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________________ ११० जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन साथ विलास न किया तो मेरा यह ऐश्वर्य व्यर्थ है। यह सुन्दर रूप और नवीन यौवन भी किसी काम का नही । चाहे यह समस्त लोक परस्त्री सेवन करने के कारण एक ओर हो सर्वदा के लिये विरोधी हो जाय, परन्तु मेरा जो चित्त परस्त्री मे आसक्त हो गया है, उसे मै रोक नही सकता आदि । 'शरद ऋतु वर्णन' पृष्ठ क्रमाक १८६ से १८७ हरिवश पुराण--- कदाचित वर्पाकाल के व्यतीत हो जाने पर शरद ऋतु का आरम्भ हुआ । उस समय शरद ऋतु सर्वथा सुन्दर स्त्री की उपमा धारण करती थी। क्योकि स्त्री के जैसा मुख होता है वह कमल रूपी मुख से शोभित थी। स्त्री जैसे अधर पल्लवो से मडित रहती है यह भी बधूक जाति के मनोहर पल्लव रूप अधरो से शोभित थी। स्त्री जैसे श्वेत चमरो से अलकृत रहती है यह भी विकसित कास के वृक्ष रूपी शुभ्र चमरो से युक्त थी। स्त्री जैसे वस्त्रो से वेप्टित रहती है यह भी निर्मल जल रूपी वस्त्रो से वेष्टित थी। ___ उस समय धूम्र के समान काली मेघ पक्ति नजर न पडती थी। उससे ऐसा जान पडता था मानो श्वेत वर्ण गौनो के उन्नत शब्दो ने उसके शब्दो को प्रच्छन्न कर दिया था। इसलिए वह लज्जित हो छिप गई है। वर्षाकाल मे मेघमडल से आवृत होने के कारण दिशाओ मे सूर्य के पाद (किरण) नही फैल पाते थे, परन्तु इस समय मेघ का आवरण विल्कुल नष्ट हो चुका था। इसलिये उस सूर्य ने अपने पैर (किरण) सब ओर पूर्ण रीति से फैला रक्खे थे। उस समय मेघ रूपी नितवो से झरते (गिरते) हुवे जल रूपी चित्र विचित्र वस्त्रो से मडित, भवर रूपी नाभि से रमणीय, मीन रूपी नेत्रो से मनोहर, फेन रूपी चूडानो से अलकृत, तरग रूपी विशाल भूजायो से भूषित, नदी रूपी रमणियाँ क्रीडा काल मे भगवान के मन को भी हरण करती थी। लहर रूपी भ्र कटियो से शोभित मीन के समान चचल कटाक्षो से युक्त कामी पुरुषो के मनोहर अलापो के समान मत्त भोरे और हसो के शब्दो से रम्य विकसित कमलो की पराग रूपी अगराग को धारण करने वाली सरसी रूपी स्त्रिया रतिकाल मे भाग्यवान को अतिशय अनुरक्त करती थी। शालि क्षेत्रो मे सुगधित शालि वृक्ष फलो के भार से नम्रीभूत हो गये और उन्ही क्षेत्रो मे कमल भी प्रफुल्लित हो गये। उनसे ऐसा प्रतीत होता था मानो सुगध के अतिशय लोलुपी कमल और शालिफल शरीर से शरीर मिलाकर चिरकाल तक एक दूसरे की सुगध सू घना चाहते है ।
SR No.010268
Book TitleJain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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