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जैन कथाओं में प्रकृति-चित्रण
प्रकृति और मानव का चिरतन साहचर्य है । अपने जीवन के प्रथम प्रभात मे इसान ने प्रकृति के सुहावने दृश्य को देखा था एव जीवन की सध्या मे भी उसने प्रकृति से सान्त्वना प्राप्त की थी । यह प्रकृति हो तो मानव को कभी जननी के समान वात्सल्य देती है तो कभी प्रेयसी की भाँति उसे अनन्त प्यार प्रदान करती है । कभी शिक्षिका के सदृश यह प्रकृति विह्वल मानव को प्रवोधन देकर आश्वस्त करती है तो कभी अध्यात्मवाद की भावना को अपने क्षरण भगुर रूप के माध्यम से सुदृढ बनाती है ।
साहित्यकार को सतत प्रेरणा देने वाली यह प्रकृति ही है । इसकी सुखद गोद में बैठकर काव्यकार चिरतन काव्य की सर्जना करता है और चित्रकार प्राकृतिक सौन्दर्य को देखकर अपनी भावुक तूलिका प्रारणवती बनाता है । प्रकृति की छाया में निर्मित साहित्य ही सत्य, शिव, सुन्दर का प्रतीक बनता है ।
हमारा प्राचीन समस्त साहित्य प्रकृति की रम्य रगस्थली मे ही रचा गया या । फलत उसमे प्रकृति के विविध रूपो का बडा ही मनोरम चित्रण हुआ है । प्रकृति के अनेक उपकरण इतने रमणीय है कि वे उपमान के रूप मे स्वीकृत हो चुके । मृगो की छलागे किसे विमोहित नही करती है ? मयूरो का नृत्य सबको प्रमुदित कर देता है । मेघो की श्यामल घटाएँ बरबस भावुक मानस को सुखद स्मृतियो से भर देती है । इसी प्रकार कमलो से भरा