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१५५ जन कथानो मे न्याय व्यवस्था
समाज सुरक्षित रहे एव उसे दुष्ट पुरुप पीडित न कर सके, इसके लिए राजा स्वय सजग रहता था और निशा मे भ्रमण कर प्रजा को प्रातकित होने से बचाता था। कई कथाएं ऐसी भी उपलब्ध होती है जो यह प्रमाणित करती है कि रानी राजदरबार मे नृपति के साथ सिंहासन पर बैठकर न्याय करने मे पर्याप्त सहायता देती थी और कभी-कभी अपराध की खोज के लिए विभिन्न साधनों को अपनाया करती थी। पचायतो के माध्यम से भी न्याय किया जाता था एव ग्राम का मुखिया और पचादि मिलकर पीडितो एव सन्तप्तो की रक्षार्थ अपराधियो को दण्डित कर आदर्श न्याय को उदाहरण के रूप में स्थापित करते थे।
"शासन-व्यवस्था के लिए दण्ड परमावश्यक माना गया है। यदि अपराधी को दण्ड न दिया जाय तो अपराधो की संख्या निरन्तर बढती जायगी। एव राष्ट्र की रक्षा बुराइयो से न हो सकेगी। अपराधी को दण्ड देकर शासन व्यवस्था को चरितार्थ किया जाता है। भोगभूमि के वाद हा, मा, विक के रूप मे दण्ड व्यवस्था प्रचलित थी, पर जैसे-जैसे अपराध करने की प्रवृत्ति बढती गयी वैसे-वैसे-दण्ड व्यवस्था भी उत्तरोत्तर कडी होती गयी । आदिपुराण द्वारा भारत मे तीन प्रकार के दण्ड प्रचलित थे जो अपराध के अनुमार दिये जाते थे
(१) अर्थहरण दण्ड। (२) शारीरिक क्लेश रूप दण्ड । (३) प्राणहरण रूप दण्ड,
शासन तत्र को सुव्यवस्थित करने के लिए पुलिस का भी प्रवध था । पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी को तलवर कहा गया है, चोर, डकैत, एव इसी प्रातार के अन्य अपराधियो को पकड़ने के लिए प्रारक्षी नियुक्त रहते थे । तलवर का पर्यायवाची आरक्षण भी पाया है। पुलिस अपराधी को पकड पार निम्नलिखित चार प्रकार के दण्ड देती थी।
(१) मृत्तिका भक्षरण। (२) विष्टा भक्षण। (३) मल्ली द्वारा मुक्के। (४) सर्वस्व हरण। प्रलयोनी को भयावह दण्ड दिये जाते थे।" 1
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आदिपुराण में प्रतिपादिन भारत पृष्ठ ३६१-६२