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________________ जैन कथायों में न्याय व्यवस्था १५३ प्रकार की सुविधा से वे लाभान्वित नही हो पाते थे । कारागारो मे ऐसे ग्रपराधी राजकुमार साधारण कैदियो के समान रखे जाते थे और उन्हे कई प्रकार से वहा भी दडित होना पडता था । "न्याय-व्यवस्था चलाने के लिए न्यायाधीश की आवश्यकता होती है । प्राचीन जैन-ग्रन्थो मे न्यायाधीश के लिए कारणिक अथवा रूपयक्ष ( पालि मे रूपदक्ष ) शब्द का प्रयोन हुग्रा है । चोरी, डकैती, परदारा गमन, हत्या और राजा की यात्रा का उल्लघन आदि अपराध करने वालो को राजकुल ( राउल ) मे उपस्थित किया जाता था । कोई मुकद्दमा (व्यवहार) लेकर न्यायलय मे जाता, तो उससे तीन बार वही बात पूछी जाती, यदि वह तीनो वार एक ही जैसा उत्तर देता तो उसकी सच्ची बात मान ली जाली थी । दीघनिकाय की अट्ठ कथा ( २, पृ० ५१६ ) मे वैशाली की न्याय व्यवस्था का उल्लेख है । जब वैशाली के शासक वज्जियो के पास अपराधी को उपस्थित किया जाता, तब सबसे पहले उसे विनिश्चय ग्रमात्य के पास भेजा जाता । यदि वह निर्दोष होता तो उसे छोड दिया जाता. नही तो व्यावहारिक के पास भेजा जाता । व्यावहारिक उसे सूत्रधार के पास, सूत्रधार कुल के पास, अष्टकुल सेनापति के पास, सेनापति उपराजा के पास, उपराजा उसे राजा के पास भेज देता । तत्पश्चात् प्रवेणी पुस्तक के प्रावार पर उसके लिए दण्ड की व्यवस्था की जाती । न्याय व्यवस्था के कठोर नियम रहते हुए भी न्याय कर्ता राजा वढे निरकुश होते और उनके निर्णय निर्दोष न होते । साधारण सा अपराध हो जाने पर भी अपराधी को कठोर से कठोर दण्ड दिया जाता था । अनेक बार तो निरपराधियों को दण्ड दिया जाता और पराची छ्ट जाते थे । जातक ( ४, पृ० २८ ) मे किसी निरपराध सन्यासी मी मूली पर लटकाने का उल्लेख मिलता है । मृच्छकटिक के चारुदत्त को भी fant near दण्ड दिया गया था ।" 1 1 चोरी करने पर भयकर दण्ड दिया जाता था । राजा चोरो को दोने जी गोटे के कुम्भ मे बंद कर देते, उनके हाथ कटवा देते योर शूली पर पर देना तो साधारण बात थी। राजकर्मचारी चोरो को वस्त्रयुगल पह्नाने, मेंनेर के पुष्प की माला डालते पौर उनके शारीर को तेल से 1. जैन आगम साहित्य में भारतीय नमाज, ले० डॉ० जगदीशचन्द जैन पृष्ठ ६४-५५
SR No.010268
Book TitleJain Kathao ka Sanskrutik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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