुछ रूपान्तर के साथ विभिन्न शीर्गको से प्रचलित है । इन मे से कतिपय कथाएँ तो पाश्चात्य देशो मे भी साधारण परिवर्तन के साथ लोक जीवन मे समा गई है।
जेन-कथा-साहित्य की यह सार्वभौमिकता प्रमाणित कर रही है कि विश्व की कहानियाँ जैन कथाओ से अत्यधिक प्रभावित है।
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जैन कथानों में नामों की संपोजना
नामकरण भी हमारी संस्कृति एव सभ्यता का द्योतक है । विश्व मे कोई भी ऐसा चेतन तथा अचेतन नही है जिसका नाम न हो । नामो के माध्यम से ही हमे ऐसे सकेत उपलव्ध होते है जिनसे पदार्थो एव प्राणियो के स्वभावादि का परिज्ञान होता है । सस्कारो मे नामकरण को अभिहित करके हमारे ग्राचार्यों ने नामों की उपयोगिता को भी समझा है। विभिन्न प्रकारो के नाम विश्व के प्रागरण मे पल्लवित एव पुष्पित भिन्न-भिन्न धर्मो एव सम्प्रदायो के क्रमिक विकास से सम्बद्ध इतिहास की उभरी हुई रेन्वानो को प्रस्तुत करते है । रामदास, सियाशरण कृष्णशकर, कृष्णविहारी, श्यामबिहारी, राधारमण, गगादास, यमुनादास, शिवदास, शिवसहाय, जिनदास, जिनदत्त, ऋपभदाम, कालीचरण, भैरवनाथ, नर्मदाप्रसाद, धर्मदाग, भूतनान, पार्वती, नुतुच्या, मीता, राधा, चम्पा, चमेली, देवीदास, मागरमल, प्रतापगह, नन्ददास, बुद्धिप्रकाग, गोपालदान, गोपालशरणसिंह यादि नाम एक और मानद की विनिष्ट सम्प्रदाय-प्रियता को बताते हैं और दूसरी ओर उनकी भनि-परम्परा को भी प्रभिब्यजित करते है । ग्रामीण नाम यदि हमारी गाम्न-मा कृति को जीवित रख रहे है तो सुमस्कृत नामावली एक उदात सास्कृतिक नेतता की भिति यो भी मुनरित करती है।
गुण स्वभाव, जाति, धार्मिक विखान, जपान, शारीरिक नाकार-प्रकार, कुल-गोनाटि मति पनि, पान्गिन्ति नाना रण, छाती
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन .
देवता, सम्प्रदाय, गुरु-सरक्षण, वरदान, मान्यता आदि का नामकरण मे विशेष महत्व माना गया है।
कतिपय नाम अभिधा मूलक होते है और कुछ नाम लाक्षणिक भी कहे गये है । लेकिन लाक्षणिक एव व्यग्यात्मक नाम भी शन शनै अभिधा मूलक हो जाते है।
न केवल जैन पुराणो मे ही वरन समस्त वाड् मय मे नामो की ऐसी राशि उपलब्ध होती है, जिन्हे शब्द शक्तियो के आधार पर अनेकवा वर्गीकृत किया जा सकता है । शब्द-शक्तियो के आधार पर तो नामो को वर्गीकृत किया ही जा सकता है । उनके द्वारा भकृत अर्थो के माध्यम से भी विभाजन पूर्ण रूपेण सभाव्य है । शब्द-शक्तियो के सन्दर्भ में सर्वप्रथम समूची नाम राशि को द्विधा विभक्त कर सकते हैं -
व्यासात्मक एव समासात्मक । इस उभय विधि नाम-राशि को पुन अभिधा शक्ति के आधार पर निम्नलिखित रूप से चतुर्धा विभाजित किया जा सकता है -
(१) रूढ (२) यौगिक (३) योगरूढ (४) यौगिक रूढ ।
(१) जिन नामो की व्युत्पत्ति न हो सके उन्हे रूढ (शब्द) कहते है जैसे—डिन्थ (काठ का हाथी) इस नाम की कोई व्युत्पत्ति नहीं है ।
(२) अवयव शक्ति से अर्थ-बोधक नाम यौगिक कहे जाते है । जैसेपाचक (रसोइया) तथा पाठक जो पढाता हो उसे पाठक कहते है। यहाँ पठ् क्रिया से यह नाम निर्मित है।
(३) समुदाय और अवयव दोनो की शक्ति से जो अर्थबोधक नाम होते है, वे योगरूढ कहलाते है । जैसे-पकज । इस नाम की व्युत्पत्ति की जाय तो पकान् जायते इति पकज । लेकिन यह नाम केवल कमल के लिए ही रूढ हुना है । इस प्रकार इस नाम का वोध समुदाय एव अवयव दोनो के माध्यम से होता है । दूसरे शब्दो मे हम यो कह सकते है कि जहाँ अवयव शक्ति, समूह'शक्ति से नियन्त्रित होकर अभीष्ट अर्थ प्रदान करे, उसे 'योग-रूढ़' नाम कहते है।
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जैन कथानो मे नामा की सयोजना
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(४) जिनकी समूह शक्ति निरपेक्ष हो वे यौगिक रूढ नाम कहलाते है। जैसे-अश्वगन्धा (एक जडी का नाम) । यदि यहाँ हम इस नाम की अवयव शक्ति द्वारा व्युत्पत्ति करें तो अश्वस्य गन्ध इव गन्धो यस्या-घोडे की गन्ध के समान है गन्ध जिसकी । लेकिन यह व्युत्पत्ति यहाँ निरपेक्ष है क्योकि असगन्ध नामक जडी घोडे की गन्ध के समान गन्ध की अपेक्षा नहीं रखती। इसी प्रकार समूह-शक्ति से भी यहाँ निरपेक्षता है । यदि इन चार प्रकार के नामो के भेद-प्रभेदों पर विचार किया जाय तो अनेक भेद हो सकते है। दृष्टव्य-जयदेव विरचित, चन्द्रालोक का प्रथम मयूख ।
जैन कथानो मे नामों की सार्थकता उल्लेख्य है । प्राय गुणो के अनुरूप ही नाम रखे गये है । जैसे-धनदत्त (दान मे धन देने वाला), जयकुमार (विजय प्राप्त कर्ता), सुलोचना (सुन्दर नेत्र वाली), दुर्गन्धा (जिसके शरीर से दुर्गन्ध आती हो) इत्यादि । पुरातत्व की दृष्टि से भी इन जैन नामो का विशेष महत्व है। इनके माध्यम से हमे प्राचीन जैन-सस्कृति की एक प्रशस्त झलक दिखाई देती है । इन नामो के विशद अनुशीलन से हमे यह ज्ञात होता है कि जातिगत नाम गर्ने शनै व्यक्ति वाचक बन गये एव स्थानो के नामो ने व्यक्तिवाचक नामो को भी प्रभावित किया। इस प्रकार व्यवसाय, जाति, देश आदि के अनुरूप भी हजारो नाम-इन जैन कथानो मे अनायास ही उपलब्ध हो जाते है।
इन जैन नामो ने अपनी रमणीयता, कोमलता, गुणानुरूपता एव लालित्य से लोक-प्रियता तो प्राप्त की ही है, साथ ही पूर्ववर्ती तथा परवर्ती नाम परम्परा को विविध रूपो मे प्रभावित भी किना है । उदाहरणार्थ यहाँ कुछ जैन नामो का उल्लेख किया जाता है। ये पात्रो की चारित्रिक विशेषतायो के परिचायक है एव सार्थक कहे जा सकते है । रूढ नाम तो कम है, लेकिन यौगिक, योगरूह तथा यौगिकरूढ नामो की पर्याप्त संख्या मिलती है।
जैन आचार्यों के नाम १ गौत्तम गणवर २ भद्रबाहु ३ धरसेन ४ कुन्दकुन्द ५. उमास्वाति ६. समन्तभद्र ७ सिद्धपेन ८ देवनन्दि ६ अकलक १०. विद्यानन्दि ११. जिनसेन १२ प्रभाचन्द्र १३ वादिराज १४. जिनभद्रगणि १५. हरिभद्र १६. हेमचन्द्र १७ यशोविजय ।
मषि, मुनियो एवं साध्वियो की नामावली ऋपि-मुनियो के नाम
साध्वियो के नाम १. गुणसागर
१ पृथिवीमती २. सुगुप्ति
२. जिनमती
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
३ यमधर ४ अरविन्द ५ समाधिगुप्त ६ सुदर्शन ७ बालि
सुधर्माचार्य ६. सूर्यमित्र १०. यशोभद्र ११ सुकुमाल १२ प्रीतकर राजाओ के नाम १ श्रोणिक २ धर्मघोष
मणिमाली जितशत्रु
विश्वसेन ६ अन्धकवृष्टि
अकम्पन विमलवाहन
अरविन्द १० श्रीकान्त ११ धनपाल १२ धात्रिवाहन
३. राजीमती ४ चन्दनवाला ५. वसुमती ६ मधुमती ७ स्वस्तिमती ८ धर्ममती ६ कीर्तिमती १०. त्यागप्रभा ११ धर्मप्रभा १२ गुणवती रानियो के नाम १ चेलिनी २ लक्ष्मीमती ३ गुणमाला
धनदत्ता ५ सुप्रभा ६ सुलोचना ७ विमलमती
लक्ष्मीवती ६ मनोहरी १०. धनमती
वसुन्धरा १२ विदेही
मन्त्रियो के नाम
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१ विश्वभूति २ अरविंद
नयधर जयधर बन्धुदत्त वासव अग्निमित्र
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गुणधर
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जैन कथानो मे नामो की सयोजना
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६ यशोधर १० श्रीधर ११ दुर्मति १२ सोमदत्त
सेठो (धनपतियो) के नाम १ धनदत्त २ वसुमित्र ३ समुद्रदत्त ४ वृपभदास ५ जिनदत्त ६. धर्मदत्त ८ धनपति ६ भविष्यदत्त १० देविल ११ श्रीकुमार १२ धनपाल ।
सेठानियो (धनपत्नियो) के नाम । १. जिनमती २. सागरसेना ३. मनोरमा ४ वसुकान्ता ५ नागश्री ६. यशोभद्रा ७. कनकप्रभा ८ रतिकान्ता ६ कमलश्री १० मनोहरी ११. देवलमती १२. सत्यभामा।
निधियों के नाम १ 'कालनिधि २ महाकालनिधि ३ पाकनिधि ४ माणवक ५ नैसर्पनिधि ६ सर्वरत्ननिधि ७ शखनिधि ८ पद्म निधि ।
नगरो के नाम १ राजगृह २ पाटलिपुत्र ३ रत्नसचयपुर ४ पोदनापुर ५. तेरपुर ६ अयोध्या ७ यक्षपुर ८. किष्किधापुर ६. भृगुकच्छ १० अलकापुर ११ सिंहपुर।
नगरियों के नाम १. उर्जायनी २ वाराणसी ३ अयोध्या ४ पुण्डरी किणी ५ द्वारावती ६ चम्पापुरी ७ पुष्कलावती ८ कौशाम्बी ६. मिथिला १० चन्द्रपुरी ११ अहिछत्रपुरी १२ द्वारिकापुरी।।
नदियो के नाम १ गगा २ सिधु ३ रोहित ४ रोहितास्या ५ हरित ६ हरिकान्ता ७ सीता ८ सीतोदा ६. नारी १० नरकान्ता ११ सुवर्ण कूला १२ रुप्य कूला १३ रक्ता १४ रक्तोदा ।
पहाड़ो के नाम १ हिमवत २ महाहिमवत ३. निषिध ४ नील ५ रुक्मि ६ शिखरिणो ७ मलयागिरि ८ मन्दारगिरि ६ रुचिकगिरि १० गन्धमादन ।
तालादो के नाम १ पद्म २. महापद्म ३ तिगिछ ४. केशरि ५ महापुण्डरीक ६ पुण्डरीक।
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
ग्रामो (गाँवो) के नाम १ सवर २, शाल्मलिखण्ड ३ गञ्जपुर ४ शूपरिक ५, आलोक ६ वेणातडाग ७, नन्दिग्राम ८ आनन्दपुर ६. रत्नपुर १० पलासकट ११ यशोपुर १२ धर्मपुर ।
तीर्थ क्षेत्रो के नाम १ सम्मेदशिखर २ पावापुर ३ राजगृही ४ चन्द्रपुरी ५ कौशाम्बी ६ हस्तिनापुर ७ स्वर्णगिरि (सोनागिरि) ८ कुण्डलपुर ६ सिद्धवर कूट १० गिरनार ११ मागी तु गी १२ श्रवण वेलगोला।
