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________________ जैन कथाश्री मे प्रकृति-चित्ररण ऐसा जान पडता था मानो अपने समान सुरीले कठो से भूषित रमणियो का गान सुनकर वे उनके जीतने की इच्छा से ही शब्द कर रही है । १०६ इस प्रकार वसत राजा के उदित होने पर राजा सुमुखी का भी विलासी मन वन विहार के लिये उत्सुक हुग्रा सो ठीक ही है जिस वसत के प्रभाव से भ्रमर कोयल यादि क्षुद्र जन्तु भी मस्त हो नाना गान गाने की तो बात ही क्या है ? लगते है तो मनुष्यो प्रथम ही उसने उत्तमोत्तम वस्त्र और ग्राभूषण पहिने पश्चात् वह भले प्रकार सजाये गये किसी श्रतिशय उन्नत हाथी पर सवार हो सज धज कर वन की ओर चल निकला । उस समय उसके मस्तक पर पूर्ण चन्द्रमा के समान अतिशय स्वच्छ छत्र फिरता था जिससे सूर्य की प्रभा दब रही थी । नाना प्रकार के जलो से पूर्ण समुद्र के समान अनेक राजाओ से व्याप्त, वदीगरणो से स्तुत राजा सुमुखी राजमन्दिर से निकल राजमार्ग पर श्रवतीर्ण हुवे । वसत ऋतु के समान सदा से प्रजा के मन मे विराजमान राजा सुख का देखने के लिये नगर की नारियो मे बडा कोलाहल मच गया । चारो ओर वर्धस्व, जय, नद यही ध्वनि सुनी पड रही थी । हाथो को जोडे हुवे अतिशय व्याकुल हो स्त्रियाँ अपने नेत्र रूपी अजलियो से सुमुख के रूप का पान करने लगी । प्रकृति प्रकार स्त्रियो के मध्य में एक अतिशय मनोहर साक्षात् रतिके समान स्त्री वैठी थी । अचानक ही उस पर राजा की दृष्टि पड गई । उसका मुख चन्द्रमा के समान था । नेत्र कमल के समान थे । दोनो ग्रोष्ठ विवाफल सरीखे और कठ शख अनुरूप था । उसके स्तन चक्रवालो की उपमा को धारण करते थे । कटिभाग अतिशय कृश था । नाभि अत्यन्त गहरी थी । दोनो जघन सुघटित थी । नित्तव कुदरूफल से तुलना करते थे और दोनो चरण, विशाल उरु, सुन्दर जघा एव पाष्णियो से अतिशय शोभायमान थे । राजा सुमुख उसपर प्रति आसक्त हो गया और लालमा पूर्वक उस पर गिरी हुई ग्रुपनी चंचल दृष्टि को जरा भी न रोक सका । उसके मन मे सहसा इस बात की चिंता हुई कि मुग्ध हरिणी के समान नेत्रो से शोभित यह रमणी किसकी प्राज्ञाकारिणी स्त्री है | अतिशय सुन्दर यह चरावर अपने रूप रूपी पान ने मेरे मन को सोच रही है । यदि इस जन्म मे मैने हृदय को ग्रानन्द देने वाली इस रमणी के
SR No.010268
Book TitleJain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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