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जैन कथानो की रचना प्रक्रिया
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कतिपय कथाएँ ऐसी भी उपलब्ध होती है जिनका प्रारभ एक लघु प्रस्तावना से किया जाता है तथा प्रकृति वर्णन, राजवैभव-चित्रण, नागरिक सौन्दर्य चर्चा, नीति-सिद्धान्त-विवेचना, स्वर्ग-विलास-विभूति-दिग्दर्शन, चक्रवर्तीवैभव-निरूपण, आदि के माध्यम से कथानक मे कई मोडो की कल्पना को साकार बनाया जाता है। ऐसी कथानी की रचना-विधि एक विशद प्रकार की कही जा सकती है । कुछ ऐसी भी कथाएं है जो राजा श्रेणिक के प्रश्न के उत्तर मे गौतम स्वामी द्वारा कही जाती है जिनमे कथा-श्रवण के फल का उल्लेख रहना है एव कथा की गरिमा से सलग्न व्रतादि का विधान बताया जाता है।
एक प्रकार की विशिष्ट कथाएँ और भी है जिनकी कथावस्तु सक्षिप्त मे प्रस्तुत की जाती है। इनका पूरा कथानक प्रश्नोत्तर मे ही समाप्त हो जाता है। एक रोग-पीडित अथवा दुखी पात्र किसो मुनिराज से पापोदय का कारण पूछता है और वे (मुनिराज) उसे पाप के उदय का हेतु बताते है। कथा पूरी हो जाती है। ऐसी कथानो का शिल्प-विधान शरद-कालीन सरिता के प्रवाह के समान बडा ही सरस और सीधा होता है । बोल चाल की भाषा ही ऐसी कथायो में प्रयुक्त होती है एव छोटे-छोटे वाक्यो के द्वारा कथा का प्रारभ होता है और समाप्ति की जाती है
दुर्गन्धा ने बदना करके मुनि से पूछा-मैं किस पाप के उदय से ऐसी दुर्गन्ध युक्त हुई हूँ? मुनि ने कहा-सोरठ (गुजरात) देश मे एक गिरिनगर है । उसका राजा भूपाल और रानी स्वरूपवनी थी। उसी नगर का एक सेठ गगदत्त और उसकी स्त्री सिंधुमती थी। एक समय जब वसन्त ऋतु अपनी निराली छटा और अपूर्व शोभा दिखा रहा था राजा ने कीडा करने और वसन्त की शोभा देखने का विचार किया। इत्यादि (पुण्यास्रव कथा कोष पृष्ठ २५)
ये कथाएं गद्यात्मक, पद्यात्मक, एव गद्यात्मक पद्यात्मक (मिश्रित) इस प्रकार तीन प्रकार की होती है। इन तीनो प्रकार की कथायो का शिल्पविधान पृथक-पृथक होता है। गद्यात्मक कथानो के मध्य मे कथाकार समुचित एव भावपूर्ण पद्य रखकर रचना-प्रक्रिया को विशेष आकर्षक बनादेते है । लोकोक्तियो एव मुहावरो के प्रयोग से भाषा की व्यजना शक्ति अधिक बलवती बन जाती है। मानव-हृदय की गहन अनुभूतियो को चित्रित करनेवाली ये कथाएं कभी दाम्पत्प-प्रेम को प्रदर्शित करती है तो कभी आध्यात्मिक भावना को 'चित्रित करती हैं। प्रेम, घृणा, हिंसा, प्रतिहिसा, वात्सल्य, क्रोध,