सामान्य नर-नारियों के नाम पुरुपो के नाम
नारियो के नाम १ मानभद्र
१ मनोहरी २ पूर्णभद्र
२ किन्नरी ३. चारुदत्त
३ 'नीलीबाई ४ रुद्रदत्त
४ कपिला ५ सुदृष्टि
५. वसुन्धरी ६ अञ्जन
६. सोमिला ७ लकुच
७ भद्रा ८ गोविन्द
८ सुलसा ६ सात्यकि
९ सुदत्त १० धरणीधर
१० सूरदत्त ११ कपिल
११ कोशा १२ माकन्दी
१२ उपकोशा १३ मल्ल
१३ धनवती १४ अट्ठण
१४ अचला १५, फलहिय
१४ विरूपा १६ मच्छिन्न
१६ आर्द्रा १७ भरत
१७ रूपवती १८ रोहक
१८ धरित्री __ नामो की इस सयोजना से कई तथ्य प्रकाश मे आते हैं । नगरो के नामकरण मे नरेशो के नामो का मकेत स्पष्ट है । एक युग था जब नृपति अपने नामो को कुछ समय के लिए अमरत्व प्रदान करने के लिए नगरो तथा ग्रामो के नाम-करण मे अपने नामो को आधारभूत बनाते
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जैन कथायो में नामो को सयोजना
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थे। कहा जाता है कि भरतवश की छटी पीढी मे राजा हस्ति हुए । उन्होने हस्तिनापुर नाम की नगरी वसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया था । इसी तरह भरत के पुत्र तक्ष ने तक्षशिला और पुष्कर ने पुष्करावती बसाई थी। बुन्देलखण्ड प्रान्त मे चदेल और बुन्देल राजानो के वसाये हुए कई स्थल मौजूद है। मदनपुर को चदेल राजा मदन वर्मा ने बसाया था । ललितपुर सुमेरसिंह की रानी ललिता का वसाया हुया वताया जाता है । हमीरपुर को अलवर के किसी हमीर देव नामक राजपूत ने बसाया था।"] ग्रामो के सम्बन्ध मे विशिष्ट पशु-पक्षियो एव पादप-पुष्पो का बाहुल्य उल्लेख्य है । सूकरपुरा गाँव मे जगली सुअरो का एक समय बाहुल्य था। अत ग्राम को सूकरपुरा नाम प्राप्त हुआ । इसी पकार कगलिया (कागो का आधिक्य सूचित करता है) इमलिया (इमली नामक वृक्षो का बाहुल्य बताता है) कैथा (कपित्थ-कथा की अधिकता सूचित करता है) वेला (एक प्रकार के सुगन्धित पुष्प का बाहुल्य प्रकट करता है) आदि ग्रामो के नाम उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये जा सकते है । इस प्रकार के हजारो ग्राम नाम प्रचलित है । कन्यायो एव युवतियो के नाम कर्ण-प्रिय होने चाहिए-यह महर्षियो का मत है । ऋपियो के इस अभिमत का उपयोग नारियो तथा वालिकामो के नामकरण मे विशेषत हुआ है । देवालयो, पर्वतो एव सर-सरितायो के नाम विशिष्ट ऋषि-मुनियो, विशिष्ट भू-भागो, घटनाविशेष, सलिल-रगादि पर आधारित कहे गये है । विशिष्ट धातु की उपलब्धि कभी-कभी भूवर एव सर-सरिताओ के नामकरण का प्राधार बन जाती है।
कतिपय नाम ऐसे भी है जिनका सम्बन्ध प्राकृत, सस्कृत, अपभ्रश, गोडी, मालवी, बुन्देली, वघेली, मराठी, छत्तीसगढी, कन्नड, मलयालम आदि भाषा-बोलियो से है । ऐसे नामो का अध्ययन भी वडा रोचक होगा । श्रावश्यकता है विभिन्न भापानो और बोलियो के सम्यक् अव्यवन की । जन कथानो मे आये हुए विभिन्न नामो का अनुगीलन यदि धार्मिक, सामाजिक, ऐनिहासिक, भाषा वैज्ञानिक, पुरा तत्त्वीय आदि दृष्टिकोणो से किया जाय तो इन नामो की सीमा, उत्पत्ति विस्तार आदि का एक विशद इतिहाम हो उपलब्ध हो सकता है। लेकिन यह कार्य बहुत प्रतिभावान विद्वान के श्रम से ही पूर्ण हो सकेगा।
। गामो और नगरो का नामकरणले० श्रीकृष्णानन्द गुप्त मार
१ जुलाई १९४२ ।
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जैन कथाओं का साहित्यिक सौन्दर्य
साहित्यिक दृष्टि से जैन कथा साहित्य की महत्ता सर्वमान्य है। साहित्य मे जिस गरिमा, विश्व-कल्याण, उदात्त भावना, सास्कृतिक प्रबोधन, सार्वभौमिक सहयोग, पुनीत सौन्दर्य बोध, सरसता, सत्य, शिव, सुन्दर की व्यापकता, कलात्मक अभिव्यजना, सार्वजनीन सरस भावुकता आदि की प्रतिष्ठा की गई है, उसकी रूपात्मक अभिव्यक्ति बडे कौशल के साथ इन कथानो मे उपलब्ध होती है।
जैन कहानियो मे धर्म, अर्थ, काम एव मोक्ष-इन चार तत्वो का विशद विवेचन हुआ है, फिर भी धर्म साधना के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति का उद्देश्य विशेषत सर्वत्र मुखरित है । शृ गारादि नव रसो की यहाँ सरस अभिव्यजना हुई है लेकिन आध्यात्मिक वाताबरण के परिप्रेक्ष्प मे शान्त रस की प्रधानता उल्लेख्य है । सासारिक रूपासक्ति तथा वैभव शालिता की इन कथानो मे उपेक्षा प्रदर्शित नही हुई है अपितु यथावसर इनके रसपूर्ण चित्रण के साथसाथ जीवन के चरम लक्ष्य-विरक्ति का सहज निरूपण करके कथाकार ने शम की प्रधानता को कभी नहीं भुलाया है। इन कहानियो मे एक ओर शृगार का सुखद सम्मिश्रण है और दूसरी ओर जीवन की विरक्ति शब्द-शब्द मे मुखर हुई है । कतिपय कहानियो मे राग (प्रेम) का बडा मर्मस्पर्शी चित्रण किया है लेकिन कथा-समाप्ति पर इस राग की निस्सारता को बताकर कथाकार ने विरक्ति- परिपूर्ण एक महान् उद्देश्य की परिपुष्टि निम्नस्थ छन्दो की भावना मे की है
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जैन कथायो का साहित्यक सौन्दर्य
राग उदै जग ग्रन्थ भयो,
सहजहि सव लोगन लाज गँवाई ।
सीख विना नर सीखत है,
विषयादिक सेवन की सुधराई ।
तापर और रवं रसकाव्य,
कहा कहिये तिनकी निठुराई । सुन की अँखियान मे,
डारत है रज रामदुहाई 1
राग उदै भोग भव लागत सुहावने से,
बिना राग ऐसे लाग जैसे नाग कारे है । राग ही सीं पाग रहे तन में सदीव जीव,
राग गए प्रावत गिलानी होत न्यारे हैं । राग सौ जगत रीति झूठी सब साँची जान,
राग मिटं सूत प्रसार खेल सारे हैं । रागी विन रागी के विचार मे वडौई भेद,
जैसे भटा पच काहू - काहू को वयारे है ।
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-भूधरदास
-भूवरदाम
"हिन्दी जैन साहित्य की एक सबसे वडी विशेषता यह है कि उसमे शान्त रस की सरिता ही सर्वत्र प्रवाहित दृष्टिगोचर होती है । संस्कृत और प्राकृत के जैन ग्रन्थकारो के समान हिन्दी जैन ग्रन्थकारों का भी एक ही लक्ष्य रहा है कि मनुष्य किसी तरह सासारिक विषयो के फन्दे से निकल कर अपने को पहचाने और अपने उत्थान का प्रयत्न करे । इनी लक्ष्य को नामने कर भने पनी रचनाएँ की है । हिन्दी जैन साहित्य मे ही नहीं, अपितु हिन्दी माहित्य में कविवर वनारसीदास जी की आत्मकथा तो एक पूर्व ही रचना है । उनका नाटक समयानुसार भी अध्यात्म का एक अपूर्व ग्रन्थ है ।"
1
इन पंक्तियो मे अभिव्यक्त विचारधारा जैन कथा साहित्य के उददेश्य के हो अनुरूप है ।
1, जैन धर्म-ले० फैलानन्द्र जो शान्नी, पृष्ठ २५७
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
जैसा कि पूर्व मे सकेत किया जा चुका है, जैन कवियो के समान ही जैन कथाकारो ने जीवन के समस्त रूपो को चित्रित कर उन पर विरक्ति का गहरा रग शान्ति-तूलिका से इस प्रकार किया है कि 'शम' के चित्र सर्वत्र उभर कर सुशोभित हो रहे हैं ।
'जैन कवियो पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनमे जीवन-विरक्ति वहुत अधिक मात्रा मे है । डॉ० रामकुमार वर्मा ने इसी की ओर सकेत करते हुए लिखा है कि साधारणतया जैन साहित्य मे जैन धर्म का ही शान्त वातावरण व्याप्त है, सत के हृदय मे शृगार कैसा ? जैन काव्य मे शान्ति या शम की प्रधानता है अवश्य, किन्तु वह प्रारभ नही परिणति है । सभवत पूरे जीवन को शम या विरक्ति का क्षेत्र बना देना प्रकृति का विरोध है । जैन कवि इसे अच्छी तरह से जानता है, इसलिये उसने शम या विरक्ति को उद्देश्य के रूप मे मानते हुए भी सासारिक वैभव, रूप, विलास और कामामक्ति का चित्रण भी पूरे यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है । जीवन का भोग पक्ष इतना निर्बल तया सहज आक्राम्य नही होता, इसका आकर्पण दुर्निवार्य है, आसक्ति स्वाभाविक, इसीलिए साधना के कृपाण पथ पर चलने वालो के तिए यह और भी भयकर हो जाते है । सिद्ध साहित्य की अपेक्षा 'जैन साहित्य मे रूप सौन्दर्य का चित्रण कही ज्यादा बारीक और रगीन हुआ है, क्योकि जैन धर्म का मस्कार रूप को निर्वाण प्राप्ति के लिए सहायक नही मानना, रूप अदम्य आकर्पण की वस्तु होने के कारण निर्वाण में बाधक है-इस मान्यता के कारण जैन कवियो ने गार का वडा ही उद्दाम वासनापूर्ण और क्षोभकारक चित्रण किया है, जड पदार्थ के प्रति मनुष्य का आकर्षण ' जितना घनिष्ठ होगा, उससे विरक्ति उतनी ही तीव्रः। शमन शक्ति की महत्ता का अनुमान तो इन्द्रिय भोग-स्पृहा की ताकत से ही किया जा सकता है । नारी के शृगारिक रूप, यौवन, तथा तज्जन्य कामोत्तेजना आदि का चित्रण इसी कारण बहुत सूक्ष्मता से किया गया है । जैन-कवि पौराणिक चरित्रो मे भी सामान्य जीवन की स्वाभाविक प्रवृत्तियो की ही स्थापना करता है । उसके चरित्र अवतारी जीव नही होते इसीलिए उनके प्रमादि के चित्रण देवत्व के पातक से कभी भी कृत्रिम नही हो पाते । वे एक ऐसी जीवात्मा का चित्रण करते है जो अपनी आतरिक शक्तियो को वशीभूत करके परमेश्वर पद को प्राप्त करने के लिए निरन्तर सचेण्ट है। उसकी ऊर्ध्वमुखी चेतना आध्यात्मिक वातावरण मे साँस लेती है, किन्तु पक से उत्पन्न कमल की तरह उसकी जड सत्ता सासारिक वातावरण से अलग नही है । इसीलिए ससार के अप्रतिम
