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जैन कथानो की सार्वभौमिकता
जैन साहित्य की उपदेश-परक प्रवृत्ति ने (जो जैन-कथानो मे अधिक मिलती है) भारतीय सन्त साहित्य को अधिक प्रभावित किया है -"दूसरी प्रधान धारा जैन साहित्य मे उपदेश की है, यह अधिक प्राचीन है। यह उपदेशात्मकता हमे भारतीय साहित्य मे सर्वत्र मिल सकती है, लेकिन जैन साहित्य की उपदेशात्मकता गृहस्थ जीवन के अधिक निकट आ गई है। भाषा और उसकी सरलता इसके प्रधान कारण है। वर्तमान साधु वर्ग पर जैन साधुनो और सन्यासियो का अधिक प्रभाव प्रतीत होता है। जो हो हिन्दी साहित्य मे इस उपदेश (रहस्यवाद मिश्रित) परम्परा के आदि प्रवर्तक कबीरदास है और उनकी शैली, शब्दावली का पूर्ववर्ती रूप जैन रचनायो मे हमे प्राप्त होता है । सिद्धो का भी उनपर पर्याप्त प्रभाव है । यह कहना अनुचित और असगत न होगा कि हिन्दी की इस काव्य धारा पर भी जैन साहित्य का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।"
कुन्दकुन्दाचार्य, योगीन्दु देवसेन और मुनि रामसिंह इत्यादि कवियो की उपदेश प्रधान शैली और सन्त साहित्य की शैली मे बहुत समानता है ।"
(जैन साहित्य की हिन्दी साहित्य को देन, ले० डॉ० रामसिह तोमर प्रेमी अभिदन्दन ग्रन्थ पृष्ठ ४६७)
जैन कथा साहित्य की लोक-प्रियता का सबसे प्रवल प्रमाण यह है कि आज से दो हजार वर्ष पूर्व जैन कथाकारो ने जिन कहानियो का प्रणयन किया वे आज भी लोक कथानो के रूप मे भारत के सभी प्रदेशो मे प्रचलित है। जैन आगमो मे राजा श्रेणिक के पुत्र अभय कुमार के बुद्धिचातुर्य की जो कथा है वह अपने उसी रूप मे हरियाणा के लोक-साहित्य मे अढाई द्वत की कथा के नाम से प्रसिद्ध है और दक्षिण के जैमिनी स्टूडियो ने इस कथा के आधार पर 'मगला' चित्रपट का निर्माण किया है। इसी प्रकार शेर और खरगोश की कहानी जिसमे खरगोश शेर को कुए मे अन्य शेर की परछाई दिखाकर ठगता है । 'भिखारी का सपना' जिसमे स्वप्न मे हवाई किला बनाता हुआ भिखारी अपनी एकमात्र सम्पत्ति दूध की हाडी को फोड डालता है । 'नीले सियार की कहानी' जिसमे सियार अपने को नीला रग मे रगकर जगल का राजा बन बैठता है । बन्दर और बया की कहानी, जिसमे बन्दर वया के उपदेशो को अनसुना करके उसके घोसले को नष्ट कर डालता है आदि अनेक कहानियाँ अाज भी सर्व साधारण में प्रचलित है। ये ही कहानियाँ जैन साहित्य के अतिरिक्त हमे बौद्धजातको, पचतत्र, हितोपदेश, कथा सरित्सागर