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जैन कथाओ मे प्रकृति-चित्ररण
कदव वृक्ष वर्षाऋतु मे पुष्पित होते है । इसलिये शरदऋतु के प्रारम्भ जब कव धूलि से धूसरित विचारे भोरो को कदव पुष्पो का मधु न मिला तो वे मत्त हाथियो के मद की गंध देने वाले सपृच्छद वृक्षो से ही मन बहलाने लगे ।
वर्षाकालीन संध्या का वर्णन:
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वर्ण काल की सध्या का समय था । मेघ मंडल ने अपने अधकार- पूर्ण वातावरण मे सूर्य के सम्पूर्ण प्रताप को ढक लिया था । उसने अपनी घनी और काली चादर से ग्रासमान को ग्रावृत कर लिया था । यह उसके जलदान का समय था । मेघो के हृदय की उदारता का स्रोत प्राज अनिवार्य गति से फूट पडा था । वे भीषण गति से भूमडल को ग्रार्द्र बनाने का सकल्प करने लगे । अरे यह क्या अपने प्रचुर दान की सीमा का आज वे उल्लघन ही कर गए ?
- महात्मा सजयत सुदृढ तपस्वी नामक कथा से
रात्रि- वर्णन
उसी समय सूर्य पश्चिम समृद्र में जाकर डूब गया, मानो ग्राकाश जगल मे चलते हुए थककर उसने स्नान करने के लिए समुद्र मे डुबकी लगाई है | पश्चिम दिशा का उपभोग करने को जाते हुए सूर्य ने सध्या बादल के छल से उसके पश्चिम दिशा के वस्त्र खीच लिए हो—ऐसा मालूम होने लगा । पश्चिस दिशा पर छाई हुई अरुण मेघो की परम्परा ऐसी जान पडने लगी मानो अकाल मे सूर्य को छोडकर तेज जुदा रह गया है । नवीन रागी सूर्य, अव नवीन राग वाली पश्चिम दिशा का सेवन करने लगा ।
जैन रामायण छटा सर्ग