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जैन कथानो का साहित्यिक सौन्दर्य
सौन्दर्य को भी तिरस्कृत करके अपने साधना-मार्ग पर अटल रहने वाले मुनि के प्रति पाठक अपनी पूरी श्रद्धा दे पाता है । जैन शृगार-वर्णन के इस विवरण से इतना रपष्ट हो जाता है कि धार्मिक काव्यो मे जिनका मुख्य उद्देश्य भक्ति का प्रचार था, शृगार कभी उपेक्षित नही रहा, बल्कि इन वर्णनो से तो इसकी अतिशयता का भी पता चलता है।"
इस उद्धरण से जो तथ्य जैन कवि के सम्बन्ध मे कहे गये है, वे जैन कथाकार के विषय मे भी पूर्ण रूप से लागू होते है । । ।
जैन कथाकारो ने मानव की सहज प्रवृत्तियो का भी वडी सहृदयता से चित्रण किया है। दीन हीन की व्यथा क्या होती है पाराध्य के प्रति आराधक की भक्ति मे कितनी प्रगाढता रहती है ? सघर्षों से जूझने की दृढता जैन तपस्वियो मे अगाध है । काम-क्रोध, मान, माया, लोभ के वशीभूत होकर प्राणी कितना अधम बन जाता है आदि की अभिव्यजना जैन कहानियो मे स्वाभाविक रूप से हुई है । विविध रसो का परिपाक इन कहानियो मे इस रूप मे हुआ है कि पाठक, एव श्रोता प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । पलायनवादी प्रवृत्ति का विरोध करते हुए कथाकारो ने यथार्थवाद के धरातल पर आदर्शवाद की सुदृढ स्थापना की है। उदात्त चरित्रो की सृष्टि ने मानव की हीन भावनायो की रेखायो को अस्तित्वहीन बना दिया है । स्वस्थ सामाजिक, धामिक एव राजनैतिक वातावरण ने युग की मान्यताप्रो को पर्याप्त परिपुष्टि प्रदान की है। इन कयायो मे अभिव्यजित भावनासो की गहनता, मार्मिक सवेदना तथा विश्व-वन्धुत्व की कामना इतनी गहरी रेखाप्रो मे उभरी हैं कि युग-युगो तक इन कहानियो की लोकप्रियता जीवित रहेगी ।
___ भाव पक्ष की भाँति इस कयां साहित्य का कला पक्ष भी वडा सुन्दर एव भव्य है । साहित्य की एक प्रमुख विधा कहानी है, जिसके द्वारा साहित्य का सतुलित तथा मनोरम रूप निखरता है । सस्कृत, प्राकृत, अपभ्रशादि भाषामो से अनूदित इन जैन कहानियो मे बडी सरल भाषा अपनाई गई है । प्रान्तो एव नगरो आदि के विवरण इतने सुन्दर प्रस्तुत किये गए हैं कि सामान्य पाठक एब श्रोता भी सहज मे ही प्रभावित हो उठना है । इन वर्णनो मे मुहावरेदार पालकारिक एव लोकोक्तियो से सम्पन्न भाषा बडी सुहावनी लगती है । सुबोध और सरस शैली मे लिखित ये कथाएँ जन-जीवन की विशि
1. विद्यापति-ले० श्री शिवप्रसाद सिह, पृष्ठ ११० तथा ११३-११४
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
ष्ट धरोहर है । यहाँ कुछ वर्णन प्रस्तुत किये जाते हैं जो भाषा की दृष्टि से पठनीय है
(१) __ इस भरत क्षेत्र मे काशी नामक प्रदेश है जहाँ हाथियो के झुण्ड विचरण करते है और जहाँ सरोवर कमल-पुष्पो से शोभायमान हो रहे हैं। वे चकवो को धारण करते हुए ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे रथी अपने रथो के चक्को को धारण किये हो । इस प्रदेश की सरिताओ मे प्रचुर पानी बहता रहता हैं और इस प्रकार वे उन शूल व कृपाणधारी वीराङ्गनाओ का अनुसरण करती हैं जिनके शस्त्रो की धारे खूब पानीदार अर्थात पैनी है। वहाँ के सघन वनउपवन सरस फलो से व्याप्त है जिनका शुक चुम्बन करते हैं, इसी प्रकार यहाँ की पुरनारियो के मुख कमल लावण्ययुक्त हैं जिनसे वे अपने पुत्रो के मुखो का खूब चुम्बन करती है । वहाँ के ग्रामीण किसान जब अपसे काँस के खेतो को जोतने के लिए हलो को हाथ मे लेकरे चलते हैं तब वे विष्णु और हलधर (बलभद्र) के समान दिखाई देते है।
__(सुअध दहमी कहा-का हिन्दी अनुवाद) जिस अवन्ति देश मे पुण्यवान पुरुषो के गृह धनादि लक्ष्मी के साथ और लक्ष्मी पात्रदान के साथ एव पात्रदान सन्मानादि विधि के साथ स्वाभाविक स्नेह प्राप्त करते है। जिस प्रकार क्षीर समुद्र के तटवर्ती पर्वतो के समूह उसकी तरगो से सुशोभित होते है उसी प्रकार वहाँ के गृह भी क्रीडा करते हुए बछडो के समूह से शोभायमान होते थे।
यशस्तिलक चम्पू काव्य-द्वितीय आश्वास पृष्ठ १०४ __ वैशाख कृष्ण दशमी को श्रवण नक्षत्र और शुभ दिन मे तीन ज्ञान धारी पुत्र का जन्म हुआ। जिस प्रकार पूर्व दिशा प्रचण्ड तेजस्वी निर्भय सूर्य को जन्म देती है, उसी प्रकार माता ने महान् तेजस्वी तथा ससार मे ज्ञान का प्रकाश करने वाले पुत्र को जन्म दिया। पुत्र के जन्म समय सभी दिशाएँ निर्मल हो गयी, आकाश स्वच्छ हो गया, शीतल हवा बहने लगी। कुटुम्ब मे अत्यन्त हर्ष हुआ, घर-घर मे गीत-नृत्य होने लगे । मनोहर बाजे बजने लगे । स्वर्ग मे घटानाद, ज्योतिलोक मे सिंहनाद, व्यन्तरो के यहाँ दुन्दुभिनाद और भवनवासियो के यहाँ शखनाद होने लगा । चतुनिकाय के देवो के यहाँ पारिजात आदि फूला की वर्षा हुई तथा बाजे बजने लगे । देवो के मुकुटो मे चमक
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जैन कथानो का साहित्यिक सौन्दर्य
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अधिक आ गई उन्होने अवधि ज्ञान से जान लिया कि भगवान् तीर्थ कर का जन्म हुआ है।
(भगवान मुनिसुव्रतनाथ का जन्मोत्सव) रामचरित (भट्टारक सोमसेन विरचित रामपुराण का हिन्दी अनुवाद) पृ ७३
यह कहना उचित ही है कि साहित्य के विशद परिवेश मे जो स्वाभाविक वर्णनो एव चित्रणो की उपलब्धि हुई है, उसका बहुत कुछ श्रेय कथा साहित्य को दिया जा सकता है । भावनात्मक एव क्रियात्मक असाम्प्रदायिकता जो साहित्य मे प्राप्त है, वह इन कथानो के सहारे ही यहाँ अकुरित, पल्लवित, एव फलित हुई है। इस प्रकार हम देखते है कि जैन कथापो का साहित्यिक महत्व विविध दृष्टिकोणो से चिरन्तन तथा सार्वभौम है ।
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जैन-कथाओं में समुद्र-यात्राएँ
पुरातन जैन-कथाओ के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल मे व्यापार अनेक असुविधानो के होने पर भी उन्नत था । व्यापारी लोग दूर-दूर देशो मे जाकर माल बैचते और खरीरते थे। मार्ग सुरक्षित न थे और चोर-डाकू व्यापारियो को सताते और उनके धनादि का अपहरण करते रहते थे । अनेक कष्टो को झेलते हुए भी व्यापारियो का दल जल-थल यात्रा करता था । तथा विविध देवी-देवताओ की अर्चना करके अपने मन्तव्यो की पूर्ति की कामना से अपनी वैभव वृद्धि मे सफल होता था।
इन यात्राओ (सामुद्रिक यात्रानो) से विदित होता है कि व्यापारिक केन्द्र बडे नगरो मे होते थे और कई द्वीपो से रत्नादि की प्राप्ति भी होती थी । कुशल व्यापारी साहस के साथ जल यात्राएँ करते थे । धनोपार्जन के साथ-साथ अनुभव मे भी वृद्धि करते थे एव कौनसी वस्तु कहाँ प्राप्त होती है और कौन से पदार्थ की माग कहाँ है इन सब व्यापारिक तत्वो को समझ कर अपनी श्री वृद्धि करके सन्तुष्ट होते थे ।।
इन समुद्र यात्राओ के उपलब्ध विवरण यह भी बताते है कि व्यापारी तूफानो से किस प्रकार जूझते थे, तथा विपत्ति के क्षणो मे सामूहिक सहयोग और दृडता से किस प्रकार अगाध जल-राशि की क्षुब्ध धारा को शान्त वातावरण मे परिवर्तन कर देते थे। जल-देवता की पूजा जल यात्रा प्रारम्भ करते समय अनिवार्य रूप से की जाती थी और सफल यात्रा की खुशी मे जल-देवता को पूर्ण आस्था से धन्यवाद भी दिया जाता था ।
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जैन कथानो मे समुद्र यात्राएं
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कई ऐसे दुखद अवसरो पर जव व्यापारी लोग जहाज के टकराने पर जल की धारा के साथ तैरते हुए दिखाई देते, तब जल-देवी-दयावती बनकर पीडित व्यक्तियो की सहायता करती थी । “जैन साहित्य मे यात्री और सार्थवाह" शीर्पक निवन्ध मे डा० मोतीचन्द्र लिखते है-"जैन धर्म मुख्यत व्यापारियो का धर्म था और है और इसलिए जैन धर्म-ग्रन्थो मे व्यापारियो की चर्चा आना स्वाभाविक है । व्यापार के सम्बन्ध मे जैन साहित्य में कुछ ऐसी -- परिभाषाएँ पायी है जिन्हे जानना इसीलिए आवश्यक है कि और दूसरे साहित्यो
मे प्राय ऐसी व्याख्याएँ नही मिलती। इन व्याख्यानो से हमे यह भी पता चलता है कि माल किन किन स्थानो मे बिकता था तथा प्राचीन भारत मे माल खरीदने वेचने तथा ले जाने ले आने के लिए जो बहुत सी मडियाँ होती थी उनमे कौन कौन से फरक होते थे । जैन साहित्य से पता चलता है कि राजमार्गों पर डाकुओ का वडा उपद्रव रहता था । विपाक-सूत्र मे विजय नाम के बडे साहसी डाकू की कथा है। चोर पल्लिया प्राय बनो खाइयो और वसवारियो से घिरी और पानी वाली पर्वतीय घाटियो मे स्थित होती थी।
अपने धार्मिक आचारो की कठिनता के कारण जैन साधु तो समुद्र यात्रा नहीं करते थे, पर जैन सार्थवाह और व्यापारी वौद्धो की तरह समुद्र यात्रा के कायल थे । इन यात्राओ का वडा सजीव वर्णन प्राचीन जैन-साहित्य मे आया है । आवश्यक चूणि से पता चलता है कि दक्षिण-मदुरा से सुराष्ट्र को बरावर जहाज चला करते थे। एक जगह कथा आई है कि पडु मथुरा के राजा पहुसेन की मति और सुमति नाम की दो कन्याएँ जब जहाज से सुराष्ट्र को चली तो रास्ते मे तूफान आया और यात्री वचने के लिए रुद्र और स्कन्ध की प्रार्थना करने लगे।
