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जैन कथाओ मे सौन्दर्य-बोध
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अतः सौन्दर्य की परिभापा रुचि के अधीन है। फ्रेंच विद्वानो का भी यही मत है। काण्ट के मतानुमार सौन्दर्य वह है जो बिना किसी तर्क या व्यावहारिक लाभ के सदैव निश्चित रूप से यानन्द प्रदान करता है। यगमैन वस्तुओ के इन्द्रियातीत गुण को सौन्दर्य समझते है । तेन के अनुसार सौन्दर्य किसी महत्वपूर्ण विचार के अनिवार्य लक्षण का पूर्णतम प्रकाशन
बाह्य सौन्दर्य और आन्तरिक सौन्दर्य इस प्रकार दो रूपों में विभाजित सौन्दर्य के कुछ अावश्यक गुण भी माने गए है। काव्य मे जिस समन्वित सौन्दर्य की सृष्टि होती है उसके छः अावश्यक गुण आधुनिक सौन्दर्य शास्त्र मे माने गए है। वे है (१) समतुल्यता (२) सगति या सम्यकता (३) ताल (४) सन्तुलन (५) अनुपात और (६) एकता।'
___ सतत सुख का जनक सौन्दर्य तो सद्य व प्रतिक्षरण वर्द्धमान है विकाशशील है, यदि वह ऐसा नही है तो उसे हम सौन्दर्य नही कह सकते है। सस्कृत के महाकवि माघ ने भी इस तथ्य को इस प्रकार प्रकट किया हैक्षणे क्षणे यन्नवतामुपैति तदैव रूप रमणीयताया ।' पल-पल मे विकासोन्मुख सौन्दर्य की भावना को रीतिकाल के सुप्रसिद्ध महाकवि विहारी ने एक अयुरित-यौवना नायिका की क्षण-क्षण मे बढती हुई शरीर काति की सखी द्वारा प्रशसा कराकर इस प्रकार अभिव्य जित किया है -
लिखन वैठि जाकी सबी, गहि गहि गरब गरूर । भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर
(विहारी रत्नाकर ३४७) भला मै बेचारी उसकी प्रतिक्षण बढती हुई शोभा का वर्णन क्या कर सकती है, जिसका यथार्थ चित्र लिखने के निमित्त घमड तथा अभिमान से भर-भर कर बैठे जगत के कितने चतुर चितेरे असफल हुए है। बाह्य सौन्दर्य चित्रण मे कवियो एव कलाकारो ने अलकारादि को भी अपनाया है। कतिपय सौन्दर्य प्रेमी काव्यकारो ने खूबसूरती के लिए भूषणो को अनावश्यक बताया है- स्वय सुन्दरता के अनन्य प्रमी बिहारी ने सोने के गहनो को दर्पण के मोरचे एव पावदान के रूप में कहा है
1. साहित्यिक निवन्ध ले० डॉ० कृष्णलाल (सूरसाहित्य मे सौन्दर्य
भावना-पृष्ठ १२८) 2. साहित्य का विश्लेपण-ले० डॉ० वासुदेव नन्दन प्रसाद पृष्ठ ७१