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जैन कथानो मे यथार्थवाद एव आदर्शवाद
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वना लेता है। मुनि-निन्दा से मानव सतप्त होकर दुखी होता है लेकिन व्रतादि करके वह दुख से मुक्ति पाता है तथा अपने आगामी जीवन को परिष्कृत भी बनाता है। इस प्रकार, के विविध मोडो का दिग्दर्शन कथा कारो ने आदर्शवाद की प्रतिष्ठा के लिए निरन्तर क्यिा है । पापोदय से यदि शरीर कुष्ठ रोग मे विकृत बनता है तो जिनेन्द्रदेव की भक्ति पूर्वक पूजा करने से तथा गधोदक लगाने से इस प्रकार के कठिन रोग भी नष्ट हो जाते है। इस प्रकार रोग के कारणो का उल्लेख करते हुए आदर्श वादी इन जैन कथाकारो ने रोग की मुक्ति के साधनो की भी चर्चा की है।
इस सदर्भ मे यह भी उल्लेख्य है कि एक ओर कथाकार ने मानव की निर्वलता को अकित किया है तो दूसरी ओर इसान की कर्मण्यता एव चारित्रिक पावनता को भी चित्रित कर मानव के दोनो रूपो को प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । इस प्रयास मे मानवीय कमजोरियां परास्त होती हे और चारित्रिक दृढता अनेक सघर्षों के वीच सही बनती है। सुदर्शन सेठ की कथा मे एक तूलिका से वेश्या की उदीप्त काम वासना को गहरे रगो से रगा गया है तो दूसरी तूलिका के सहारे शरीर की अपावनता को चित्रित कर प्रबोधन का सहारा लिया गया है तथा तीसरी तूलिका से सुदर्शन मुनि की चारित्रिक दृढता को निखारा गया है। इस कथा के निम्नस्थ अश विचारणीय है
वेश्या का यह प्रलाप सुनकर परम निश्चल और धीर-वीर सुदर्शन बोले-हेमुग्धे (मूखिणी) यह अपवित्र शरीर दुखो का घर वायु, पित्त, कफ इन विदोपो से पीडित, कृमिकुल से परिपूर्ण और विनश्वर है। यह सासारिक भोगोपभोगो के अनुभव न करने के लिए नहीं है, किन्तु परलोक सिहि की सहायता के लिए है। अतएव इसे तपस्या मे ही लगाना चाहिए । ये सम्पूर्ण भोगोपभोग अविचारित रम्य और दुखान्त है। इनसे प्रागी को कभी सन्तोष की प्राप्ति नही हो सकती है। मोक्ष के अतिरिक्त अन्यत्र सुख नही है, और वह तपस्या के विना प्राप्त नहीं हो सकता । सो हे मूर्ख अब तू इस दुष्कृत्य से अपने आपको वचा और कुछ अपना कल्याण कर।।
यह सुनकर देवदत्ता ने यह कह कर कि 'यह मव पीछे करना और पीछे ही उपदेश देना, अभी वह ममय नहीं है ! सुदर्गन मुनि को अपनी सुकोमल शय्या पर लिटा दिया। परन्तु मुनि ने दूस समय सन्यास धारण कर लिया और प्रतिज्ञा करली कि यदि इस उपसर्ग का निवारण हो जायेगा तो आहारादि ग्रहण करूंगा अन्यथा मर्वथा त्याग है। परन्तु वेश्या ने