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________________ वसो का राष्ट्रीयकरण इसी का एक अंग है। गेहूँ एव चावल के व्यापार एव वितरण का राष्ट्रीयकरण भी समाज - बाद की दिशा में पहले सीठी बतायी जाती है। स्वयं इन्दिरा गाँधी ने इन सबको समाजवाद की दिशा में अग्रसर होना बतलाया है। लेकिन अपरिग्रहवाद में अहिंसा की प्रधानता है । वहाँ न संगीनो का भय है और न अधिनियम को व्यवस्था है किन्तु व्यक्ति स्वयंमेव अपनी आवश्यकताओ को कम से कम करता है । इस व्यवस्था में हृदय का परिवर्तन है तथा अहिंसा प्रेम एवं सहानुभूति की प्रधानता है । साम्यवाद परस्पर में घृणा, इर्ष्या एवं मनमुटाव को जन्म देता है । समाजवाद में अधिनियमो के अधार पर दूसरो की सम्पत्ति पर अधिकार कर जाता है जब कि अपरिग्रहवाद मे मनुष्य स्वयंमेव त्याग की ओर प्रवृत होता है तथा समाज में एक दूसरे के प्र प्रेम एवं सद्भाव को प्रोत्साहन मिलता है । साम्यवाद विचारधारा मे व्यक्ति मे सार्वजनिक कल्याण की कोई भावना नही रहती । यद्यपि वहां सभी को विकास के समुचित अवसर प्रदान किये जाते है फिर भी मनुष्य अपनी बुद्धि, प्रतिभा एवं साधनो के आधारपर अपना विकास करता है। इसी तरह समाजवादी व्यवस्था मे भी स्वपर कल्याण की भावना कम होती जाती है । सो का राष्ट्रीयकरण के पहले निज बसो के मालिको द्वारा स्थान-स्थान पर जलग्रह की व्यवस्था की जाती थी, वृद्धो अपाहिजो एवं असहायों के लिये कल्याणकारी कोष स्थापित थे लेकिन अब उसका कोई प्रश्न नही है क्योकि सभी राष्ट्रीय संपत्ति बन चुकी है । अपरिग्रहवाद मे दया एवं दान का विधान है। त्याग का सर्वोपरी स्थान है तथा मनुष्य में दूसरो के प्रति कल्याण करने की भावना की प्रमुखता है । औषध - दान, ज्ञानदान, अहारदान एवं अभयदान, सभी का इसमे विद्यमान है । समाजवादी व्यवस्था मे यद्यपि हिसा को कोई स्थान नही है लेकिन कानून के आधार पर दूसरो की सम्पत्ति पर जबरन कब्जा करने का विधान है। देश मे जो आज राष्ट्रीयकरण का जोर है वह सब इन्ही विचारो के कारण है । इस व्यवस्था में मनुष्य अपने विकास को अन्तिम सीमा तक नही जा सकता । व्यापारी अपने व्यापार को विस्तार करने से डरता है । उद्योगपति बड़े-बडे उद्योग लगाने मे हिचकता है और किसान को उन्मक्त रूप से खेती करने का अवसर नही मिलता। सबको सिमित कर दिया गया है । सीमाएं बाँध दी गयी है और सीमा से अधिक होने पर उसे राष्ट्र की सम्पत्ति घोषित कर दिया जाता है । लेकिन अपरिग्रहवाद में सीमा का बन्धन होने हुए भी उसमें व्यक्ति को अपने विकास का पूर्ण अवसर मिलता है। इसके अतिरिक्त अपरिग्रहवाद में केवल वाध्य में परिग्रह पर ही अंकुश लगाने की व्यवस्था ही नहीं है किन्तु मनुष्य को अपनी आन्तरिक बुराइयो एवं कमियो से बचने का भी प्रावधान है । वह केवल खेत, मकान, धन, धान्य, वस्त्र, पशुधन, सवारी, सय्या, एवं आसन आदि की आवश्यकताओ पर ही अंकुश लगाने को नही कहता किन्तु, क्रोध, मान, माया, लोभ तथा रति, अरति, शोक, भय और घृणा जैसी बुराइयो पर भी अंकुश रखने की व्यवस्था करता है । वास्तव में महावीर ने मानव की स्वभाविक कमजोरी पर ध्यान दिया और उसको दूर करने का उपदेश किया। आज देश में जो संस्कृति के स्थान है, पूजा एवं उपासना के स्थान है वे भी हमारी इसी अपरिग्रहवादी विचार धारा के प्रतीक है | साम्यवाद एवं समाजवाद में ऐसी प्रवृतियो के लिए कोई स्थान नही | इस प्रकार अपरिग्रह वर्तमान युग के लिये सबसे अच्छी रामवाण दवा है जो एक और मनुष्य के अपने विकास की पूर्ण स्वतन्त्रता देता है वहाँ दूसरी ओर वह अतिसंग्रह पर अंकुश लगाने की भी प्रेरणा देता है । यह एक ऐसी अहिंसक पद्धति है जिसमें कल्याणकारी समाज की व्यवस्था है। ऊँच-नीच, धनी निर्धन के भेद भाव को भुलाकर मानव मात्र में प्रेम, सद्भावना एवं कल्याणकारी भावना को प्रोत्साहित करता है । यही नही वह मनुष्य की आन्तरिक बुराइयो के सग्रह पर भी रोक लगाता है और इन बुराइयो को जीवन से निकाल कर शुद्ध एव पावन जीवन निर्माण की ओर प्रेरणा देता है क्योकि जब तक मानव जीवन मे इन बुराइयों पर नियन्त्रण नही होगा तब तक जीवन मे सुख एवं शान्ति के साथ ही कल्याणकारी भावना की उत्पत्ति भी नही हो सकेगी। _-_-XX-~-~-~-~-~
SR No.010268
Book TitleJain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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