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जैन कथाओं में नारी
युगों के परिवर्तन के साथ नारी की स्थिति परिवर्तित हुई और उसने कभी सम्मान प्राप्त किया तो कभी निरादर की विषाक्त घट पीकर स्वय को धिक्कारा । कभी वह नर की दासी बनी और उसे आराध्य माना तो कभी सेविका बनकर उदर-पूर्ति के लिए दर-दर मारी फिरी । स्वार्थी पुरुष ने इस त्यागमयी नारी को अपने दासत्व मे रखकर ही सुख की सांस ली । उसे ज्ञात था कि एक बार स्वतत्र होने पर नारी अपनी प्रतिभा के बल पर सारे विश्व को प्रभावित कर सकती है। धर्मशास्त्री ने नारी की स्वतन्त्रता पर अनेक अ कुश लगाए और सदैव उसे शका की भावना से देखा । सहिष्णुता की प्रतिमा इस देवी ने सब कुछ सहा और शन शन अपने आपको चेरी मानने मे ही आनन्द का अनुभव किया, किन्तु निरन्तर अपमानित होने से उसकी आत्मा ने विद्रोह किया और नीति-निपुण पुरुष ने अपना दृष्टिकोण बदलकर उसे कुछ अधिकार देने का आश्वासन दे दिया।
नारी की बर्बादी और आजादी की एक लम्बी कहानी है । सन्त कवियो ने तो इसी जननी रूपा नारी को विषय-वासना की प्रतिमूति कहकर नरक द्वार के रूप मे इसे अपमानित किया और सर्पिणी से भी अधिक भयानक इसे बताया । हाँ कतिपय काव्यकार एव लेखक ऐसे भी हए जिन्होने नारीनिंदा की कटु आलोचना की और शक्ति स्वरूप नारी को विश्व-सस्कृति की आधार-भूमि बताया। श्री अद्भुत शास्त्री ने अपनी 'नारी' शीर्षक कविता मे इस महिमामयी की इस प्रकार वदना की है: