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________________ १४४ जैन कथाओ का सास्कृतिक अध्ययन पहिरि न भूपन कनक के, कहि प्रावत इहि हेत । दरपन के से मोरचे, देत दिखाई देत । ( बि रत्नाकर २३५ ) मानहु विधि तन ग्रच्छ छबि, स्वच्छ राखिने काज हग-परा-पोछन कौं करे, भूषन पायदाज । ( बि रत्नाकर ४१३ ) लेकिन केशवदास, देव आदि कुछ ऐसे भी रसिक कवि है जिन्हे अनलकृत कामिनी का सौन्दर्य सलौना नही लगता है । यदि अर्थाकारविहीना सरस्वती इन्हे विधवा के समान ग्रसुन्दर लगती है (अर्थाकार रहिता विधवैव सरस्वती) तो फिर भूषणो से रहित वनिता का इन काव्यकारो की दृष्टि मे शोभना प्रतीत होना स्वाभाविक ही है जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुवरन सरस सुवृत्त । भूषन विनु न विराजई, कविता कामिनि सुखद पद, सुवरन सरस सुजाति । अलकार पहिरे अधिक, अद्भुत रूप लखाति (देव) कविता बनिता मित्त | ( केशवदास ) 1 बाह्य साज-सज्जा सौन्दर्य के निखार मे कुछ शो तक अवश्य सहायक बनती है । गोरे रंग पर श्याम साडी आकर्षक लगती ही है । इसी प्रकार नील परिधान भी तो गोरी गर्वीली कामिनि के सौन्दर्य मे अभिवृद्धि करता ही है । नारी सौन्दर्य चित्रण में सिद्धहस्त कविवर प्रसाद ने अपने प्रसिद्ध महाकाव्य कामायनी मे श्रद्धा की सुन्दरता का वडा ही आकर्षक चित्रण किया है, और उसमे बाह्य साज-सज्जा को भी अपनाया है नील परिधान बीच सुकुमार, खुल रहा मृदुल अधखुला अग । खिला हो ज्यो बिजली का फूल, मेघ बन बीच गुलाबी रंग । खूबसूरती को अधिक वाचाल बनाने मे हाव-भाव, ग्रदा, नाजो नजाकत यादि का भी उल्लेख्य सहयोग माना गया है । प्राय समस्त कवियो एव
SR No.010268
Book TitleJain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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