________________
शरीर धारी आत्मा मे वह शक्ति है कि वह कर्म-बन्धन से मुक्त हो सकती है और अपने स्वच्छ, निर्मल और केवल ज्ञान स्वरूप को प्राप्त हो सकती है। मुक्ति की गति को प्राप्त होने के लिये कई अवस्थाएं है। हर अवस्था भली प्रकार निर्धारित है। आत्मिक उन्नति मिथ्यात्व से सम्यग्दर्शन की ओर होती है, अज्ञान से ज्ञान की ओर, नियम-पालन से पूर्ण नियन्त्रण की ओर, वासनाओं और इच्छाओ के त्याग से मन-वचन-काय की स्पन्दन सहित शान्ति को ओर। यह प्रगति का मार्ग सबके लिये एक सा खुला है। मूल सिद्धान्त है "जीओ और जीने दो-और ऐसे जीओ की तुम्हारे जीने से औरो को कम से कम हानि हो।" इसी सिद्धान्त को मौटी तौर से अहिसावाद कहते है।
अहिसा का पूर्णतया पालन तो पहुँचे हुये साधु ही कर सकते है-वह साधु जिन्होने "अहम् का आत्मा का असली स्वरूप जान लिया है, जो अपने ध्यान में इतने मग्न है कि उनको काया को कोई कुछ भी करे या उसके विषय मे कुछ भी कहे, उन्हे कोई भी फरक नही पडता। उन्हे कोई भी असर नही होता। फिर भी अहिंसा का पालन सवही लोग यथाशक्ति कर सकते हैं। जितना अहिसा का पालन किया जायगा, उतनो ही मन को सुख और शान्ति मिलेगी।
यदि हम इतिहास के पन्ने उलटे तो हमे स्पष्ट ज्ञात हो जायगा कि मनुष्य हिसा से अहिंसा की ओर झुकता गया है। हमारे आदि पूर्वज नर-भक्षक थे। फिर समय जब मनुष्य ने मनुष्य को खाना छोड़ दिया और आखेट करके शशु-पक्षियो का मांस खाना शुरु कर दिया। फिर आगे चलकर मनुष्य ने आखेट के लिए पीछे जंगलो में भटकना छोड दिया , और एक जगह स्थिर होकर खेती करना शुरु कर दिया। धरती माता से अन्न उपजाने लगा। चरागाह और रमते गडेरिये का जीवन छोडकर, सॉस्कृतिक जीवन अपनाया। गॉव और शहर बसाये। कुटुम्ब की सीमाओ से निकलकर जाति और समाज की ओर देखने लगा। यह सब चिन्ह बढ़ती हुई अहिंसा और घटती हुई हिसा का द्योतक है। ऐसा न होता तो मनुष्य-जाति का कभी भी अन्त हो गया होता, जेसे कि बहुत से निम्न श्रेणी के जीवो का हो गया है।
सभी पीर-पैगाम्बरो ने अहिसा का मार्ग दिखलाया है। किसी ने भी हिंसा का प्रचार नही किया। और ऐसा हो भी कैसे सकता था। अहिसा मनुष्य-जाति का नियम है, जैसे हिसा पशु जाति का। आत्मा पशे में निद्रित अवस्था मे रहती है और पशु शारीरिक-शक्ति के अतिरिक्त और कोई शक्ति जानता नही । परन्तु मनुष्य की मानवता उसे दूसरी और पुकारती है और आत्मिक बल का संकेत देती है।
"योद्धाओं में जैसे वासुदेव श्रेष्ठ हैं, पुष्पों में जैसे अरविन्द श्रेष्ठ हैं, क्षत्रियों में जैसे दन्तवक्र श्रेष्ठ हैं उसी तरह वर्द्धमान ऋषियों मे श्रेष्ठ थे।
दानों में जैसे अभयदान श्रेष्ठ हैं, सत्य में जैसे निरवद्य वचन श्रेष्ठ हैं, तप में उत्तम ब्रह्मचर्य तप हैं, उसी तरह नायपुत्त लोगों में उत्तम श्रमण थे।