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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन .
देवता, सम्प्रदाय, गुरु-सरक्षण, वरदान, मान्यता आदि का नामकरण मे विशेष महत्व माना गया है।
कतिपय नाम अभिधा मूलक होते है और कुछ नाम लाक्षणिक भी कहे गये है । लेकिन लाक्षणिक एव व्यग्यात्मक नाम भी शन शनै अभिधा मूलक हो जाते है।
न केवल जैन पुराणो मे ही वरन समस्त वाड् मय मे नामो की ऐसी राशि उपलब्ध होती है, जिन्हे शब्द शक्तियो के आधार पर अनेकवा वर्गीकृत किया जा सकता है । शब्द-शक्तियो के आधार पर तो नामो को वर्गीकृत किया ही जा सकता है । उनके द्वारा भकृत अर्थो के माध्यम से भी विभाजन पूर्ण रूपेण सभाव्य है । शब्द-शक्तियो के सन्दर्भ में सर्वप्रथम समूची नाम राशि को द्विधा विभक्त कर सकते हैं -
व्यासात्मक एव समासात्मक । इस उभय विधि नाम-राशि को पुन अभिधा शक्ति के आधार पर निम्नलिखित रूप से चतुर्धा विभाजित किया जा सकता है -
(१) रूढ (२) यौगिक (३) योगरूढ (४) यौगिक रूढ ।
(१) जिन नामो की व्युत्पत्ति न हो सके उन्हे रूढ (शब्द) कहते है जैसे—डिन्थ (काठ का हाथी) इस नाम की कोई व्युत्पत्ति नहीं है ।
(२) अवयव शक्ति से अर्थ-बोधक नाम यौगिक कहे जाते है । जैसेपाचक (रसोइया) तथा पाठक जो पढाता हो उसे पाठक कहते है। यहाँ पठ् क्रिया से यह नाम निर्मित है।
(३) समुदाय और अवयव दोनो की शक्ति से जो अर्थबोधक नाम होते है, वे योगरूढ कहलाते है । जैसे-पकज । इस नाम की व्युत्पत्ति की जाय तो पकान् जायते इति पकज । लेकिन यह नाम केवल कमल के लिए ही रूढ हुना है । इस प्रकार इस नाम का वोध समुदाय एव अवयव दोनो के माध्यम से होता है । दूसरे शब्दो मे हम यो कह सकते है कि जहाँ अवयव शक्ति, समूह'शक्ति से नियन्त्रित होकर अभीष्ट अर्थ प्रदान करे, उसे 'योग-रूढ़' नाम कहते है।