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जैन कथाश्री की रचना प्रक्रिया
साथ उसकी पत्नी के नाम का भी सकेत कर दिया जाता है । कथा के प्रारभ मे मंगलाचरण के रूप मे श्री जिनेन्द्र देव की स्तुति परक कुछ शब्द कह दिये जाते है । और अन्त मे ( कथा की समाप्ति मे ) साराश के रूप मे विशिष्ट लक्ष्य की भी चर्चा करदी जाती है जिससे कि पाठक अथवा श्रोता सहज ही मे उस प्रयोजन को समझ सके जिसके लिए पूरी कथा की सृष्टि की गई है । उदाहरण के रूप में यहाँ दो कथाओ का साराश उद्धृत किया जा रहा है
(१)
पूजन का ऐसा महत्व है कि अत्यन्त मूर्ख, व्रत- रहित शूद्र की कन्याएँ भी भगवान् के मन्दिर की देहली पर केवल फूल चढाने के कारण देव-गति को प्राप्त हो गई । फिर यदि सम्यग्दृष्टि व्रती श्रावक अष्टद्रव्य से प्रौर भाव सहित भगवान् की पूजा करे तो इन्द्र- महेन्द्र की पदवी को क्यो न प्राप्त होवे ? अवश्य ही होवे । इसलिए हम सबको प्रतिदिन भक्ति भाव से जिन पूजा करनी चाहिये । ( माली की लडकियो की कथा, पूजाफल वर्णनाप्टक पुण्यास्रव कथाकोप पृ ३)
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(३)
देखिए 1 मरण-काल मे एक चोर भी विना विचारे अथवा बिना महत्व जाने ही नमस्कार मंत्र के उच्चारण से देव - पद को प्राप्त होगया, यदि अन्य सदाचारी पुरुष शुद्ध मन से इस मंत्र का पाठ करे तो क्यो न स्वर्गादिक सुखो को प्राप्त होवे ? अवश्य ही होवे | ( दृढ सूर्य चोर की कथा - पुण्यास्त्रव कथाकोप, पृ० १०७)
मंगलाचरण एव साराश की प्रवृत्ति प्राय समस्त पुरातन जैन कथाग्रो ये दृष्टव्य है । लेकिन आज के कतिपय कहानीकारो ने प्राचीन जैन कथाओ की कथावस्तु के आधार पर कुछ कहानियाँ लिखी है । उन नव निर्मित कहानियो मेन मंगलाचरण का संकेत उपलब्ध है और न साराश देने की प्रवृत्ति परिलक्षित होती है । इसका कारण यही है कि ग्राधुनिक कहानी का रचना-विधान पाश्चात्य कहनी कला से अत्यधिक प्रभावित है । इस सन्दर्भ मे डॉ० जगदीशचन्द्र जैन द्वारा लिखित दो हजार वर्ष पुरानी कहानियाँ भी उल्लेख्य है ।
कथाओ मे रोचकता लाने के हेतु तथा इन्हे प्रभावोत्पादक बनाने के लिये कथाकारो ने सूक्तियो, सुभाषितो दृष्टान्तो, एव उपकथाओ का भी पर्याप्त मात्रा मे प्रयोग किया है । इनके (सूक्तियो एव सुभाषितो के) माध्यम से कथा मे सन्निहित लक्ष्य की पूर्ति हो जाती है और साथ ही साथ जीवन के