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________________ "मैगुणी को उत्कर्प अवगुणो के त्याग के विना सम्भव नही। इसी लिये धर्म के दो रूप माने गये हैं-विधि और निषेध अमुक काम करना चाहिये, इस विधान के साथ उससे विरोधी अमुक काम नही करना चाहिये ऐसा निषेध रूप धर्म (शिक्षा ) का सम्बन्ध जुडा हुआ है । अर्थात् विधि के साथ निषेध का घनिष्ठ सम्बन्ध जुडा हुआ है । जैन +धर्म में तो निपेध का विधि से भी अधिक महत्व दिया गया है। जैसे हिंसा के त्याग रूप धर्म का नाम ही अहिसा है । इसी तरह असत्य, चोरी, मैथुन, परिग्रह के त्याग की प्रतिज्ञा भी हिंसा, मृषा अदत्ता दान, मैथुन परिग्रह विरामण आदि शब्दो द्वारा की जाती है। “विरमण” अर्थात् विराम लेना-त्यागना, पाप कार्यों से विरत होना ही है। हेय, ज्ञय, उपादेय इस त्रिपटि रूप विवेक ज्ञान में त्यागने के योग्य पापो के त्याग का विधान 'हेय' शब्द में सूचित है, मन की चंचलता त्याग विना ध्यान नहीं होता। ध्यान की साधना करने वाले को बोलना छोड कर मौन रहना पडता है एव पद्यासन न अन्य आसनादि द्वारा काया की अस्थिरता का त्याग जरूरी होता है। जैन धर्म में मन, वचन, काया की गुप्ति का विधान है उसका तात्पर्य यही है कि इन योगो को अपने वश मे किया जाय, उन्हे बुरे कार्यों से हटाया जाय, सामयिक करना इसी विधि वाक्य के साथ ही विशेष सच्चे सर्व सावध योगो के प्रत्याख्यान की प्रतिज्ञा की जाती है। आवश्यको में प्रत्याख्यान तो 'त्याग' का ही जेन पारिभाषिक पर्यायवाची शब्द है, वैसे कायोत्सर्ग में भी देहाध्यान के त्याग का भाव ही प्रधान है। प्रतिक्रमण का अर्थ है पाप स्थानो से पीछे मुडना उससे भी अट्टारह पाप स्थानो के त्याग ही भाव स्पष्ट है । १० श्रमण धर्मों में क्षमा आदि धर्म है। उनमें भी क्रोध का त्याग क्षमा, माया का त्याग-आज-सरलता, अभिमान का त्याग-सन्तोष, परिग्रह का त्याग रूप-अकिंचन धर्म है और त्याग को स्वतन्त्र धर्म भी माना है। इस प्रकार दोषो या पापो का त्याग ही धर्म है । असत् अकुशल कों को छोडना और सत्वे कुशल कमों का करना ही तो धर्म है । मोक्ष मार्गत्रयमें मिथ्यात्व का त्याग ही सम्यकत्व हैं । इच्छाओ का निरोध त्याग तप है पौद्गलिक सग के निवारण से ही आत्म स्वरूप की उपलब्धि होती है। का त्याग ही स्वभाव रमणता है । स्वार्थ का त्याग किये विना परमार्थ नही सधता, कमों का त्याग ही तो मुक्ति है । आठ कमो का नाश होने पर ही तो मुक्ति है, आठ कर्मों के नाश होने पर ही आत्मिक गुणो का पूर्ण प्रगटीकरण होता है। भारतीय साधना प्रणाली में सत प्रवृति और निवृति इन दोनो को धर्म की संज्ञा दी गई है। जैन धमों सत्प्रवृति से कार्य ले इन दोनो को धर्म की संज्ञा दी गई है । जैन धर्म तो निवृति प्रधान धर्म माना जाता है, .iq उसमें तो त्याग ही प्रधान है। भारतीय संस्कृति में त्याग को आदरणीय एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है । बडे से बडे भोगी राजा, महाराजा, चक्रवर्ती तक एक अंकिचन-सन्त महात्मा के चरणो झुकते रहे है। भोगियो का कोई नाम भी नही लेता, जबकि त्यागियो का नित्य स्मरण व जाप किया जाता है । जो व्यक्ति अपने ही स्वार्थ या भोगो में मस्त रहता है उसे कोई भी श्रद्धा से नही देखता। श्रद्धा भाजन वही बनता है जो दूसरे के भले के लिये अपने स्वार्थ का परित्याग करें। त्याग, दोषो का होता है, गुणो का नही। जितने अशो मे दुर्गुण, दुर्व्यसन असत् अंग व असत् प्रसंगो का त्याग किया जाएगा, उतना ही गुणो का विकास होगा। इस प्रकार भगवान महावीर जेसे आदर्श त्यागी से हमे त्याग की महान शिक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को धन्य बनाना चाहिये। पर ये ध्यान रहे कि हमारा त्याग दिखाऊ न हो, किसी दवाव से न हो, अतः वाहर की वस्तुओ को त्याग देने पर भी यदि अन्तर मे उनकी इच्छा बनी रहती है तो वह वास्तव में त्याग नही, त्याग और वैराग्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है । वैराग्य में पुनः शिथिलता आना सम्भव है । भगवान महावीर की स्मृति रूप जयन्ती मनाते हुए हम त्याग धर्म को अधिकाधिक अपनावे यही जयन्ती मनाने की सार्थकता है।
SR No.010268
Book TitleJain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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