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जैन कथानो मे समुद्र यात्राएं
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कई ऐसे दुखद अवसरो पर जव व्यापारी लोग जहाज के टकराने पर जल की धारा के साथ तैरते हुए दिखाई देते, तब जल-देवी-दयावती बनकर पीडित व्यक्तियो की सहायता करती थी । “जैन साहित्य मे यात्री और सार्थवाह" शीर्पक निवन्ध मे डा० मोतीचन्द्र लिखते है-"जैन धर्म मुख्यत व्यापारियो का धर्म था और है और इसलिए जैन धर्म-ग्रन्थो मे व्यापारियो की चर्चा आना स्वाभाविक है । व्यापार के सम्बन्ध मे जैन साहित्य में कुछ ऐसी -- परिभाषाएँ पायी है जिन्हे जानना इसीलिए आवश्यक है कि और दूसरे साहित्यो
मे प्राय ऐसी व्याख्याएँ नही मिलती। इन व्याख्यानो से हमे यह भी पता चलता है कि माल किन किन स्थानो मे बिकता था तथा प्राचीन भारत मे माल खरीदने वेचने तथा ले जाने ले आने के लिए जो बहुत सी मडियाँ होती थी उनमे कौन कौन से फरक होते थे । जैन साहित्य से पता चलता है कि राजमार्गों पर डाकुओ का वडा उपद्रव रहता था । विपाक-सूत्र मे विजय नाम के बडे साहसी डाकू की कथा है। चोर पल्लिया प्राय बनो खाइयो और वसवारियो से घिरी और पानी वाली पर्वतीय घाटियो मे स्थित होती थी।
अपने धार्मिक आचारो की कठिनता के कारण जैन साधु तो समुद्र यात्रा नहीं करते थे, पर जैन सार्थवाह और व्यापारी वौद्धो की तरह समुद्र यात्रा के कायल थे । इन यात्राओ का वडा सजीव वर्णन प्राचीन जैन-साहित्य मे आया है । आवश्यक चूणि से पता चलता है कि दक्षिण-मदुरा से सुराष्ट्र को बरावर जहाज चला करते थे। एक जगह कथा आई है कि पडु मथुरा के राजा पहुसेन की मति और सुमति नाम की दो कन्याएँ जब जहाज से सुराष्ट्र को चली तो रास्ते मे तूफान आया और यात्री वचने के लिए रुद्र और स्कन्ध की प्रार्थना करने लगे।
समुद्र याका के कुशलपूर्वक होने का वहुत कुछ श्रेय अनुकूल वायु को होता था । निर्यामको को समुद्री हवा के रूखो का कुशल ज्ञान जहाजरानी के लिए बहुत आवश्यक माना जाता था। हवाएँ सोलह प्रकार की मानी जाती थी। यथा -१ प्राचीन वात (पूर्वी) २ उदीचीन वात (उत्तराहट) ३. दाक्षिणात्य वात (दखीनाहट) ४ उत्तर पौरस्त्य (सामने से चलती हुई उतराहट) ५. सत्वासुक (शायद चौ पाई) ६ दक्षिण पूर्व तु गार (दक्सिन पूरव से चलती हुई जोरदार हवा को तु गार कहते थे) ७ ऊपर दक्षिण वीजाय ८ ऊपर वीजाय 6 अपरोत्तर गर्जन (पश्चिमोत्तरी तूफान) १० उत्तर सत्त्वासुक ११ दक्षिण सत्त्वामुक १२ पूर्व तु गार १३ दक्षिण