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जैन कथाओं में यथार्थवाद एवं आदर्शवाद
यथार्थवाद एब आदर्शवाद दोनो एक दूसरे के पूरक है । यथार्थवाद ही प्रादर्शवाद की उपयोगिता को सिद्ध करता है और आदर्शवाद यथार्थवाद की प्रयोजनशीलता को प्रमाणित कर अपने अस्तित्व को सफल बनाता है । यथार्थवाद के अभाव मे आदर्शवाद निस्सार प्रतीत होता है और वह अपनी गरिमा खो बैठता है । इसी प्रकार आदर्शवाद के प्रति जन-मानस मे तभी ग्राकर्षण उत्पन्न होता है जब वह यथार्थवाद की कटुता से बेचैन हो उठता है । जो श्यामता और श्वेतता मे पारस्परिक सम्बन्ध है वही इन दोनो मे परिलक्षित होता है । इन दोनो को एक दूसरे का विरोधी कहना वस्तुत उचित नही है ।
"यथार्थवाद साहित्य की एक विशिष्ट चिन्तन-पद्धति है जिसके अनुसार कलाकारो को अपनी कृति मे जीवन के यथार्थ रूप का प्रकन करना चाहिए । यह दृष्टिकोण आदर्शवाद का विरोधी माना जाता है पर वस्तुत तो आदर्श उतना ही यथार्थ है, जितनी कि कोई भी यथार्थवादी परिस्थिति । . जीवन मे यथार्थ की कल्पना दुष्कर है । किन्तु अपने पारिभाषिक अर्थ मे यथार्थवाद जीवन की समग्र परिस्थितियो के प्रति ईमानदारी का दावा करते हुए भी प्राय सदैव मनुष्य की हीनताओ तथा कुरूपताओ का चित्रण करता है । यथार्थवादी कलाकार जीवन के सुन्दर अश को छोडकर असुन्दर प्रश काकन करना चाहता है । यह एक प्रकार से उसका पूर्वाग्रह है ।