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आँखो में किरकिरी गिर जाती, तो उसे भी वे नही निकालते । ऐसी परिस्थिति मे ऑख को भी वे नही खुजलाते। वे कभी नीद नही लेते थे। उन्हे जब कभी नीद अधिक सताती, वे शीत में मुहूर्तभर चक्रमण कर निद्रा दूर करते । वे प्रतिक्षण जागृत रह ध्यान व कायोत्सर्ग में ही लीन रहते ।
उत्कटक, गोदोहिका, वीरासन, प्रभृति अनेक आसनों द्वारा महावीर निर्विकार ध्यान करते थे। शीत में वे छाया में बैठकर ध्यान करते और ग्रीष्म में उत्क्टुक आदि कठोर आसनो के माध्यम से चिलचिलाती धप मे ध्यान करते। कोई उनकी स्तुति करता और कोई उन्हे दण्ड से तर्जित करता या बालो को खीचता या उन्हे नोचता, वे दोनो ही प्रवृत्तियो में समचित रहते थे। महावीर इस प्रकार निर्विकार, कषाय-रहित, मूर्छा-रहित, निर्मल ध्यान और आत्म-चिन्तन में ही अपना समय विताते ।
महावीर दीक्षित हुए, तब उनके शरीर पर नाना प्रकार के सुगन्धित द्रव्यो का विलेपन किया हुआ था। चार मास से भी अधिक भ्रमर आदि जन्तु उनके शरीर पर मंडराते रहे, उनके मांस को नोचते रहे और रक्त को पीते रहे । महावीर ने तितिक्षाभाव की पराकाष्ठ कर दी। उन जन्तुओ को मारना तो दूर, उन्हे हटाने की भी वे इच्छा नही करते थे।
महावीर ने इस प्रकार की शारीरिक कृच्छ्र साधना पर इतना वल क्यो दिया तथा शरीर के स्वभावी पर वे विजय किस प्रकार हुए, जवकि सामान्यतः कोई भी व्यक्ति शरीर के धर्मों की अवगणना नही कर सकता? ये दो प्रश्न ही महावीर की साधना-पद्धति की विभिन्न भूमिकाओ पर प्रकाश डालते है।
कष्ट-साध्य साधना क्यों ?
सभी अध्यात्मवादियो का दृढ़ विश्वाम है कि आत्मा शरीर रूप कप्सूल मे आबद्ध है। चेतन पर जड का यह आवरण इतना सघन हो गया कि संस्कार विकार में बदल गये हैं और चेतन्य की क्रिया विकारो को सबल करने में प्रयक्त होने लगी है। साधना-चेतन्य और जड की इस दुरभिसंधि को समाप्त करने की क्रिया का आरम्भ करती है। उसकी पहली व्यूह-रचना शरीर के साथ होती है। शरीर के द्वारा आत्मा के होने वाले संचालन को रोकने के लिये उपक्रम आरम्भ होता है और सारा नियन्त्रण आत्मा के केन्द्र से उदभूत होने लगता है। ऐसी स्थिति में अनिवार्यतया अपेक्षा हो जाती है, कृच्छ्र साधना की। एक बार उससे छटपटाहट अवश्य होती है, क्योकि जन्म-जन्मान्तरो से लगा हुआ अनुबन्ध-टूटना प्रारम्भ होता है। किन्तु, ऐसा हुए विना जड-चेतन का पृथककरण नही भी हो सकता।
प्राण-वायु पर विजय
कुछ कप्ट-साध्य साधना से विचलित हो गये। उन्हे अपने मार्ग को भी बदलना पडा। महावीर अपने निर्धारित क्रम मे सफल होते गये। उन्हे मार्गान्तरण की आवश्यकता नहीं हुई। दोनो का एक ही उद्देश्य था। फिर इतना अन्तर क्यो हुआ? इस प्रश्न का उत्तर पाने के लिये कुछ यौगिक क्रियाओं की गहराई में उतरना आवश्यक होगा। माधक को सबसे पहले भूख-प्याम. सर्दी-गर्मी धादि शरीर की अनिवार्य आवश्यकताओं पर विजय पाना होता है। इन सबका सम्बन्ध है, प्राणवायु से | शरीर में पाँच प्रकार की वायु होती है। प्राण-वायु उसमें उत्कट है और उनका सम्बन्ध मन की सूक्ष्म क्रियात्री के साथ है। यही वायु स्नायुयो की प्राण-शक्ति को प्रत्येक कार्य में उदबुद्ध, प्रेरित तथा क्रियाशील करती है। किन्तु, एक प्रक्रिया ऐनी होती है, जिनके द्वारा क्रियाशीलताको में बदला जा सकता है। जब वह इस प्रकार परिवर्तित हो जाती है, शारीरिक अपक्षात्री की पूर्ति न होने पर भी