Book Title: Dhamvilas
Author(s): Dyantrai Kavi
Publisher: Jain Granthratna Karyalay
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमल जैन श्रीपरमात्मने नमः। पी.टी. स्वर्गीय कविर द्यानतरायजी विरचित धमविलास। D HERE प्रकाशक श्रीजैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय बंबई। निर्णयसागर प्रेस-बम्बई / छोटी मोटी हा छोटे रूपमें छप गये हैं और नहीं समझी गई। 2 जिय नत श्रीवीरनिर्वाण संवत् 2440 Scanned with CamScanner Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by Nathuram Premi Propritor Shri Jain Granth Ratnakar Karyalaya Hirabag, near C. P. Tank Bombay. Printed by R. Y. Shedge, at the Niranaya-Sagar Press 23 Kolbhat Lane, BOMBAY. Scanned with CamScanner Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ या निवेदन / बाल्यावर किती पाठक शहाशय, न लगभग दो वर्ष पहले इस ग्रन्थके छपानेका कार्य प्रारंभ किया गया था, आज इतने समयके बाद तैयार होकर यह आपके हाथों में पहुँचता है / इच्छा थी कि इसके साथ कविवर द्यानतरायजीका परिचय और उनकी रचनाकी आलोचना आपकी भेंट की जाय; परन्तु इस समय मेरे शरीरकी जो अवस्था है उसके अनुसार यही बहुत है कि यह ग्रन्थ किसी तरह पूरा होकर आपतक पहुँच जाता है / लगभग चार महीनेसे मैं अस्वस्थ हूँ और इस कारण बहुत कुछ सावधानी रखनेपर भी इसमें कहीं कहीं कुछ अशुद्धियाँ रह गई हैं उनके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ। यदि कभी इसके दूसरे संस्करणका अवसर मिला तो ये अशुद्धियाँ भी न रहेंगीं और ग्रन्थकर्तीका परिचय और ग्रन्थालोचन भी लिख दिया. जायगा। - धर्मविलास बहुत बड़ा ग्रन्थ है। द्यानतरायजीकी प्रायः सब ही छोटी मोटी रचनाओंका इसमें संग्रह है। परन्तु आप इस ग्रन्थको बहुत ही छोटे रूपमें देखेंगे / इसका कारण यह है इसमेंके कई अंश जुदा छप गये हैं और इस लिए उनकी इसमें शामिल करनेकी आवश्यकता नहीं समझी गई। इसका एक अंश तो जैनपदसंग्रह ( चौथा भाग ) है जिसमें गानतरायजीके सबके सब पदोंका संग्रह है। यह हमने जुदा छपवाया है। दूसरा अंश प्राकृत द्रव्यसंग्रहका पद्यानुवाद है जो द्रव्यसंग्रह सान्वयार्थके साथ साथ छपा है। तीसरा अंश चरचाशतक है जो इसी वर्ष सुन्दर भाषाटीकासहित प्रकाशित किया गया है। Scanned with CamScanner Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामका जोधा अंश भाषापूजाओंका संग्रह है। यह लगभग चार पाँच कार्यमा होगा। इसे हम इसीमें शामिल करना चाहते थे; परन्तु सर्वसाधारण पजाप्रेमी लोगोंके लिए इसका जुदा छपवाना ही उचित समझा गया। इसकी कापी तैयार है / बहुत शीघ्र छप जायगा। इस तरह इन सब अंशोंके मिलानेसे धर्मविलास पूर्ण हो जायगा are a / 30-12-13 नाथूराम प्रेमी। की जिला 2 Scanned with CamScanner Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयसूची। NOOR . 