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जैन कथानो का सास्कृतिक अध्ययन
हैं। यह रूप की प्यास कभी मिटती ही नही है । कविवर विहारी के शब्दो मे छवि का छाक और सव नशो से बडा विषम होता है
उर न टरै, नीद न परै, हरै न काल-विपाकु छिनकु छाकि उछकै न फिरि, खरौ विषमु छवि-छाकु ।
(बिहारी-रत्नाकर पृ ३१८) 'जिगर' साहव इस नशे की तारीफ करते हुए कहते हैयह नशा भी क्या नशा है,
कहते है जिसे हुस्न । जब देखिए कुछ नीद सी,
आँखो मे भरी है। (हुस्न सौन्दर्य) कवि प्रसाद ने सौन्दर्य को चेतना का उज्वल वरदान कहा हैउज्वल वरदान चेतना का,
सौन्दर्य जिसे सब कहते हैं। जिसमे अनन्त अभिलाषा के, सपने सब जगते रहते है।
(कामायनी) "सौन्दर्य की परिभाषा के सम्बन्ध मे विभिन्न मत है । गार्टेन सौन्दर्यशास्त्र के जनक माने जाते है। उनके मतानुसार तार्किक ज्ञान का लक्ष्य सत्य है और रागात्मक ज्ञान का लक्ष्य सौन्दर्य है। सल्जर, मौलि आदि के मत गार्टन के मत के प्रतिकूल हैं। वे कला का लक्ष्य सौन्दर्य नही पर शिव मानते हैं और इसलिए वे उसी वस्तु मे सौन्दर्य मानने है जो शिव-समन्वित हो । उनके मतानुसार मानव-जीवन का लक्ष्य समाज कल्याण है, जिसकी प्राप्ति नैतिक भावनाओ के सस्कार से ही सभव है। सौन्दर्य इसी भावना को जाग्रत और सस्कृत करने का कार्य करता है। इनका दृष्टिकोण सुन्दर शरीर मे सुन्दर प्रात्मा के सिद्धान्त का समर्थक है। बकेलमेन समस्त कला का विधान और लक्ष्य केवल सौन्दर्य को मानते और सौन्दर्य को रूप सौन्दर्य विचार सौन्दर्य तथा अभिव्यक्ति सौन्दर्य के रूप में विभाजित करते है । जर्मन विद्वानो ने सौन्दर्य को एक ऐसी वस्तु समझा है जो निर्विकल्प रूप से स्थित है और न्यूनाधिक प्रमाण से शिव युक्त है । 'होम' सौन्दर्य उसे मानते है जो सुखद हो । .