समुद्र याका के कुशलपूर्वक होने का वहुत कुछ श्रेय अनुकूल वायु को होता था । निर्यामको को समुद्री हवा के रूखो का कुशल ज्ञान जहाजरानी के लिए बहुत आवश्यक माना जाता था। हवाएँ सोलह प्रकार की मानी जाती थी। यथा -१ प्राचीन वात (पूर्वी) २ उदीचीन वात (उत्तराहट) ३. दाक्षिणात्य वात (दखीनाहट) ४ उत्तर पौरस्त्य (सामने से चलती हुई उतराहट) ५. सत्वासुक (शायद चौ पाई) ६ दक्षिण पूर्व तु गार (दक्सिन पूरव से चलती हुई जोरदार हवा को तु गार कहते थे) ७ ऊपर दक्षिण वीजाय ८ ऊपर वीजाय 6 अपरोत्तर गर्जन (पश्चिमोत्तरी तूफान) १० उत्तर सत्त्वासुक ११ दक्षिण सत्त्वामुक १२ पूर्व तु गार १३ दक्षिण
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जैन - कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
वीजाय १४ पश्चिम बीजाय १५ पश्चिमी गर्जभ १६ उत्तरी गर्जभ ( श्री सम्पूर्णानन्द अभिनन्दन ग्रन्थ से साभार ) "
यहा जैन कथाग्रो के कुछ उद्धरण प्रस्तुत किये जाते है जिनका सम्बन्ध समुद्र यात्रात्रो से है । इनसे स्पष्ट होता है कि सागर यात्राएँ कितनी कष्टप्रद एव विषमता पूर्ण होती थी साथ ही साथ ये यात्राएँ यह भी बताती है कि पुरातन काल मे भारतीय व्यापार वडा समृद्ध था तथा इस विशाल श्री सम्पन्न देश मे सुगन्धित द्रव्य, मनोरम वस्त्र, रत्न, खिलौने आदि बाहर जाते थे और बहुत से सुरभित पदार्थ, रत्न, सुवर्ण आदि अन्य देशो से इस देश मे थे । इन जल-निधि यात्राओ से यह भी प्रकट होता है कि वर्तमान काल की भाँति प्राचीन काल मे भी व्यापारी नियमित कर नही चुकाते थे और चोरी से माल का निर्यात भी करते थे ।
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भविष्यदत्त का भाई बधुदत्त व्यापार कर जहाजो मे बहुत सा माल खजाना लाद कर लौट रहा था कि मार्ग मे सबका सव माल चोरो ने लूट लिया । भविष्य दत्त की कथा पुण्याश्रव कथाकोप पृ, २३०
मत करो ।
यहाँ
पर नही ।
मे
गए। वहाँ
- उसके बाद चारुदत्त के मामा ने कहा कि मेरे पास सोलह करोड का द्रव्य है सो तुम उसे लेकर काम-काज चलाओ और कुछ चिन्ता चारुदत्त ने कहा व्यापार अन्य देशो मे अच्छा हो सकता है सिद्धार्थ और चारुदत्त व्यापार करते हुए प्रियगुवेला नगर चारुदत्त के पिता भानु का सुरेन्द्रदत्त नाम का मित्र रहता था । वह इन दोनो को द्वीपान्तर व्यापार के लिए ले गया । बारह वर्ष मे असीम द्रव्य कमाया । उसको लेकर दोनो घर को लौट रहे थे कि अचानक समुद्र मे जहाज फट गया । बहते हुए लकडी के टुकडो का सहारा पाकर बडी कठिनता से दोनो प्राण बचाकर किनारे ग्रा लगे ।
1
(अर्द्ध दग्ध पुरुष और बकरे की कथा - पुण्याश्रव कथाकोष पृष्ठ ८२ ) चम्पा नगरी मे माकन्दी नाम का एक बडा व्यापारी रहता था । उसके जिन पालित और जिन रक्षित दो पुत्र थे । माकन्दी के दोनो पुत्र बडे चतुर और बढे साहसी थे । उन्होने लवण समुद्र ( हिन्द महासागर की ग्यारह वार यात्रा कर बहुत सा धन सचित किया था। एक बार जिन पालित और जिन रक्षित ने सोचा कि एक बार फिर से समुद्र यात्रा कर धन माता-पिता के विरोध करने पर भी ये दोनो अपनी नाव मे बहुत सा माल भरकर विदेश को चल दिये । कुछ दूर पहुंचने पर श्राकाश मे वादल घिर आए, बादल गरजने लगे, विजली कडकने लगी और हवा चलने लगी । देखते
कमाना चाहिए ।
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जैन कथानो मे समुद्र यात्राएँ ।
देखदे नाव उछलने लगी। उसके तख्ते टूटकर गिरने लगे, जोडे फटने लगी, कीले गिरने लगी, नाव की रस्सियाँ टूट गयी, पतवारे जाती रही, ध्वजा के उण्डे नष्ट हो गए । नाव एक पहाड से टकराकर चूर-चूर हो गयी। माल असवाव समुद्र में डूब गया और व्यापारियो को अपने प्राणो से हाथ धोना पडा। (माकन्दी पुत्रो की कहानी-दो हजार वर्ष पुरानी कहानियॉ-ले० डॉ० जगदीश चन्द्र जैन )
ज्ञात धर्म की दो कथामो से भी प्राचीन भारतीय जहाजरानी पर काफी प्रकाश पडता है । एक कहानी मे कहा गया है कि चम्पा मे समुद्री व्यापारी (नाव वार्पण याग) रहते थे। ये व्यापारी नाव द्वारा गरिणम (गिनती) धरिम (तील) परिच्छेद्य तथा मेय (नाप) की वस्तुअ' का विदेशो से व्यापार करते थे । चम्पा से यह सब माल बैल-गाडियो पर लाद दिया जाता था। यात्रा के समय मित्रो और रिस्तेदारो का भोज होता था । व्यापारी सबसे मिल मिलाकर शुभ मुहूर्त मे गभीर नाम के बदर (पोयपत्तण) की यात्रा पर निकल पडते थे । बन्दरगाह पर पहुच कर गाडियो पर से सब तरह का माल उतार कर जहाज पर चढाया जाता था और उसके साथ ही खाने-पीने का सामान जैसे चावल, आटा, तेल घी, गोरस, मीठे पानी की दोडियाँ, औषधियाँ तथा वीमारो के लिए पथ्य भी लाद दिये जाते थे। समय पर काम आने के लिए पुयाल, लकडी, पहनने के कपडे, अन्न, शस्त्र तथा बहुत सी बस्तुएँ और कीमती माल भी साय मे रख लिये जाते थे। जहाज छूटने के समय व्यापारियो के मित्र और सम्बन्धी शुभकामनाएँ तथा व्यापार मे पूरा फायदा करके कुशल पूर्वक लौट आने की हार्दिक इच्छा प्रकट करते थे। व्यापारी समुद्र और वायु की पुष्प और गध द्रव्य से पूजा करने के बाद मस्तूलो पर पताकाएँ चढा देते थे जहाज छूटने के पहले वे राजाज्ञा भी ले लेते थे । मगल वाद्यो की तुमुल ध्वनि के बीच व्यापारी जहाज पर सवार होते थे।" (जैन साहित्य में यात्री और सार्थवाह' शीर्षक निवन्ध से साभार)
एक दूसरी कहानी मे कहा गया है कि सामूहिक विपत्तियो के समय व्यापारी स्नानादि करके इन्द्र और स्कन्द की पूजा किया करते थे।
ऐसी सैकडो जैन-कथाएँ है जिनमे समुद्र-यात्रानो के बडे रोचक वर्णन प्रस्तुत किए गए है। कई कथानो मे पोत निर्माण कला का भी उल्लेख हुआ है । इन कहानियो से यह भी ज्ञात होता है कि इस देश में विदेशो के दास दासियो की अच्छी खपत थी तथा यहाँ के हाथी दांतो की दूरस्थ देशो मे अच्छी माग थी । कतिपय कथाएँ बताती है कि इस देश मे बाहर से आए
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जैन कथानो मे सास्कृतिक अध्ययन
सुन्दर एव वलिष्ट अश्वो की ओर यहाँ राजा-महाराजाओ का अधिक आकर्षण था।
कुछ ऐसी भी प्राकृत एव अपभ्र श जैन-कथाएँ उपलब्ध होती है जिनसे विदित होता है कि जहाजो द्वारा भेजे गए एव लाए गए माल की वन्दरगाहो पर पूरी जाच होती थी और कर की वसूली कठोरता से की जाती थी। जो माल राजाज्ञा के अभाव मे इधर-उधर भेजा जाता था, जाच करने पर वह जब्त कर लिया जाता था एव सम्बन्धित व्यापारी को निययानुसार दडित भी किया जाता था।
इन सामूहिक यात्राओ ने हमारी सस्कृति एव सभ्यता को भी प्रभावित किया था। वाह्य देशो के सम्पर्क से हमारी विचार-धारा परिपुष्ट हुई थी एव सकुचित मान्यताप्रो मे विकास की भावनाएँ अकुरित हुई थी। इस प्रकार व्यापारिक अभिवृद्धि के साथ-साथ इन सागर-यात्रायो के माध्यम से हमारी सास्कृतिक गरिमा भी दूरस्थ देशो मे प्रतिष्ठित हुई ।
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
हैं। यह रूप की प्यास कभी मिटती ही नही है । कविवर विहारी के शब्दो मे छवि का छाक और सव नशो से बडा विषम होता है
उर न टरै, नीद न परै, हरै न काल-विपाकु छिनकु छाकि उछकै न फिरि, खरौ विषमु छवि-छाकु ।
(बिहारी-रत्नाकर पृ ३१८) 'जिगर' साहव इस नशे की तारीफ करते हुए कहते हैयह नशा भी क्या नशा है,
कहते है जिसे हुस्न । जब देखिए कुछ नीद सी,
आँखो मे भरी है। (हुस्न सौन्दर्य) कवि प्रसाद ने सौन्दर्य को चेतना का उज्वल वरदान कहा हैउज्वल वरदान चेतना का,
सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं। जिसमे अनन्त अभिलाषा के, सपने सब जगते रहते है।
(कामायनी) "सौन्दर्य की परिभाषा के सम्बन्ध मे विभिन्न मत है । गार्टेन सौन्दर्यशास्त्र के जनक माने जाते है। उनके मतानुसार तार्किक ज्ञान का लक्ष्य सत्य है और रागात्मक ज्ञान का लक्ष्य सौन्दर्य है। सल्जर, मौलि आदि के मत गार्टन के मत के प्रतिकूल हैं। वे कला का लक्ष्य सौन्दर्य नही पर शिव मानते हैं और इसलिए वे उसी वस्तु मे सौन्दर्य मानने है जो शिव-समन्वित हो । उनके मतानुसार मानव-जीवन का लक्ष्य समाज कल्याण है, जिसकी प्राप्ति नैतिक भावनाओ के सस्कार से ही सभव है। सौन्दर्य इसी भावना को जाग्रत और सस्कृत करने का कार्य करता है। इनका दृष्टिकोण सुन्दर शरीर मे सुन्दर प्रात्मा के सिद्धान्त का समर्थक है। बकेलमेन समस्त कला का विधान और लक्ष्य केवल सौन्दर्य को मानते और सौन्दर्य को रूप सौन्दर्य विचार सौन्दर्य तथा अभिव्यक्ति सौन्दर्य के रूप में विभाजित करते है । जर्मन विद्वानो ने सौन्दर्य को एक ऐसी वस्तु समझा है जो निर्विकल्प रूप से स्थित है और न्यूनाधिक प्रमाण से शिव युक्त है । 'होम' सौन्दर्य उसे मानते है जो सुखद हो । .