1 मंगलाचरण.... 2 उपदेशशतक 3 सुबोध पंचासिका 8 धर्मपच्चीसी .5 तत्त्वसार भाषा .............." 6 दर्शनदशक 7 ज्ञानदशक ... 8 द्रव्यादि चौबोल-पचीसी 9 व्यसनत्याग षोड़श .... .... 10 सरधा चालीसी ... ..... .. 111 सुखबत्तीसी................. 12 विवेक-बीसी ......... 13 भक्ति-दशक ..... 14 धर्मरहस्य-बावनी ..... 15 दानबावनी ................... ......16 16 चार सौ छह जीवसमास ... ............. 127 17 दशस्थान चौवीसी .... 130 18 व्यौहारपचीसी ................ .... 139 19 आरतीदशक ... 20 दशवोल पचीसी..... 157 21 जिनगुणमाल सप्तमी 164 22 समाधिमरण 167 23 आलोचनापाठ .... 102 106 - 149 Scanned with CamScanner Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 24 एकीभावस्तोत्र 25 खयंभूरतोत्र ..... 26 पार्श्वनाथस्तवन .... 27 तिथिषोडशी 28 स्तुतिबारसी 29 यतिभावनाष्टक 30 सज्जनगुणदशक 31 वर्तमान-बीसी-दशक 32 अध्यात्मपंचासिका 33 अक्षर-बावनी 34 नेमिनाथ-बहत्तरी 35 वज्रदन्तकथा 36 आठ गणछन्द .... 37 धर्म-चाह गीत 38 आदिनाथस्तुति 39 शिक्षापंचासिका 40. जुगलआरती 41 वैरागछत्तीसी 42. वाणीसंख्या ..... 43. पल्ल-पच्चीसी 44 षटगुणी हानिवृद्धिबीसी 45. पूरणपंचासिका ..... ............ ......197 monitish, 205 .. . ka 208 ..210 .. .... 213 221 241 247 Scanned with Cam Scanner Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय बम्बईके _छपाये हुए जैनग्रन्थ। : 1 प्रद्युम्नचरित्र-हिन्दी भाषामें बहुत ही बढ़ियां..... 2 मोक्षमार्गप्रकाश-पं० टोडरमलजीकृत ... ... ... all). 3 सप्तव्यसनचरित्र-हिंदीवचनिका ... ... ... . ... // e). 4 बनारसीविलास-बनारसीदासजीके विस्तृत जीवनचरित्रसहित 1 // ). 5 प्रवचनसारपरमागम-कविवर वृंदावनजीकृत अध्यात्मका ग्रन्थ 13), 6 वृंदावनविलास-वृन्दावनजीकी समस्त कविताका संग्रह ... 7 क्षत्रचूड़ामणिकाव्य-हिन्दी भाषानुवादसहित... 8 भाषापूजासंग्रह- ... ... ... ... ... ... .) 9 मनोरमा उपन्यास-बावू जैनेन्द्रकिशोरजीकृत ... 10 ज्ञानसूर्योदयनाटक-श्रीनाथूरामप्रेमीकृत .... ... 11 तत्त्वार्थसूत्र-बालवोधिनी भाषाटीकासहित .... ... 12 जैनपदसंग्रह प्रथमभाग-दौलतरामजीकृत, बड़ा अक्षर ... 13 जैनपदसंग्रह दूसरा भाग-भागचंदजीकृत, 14 जैनपदसंग्रह तीसरा भाग-भूधरदासजीकृत भजन .... 15 जैनपदसंग्रह चौथा भाग-द्यानतरायजीकृत भजन 16 जैनपदसंग्रह पांचवाँ भाग-बुधजनजीकृत 17 उपमितिभवप्रपंचकथा-पहलाभाग ... ... ... 10) 18 उपमितिभवप्रपंचकथा-दूसरा भाग ... 19 चर्चाशतक-सरल भाषाटीकासहित ... ... ... ... .) 