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समावेष त्याग में ही किया जा सकता है । अतः मैने प्रस्तुत लेख के शीर्षक मे उनके आगे त्यागवीर विशेषण रखा है । अब भगवान महावीर की आदर्श त्याग - वीरता पर संक्षिप्त विवरण उपस्थित किया जा रहा है ।
यह शरीर भोगो के द्वारा उत्पन्न होता है और उन्ही से बढ़ता है अतः जीवन मे पौद्गलिक भागो का भी महत्वपूर्ण स्थान है । एक तरह से आहार, मैथुन आदि की जीवो की प्राकृतिक आवश्यकताएँ भी कहा सकता है, क्योंकि इनके बिना जीवन चल नही सकता, टिक नहीं पाता पर बन्धन का कारण होने से भोग, मोक्ष मार्ग का विरोधी है। यह संसार इन भोगो की आसक्ति पर ही आश्रित या आधारित है। इसलिये महापुरुषो ने भोग-रूपी कीचड़ से ऊपर उठकर त्याग को प्रधानता दी । जीवन धारण के लिये खान-पान का उपयोग जितने परिमाण में अनिवार्य है, उसको अनासक्ति पूर्वक ग्रहण करते हुए भोगोपभोगो को घटाते जाना और त्याग की ओर वढते
ही आध्यानिक जागृति है विषय भोगो का आदर पौद्गलिक आसक्ति है। जहाँ तक हमारा देहाध्यास आत्मा । । गौण रहेगी । भोगो को वन्धन का कारण एवं त्याग की मुक्ति का मार्ग बतलाया है।
वैदिक संस्कृति मूलतः यश प्रधान थी पर भ्रमण संस्कृति के प्रभाव से उसमे भी सन्यास या त्याग मार्ग को सर्वोच्च स्थान देना पडा यद्यपि उसमे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रम के बाद त्याग को धारण किया जा सकने का विधान है। जैन संस्कृति मे त्याग निवृति प्रधान है जो व्यक्ति सन्यास धारण नही कर सकते, वे गृहस्थ धर्म अणुव्रत का पालन करे, यह विधान होने पर भी महत्व त्याग को ही दिया गया है । अत्रती, गृहस्थ ही साधारण कोटि है। अणुवती ही गृहस्थ जीवन का वैशिष्ठय है। व्रत ग्रहण से ही त्याग मार्ग आरम्भ होता है, वैसे वस्तुओं की अप्राप्ति में या अनिच्छा पूर्वक भी त्याग होता है । वैसे वस्तुओ की अप्राप्ति में या या अनिच्छापूर्वक भी त्याग होता है। पर वह व्रत नहीं है। मत को आंशिक रूप में धारण करने वाले देश विरति श्रमणोपासक या आपक कहलाते है और व्रतो को पूर्ण रूप से धारण करने वाले 'महावती' होते है । इनका आशिक त्याग ही देश विरति या अणुव्रत है।
भगवान महावीर ने गृहस्थावस्था में भी त्याग को अपना लिया था। निश्चयानुसार अपने माता-पिता के स्वर्गवास के अनन्तर उन्होने जब सन्यास ग्रहण की भावना व्यक्त की तो उनके बडे भाई नन्दी वर्धन ने उन्हे रोका । वे उनके अनुरोध से दो वर्ष ओर घर मे रहे पर अनासक्त साधु की तरह, पिछले एक वर्ष तो उन्होने प्रतिदिन दान दिया जिससे साम्वत्सरिक दान कहा जाता है, दो वर्ष पूरे होते ही तीस वर्ष की पूर्ण यौवनावस्था मे भगवान महावीर ने अणगार धर्म का स्वीकार किया और निग्रन्थ बने । कुटुम्ब, परिवार, वस्त्राभूषण, धन, जन, भूमि आदि समस्त वाह्य पदार्थों एवं देहासक्ति आदि अभ्यन्तर परिग्रह के त्याग को स्वीकार किया। उनके श्रमण होने का सर्वप्रथम प्रतिज्ञा वाक्य यह है " करेमि सामाइयं, सव्वं सावज्ज पच्चक्खामि” अर्थात् उन्होने सम भाव का स्वीकार स्वयं सर्व सावध पाप कर्मों का त्याग करने की प्रतिशा ली। पाँच इन्द्रियों के विषय भोग सावध पाप कार्य होने से एवं धन, परिवार शरीर की ममता सावध पाप होने से महावीर नि कोटि का था । श्रमण होने के बाद उन्होने कभी भी अपने मुड़कर नहीं देखा अर्थात उनकी कभी इच्छा तक नहीं की तनिक भी मोह नही रक्खा, परिग्रह का त्याग इतना उच्चकोटि का किया कि शरीर निर्वाह के लिये आवश्यक वस्त्रादि का भी सर्वथा परित्याग करके वे पूर्ण दिगम्बर वन गये इतना ही नही, उन्होने अन्न पान आदि आहार को त्याग कर उग्र तप को अपनाया । साधनावस्था के १२ ॥ वर्षो मे पूरे वर्ष भर ( ३६० दिन भी ) उन्होंने आहार ग्रहण नहीं किया, शीत ताप आदि प्राकृतिक शारीरिक कष्टों की सहन किया साथ ही देव मनुष्य, तिर्वच के दिये हुये कठोर एवं मरणान्तिक कष्टो को भी समभाव से सहा यह उनके देहा-शक्ति परित्याग की सर्वोच्च स्थिति थी। इस प्रकार उन्होने मोह ममत्व का सर्वथा त्याग कर महान त्यागी या त्यागवीर का आदर्श उपस्थित किया । वास्तव
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बने । उनका परित्याग बहुत ही विलक्षण एवं उच्च परिवार की सुधि नहीं ली, राजभोगो की ओर कभी जन्मभूमि एवं भाई पुत्री आदि स्वजन परिजनो का