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जैन कथाओ मे सौन्दर्य-बोध
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अतः सौन्दर्य की परिभापा रुचि के अधीन है। फ्रेंच विद्वानो का भी यही मत है। काण्ट के मतानुमार सौन्दर्य वह है जो बिना किसी तर्क या व्यावहारिक लाभ के सदैव निश्चित रूप से यानन्द प्रदान करता है। यगमैन वस्तुओ के इन्द्रियातीत गुण को सौन्दर्य समझते है । तेन के अनुसार सौन्दर्य किसी महत्वपूर्ण विचार के अनिवार्य लक्षण का पूर्णतम प्रकाशन
बाह्य सौन्दर्य और आन्तरिक सौन्दर्य इस प्रकार दो रूपों में विभाजित सौन्दर्य के कुछ अावश्यक गुण भी माने गए है। काव्य मे जिस समन्वित सौन्दर्य की सृष्टि होती है उसके छः अावश्यक गुण आधुनिक सौन्दर्य शास्त्र मे माने गए है। वे है (१) समतुल्यता (२) सगति या सम्यकता (३) ताल (४) सन्तुलन (५) अनुपात और (६) एकता।'
___ सतत सुख का जनक सौन्दर्य तो सद्य व प्रतिक्षरण वर्द्धमान है विकाशशील है, यदि वह ऐसा नही है तो उसे हम सौन्दर्य नही कह सकते है। सस्कृत के महाकवि माघ ने भी इस तथ्य को इस प्रकार प्रकट किया हैक्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूप रमणीयताया ।' पल-पल मे विकासोन्मुख सौन्दर्य की भावना को रीतिकाल के सुप्रसिद्ध महाकवि विहारी ने एक अयुरित-यौवना नायिका की क्षण-क्षण मे बढती हुई शरीर काति की सखी द्वारा प्रशसा कराकर इस प्रकार अभिव्य जित किया है -
लिखन वैठि जाकी सबी, गहि गहि गरब गरूर । भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर
(विहारी रत्नाकर ३४७) भला मै बेचारी उसकी प्रतिक्षण बढती हुई शोभा का वर्णन क्या कर सकती है, जिसका यथार्थ चित्र लिखने के निमित्त घमड तथा अभिमान से भर-भर कर बैठे जगत के कितने चतुर चितेरे असफल हुए है। बाह्य सौन्दर्य चित्रण मे कवियो एव कलाकारो ने अलकारादि को भी अपनाया है। कतिपय सौन्दर्य प्रेमी काव्यकारो ने खूबसूरती के लिए भूषणो को अनावश्यक बताया है- स्वय सुन्दरता के अनन्य प्रमी बिहारी ने सोने के गहनो को दर्पण के मोरचे एव पावदान के रूप में कहा है
1. साहित्यिक निवन्ध ले० डॉ० कृष्णलाल (सूरसाहित्य मे सौन्दर्य
भावना-पृष्ठ १२८) 2. साहित्य का विश्लेपण-ले० डॉ० वासुदेव नन्दन प्रसाद पृष्ठ ७१
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
पहिरि न भूपन कनक के, कहि प्रावत इहि हेत । दरपन के से मोरचे, देत दिखाई देत ।
( बि रत्नाकर २३५ )
मानहु विधि तन ग्रच्छ छबि, स्वच्छ राखिने काज हग-परा-पोछन कौं करे, भूषन पायदाज ।
( बि रत्नाकर ४१३ )
लेकिन केशवदास, देव आदि कुछ ऐसे भी रसिक कवि है जिन्हे अनलकृत कामिनी का सौन्दर्य सलौना नही लगता है । यदि अर्थाकारविहीना सरस्वती इन्हे विधवा के समान ग्रसुन्दर लगती है (अर्थाकार रहिता विधवैव सरस्वती) तो फिर भूषणो से रहित वनिता का इन काव्यकारो की दृष्टि मे शोभना प्रतीत होना स्वाभाविक ही है
जदपि सुजाति सुलच्छनी,
सुवरन सरस सुवृत्त । भूषन विनु न विराजई,
कविता कामिनि सुखद पद,
सुवरन सरस सुजाति । अलकार पहिरे
अधिक,
अद्भुत रूप लखाति (देव)
कविता बनिता मित्त | ( केशवदास )
1
बाह्य साज-सज्जा सौन्दर्य के निखार मे कुछ शो तक अवश्य सहायक बनती है । गोरे रंग पर श्याम साडी आकर्षक लगती ही है । इसी प्रकार नील परिधान भी तो गोरी गर्वीली कामिनि के सौन्दर्य मे अभिवृद्धि करता ही है । नारी सौन्दर्य चित्रण में सिद्धहस्त कविवर प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी मे श्रद्धा की सुन्दरता का वडा ही आकर्षक चित्रण किया है, और उसमे बाह्य साज-सज्जा को भी अपनाया है
नील परिधान बीच सुकुमार,
खुल रहा मृदुल अधखुला अग । खिला हो ज्यो बिजली का फूल,
मेघ बन बीच गुलाबी रंग । खूबसूरती को अधिक वाचाल बनाने मे हाव-भाव, ग्रदा, नाजो नजाकत यादि का भी उल्लेख्य सहयोग माना गया है । प्राय समस्त कवियो एव
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जैन कथाओ मे सौन्दर्य-बोध
कलाकारो ने सोन्दर्य चित्रण मे कामिनी से अकित किया है। उर्दू के शायरो की नही जा सकती है
दरियाए-हुस्न और भी दो हाथ बढ गया ।
गाई उसने नशे मे ली जब उठा के हाथ । नासिर
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के हाव-भावो को अधिक मनोयोग शायरी तो इस सदर्भ मे भुलाई
अँगड़ाई भी वह लेने न पाये थे उठा के हाथ |
देखा जो मुझको छोड़ दिए मुस्करा के हाथ । निजाम रामपुरी,
मुहब्बत हर किसी के दिल मे
करलेती हैं घर होकर,
नजर
कभी - तिछ
नजर
कभी-सीधी
अपना ।
होकर |
(अज्ञात)
जैन कथाओ मे सौन्दर्य का चित्रण उनके रूपो मे हुग्रा है । बाह्य सोन्दर्य को आकर्षक रीति से चित्रित करते हुए इन जैन कथाकारो ने भाव सौन्दर्य का भी वडी तत्परता से अभिव्यजित किया है । वाह्य सौन्दर्य एव अन्त: सौन्दर्य एक दूसरे के पूरक है । रूप सौन्दर्य ( बाह्य सौन्दर्य ) को कित करते हुए इन जैन कथाकारो ने उपमा, उदाहरण, रूपक, दृष्टान्त, उत्प्र ेक्षा आदि अलकारो को पर्याप्त मात्रा मे उपयोग किया है । इस रूप - चित्ररण मे सुन्दरता का पार्थिव रूप विशेषत: प्रस्फुटित हुआ है । इस सम्बन्ध मे बहुमूल्य वेशभूषा की भी कहानीकारो ने चर्चा की है । यहाँ अग-प्रत्यगो के लालित्य की तीव्रतम अभिव्यक्ति हुई है । भाषा की मृदुलता के साथ-साथ उपमाओं की मनोरमता एव कल्पनाओ की अभिनव और रम्य उडान दृष्टव्य है ।
श्रायु के परिवर्तन से सुन्दरता मे जो नूतन उन्मेष परिलक्षित होता है, उसे भी इन कथाकारो ने बडी सजगता और तल्लीनता से चित्रित किया है । इस सौन्दर्याभिव्यक्ति मे परमपूज्य तीर्थंकर, तीर्थकरो की महाभाग्य शालिनी जननी, साध्वी, नृपति, महिषी, कामिनी, नवोढा, प्रकुरित यौवना, प्रेमी प्रेमिका आदि सबको समुचित गौरव प्राप्त हुआ है । चेतन सौन्दर्य के साथ इन कथाओ मे अचेतन सुन्दरता की भी यथावसर अभिव्यजना हुई है । यह चेतना-विहीन सौन्दर्य बडा ग्राकर्षक होता है । स्थापत्य कला की खूबसूरती से देवता भी तो आकृष्ट होते है | विशाल जिनालयो के दर्शनार्थ स्वर्गलोक के निवासी सुरादि सदैव लालायित रहा करते हैं । प्रणम्य जिन प्रतिमायो का भाव-सौन्दर्य एव बाह्य सौन्दर्य कितना प्रभावोत्पादक होता है, इसे कला
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
विद् एव भक्त भली भांति जानते है। यहाँ सौन्दर्य विषयक कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जाने है। भगवान ऋषमदेव के सौन्दर्य का वर्णन
_ 'भगवान के छत्राकार मस्तक पर काले-काले घू घरवाले केश रूपाचल की शिखर पर जडी हुई नीलमणियो की शोभा धारण करते थे। उनके ललाट नाक, कमल के नाल दण्डो के समान लबायमान कान चढे हुए धनुष के समान दोनो भोये इतने कमनीय थे कि उनका वर्णन करना भी कठिन है। उनके दोनो नेत्र और श्रोत्र कमल दल के समान सुन्दर थे। दॉत अतिशय निर्मल मोती सरीखे थे अत्यन्त चमकीले सम और छोटे-छोटे थे एव सफेद कुन्द पुष्प की शोभा धारण करते थे।' (हरिवश पुराण पृष्ठ १२६) महारानी मरुदेवी की सुन्दरता का चित्रण
रानी मरुदेवी साक्षात समुद्र की लहर जान पडती थी, क्योकि समुद्र की लहर मे जिस प्रकार शख, मूगे, और मुक्ता फल होते हैं उसी प्रकार यहाँ पर भी शख के समान गोल ग्रीवा थी, अधर पल्लव मनोहर मूगे ओर दाँत दैदीप्यमान मुक्ताफल थे। उनके वचन कोकिला के शब्द के समान मिष्ट जान पडते थे। उनके दोनो नेत्र श्वेत-श्याम और रक्त तीन वर्ण वाले कमल के समान सुन्दर थे
(हरिवश पुराण पृष्ठ १११-११२) साध्वी का सौन्दर्य चित्रण
पुष्पो के समान कोमल भुजारूपी लताओ से मडित वह कन्या जो भूषण और माला आदि पहने थी, उसने सब उतार दिये और अपने हाथ की उ गलियो से मनोहर केशो को उखाडती हुई ऐसी जान पडने लगी मानो हृदय से भयकर शल्य समूह को उखाड रही है । उसके जघन वक्ष स्थल, स्तन, उदर और शरीर एक श्वेत वस्त्र से ढके थे इसलिए उस समय वह श्वेत बालु से युक्त निर्मल जल से भरी हुइ शरद ऋतु की नदी सरीखी जान पडती थी ।
(हरिवश पुराण पृष्ठ ४६०) एक कामिनी को सुन्दरता का अकन
स्त्रियो के मध्य मे एक अतिशय मनोहर साक्षात् रति के समान स्त्री बैठी थी। अचानक ही उस पर राजा की दृष्टि पड गई । उसका मुख चन्द्रमा
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जैन कथानो मे सौन्दर्य-बोध
१४७ के समान था । नेत्र कमल के समान थे। दोनो पोष्ठ बिंबाफल सरीखे और कठ शख तुल्य था । उसके स्तन चक्रवाको की उपमा को धारण करते थे। कटिभाग अतिशय कृश था, नाभि अत्यन्त गहरी थी। दोनो जघाएं सुघटित थी। नितम्ब कुदरू फल से तुलना करते थे। उसके दोनो चरण विशाल उरु सुन्दर जघा एव पाणियो से अतिशय शोभायमान थे।