20 न्यायदीपिका-सरल भाषाटीकासहित... ... ... ... // ) 21 धर्मप्रश्नोत्तर-प्रश्नोत्तर रूपमें धर्मके सब विषयोंका वर्णन है ... 2) Scanned with CamScanner Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . (8) 22 नागकुमारचरित- ... ... ... ... 23 यशोधरचरित- ... ... ... ... .. 24 यात्रादर्पण-यात्रियोंके बड़े ही सुभीतेका है .... 25 भाषानित्यपाठसंग्रह-रेशमी जिल्द // ), साधा. ... ... 26 प्रतिभा उपन्यास-नाथूराम प्रेमीकृत ... ... ... 27 सूक्तिमुक्तावली-मूल भाषाकविता और टीका ... 28 सजनचितवल्लभ-मूल, कविता और भा. टी. सहित 29 परमार्थजकड़ीसंग्रह-१५ जकड़ियोंका संग्रह 30 विनतीसंग्रह-२४ विनतियों का संग्रह 31 नित्यनियमपूजा-संस्कृत और भाषा 32 भक्तामरस्तोत्र-अन्वय अर्थ भावार्थ और हिन्दी कवितासहित 33 जैनबालबोधक प्रथमभाग-- 34 शीलकथा-भारामल्लजीकृत / ) दर्शनकथा ...." 35 श्रुतावतारकथा श्रुतस्कंधंविधानादिसहित 36 अरहतपासाकेवली पाँसा डालकर शुभ अशुभ जाननेकी रीति -- 37 भक्तामर-हेमराजजीकृत भाषा और मूल संस्कृत ..... 38 पञ्चमंगल-अभिषेकपाठ और पंचामृताभिषेकपाठसहित ....:/39 मृत्युमहोत्सव-और समाधिमरण 40 धूर्ताख्यान-पुराणोंकी पोलें 11 प्राणप्रियकाव्य-भा. टी. सहित... 42 जैनविवाहपद्धति- ... ... 43 क्रियामंजरी-श्रावकोंकी प्रतिदिनकी क्रिया ... पता-मैनेजर, जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालय हीराबाग पो० गिरगांव, बम्बई / Scanned with CamScanner Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ र दि. . मुनिवर्गमा पथ pe) भांडार अामा, न. श्रीवीतरागाय नमः / स्व० कविवर द्यानतरायजी विरचित / धर्मविलास / ... (द्यानतविलास।) मंगलाचरण / छप्पय। बन्दौं आदि जिनेस, पापतमहरन दिनेस्वर / बन्दत हौं प्रभु चंद, चंद दुख तपन हनेस्वर // सांतिनाथ बंदामि, मेघसम सान्तिप्रकासक / नमौं नौं महावीर, वीर भौ-पीर-विनासक // चौवीसौं जिनराजका, धर्म जगतमै विस्तरौ। सुभ ज्ञान भगति वैरागमय, धर्म विलास प्रगट करौ // 1 // उपदेशशतक / तीर्थंकरस्तुति, छप्पय / / गुण अनंतकरि सहित, रहित दस आठ दोषकर।' विमल जोति परगास, भास निज आन विषैहर // सकल सुरासुरवृंदवंद्य, नर इंद्र चंद्र गन। राग द्वेष मद मोह क्रोध, छल लोभ सकल हन // 1 माया। . Scanned with CamScanner Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 2 ) महिमा अनंत भगवंत प्रभु, जगत जीव असरन सरन / कर जोरि भविक बंदत चरन, तारि तारि तारन तरन // 1 // सहित अनंत चतुष्ट, नष्ट हुव चारि घाति जब / कहत वेद मुख चारि, चारि मुख लखत जगत सब // दहिय चौकरी चारि, चारि संज्ञा बल चुकी / चारि प्रान संजुगत, चारिगति गमन विमुक्कौ // चहुसंघसरन बंधन हरन, अजर अमर सिवपदकरन / कर जोरि भविक बंदत चरन, तारि तारि तारन तरन // 2 // ___ सवैया इकतीसा (मनहर)। धर्मको बखानत है कर्मनिको भानत है, "लोकालोक जानत है ज्ञानको प्रकासके। ममता तजै खिरी है वानी जो अनच्छरी है, सुधारूप है झरी है इच्छाविना जासकै // सिंघासन सोहत है सक्र मन मोहत है, तीनि छत्र चौंसठि चमर ढरै तासकैं।' आनंदको कारक है भव्यनको तारक है, ऐसौ अरहंत देव बंदौं मद नासके // 3 // रागभाव टायौ तातै परिगह गहै नाहि, दोषभाव जाखौ तात आयुध न पेखिये। 1 आहार, भय, मैथुन, परिग्रह / 2 काय, श्वासोच्छ्वास, भाषा, आयु / 3 नष्ट करता है / 4 शस्त्र हथियार / Scanned with CamScanner Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहभाव मास्यौ तातै गहलता दूरि भई, अंतराय नासतें अनंत बल पेखिये // ज्ञानावरनी विनासि केवल प्रकास भयौ, : दर्शनावरनी गएँ लोकालोक देखिये / ऐसे महाराज जिनराज हैं जिहाज सम, तिनको सरूप लखि आपकौं विसेखिये // 4 // जान्यौ जिनदेव जिन और देव त्याग कीयौ, कीयौ सिववास जगवास उदवासकै। पूज्यौ जिनराज सो तौ पूजनीक जिन भयौ, ___पायौ निज थान सब करम विनासकै / ध्यायौ वीतराग तिन पायौ वीतराग पद, भयौ है अडोले फेरि भववन नासकै। जिनकी दुहाई जिनै गहौ और देव कोऊ, जातै लहै मोक्ष कभी जगमैं न आ सकै // 5 // .. सवैया तेईसा (मत्तगयन्द.)। जो जिनराज भजै तजि राज, वहै शिवराज लहै पलमाहीं। जो जिननाथ करै भवि साथ,सु होत अनाथ सबै गुण पाहीं॥ जो जिन ईस नमैं निज सीस, वहै जगदीस तजै पेरछाई। जो जिनदेव करै नित सेव, लहै शिव एव महा सुखदाई॥६॥ - छंद मल्लिकमाला। देखि भव्य वीतराग कीन घातिकर्म त्याग, तास रूप पेखि भाग लज्ज कामरूप। 1 छोड़कर / 2 निश्चल / 3 मत गहो। 4 अनाथ अर्थात् जिसका कोई नाथ न हो, खयं सबका नाथ / 5 पराई अर्थात् पुद्गलकी छायाको छोड़ देता है, उससे रहित हो जाता है / अथवा छायारहित (केवली ) हो जाता है। Scanned with CamScanner Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आठ वर्ष घाटि जोय कोटि पुव्व आयु होय, लेतना अहार सोय जोर है अनूप // इंद औ फनिंद चंद जच्छ औं नरिंद विंदा तीन काल तास बंदि होत मोखभूप। सर्वज्ञेयको-प्रमान तुच्छ कालमाहिं जान ...ताहि वंदिये सुजान छोड़ि दौरधूप // 7 // करखा छन्द / .. सर्व तिहुँ लोक सु अलोक तिहुँकालके, सहित परजाय निज ज्ञानमाहीं।... देखियो जास परतच्छ जिमि करतलें, तीन हू रेख आंगुरी पाहीं // जासकैं राग औ द्वेष भय चपलता, लोभ जम जरा गद आदि नाहीं। दिली सो महादेव मैं नमों मन वचन तन, दीजियै नाथ मुझ मोक्ष ठाहीं // 8 // कुंडलिया। बीते जाके घातिया, राग दोष भ्रम नास / सुरपति सत वंदत चरन, केवलज्ञान प्रकास // केवलज्ञान प्रकास, भास केवलसुख जाकैं। दरसन जास अपार, सार वल प्रगट्यौ ताकै // गुण