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वास्तव में क्षमा-क्षमता सहन शीलता मनुष्य का एक ऐसा गुण है जो दो नही, तीन नही, हजारो, लाखो और करोडों मनुष्यी को जोडता है उन्हे एक-दूसरे के निकट लाता है। संयुक्त राष्ट्र संघ जेसी विश्व संस्था, इसी केबल पर खडी हो सकी है और जब तक उसमे यह गुण रहेगा तब तक वह वना रहेगा।
तीर्थकर महावीर में यह गुण अतीव था। फलतः उनके निकट जाति और प्रकृति विरोधी प्राणी-सर्पनेवला, सिंह-गाय जैसे भी आपसी बैर भाव को भूलकर आश्रय लेते थे। मनुष्यों का तो कहना ही क्या १ उनकी दृष्टि में मनुष्य मात्र एक थे। हॉ, गुणो के विकास की अपेक्षा उनका दर्जा ऊँचा होता जाता था। और अपना स्थानग्रहण करता जाता था। जिनकी दृष्टि पूत हो जाती थी वे सम्यकृष्टि, जिनका दृष्टि के साथ ज्ञान पवित्र (असदाभवमुक्त) हो जाता था वे सम्यकज्ञानी और जिसका दृष्टि और ज्ञान के साथ आचरण भी पावन हो जाता था वे सम्यक चारित्री कहे जाते थे और वैसा ही उन्हे मान सम्मान मिलता था।
क्षमा यथार्थ में अहिंसा की ही एक प्रकाशपूर्ण किरण है, जिससे अन्तरतम सुआलोकिस हो जाताहै। अहिसक प्रथमतः आत्मा ओर मन को वलिष्ठ बनाने के लिये इस क्षमा को भीतर से विकसित करता, गाढ़ा वनाता और उन्नत करता है । क्षमा के उन्नत होनेपर उसकी रक्षा के लिये हृदय मे कोमलता सरलता और निर्लोभवृति की बाकी (रक्षकावलि) रोपता है । अहिसा को ही सर्वा गपूर्ण बनाने के लिये सत्य, अचौर्य, शील और अपरिग्रह की निर्मल एवं उदान्त वृतियो का भी वह अहर्निश आचरण करता है।
अहिंसा का वास्तिवक स्वरूप
सामान्यतया अहिसा उसे कहा जाता है जो किसी प्राणी को न मारा जाय । परन्तु वह अहिंसा की बहुत स्थूल परिभाषा है । तीर्थकर महावीर ने अहिसा उसे बतलाया जिससे किसी प्राणी को मारने का न मन में विचार आये, न वाणी से कुछ कहा जाय और न हाथ आदि की क्रियाए की जाये । तात्पर्य यह कि हिंसा के विचार, हिंसा के वचन और हिंसा के प्रयत्न न करना अहिसा है। यही कारण है कि एक व्यक्ति हिसा का विचार न रखता हुआ ऐसे वचन वोल देता है या उसकी क्रिया हो जाती है जिससे किसी जीव की हिसा सम्भव है तो उसे हिंसक नहीं माना गया है। प्रमत्तयोग कषाय से होनेवाला प्राण व्ययरोपण ही हिंसा है। हिंसा और अहिमा वस्तुतः व्यक्ति के भावो पर निर्भर है। व्यक्ति के भाव हिसा के है तो वह हिसक है और यदि उसके भाव हिंसा के नही है तो वह अहिसक है। इस विषय में हमे वह मछुआ और कृषक उदाहरण है मछुआ जो जलाशय में जाल फेलाये वेठा है और प्रतिक्षण मछली ग्रहण का भाव रखता है, पर मछली पकड मे नही आती तथा कृपक जो खेत जोतकर अन्न उपजाता है
और किसी जीव के घात का भाव नही रखता, पर अनेक जीव खेत जोतने से मरते हैं। वास्तव में मछुआ के क्षणक्षण के परिणाम हिंसा के होने से वह हिसक कहा जाता है और कृषक के भाव हिमा के न होकर अन्न उपजाने के होने से वह अहिंसक माना जाता है। महावीर ने हिसा-अहिमा को भाव प्रधान बतलाकर उनकी सामान्य परिभाषा से कुछ ऊँचे उठकर उक्त सुक्ष्म परिभाषाएं ऐमी है जो हमे पाप और वंचना से वचाती है तथा तथ्य को स्पर्श करती है।
अहिसक दृष्टिकोण व आवश्यक हिंसा
अहिंसक खेती कर सकता है, व्यापार धन्धे कर सकता है और जीवन रक्षा तथा देश रक्षा के लिये शस्त्र भी उठा सकता है क्योकि उसका भाव आत्मरक्षा का है, आक्रमण का नहीं। यदि वह बाक्रमण होनेपर उसे सह लेता है तो उसकी वह अहिसा नही है, कायरता है। कायरता से वह आक्रमण महता है और कायरता में भय था