(हरिवश पुराण पृष्ठ १७२) एक वेश्या के चचल सौन्दर्य को अभिव्यक्ति ।
उसके प्रकम्पित कर्ण युगल मानो कामदेव के हिंडोले थे । चचल उमियो से आपूरित नयन कचोले, सुन्दर विपैले फूल की तरह प्रफुल्लित कपोल वालि, शख की तरह सुडौल, सुचिक्करण निर्मल कठ, उसके उरोज शृगार के के स्तवक थे । मानो पुष्पधन्वा कामदेव ने विश्व विजय के लिए अमृत कुम्भो की स्थापना की थी। नव यौवन से विहँसती हुई देह वाली, प्रथम प्रम से उल्लसित रमणी अपने सुकुमार चरणो के अशिक्षित पायल की रुनझुन से दिशामो को चैतन्य करती हुई मुनि के पास पहुची। वेश्या ने अपने हाव भाव से मुनि को वशीभूत करने का बहुत प्रयत्न किया किन्तु मुनि का हृदय उस तप्त लोहे की तरह था जो उसकी बात से विध न सका।
(मुनि स्थूलभद्र की कथा) सुर्दशना नाम की पालकी की सुन्दरता का उल्लेख
उस समय वह सुदर्शना आकाश और उत्तम स्त्री के समान जान पडती थी । क्योकि जिस प्रकार आकाश अतिशय चमकीले तारानो और नक्षत्रो की शोभा से दैदीप्यमान रहता है और उत्तम स्त्री ताराओ के समान चमकीले रत्नो की प्रभा से दैदीप्यमान रहती है उसी प्रकार पालकी भी चौतर्फी जडे हुए तारो के समान चमकीले रलो से दीप्त थी। आकाश चचल चामरो के समूह के समान हस-पक्तियो से दैदीप्यमान एव उज्वल रहता है
और स्त्री चामरो के समूह तथा हस पक्ति के समान उत्तम वस्त्रो से उज्ज्वल रहती है, पालकी भी हस पक्ति के समान चचल चमर और उत्तम वस्त्र से मनोहर थी । आकाश सूर्य मडल के तेज से समस्त दिशामो को प्रकाशित करने वाला होता है, और स्त्री दर्पण के समान अखड दीप्ति से युक्त मुख वाली होती है, उसी प्रकार पालकी भी चारो ओर लगे हुए अनेक मणिमयी दर्पणो के प्रकाश से समस्त दिशाम्रो को प्रकाशमान करती थी। आदि-आदि ।
(हरिवश पुराण पृष्ठ १३०)
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
इसी प्रकार कई जैन-कथाओ मे पशु पक्षियो, सर-सरिता, देवालयो, प्रासाद आदि की सुन्दरता का ग्राकर्षक चित्रण किया गया है ।
१४८
इस सौन्दर्य-चित्रण के सदर्भ मे यह लिखना अप्रास गिक न होगा कि सुन्दरता को मुखरित करने वाले ये विवरण एक प्राचीन परम्परा पर ही विशेषत आधारित है । वे ही उपमानादि यहाँ पर चर्चित है जो प्राचीन कथा काव्यो मे अपनाए गए हैं । यत्र-तत्र कुछ नवीन उपमानो एव कल्पना - प्रसूत मौलिक उदभावना की अभिव्यक्ति अवश्य हुई है जिससे जैन - कथाकारो का सास्कृतिक वैशिष्ट्य अभिव्यजित होता है ।
जैन प्रतिमाओ के बाह्य सौन्दर्य की भूमिका श्रान्तरिक सुषमा को देखकर अनेक कलाविद एव विद्वान प्रभावित हुए हैं और उन्होने मुक्तकठ से शिल्पी की एव उसकी छैनी की भूरि-भूरि प्रशमा की है - " मैसूर राज्य के 'हासन' जिला मे श्रवरण बेल गोला, निर्वारण भूमि न होते हुए भी भगवान गोम्मटेश्वर बाहुबली की ६० फीट ऊची भव्य तथा विशाल मूर्ति के कारण अतिशय प्रभावक तथा आकर्षक तीर्थस्थल माना जाता है। दर्शक जब भगवान गोम्मटेश्वर की विशाल मनोज्ञ मूर्ति के समक्ष पहुँच दिगम्बर शान्त जिन मुद्रा का दर्शन करता है तब वह चकित हो सोचता है । मैं दुख दावानल से बचकर किस महान् शान्ति स्थल मे आ गया हू । वहाँ आत्मा प्रभु की मुद्रा से बिना वाणी का अवलबन ले मोनोपदेश ग्रहण करता है । मैमूर राज्य के पुरातत्व विभाग के डायरेक्टर डा० कृष्णा एम ए पी एच डी लिखते हैं शिल्पी ने जैन धर्म के सम्पूर्ण त्याग की भावना अपनी छेनी से इस मूर्ति के अग अग मे पूर्णतया भरदी है ।
मूर्ति की नग्नता जैनधर्म के सर्वस्व त्याग की भावना का प्रतीक है । एकदम सीधे और उन्नत मस्तक युक्त प्रतिमा का अग विन्यास आत्म-निग्रह को सूचित करता है । होठो की दयामयी मुद्रा से स्वानुभूत आनन्द और दुखी दुनिया के साथ सहानुभूति की भावना व्यक्त होती है ।
1
जिस चरम सौन्दर्य की अभिव्यजना जिन मूर्तियो मे हुई है उसी परम पुनीत सुन्दरता की अभिव्यक्ति हमे जैन चित्रकला मे प्राप्त होती है । जैन मतानुसार वही कला सौन्दर्य श्रेष्ठ है जो हितकर हो और मानव के विचारो को उदात्त बना सके । जिनालयो की भित्ति पर चित्रित चित्रो मे जो अभि
1 जैन शासन - ले० श्री सुमेर चद्र दिवाकर पृष्ठ २५५ – ५६
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जैन कथा मे सौन्दर्य-बोध
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व्यजित मनोरमता है उसमे न उन्माद है और न भौतिक विलासिता की मदभरी रेखाये है । पशु-पक्षियो, नर्तकियो एव घटना विशेष से सम्बद्ध मानवों की भी जो प्रकृतियाँ यहा विविध रंगो मे चित्रित हुई है उनका सौन्दर्य जैन संस्कृति की विशेषता से प्रभावित है । ऐसी चित्रकला की कई कथाओ मे चर्चा हुई है । जैन चित्रकला के सम्बन्ध में चित्रकला के मान्य विद्वान श्री एन सी. मेहता ने जो उद्गार प्रकट किये है वे उस पर प्रकाश डालने के लिए पर्याप्त होगे । वे लिखते है - जैन चित्रो मे एक प्रकार की निर्मलता, स्फूर्ति थोर गतिवेग है, जिससे डॉ० आनन्द कुमार स्वामी जैसे रसिक विद्वान मुग्ध हो जाते है । इन चित्रो की परम्परा श्रजता, ऐलोरा और सितन्नावारूल के भित्ति चित्रो की है । समकालीन सभ्यता के अध्ययन के लिए इन चित्रों से बहुत कुछ ज्ञान - वृद्धि होती है। खासकर पोशाक, सामान्य उपयोग मे आने वाली चीजे आदि के सम्बन्ध मे अनेक बाते ज्ञात होती है । "
इस प्रकार पार्थिव सौन्दर्य को विविध रूपो मे चित्रित कर इन कथाकारो ने इसकी निस्सारता को भी प्रमाणित किया तथा मानव को आध्यात्मिक सुख सौन्दर्य की प्राप्ति के लिए मोक्ष मार्ग की ओर उन्मुख बनाया । उसके लिए विशिष्ट कथाओ के अन्तर्गत बारह भावनाओ की सामान्य चर्चा की गई एवं अशुचि अनुप्रेक्षा के माध्यम से शारीरिक ममता को परित्याज्य
वनाया ।
शुचि अनुप्रक्षा का स्वरूप इस प्रकार है— हे आत्मन् 1 इस शरीर को सुगन्धित करने के उद्देश्य से इस पर जो भी कपूर, अगुरु, चन्दन, व पुष्प वगैरह श्रत्यन्त सुन्दर व सुगन्धित वस्तु स्थापित की जाती है वही वस्तु इसके सम्वन्ध से अत्यन्त अपवित्र हो जाती है । इसलिए गौर व श्याम आदि शारीरिक वर्णों से ठगाई गई है बुद्धि जिसकी ऐसा तू विष्ठा छिद्रो के बधनरूप और स्वभाव से नष्ट होने वाले ऐसे शरीर को किस प्रयोजन से वार वार पुष्ट करता है | हे आत्मन् । जो तेरा ऐसा केश पाश, जिसकी कान्ति कामदेव रूप राजा के चमर सरीखी श्याम वर्ण थी और जो जीवित अवस्था मे कमल सरीखे कोमल करो वाली कमनीय कामिनियो द्वारा चमेली व गुलाब आदि सुचित पुप्पो के सुगन्धित तेल आदि से तेरा सन्मान करने वाले कोमल कर कमलो पूर्वक विभूषित किया जाने के फलस्वरूप शोभायमान हो रहा था, वही केश- पाश तेरे काल कलवित हो जाने पर स्मशान भूमि पर पर्वत सम्बन्धी
1. जैन धर्म - ले० प० कैलाश चंद्र जी शास्त्री पृष्ठ २७६
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जैन कथाओं का सास्कृतिक अध्ययन
कृष्ण काकी के गले मे प्राप्त होने वाला हुआ। हे जीव | दैवयोग से यदि
रा-भीतरी शरीर इस शरीर से बाहर निकल आवे तो उसके अनुभव करने की बात तो दूर रहे परन्तु यदि तू केवल कौतूहल मात्र से उसे देखने का भी उत्साह करने लगे तब कही तुझे इस शरीर मे सन्मुख होकर राग-बुद्धि करनी चाहिए अन्यथा नही । इसलिए हेय व उपादेय के विवेक से विभूषित तत्वज्ञानी पुरुष यमराज की क्रीडा करने की ओर अपनी बुद्धि को प्राप्त न करते हुए (मृत्यु होने के पूर्व) स्वाभाविक मलिन इस शरीर से कोई ऐसा अनिर्वचनीय मोक्ष फल प्राप्त करे जिससे कि अनन्त सुख रूप फल की विभूति उत्पन्न होता है।
(यशस्तिलक चम्पू द्वितीय आश्वास पृष्ठ १४८) जैन-काव्य एव कथा साहित्य की चरम उपलब्धि अध्यात्मवाद की परिपुष्टि ही है । फलत रूप-सौन्दर्य की आकर्षक आसक्ति मे सलग्न मानव को प्रबुद्ध करके जैन कथाकारो ने एक ओर ससार की क्षणभगुरता को अभिव्यजित किया और दूसरी ओर शृागारिक साहित्य के नि सत्ब को भी सशक्त शब्दो मे इस प्रकार अभिव्यक्त किया
कचन कुम्भन की उपमा,
कहदेत उरोजन को कवि वारे । ऊपर श्याम विलोकतु वे मनि,
नीलम की ढकनी लँकि छारे । - यो सत बैन कहै न कुपडित,
ये जुग आमिष पिंड उघारे । साधन झार दई मुह छार, भए इह हेत किधो कुच कारे ।
जैनशतक ६५ मात पिता रज वीरज सो, उपजी सब सात कुधात भरी है। . माखिन के पर माफिक बाहर, चाम के बेठन बेढ धरी है । नाहिं तो आय लगे अब ही वक, बायस जीव बचे न घरी है । देह दशा यहि दीखत भ्रात, घिनात नही किन बुद्धि हरी है ।
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न कथानो मे सौन्दर्य-बोध