अनंत घनरास, आस त्रासा भय जीते। ताकौं वंदों सदा, घातिया जाके वीते // 9 // 1. यह छन्द अकलंकाष्टकके "त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषयं " आदि। लोकका भावानुवाद है। ठप्पय / भरम हरिय मन मरिय, जरिय मद टरिय मदनवल / सकलि फरिय अघ दुरिय, तुरिय गज तजिय सुरथ दल // परम लखिय पर नसिय, चखिय निजरस रस विरचिय / धरम वसिय दुख नसिय, खसिय गद जनम मरण तिये // वसु करम दलन भव भय हरन, त्रिभुवनपतिनुत तुम चरन / पर तुम अभय अखय निरमल अचल, जय जिनवर असरन सरन // 10 // जै जै स्वामी आदिनाथ, मैं तेरा बंदा।। जै जै स्वामी आदिनाथ, काटौ भव फंदा // जै स्वामी आदिनाथ, देवोंके देवा। जै जै स्वामी आदिनाथ, मैं कीनी सेवा // तू जै जै स्वामी आदिजी, मेरी सेवा जानही / तातें मोपै कीजै कृपा, वासा दीजै पास ही // 11 // करखा। -- करम-घनहर पवन, परम निजसुखभवन, -भरमतम रवि मदन,-तपत-चंदा। 1931 कोपगिरि वज्रधर, मान गज हरन हर, कपट वन हर दहन लोभ मंदा // 1 स्फुरायमान हुई। 2 भाग गये। 3 तुरग-घोड़ा / 4 खिसक गये, दूर हो गये। 5 तीन अर्थात् रोग जन्म और मरण। 6 वादल / 7 घर / 4.कामदेवरूपी तापको शमन करनेके लिये चन्द्रमाके समान शीतल / 9 इन्द्र / १०सिंह / 11 आग / Scanned with CamScanner Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A US करन अहि मंत्र वर, मरण रिपु हनन सेर पतित उद्धरण जिन नाभिनंदा / - सकल दुख दहन घन, दिपत जस कनक सरव सुर असुर नर चरन वंदा // 12 // ......दर्शनस्तुति, छप्पय / ... TO तुव जिनिंद दिट्टियौं, आज पातक सब भर तुव जिनिंद दिठियौ, आज वैरी सव लजे। तुव जिनिंद दिहियौ, आज मैं सरवस पार तुव जिनिंद दिछियौ, आज चिंतामणि - जै जै जिनिंद त्रिभुवन तिलक, ...., आज काज मेरो सखौ / कर जोरि भविक विनती करत, आज सकल भवदुख टखौ // 13 // तुव जिनिंद मम देव, सेव मैं तुमरी करिही। " तुव जिनिंद मम देव, नाम तुम हिरदै धरिहौं। तुव जिनिंद मम देव, तुही साहिब मैं वंदा। तुव जिनिंद मम देव, मही कुमुदनि तुव चंदा // जै जै जिनिंद भवि कमल रवि, मेरो दुःख निवारिक। लीजै निकाल भव जालतें, अपनो भक्त विचारिक meam अष्टद्रव्य चढ़ानेका फल, सवैया इकतीसा / नीरके चढ़ायें भवनीर-तीर पावै जीव 1. 'चंदन चढ़ायें चंद सेवें दिन रात है। , अक्षतसौं पूजतें न पूजे अक्ष सुख जाकौ, .. फूलनिसौं पूर्जे फूलजातिमैं न जात है // . दीजै नइवेद तातें लीजै निरवेद पद, .... ...