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समष्टि भगवान महावीर भो० पृथ्वीराज जैन, एम० ए०, शास्त्री अम्बाला शहर
भारतीय धर्म एवं दर्शन के मर्मज्ञ अव इस विषय में प्रायः एकमत है कि इस पवित्र भूमि पर अतीव प्राचीन काल से दो सास्कृतिक धाराएं प्रवाहित रही है वैदिक अथवा ब्राह्मण, श्रमण दोनो मे कौन सी पूर्ववर्ती है, यह अभी विवाद का विषय है। तदपि इस तथ्य की उपेक्षा नहीं की जा सकती कि दोनो समकालीन अवश्य रही है। उपलब्ध साहित्य मे ऋगवेद प्राचीनतम माना जाता है। उसके अध्ययन से यह स्पष्ट है कि उस समय वेद-विरोधिनी विचार धारा की भी प्रबलता थी। उस विचारधारा का प्रतिनिधित्व वर्तमान ज्ञात धाराओ मे जैन धर्म सबसे अधिक करता है । बौद्ध-धर्म का उदय पर्याप्त समय वाद हुआ और साख्य दर्शन, वैदिक दर्शन मे ही समाविष्ट हो गया। ऐसे भी विद्वान है जो युक्ति और प्रमाण के आधार पर जेन विचार धारा को भारत की मौलिक विचार धारा मानते है। वेदानुयायी आर्य बाहिर से आए, यह निश्चित प्रायः तथ्य है।
बैदिक व श्रमण परम्परा :
वैदिक और श्रमण परम्परा में जो मूल भेद है, उसे एक शब्द में समया या समत्व से प्रतिपादित किया जा सकता है। श्रमण धर्म का आचार-विचार समता की आधार शिला पर स्थिर है जब कि वैदिक आचारविचार के मूल में वैषम्य अथवा विषमता के दर्शन होते हैं। यत्र-तत्र श्रमण परम्परा मे असमानता की झलक दृष्टिगोचर होगी और वैदिक परम्परा में समता पोषक उल्लेख उपलब्ध होगे, परन्तु वे अपवाद रूप अथवा आयतीत हैं । वैदिक जीवन वर्णाश्रम धर्म पर आधारित है जो मानव-मानव में उच्च-नीच की दिवारें खड़ी करता है। श्रमण जीवन अथवा जैन तीर्थंकरों की संघ-व्यवस्था, समानता समानाधिकार मानव क्या प्राणीमात्र के प्रति मैत्रीभाव पर अवलम्बित है। इस लेख मे जेनो के इस युग के चरम तीर्थकर भगवान महावीर द्वारा भिन्नभिन्न क्षेत्रो मे प्रतिपादित समता परकिचित् प्रकाश डालने का प्रयास किया जाएगा।
श्रमण शब्द का अर्थ ही इस बात का द्योतक है कि यह विचार-धारा विश्व मे समता की सन्देशवाहक है। श्रमण को प्राकृत मे 'समन' कहते है। इससे तीन अर्थों की ध्वनि परिस्फुटित होती है-सम, शम, श्रम। सम का अर्थ समानता किंवा समभाव का है । 'मिन्ती मे सव्व भूएसु,-समस्त प्राणियो से मेरा मैत्री भाव है, मेरा किसी से भी वेर भाव नही, यह भावना इसी सम का सुमधुर फल है। शम का अर्थ शमन, शान्ति उपशम है। आत्मा मे उपसम भाव का उदय तभी सम्भव है जब हम हरेक प्राणी को आत्मोपम्य दृष्टि से देखें। उपशम तभी होगा जब राग दूष का नाश होगा। राग द्वष उस अवस्था में होते है जब हम प्राणियो को समान दृष्टि से नही देखते. किसी में ममता भाव रखते है और किसी से वेर-विरोध पनपने देते है। भगवान महावीर कहते है-'उवसमसार सामण्णं' अर्थात् श्रमण धर्म का सार उपशम या शान्ति भाव है । अतः शम का ध्येय भी सम का पोषण है। श्रम का भावार्थ पुरुषार्थ और तप आदि से है। अनादि काल से सांसारिक आत्मा कर्ममल से अवलिप्त होने के कारण मोह एवं तदजनित विषमता से लिप्त है। उस अवलेप को दूर करने का साधन श्रम किवा तप है जो कर्मों के आवरण को दर कर हमे समता-आराधना की ओर अग्रसर करता हुआ शुद्ध परमात्म-स्वरूप की अनुभूति कराएगा। इस प्रकार