ए विधि तुम ते भूलि भई,
समझे न कहाँ कसरि बनाई । दीन कुरगनि के तन मे,
तृण दन्त धरै करुना किमि काई । क्यों न करी तिन जीभन जे रस,
काव्य करे पर को दुखदाई । साधु अनुग्रह दुर्जन दड, दोऊ सधते बिसरी चतुराई ।
जैन शनक ६६
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जैन कथाओं में न्याय व्यवस्था
इन जैन कथाओ मे प्राचीन नरेशो की न्याय व्यवस्था के अनेक आदर्श उपस्थित किये गए है । हमने इस तथ्य को कई बार स्वीकार किया है कि हमारा पुरातन युग प्रशस्त था एव नरपतियो ने जिस आत्मीयता से प्रजा की सुरक्षा की है बह आज भी वरेण्य है । भले ही इन कहानियो मे चित्रित राजव्यवस्था एक तत्रात्मक रही है फिर भी लोक तत्रात्मक शासन की कभी भी उपेक्षा नही हुई है । नरपतियो ने सदैव प्रजा को अपनी पुत्री के समान माना और उसके सुख-दु ख को अपना ही समझा । वे अपने सर्वस्व को स्वाहा करके जनता को सुखी बनाते थे और कठिन समय मे जन-सेवक के रूप मे सेवा करने के लिए तत्पर हो जाते थे ।
इन नरेशो की न्याय-व्यवस्था सर्व सुलभ थी और पीडित कभी भी राज दरबार मे उपस्थित होकर अपनी कथा सुना सकता था। अपराधियो की खोज के लिए आवश्यकता पड़ने पर राजा कभी भिक्षुक बनकर तो कभी सामान्य व्यक्तित्व को अपनाकर इधर-उधर भटकने लगता था एव राजकीय अधिकारियो को अव्यवस्था होने पर दण्ड भोगना पडता था। अपराधियो मे किसी प्रकार का जाति-गत अथवा वश-गत विभेद मान्य न था। राज परिवार के सदस्यो को भी राज्य सभा मे उपस्थित होकर दण्ड स्वीकार करना पडता था। कई कथाएँ ऐसी प्राप्त हैं जो बताती है कि राजकुमारो को भी अपराधी सिद्ध होने पर निश्चित व्यवस्थानुसार दडित किया जाता था और किसी भी
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जैन कथायों में न्याय व्यवस्था
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प्रकार की सुविधा से वे लाभान्वित नही हो पाते थे । कारागारो मे ऐसे ग्रपराधी राजकुमार साधारण कैदियो के समान रखे जाते थे और उन्हे कई प्रकार से वहा भी दडित होना पडता था ।
"न्याय-व्यवस्था चलाने के लिए न्यायाधीश की आवश्यकता होती है । प्राचीन जैन-ग्रन्थो मे न्यायाधीश के लिए कारणिक अथवा रूपयक्ष ( पालि मे रूपदक्ष ) शब्द का प्रयोन हुग्रा है । चोरी, डकैती, परदारा गमन, हत्या और राजा की यात्रा का उल्लघन आदि अपराध करने वालो को राजकुल ( राउल ) मे उपस्थित किया जाता था । कोई मुकद्दमा (व्यवहार) लेकर न्यायलय मे जाता, तो उससे तीन बार वही बात पूछी जाती, यदि वह तीनो वार एक ही जैसा उत्तर देता तो उसकी सच्ची बात मान ली जाली थी ।
दीघनिकाय की अट्ठ कथा ( २, पृ० ५१६ ) मे वैशाली की न्याय व्यवस्था का उल्लेख है । जब वैशाली के शासक वज्जियो के पास अपराधी को उपस्थित किया जाता, तब सबसे पहले उसे विनिश्चय ग्रमात्य के पास भेजा जाता । यदि वह निर्दोष होता तो उसे छोड दिया जाता. नही तो व्यावहारिक के पास भेजा जाता । व्यावहारिक उसे सूत्रधार के पास, सूत्रधार
कुल के पास, अष्टकुल सेनापति के पास, सेनापति उपराजा के पास, उपराजा उसे राजा के पास भेज देता । तत्पश्चात् प्रवेणी पुस्तक के प्रावार पर उसके लिए दण्ड की व्यवस्था की जाती । न्याय व्यवस्था के कठोर नियम रहते हुए भी न्याय कर्ता राजा वढे निरकुश होते और उनके निर्णय निर्दोष न होते । साधारण सा अपराध हो जाने पर भी अपराधी को कठोर से कठोर दण्ड दिया जाता था । अनेक बार तो निरपराधियों को दण्ड दिया जाता और पराची छ्ट जाते थे । जातक ( ४, पृ० २८ ) मे किसी निरपराध सन्यासी मी मूली पर लटकाने का उल्लेख मिलता है । मृच्छकटिक के चारुदत्त को भी fant near दण्ड दिया गया था ।" 1
1
चोरी करने पर भयकर दण्ड दिया जाता था । राजा चोरो को दोने जी गोटे के कुम्भ मे बंद कर देते, उनके हाथ कटवा देते योर शूली पर पर देना तो साधारण बात थी। राजकर्मचारी चोरो को वस्त्रयुगल पह्नाने, मेंनेर के पुष्प की माला डालते पौर उनके शारीर को तेल से
1. जैन आगम साहित्य में भारतीय नमाज, ले० डॉ० जगदीशचन्द जैन पृष्ठ ६४-५५
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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
सिक्तकर उस पर भस्म लगाते । फिर उन्हे नगर के चौराहो पर घुमाया जाता, घूसो, लातो, डण्डो और कोडो से पीटा जाता, उनके ओठ, नाक, और कान काट लिए जाते थे, रक्त से लिप्त मास को उनके मुह मे डाला जाता और फिर खण्ड-परह से अपराधो की घोषणा की जाती ।
इसके सिवाय लोहे या लकडी मे अपराधियो के हाथ पैर बाँध दिये जाते थे। खोड मे पैर बाँध कर ताला लगा दिया जाता। हाथ, पैर जीभ सिर गले की घण्टी अथवा उदर को छिन्न-भिन्न कर दिया जाता, कलेजा,
आँख, दॉत और अण्डकोष आदि मर्म स्थानो को खीचकर निकाल लिया जाता। शरीर के छोटे-छोटे टुकडे कर दिये जाते, रस्सी मे बाँध कर गड्ढे मे ओर हाथ बाँधकर वृक्ष की शाखा मे लटका देते थे । स्त्रियाँ भी दण्ड की भागी होती थी, यद्यपि गर्भवती स्त्रियो को क्षमा कर दिया जाता। चोरो की भाँति दुराचारियो को भी शिरोमु डन, तर्जन, ताडन, लिंगच्छेदन, निर्वासन, और मृत्यु आदि दण्ड दिये जाते थे।
चोरी और व्यभिचार की हत्या भी महान् अपराध गिना जाता था। हत्या करने वाले अर्थदिण्ड ओर मृत्युदण्ड के भागी होते ये ।'
___ "प्रादि पुराण स्वय एक कथाग्रन्थ है । इनमे एक ओर शासन-प्रणाली का विशद् विवरण दिया गया है तथा दूसरी ओर शासन-पद्धति को कार्यान्वित करने के हेतु दण्ड-व्यवस्था का भी उल्लेख किया गया है । दण्डाधिकारी की उस सदर्भ मे उपयोगिता बताते हुए ग्रन्थकार ने उसको योग्यताप्रो की भी चर्चा की है। "दण्डाधिकारी का दूसरा नाम धर्माधिकारी भी है। आदिपुराण मे उसको अधिकृत या अधिकारी शब्द द्वारा अभिहित किया गया है । दण्डाधिकारी राष्ट्र मे न्याय पूर्वक प्रत्येक कार्य का निर्णय करता और उस निर्णय के अनुसार लोगो को चलने के लिए बाध्य करता था। प्रशासन सम्बन्धी कार्य की देख रेख इसी के द्वारा सम्पन्न होती थी । यह पक्षपात रहित न्याय करता था। राग-द्वेष शून्य, लोभ-मोह आदि दुर्गुणो से रहित होता था। किसी भी प्रकार के प्रलोभन इसे अपने कर्तव्य-पथ से विचलित नही कर सकते थे। न्याय करने मे यह अपने सहयोगियो से भी सलाह लेता था। अपराधो की छानबीन करना और निष्पक्ष रूप से अपराध का दण्ड देने की घोषणा दण्डाधिकारी का कार्य था ।"
1 2
जैनागम साहित्य मे भारतीय समाज-ले डॉ० जैन पृष्ठ ८१-८३ । आदिपुराण मे प्रतिपादित भारत-ले० डॉ० नेमिचन्द्र जैन पृष्ठ ३५४ ।
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१५५ जन कथानो मे न्याय व्यवस्था
समाज सुरक्षित रहे एव उसे दुष्ट पुरुप पीडित न कर सके, इसके लिए राजा स्वय सजग रहता था और निशा मे भ्रमण कर प्रजा को प्रातकित होने से बचाता था। कई कथाएं ऐसी भी उपलब्ध होती है जो यह प्रमाणित करती है कि रानी राजदरबार मे नृपति के साथ सिंहासन पर बैठकर न्याय करने मे पर्याप्त सहायता देती थी और कभी-कभी अपराध की खोज के लिए विभिन्न साधनों को अपनाया करती थी। पचायतो के माध्यम से भी न्याय किया जाता था एव ग्राम का मुखिया और पचादि मिलकर पीडितो एव सन्तप्तो की रक्षार्थ अपराधियो को दण्डित कर आदर्श न्याय को उदाहरण के रूप में स्थापित करते थे।
"शासन-व्यवस्था के लिए दण्ड परमावश्यक माना गया है। यदि अपराधी को दण्ड न दिया जाय तो अपराधो की संख्या निरन्तर बढती जायगी। एव राष्ट्र की रक्षा बुराइयो से न हो सकेगी। अपराधी को दण्ड देकर शासन व्यवस्था को चरितार्थ किया जाता है। भोगभूमि के वाद हा, मा, विक के रूप मे दण्ड व्यवस्था प्रचलित थी, पर जैसे-जैसे अपराध करने की प्रवृत्ति बढती गयी वैसे-वैसे-दण्ड व्यवस्था भी उत्तरोत्तर कडी होती गयी । आदिपुराण द्वारा भारत मे तीन प्रकार के दण्ड प्रचलित थे जो अपराध के अनुमार दिये जाते थे
(१) अर्थहरण दण्ड। (२) शारीरिक क्लेश रूप दण्ड । (३) प्राणहरण रूप दण्ड,
शासन तत्र को सुव्यवस्थित करने के लिए पुलिस का भी प्रवध था । पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी को तलवर कहा गया है, चोर, डकैत, एव इसी प्रातार के अन्य अपराधियो को पकड़ने के लिए प्रारक्षी नियुक्त रहते थे । तलवर का पर्यायवाची आरक्षण भी पाया है। पुलिस अपराधी को पकड पार निम्नलिखित चार प्रकार के दण्ड देती थी।
(१) मृत्तिका भक्षरण। (२) विष्टा भक्षण। (३) मल्ली द्वारा मुक्के। (४) सर्वस्व हरण। प्रलयोनी को भयावह दण्ड दिये जाते थे।" 1
1
आदिपुराण में प्रतिपादिन भारत पृष्ठ ३६१-६२