दीपक चढ़ायें ज्ञानदीपक विख्यात है। . धूप खेये सेती भ्रम दौर धूप खइ जाय, फलसेती मोक्ष फल अर्घ अघ घात है // 15 // वर्तमान चौवीसीके नाम, कवित्त (31 मात्रा)। ऋषभ अजित संभव अभिनंदन,सुमति पद्म सुपास प्रभु चंद। पुहपदंत शीतल श्रेयांस प्रभु, वासपूज्य प्रभु विमल सुछंद // स्वामि अनंत धर्म प्रभु शांति सु, कुंथु अरह जिन मल्लि अनंद। मुनिसुव्रत नमि नेमि पास, वीरेशसकल बंदौं सुखकंद // 16 // सिद्धस्तुति, सवैया इकतीसा / .. -ज्ञान भावके विलासी छैदी जिनौं भवफाँसी, कर्म शत्रुके विनासी त्रासी दुःख दोषके। चेतन दरबभासी अचल सुधामवासी, जिनकै है निधि खासी पोषे सुधा चोषके / / मन वच काय नासी सिद्ध खेतके निवासी, ऐसे सिद्ध सुखरासी ज्ञाता ज्ञेयकोपके। भव्य जगतै उदासी हैकै मनमैं हुलासी, तीन काल तिन्हैं ध्यासी वासी सुख मोषके // 18 // ... साधुस्तुति, कुंडलिया। पंच महाव्रत जे धरै, पंच समिति प्रतिपाल / पाँचौं इंद्री वसि करें, पडावसिक गहि चाल। 1 अचल मोक्ष स्थान / 2 जीवादि पदार्थ समूहके / 3 ध्यान करेगा। 1 इन्द्रिय / 2 बाण। Scanned with CamScanner Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षडावसिक गहि चाल, टाला मंजन कच लुंचे। एक बार ठाड़े अहार, लघु अंबर मुंच. भूमिसैन दंतवन त्याग, निजभावविरत / ते बंदों मुनिराज, धरै जे पंच महाव्रतः॥१९॥ सर्वगुरुस्तुति, सवैया इकतीसा-(सर्व गुरु एक लघु) : काहूसौं ना बोलें बैना जो बोलें तौ साता दैना, देखें नाहीं नैनासेती रागी दोषी होइकै।। आसा दासी जानें पाखें माया मिथ्या राधा हीयेमाही राखें सूधी दृष्टी जोइकै // इंद्री कोई दौरै नाहीं आपा जानै आपामाहीं, तेई पावैं मोख ठांहीं कमै मैले धोइकै। ऐसे साधू बंदौ प्रानी हीया वाचा काया ठानी.डया जाते कीजै आपा ज्ञानी भमैं बुद्धी खोइकै // 20 // - करखा (सर्व लघु, एक गुरु)। नगन नंगपर रहत, मदन मद नहिं गहताई मैंमत मत नहिं लहत, दहत आसा। कैरनसुख घटत जस, मरन भय हटत तसा सरन बुध छुटत पुनि, मद विनासा M.SS अमल पद लखत जब, समल पद नखत सव्र, परम रस चखत तव, मन निरासा / . नमत मन वचन तन, सकल,भव भय हरन, अज अमर पद करन, शिव निवासा // 2 // पंचपरमेष्टीको नमस्कार, छप्पय / प्रथम नमूं अरहत, जाहि इंद्रादिक ध्यावत / वंदं सिद्ध महंत, जासु सुमिरत सुख पावत // आचारज बंदामि, सकल श्रुत ज्ञान प्रकासत / बंदत हौं उबझाय, जास वंदत अघ नासत // जे साधु सकल नरलोकमें, नमत तास संकट हरन / यह परम मंत्र नित प्रति जपो, विघन उलटि मंगल करन / सबुद्धिकृतजिनस्तुति, करखा / - राग रंगति नहीं दोप संगति नहीं, मोह व्यापै न निजकला जागी घातिया खै गयौ, ज्ञान परगट भयो - ज्ञेयकों जानि परदर्व त्यागी // ----- - सकल औगुण गये, सकल गुणनिधि भये, 6 सकल तन जस सुकुल रीति पागी। - कृपा करि कंतकौं मोख पद दीजिये, कहत है सुबुधि जिनपाय लागी॥ 23 // करखा छंद / - कहत है सुबुद्धि जिननाथ बिनती सुनो,' किंत तौ मूढ़ समुझै न क्यों ही. घोर संसारके हेत जे विषय हैं, तिन्हें भोगत चहै सुक्ख स्यौं ही॥; जाइगो नकें तब विषय फल जानसी, F- तहां पिछतात सिर धुनै यों ही। 