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जैन कथाओ मे ऐतिहासिकता
साम्प्रदायिकता का वैसा जोर नही था जैसा हम उत्तर काल मे पाते है । इसीलिए उस समय जो साधु-सन्त नगरो मे पधारते थे, उनके आगमन को अपना अहोभाग्य समझकर नगर के सभी नर-नारि उनके दर्शनार्थ जाते थे । ऐसी दशा मे श्रेणिक विम्बसार कुणिक ( अजातशत्रु) और चन्द्रगुप्त आदि राजा के विषय मे सभवत यह कहना कठिन है कि वे महावीर के विशेष अनुयायी थे या बुद्ध के
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तत्पश्चात् नन्द राजाश्रो का जिक्र आता है । जैन परम्पराओ के अनुसार कुणिक का पुत्र उदायी विना किसी उत्तराधिकारी के मर गया । उस समय एक नापित पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठा, और यह प्रथम नन्द कहलाया । नन्दो का नाश कर चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को किस प्रकार पाटलिपुत्र के सिंहासन पर बैठाया, इसका विस्तृत वर्णन श्रावश्यकचूर्णी तथा बौद्धो की महावश टीका मे आता है ।
तत्पश्चात् उज्जयिनी के राजा गर्दभिल्ल का जिक्र आता है । जैन परम्परा के अनुसार ईरान के शाहो ने गर्दभिल्ल को हराकर उज्जयिनी मे अपना राज्य कायम किया । उसके बाद गर्दभिल्ल के पुत्र विक्रमादित्य ने शको को हराकर फिर से उज्जयिनी पर अधिकार किया 1 इसी समय से विक्रम संवत् का प्रारम्भ माना जाता है | ईरान के दूसरे वादशाह नभोवाहन या नहपान का उल्लेख जैन ग्रन्थो मे आता है । नभोवाहन भरनयकच्छ ( भडोच ) मे राज्य करता था, और उसके पास अटूट धन था । नभोवाहन श्रौर पइट्ठान ( पैठन) के राजा सालिवाहन ( शालवाहन) के युद्ध का उल्लेख प्राता है, जिसमे अन्त मे सालिवाहन की विजय वतायी गयी है । सालिवाहन के मंत्री अपने राजा को छोडकर नभोवाहन से जा मिलने सवन्धी कूटनीति की तुलना अजातशत्रु के मंत्री वर्षकार के लिच्छवियों से जा मिलने के साथ की जा सकती है । इन कहानियो से प्राचीन भारत की सामाजिक अवस्था पर भी प्रकाश पडता है । उस समय के सामन्त लोग बहुत विलासी होते थे, बहुपत्नीत्व प्रथा का चलन था । कूटनीति के दाँव-पेच काम मे लाये जाते थे । महायुद्ध होते थे । राजा की ग्राज्ञा पालन न करने वाले को कठोर दण्ड दिया जाता था । कैदियो को वन्दीग्रह मे ast यातनाएं भोगनी पडती थी, सामन्त लोग छोटी बातो पर लड वठते थे । राजा यथासंभव क्षत्रिय धर्म का पालन करते थे । शरणागत की रक्षा करना परम धर्म समझते थे, और नि शस्त्र पर हाथ उठाना क्षत्रियत्व का अपमान समझते थे । राजा और सेठ साहूकार अतुल धन संपत्ति के स्वामी होते थे ।