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जैन कथाओ मे न्याय व्यवस्था
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के बाद कुष्ठ रोग हो गया, जिससे उसका शरीर गल गया । अन्त मे मर कर वह छठे नरक मे गई।"
(पूतिगध और दुर्गधा की कथा, पुण्याश्रव कथाकोश, पृष्ठ २५५)
"उसी नगर मे एक और सुमित्र नाम का वरिणक् रहता था । उसकी स्त्री वसुकान्ता से एक श्रीषेण पुत्र था । जो रात दिन सातो व्यसनो मे लीन रहता था। एक दिन उसे कोतवाल ने चोरी करते हुए पकड लिया । इस अपराध मे राजा ने उसे शूली की आज्ञा दे दी "
(पूतिगध और दुर्गधा की कथा-पुण्याश्रव कथाकोश पृष्ठ २५३)
नागश्री ने उसकी यह दशा देखकर सोमशर्मा से पूछा-"पिताजी बेचारा यह पुरुप इस प्रकार निर्दयता से क्यो मारा जा रहा है ?' सोमशर्मा बोला-"वच्ची, इस पर एक वनिए के लडके बरसेन का कुछ रुपया लेना था । उसने इससे अपने रुपयो का तकादा किया । इस पापी ने उसे रुपया न देकर जान से मार डाला । इसलिए उस अपराध के बदले अपने राजा ने इसे प्रारण दड की सजा दी है।"
(सुकुमाल मुनि की कथा-आराधना कथाकोश भाग २ पृष्ठ २१८)
राजा ने चण्डकीति नाम के अपने कोतवाल को बुलाकर कहा"थैली के चुराने वाले मनुष्य को ला वरना तेरा सिर कटवा दिया जायेगा।' कोटवाल पाच दिन के अदर चोर को पेश करने का वायदा कर चारो को साथ ले अपने घर गया और उदास हो पलग पर लेट गया ।
(सूर्य मित्र और चाण्डाल पुत्री की कथा-पुण्याश्रव कथाकोश पृष्ठ १४२)
थोडी दूर जाने पर उन्होने एक स्त्री देखी, जिसकी नाक कटी हुई थी और पुरुष की चोटी से उसका गला बंधा हुआ था। नागश्री ने पूछा"पिताजी, इसकी ऐसी दशा क्यो हुई ?" नागशर्मा वोला-'इसी नगरी-"मे मात्स्य नाम के सेठ की जैनी नाम की स्त्री है । उसके गर्भ से नन्द और नाम के दो पुत्र हुए थे । नन्द जव व्यापार करने विदेश जाने लग, मामा सूरसेन से कहा-मामा, मै द्वीपान्तरो मे आऊँ अपनी पुत्री मदाली का व्याह किसी से न