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________________ भगवान महावीर-उनका जीवन और सन्देश लेखक-कैलाश जिन्दल, एम. ए. एल. एल. बी. आई. आर. एस. ऐडवोकेट भगवान महावीर का जन्म ईसा से ५०६ वर्ष पूर्व हुआ था। उसके पिता वैशाली गणतन्त्र राज्य की क्षत्रीय जाति के नाम बंश के प्रमुख थे। पटना से २७ मील उत्तर आज कल वेसढ़ गॉव है। वही पहले वैशाली गणराज्य था। वर्धमान स्वामी-जिन्हे सन्मति, वीर, और महावीर भी कहते है-३० वर्ष की अवस्था मे अपने कुटुम्बी जन से विदा लेकर, जंगल मे एकान्त-वास के लिये चले गये। वारह वर्ष ध्यान लगाने के उपरान्त उन्हें ससार के दुःखो का कारण पता लगा और उनसे मुक्ति पाने का द्वारा भी। बारह वर्ष की तपस्या और ध्यान से जो ज्ञान प्राप्त हुआ, उसका महावीर स्वामी ने तीस वर्ष तक प्रचार किया। और फिर बिहार में पावापुरी स्थान से निर्वाणगति को प्राप्त हुये। __ केवली बर्द्धमान के मुख से जो वाणी मुखरित होती थी-उसका मुर्ख और पण्डित, पशु और पक्षी सभी अपनी अपनी भाषा मे समझ लेते थे। वाणी का सन्देश था कि आत्मा-अहम-अनादि और अनन्त है । ज्ञान आत्मा का स्वरूप है। आत्मा के विना ज्ञान नही, और ज्ञान के विना आत्मा नही। संसारी जीव केवल आत्मा नही है। संसार में दो ही वस्तु है-जीव और अजीव । जीव का अजीव के विना अस्तित्व ही नहीं, किन्तु अजीव का जीव के विना अस्तित्व है। जड और चेतन के सम्मिश्रण को ही “जीवात्मा” कहते है। आत्मा स्थूल या सूक्ष्म पदार्थ से थोडे समय के लिये या अधिक समय के लिये, भारी तौर पर या हल्की तौर पर, निरन्तर बॅधी रहती है, घिरी ) रहती है, ये ही वन्धन समस्त सृष्टि की अभिव्यक्ति है-मानवी और अमानवी। "कर्म शब्द से सभी परिचित है। भगवत् गीता में इसका विवरण है ।" जैसा बोवोगे, वैसा काटोगे प्रचलित जनश्रुति है । परन्तु जैन दर्शन मे "कर्म” शब्द का दूसरा ही विशेष अर्थ है । "कर्म" जैन धर्म के अनुसार सूक्ष्म परमाणु को कहते है, जो इन्द्रियो के परे है, वैज्ञानिक यन्त्रो को अप्राप्य है। यह परमाणु सारी सृष्टि मे प्रचुर मात्रा में फैले है। जीवात्मा की इच्छाओ और वासनाओ से प्रचोदित परमाणु ही "कर्म” का रूप धारण करता है। जीव जड पदार्थ से सर्वदा और सर्वथा प्रभावित होता रहता है । लिखित शब्द, बनाई हुई तस्वीर, ढली हुई मति, इमारत और खण्डर, मेज, कुर्सी-सभी पदार्थों से भावो का उद्रेक होता है, भले ही वह उद्रेक हानिकर होयस्कर, शरीर और मन को शान्ति देनेवाला हो, या विचलित करने वाला। ये अदृष्ट अगोचर "कम" का महान प्रभाव है। आत्मा को को भिन्न रूप और स्वरूप में भिन्न तादाद और घनत्व में, भिन्न समय के लिये अपनी और आकष्ट करती है और अपने में मिला लेती है। मन-वचन-काय की हर क्रिया की प्रतिक्रिया “कर्म-बन्धन" है। कर्मों का आना अथवा कर्मों द्वारा आत्मा का बंध जाना "बंध" कमों का रूकना “संवर" कर्मों से छटकारा “निर्जरा” इन चार अवस्थाओं का निरूपण और विवेचन जैन आचार्यों ने सहत ही सक्षमता से और । गणित के आधार पर किया है।
SR No.010268
Book TitleJain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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