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जैन कथानो का सांस्कृतिक अध्ययन
' 'यहाँ न्याय-व्यवस्था से सम्बद्ध कृछ कथाओ के विशिष्ट अशो का --उल्लेख उदाहरणो के रूप में किया जाता है जो उक्त कथन की परिपुष्टि मे पर्याप्त है।
धर्माधिकारियो ने आपस में सलाह कर कहा-'महाराज, श्रीभूति पुरोहित का अपराध बडा भारी है । इसके लिए हम तीन प्रकार की सजाये नियत करते है। उनमे से फिर जिसे यह पसन्द करे, स्वीकार करे । या तो इसका सर्वस्व हरण कर लिया जाकर इसे देश बाहर कर दिया जाय, या पहलवानो की बत्तीस मुक्कियाँ इस पर पड़े या तीन थाली मे भरे हुए गोबर को यह खा जाय । श्रीभूति से सजा पसन्द करने को कहा गया। पहले उसने गोबर खाना चाहा पर खाया नही गया। तब मुक्कियाँ खाने को कहा । मुक्कियाँ पडना शुरु हुई । कोई दस-पन्द्रह मुक्कियाँ पडी होगी कि पुरोहित जी की अकल ठिकाने आ गई । आप एकदम चक्कर खाकर जमीन पर ऐसे गिरे कि पीछे उठे ही नहीं । वे दुर्गति मे गए । धन मे अत्यन्त लम्पटता का उन्हे उपयुक्त प्रायश्चित मिला।' श्री भूति पुरोहित की कथा-आराधना कथाकोश दूसरा भाग पृष्ठ ३४ । (श्री भूति पुरोहित को उक्त दण्ड समुद्रदत्त के बहुमूल्य पाँच रत्न हडप करने के अपराध मे दिया गया था ।)
(२) ___ 'इसी देश के हस्तिनापुर मे एक धनदत्त नाम का वैश्य रहता था । उसकी धनमती स्त्री से उग्रसेन नाम का पुत्र था । वह एक दिन चोरी करते पकडा गया। कोतवाल ने उसकी लात घूसे और मुक्को से खबर ली । विकट पिटाई के कारण उग्रसेन मर गया और वह व्याघ्र हुआ ।'
(राजा वज्रजघ की कथा, पुण्याश्रव कथाकोश पृष्ठ ३१६)
"किसी ने कहा -श्री गुणसागर मुनि एक महीने का उपवास कर पारणा के लिए नगर मे गये थे। गगदत्त सेठ की स्त्री सिंधुमती ने उन्हे घोडे के लिए रखी हुई कडवी तु वो का आहार दे दिया, जिससे उनका शरीर छूट गया । राजा के साथ गगदत्त सेठ भी था, उसे यह सुनकर बडा खेद और वैराग्य हुया । अत तत्काल ही उसने भोगो से उदास होकर जिनदीक्षा ले ली और राजा ने क्रोधित होकर सिंधुमती को उसकी नाक, कान, कटवाकर और गधे पर चढ़ाकर अपने शहर से निकलवा दिया। सिंधुमती को कुछ समय
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जैन कथाओ मे न्याय व्यवस्था
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के बाद कुष्ठ रोग हो गया, जिससे उसका शरीर गल गया । अन्त मे मर कर वह छठे नरक मे गई।"
(पूतिगध और दुर्गधा की कथा, पुण्याश्रव कथाकोश, पृष्ठ २५५)
"उसी नगर मे एक और सुमित्र नाम का वरिणक् रहता था । उसकी स्त्री वसुकान्ता से एक श्रीषेण पुत्र था । जो रात दिन सातो व्यसनो मे लीन रहता था। एक दिन उसे कोतवाल ने चोरी करते हुए पकड लिया । इस अपराध मे राजा ने उसे शूली की आज्ञा दे दी "
(पूतिगध और दुर्गधा की कथा-पुण्याश्रव कथाकोश पृष्ठ २५३)
नागश्री ने उसकी यह दशा देखकर सोमशर्मा से पूछा-"पिताजी बेचारा यह पुरुप इस प्रकार निर्दयता से क्यो मारा जा रहा है ?' सोमशर्मा बोला-"वच्ची, इस पर एक वनिए के लडके बरसेन का कुछ रुपया लेना था । उसने इससे अपने रुपयो का तकादा किया । इस पापी ने उसे रुपया न देकर जान से मार डाला । इसलिए उस अपराध के बदले अपने राजा ने इसे प्रारण दड की सजा दी है।"
(सुकुमाल मुनि की कथा-आराधना कथाकोश भाग २ पृष्ठ २१८)
राजा ने चण्डकीति नाम के अपने कोतवाल को बुलाकर कहा"थैली के चुराने वाले मनुष्य को ला वरना तेरा सिर कटवा दिया जायेगा।' कोटवाल पाच दिन के अदर चोर को पेश करने का वायदा कर चारो को साथ ले अपने घर गया और उदास हो पलग पर लेट गया ।
(सूर्य मित्र और चाण्डाल पुत्री की कथा-पुण्याश्रव कथाकोश पृष्ठ १४२)
थोडी दूर जाने पर उन्होने एक स्त्री देखी, जिसकी नाक कटी हुई थी और पुरुष की चोटी से उसका गला बंधा हुआ था। नागश्री ने पूछा"पिताजी, इसकी ऐसी दशा क्यो हुई ?" नागशर्मा वोला-'इसी नगरी-"मे मात्स्य नाम के सेठ की जैनी नाम की स्त्री है । उसके गर्भ से नन्द और नाम के दो पुत्र हुए थे । नन्द जव व्यापार करने विदेश जाने लग, मामा सूरसेन से कहा-मामा, मै द्वीपान्तरो मे आऊँ अपनी पुत्री मदाली का व्याह किसी से न
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
सूरसेन ने कहा-'मैं तुमको ही अपनी पुत्री दूंगा मगर तुम अवधि नियत करके जाओ।' मदाली कुपारी रहकर ही अपनी जवानी के दिन काटने लगी उसके मकान के पास ही एक बारह करोड की सम्पत्ति का स्वामी नागचन्द्र नाम का वणिक रहता था। उसके वारह स्त्रियाँ थी। मदाली और उसका परस्पर प्रेम हो गया, और दोनो आनद से काम सेवन करने लगे । कोतवाल को इनका हाल मालूम हो गया, एक दिन कोतवाल ने किसी तरह इनको एक साथ पकड लिया और दोनो को राजा के सामने पेश किया । राजा ने इनके लिए जो आज्ञा दी उसी के अनुसार ये दण्ड भोग रहे हैं ।
(सूर्य मित्र और चाडाल पुत्री की कथा-पुण्याश्रव कथाकोश पृष्ठ १४६)
एक दिन राजा श्रेणिक के सामने एक झगडा उपस्थित हुआ, जिसका साराश यह है कि-उसी राजगृह नगर मे समुद्रदत्त सेठ के वसुदत्ता और वसुमित्रा नाम की दो स्त्रियाँ थी जिनमे से छोटी वसुमित्रा के एक पुत्र था । वह पुत्र दोनो को इतना प्यारा था कि दोनो ही उसका लालन-पालन करती और दूध पिलाया करती थी। कुछ दिनो के पीछे सेठ के मरने पर उन दोनो मे 'यह मेरा पुत्र है' इस प्रकार कह कर झगडा शुरु हुआ और वह यहाँ तक वढा कि वे दोनो राजा के पास पहुँची । परन्तु राजा अनेक प्रयत्न करने पर भी फैसला न कर सका । तब अभय कुमार के पास वह झगडा आया और उसने अनेक उपायो से उसका असली तत्व समझना चाहा, परन्तु जब कुछ लाभ नही हुआ अब अन्त मे अभयकुमार ने एक प्रयत्न किया । वह यह है कि उस बालक को धरती पर लिटाकर एक छुरी निकाली और उसे यह कहकर मारने को तत्पर हुआ कि अब इन दोनो माताओ को इसके दो टुकडे करके एक-एक सोप देता हूँ। इसके बिना यह झगडा नही मिट सकता । यह सुनते ही जो उस बालक की असली माता थी, उसने पुकार कर और रोकर कहा-'महाराज | मुझे यह पुत्र नही चाहिये । इसी को (दूसरी को) सौंप दीजिए । मैं उसके पास ही इसे देख-देख कर जीऊँगी, परन्तु कृपा करके वध न कीजिए।" इस सच्चे पुत्र स्नेह से अभयकुमार ने तुरन्त जान लिया कि यही इसकी यथार्थ माता है अतएव उसी समय वह पुत्र उसे सौंप दिया गया ।
(राजा श्रेणिक की कथा, पुण्याश्रव कथाकोश पृष्ठ ४७)
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सन्दर्भ-ग्रन्थ-तालिका
१ हरिवशपुराण २ महावीर-पुराण ३ प्रेमी अभिनन्दन ग्रन्थ ४. श्री मरुधर केशरी मुनि श्री मिश्रीलाल जी महाराज अभिनन्दन ग्रन्थ ५ पुण्यास्रव कथाकोप ६ श्री मद् विजय राजेन्द्र सूरि स्मारक ग्रन्थ ७ हिन्दी साहित्य कोष भाग १ ८. सम्मेलन पत्रिका (लोक-सास्कृति अक) ६. जैनधर्म (प. कैलाशचन्द्र शास्त्री) १०. गुरु गोपालदास बरैया स्मृति ग्रन्थ ११ आजकल (लोक-कथा अक) १२ हरियाणा प्रदेश का लोक-साहित्य-डॉ० शकरलाल यादव १३ आराधना कथा कोष भाग १, २, ३, ४, १४ वृहत्कथा कोश १५. खडी वोली का लोक-साहित्य-डॉ सत्या गुप्ता १६. लोक-साहित्य-विज्ञान-डॉ० सत्येन्द्र १७ जैन रामायण १८. भारतीय कथाएँ भाग १ २ -डॉ० जगदीश चन्द्र जैन १६ जैनागम मे भारतीय समाज-डॉ. जगदीशचन्द्र जैन २० दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ-डॉ. जगदीशचन्द्र जैन २१. रमणी के रूप-डॉ० जगदीशचन्द्र जैन २२. धम्मपद २३. महाभारत २४. नाया धम्म कहा २५ शुक सप्तति
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जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन
२६. कथासरित्सागर २७ पचतत्र २८ बैताल पचविंशतिका २६ वृहत्कल्प सूत्र ३० श्री चन्दावाई अभिनन्दन ग्रन्थ ३१ हिन्दी कविता मे प्रकृति चित्रण-डॉ० खण्डेलवाल ३२ लोक-कथानो के कुछ रूढ तन्तु-डॉ० सहल ३३ भक्तामर स्तोत्र की कथाएँ ३४ सुगध दशमी कथा (सपादक डॉ० हीरालाल जैन) ३५ समराच्च कहा ३६ उवासगदसाओ ३७ उपदेशमाला भाषातर ३८ जैन-शतक-कवि भूदरदास ३६ जन-साहित्य और इतिहास-प नाथूराम प्रेमी ४० आदिनाथ पुराण मे प्रतिपादित भारत-डॉ० नेमिचन्द जैन ४१ जैन-साहित्य का वृहत इतिहास भाग ४-डॉ० मेहनलाल महता ४२ रासो मे कथानक रूढियाँ-डॉ० वृजविलास श्रीवास्तव ४३. हिस्ट्री प्राव इण्डियन लिट्रेचर भाग-३ विण्टरनीज ४४ बिहारी रत्नाकर ४५ विद्यापति ४६ श्री सम्पूर्णानन्द अभिनदन ग्रन्थ ४७ काव्य दर्पण-प रामदहिन मिश्र ४८, यशस्तिलक चम्पू-श्री सोमदेवसूरि ४६ अरेबियन नाइट्स ५० पद्मचरित्र-श्री विमल सूरि ५१ कथाकोप-श्री हरिषे रण
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