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जैन कथा का सास्कृतिक अध्ययन
कुल वृक्ष ( मोलसिरी ) स्त्रियो के प्रखड मद्य के कुल्लो से फूल गया था । इसलिये उसे देख प्रमद जनो को परम आनद होता था ।
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जो मनुष्य उस समय सुखी थे । अपनी अपनी वल्लभाओ से सयुक्त थे, उन्हे तो अपने ऊपर गुजार शब्द करते हुवे भ्रमरो से कुरवक वृक्ष परम ग्रानन्द देता था, किन्तु जो दुखी विरही थे उन्हे दुख कर । अपने अर्थ को कु-खोटे रोना चिल्लाना रूप रवक-शब्द कराने वाला चरितार्थ करता था ।
उस समय चौतर्फा फूले हुये तिलक वृक्षो ने अपनी शोभा द्वारा पटल जाति के वृक्षो की सुगन्धी से व्याप्त वन लक्ष्मी रूपी बनिता को पुण्यवती बना दिया था ।
लिते केशर (गर्दन के वाल)
जिस प्रकार हस्तियो के दमन करने के से शोभित सिंह कूदते फिरते हैं, उसी प्रकार वसन्त ऋतु मे खिले हुवे नाग वृक्षो को दबाने के लिये ही मानो सिंह केशर जाति के वृक्ष खिल
उठे थे ।
जिस प्रकार कोई पुरुष चिरकाल के वियोग से कृश अपनी बल्लभा को आलिंगन कर पुष्ट एव पुण्यवती ( रजोधर्मवती ) कर देता है उसी प्रकार वसत ने चिरकाल से विमुख ग्रतएव सूखी हुई अपनी मालती रूपी वल्लभा को अपने मिलाप से प्रफुल्लित और पुष्पो से व्याप्त कर दिया था ।
उस समय अतिशय रक्त कठ और झूलने के अतिशय प्र ेमी अनेक स्त्री पुरुष राग मे मनोहर गीत गाते थे ।
ग्रधरो की शोभा से मंडित एव झूला पर बैठकर हिंडोल नामक
कोई कोई स्त्रियो के प्र ेमी मनुष्य बसत ऋतु के अनुकूल भूषरण वस्त्र पहन कर बगीचे और वनो मे जाते और बडी प्रीति से मद्यपान करते थे । वन मे हरिण पहिले दूवघास का स्वय आस्वादन करते और पीछे उसे हरिणी को देते । हरिणी भी उसका आस्वादन कर हिरण को देती सो ठीक है कि अपने प्रिया की सू घी हुई भी वस्तु परम ग्रानन्द देती है ।
उस समय मदोन्मत्त हाथी सल्लकी वृक्ष के सुन्दर पल्लवो के खाने मे अतिशय लालायित अपनी प्र ेयसी हथिनी को अपने मुख से चुबन करते श्रीर उन्हे चु बन जन्य सुख मे मस्त कर देते थे ।
नूतन पुष्पो मे स्थित मधु को पीते हुवे भ्रमर भ्रमरी इधर उधर शब्द करते हुवे फिरते थे एव वडी लालसा से एक दूसरे का आधाण और चुन कर आनन्दित होते थे ।
उस समय कोकिला इधर उधर कुहू कुहू मनोहर शब्द करती थी उससे