1 ज्ञानावरण षांच, दर्शनावरण नव, मोहनीय अहाईस, अंतराय पांच। 1 सुमतिरूपी स्त्रीको / 2 पर्वतपर। 3 कामदेव / 4 यह मेरा है. इस प्रकार ममत्वबुद्धि / 5 इन्द्रियसुख / Rad Scanned with CamScanner Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (10) देह उपदेश अब रहै जु सुहागमुझ, छांडि जग चलै शिव ओर त्यौं ही.॥२४॥ कहौं इस भाँति सुनि चिदानंद वावरे, कौन विधि नारि पर हियें पैठी। कुजसकी खानि दुख दोषकी बहिनि है, तुमैं दुख देति जो महाहेठी // छोड़ि वह संग तुम परम सुख भोगवो, सुमतिके संग निज हिये वैठी। छांडि जगवास शिववास पलमैं लहौ, परत हौं पाय कहुं जीव ऐठी // 25 // व्यवहार हितोपदेश वर्णन, सवैया तेईसा (मत्तगयन्द)। चेतनजी तुम चेततक्यौं नहिं, आव घटैजिम अंजलिपानी। सोचत सोचत जात सबै दिन, सोवत सोवतरैनि बिहानी॥ "हारि जुवारि चले कर झारि," यहै कहनावत होत अज्ञानी। छांडि सबै विषयासुखस्वाद, गहौ जिनधर्म सदासुखदानी२६ पुन्य उदै गज वाजि महारथ, पाइक दौरत हैं अगवानी। कोमल अंग सरूप मनोहर, सुंदर नारि तहां रति मानी // दुर्गति जात चलै नहिं संग, चलै पुनि संग जु पाप निदानी। यौं मनमाहिं विचारि सुजान, गहौ जिनधर्म सदा सुखदानी // मानुष भौ लहिकै तुम जो न, कस्यौ कछु तौ परलोक करोगे। जो करनी भवकी हरनी,सुखकीधरनी इस माहिं वरेंगे। सोचत हौ अब वृद्धि लहैं, तब सोचत सोचत काठ जरौगे। फेरि न दाव चली यह आव,गहौनिज भाव सुआपतरौगे२८ १नीच खभाववाली / 2 आयु / 3. पयादे सेवक। यर (11) आव घटै छिन ही छिन चेतन, लागिरह्यौ विपयारसहीको / फेरि नहीं नर आव तुमैं, जिम छांडत अंध बटेर गहीको॥ आगि लगें निकसै सोई लाभ, यही लखिकैगह धर्म सहीको। आव चली यह जात सुजान, "गई सुगई अबराखिरहीको" कुंडलिया। यह संसार असार है, कदली वृक्ष समान। "यामैं सारपनो लखै, सो मूरख परधान // . सो मूरख परधान, मानि कुसुमनि नेभ देखै / सलिल मथै घृत चहै, शृंग सुंदर खर पेखे // अगनिमाहिं हिम लखै, सर्पमुखमाहिं सुधा चह।... जान जान मनमाहि, नाहिं संसार सार यह // 30 // 'कवित्त (31 मात्रा) तात मात सुत नारि सहोदर, इन्हें आदि सब ही परिवार। इनमें वास सराय सरीखो, 'नदी नाव संजोग' विचार // यह कुटुंब स्वारथको साथी, स्वारथ विना करत है ख्वार। तातें ममता छांडिसुजान, गहौ जिनधर्म सदा सुखकार 31 चेतनजी तुम जोरत हो धन, सो धन चलै नहीं तुम लार। जाकों आप जानि पोषत-हौ, सो तन जरिकै है है छार // विषै भोगिकै सुख मानत हौ, ताको फल है दुःख अपार। यह संसार वृक्ष सेमरको, मानि कह्यौ मैं कहूं पुकार // 32 // .:. सर्वया इकतीसा। 7 सीस नाहिं नम्यौ जैन कान न सुन्यौ सुवैन, देखे नाहिं साधु नैन ताको नेह भान रे। 1 पकड़ी हुई बटेरको। 2 आकाशके कुमुम, अर्थात् फूलोंको। 3 गधेके सींग। 4 ठंडापन / 5 सेमरका वृक्ष जिसका फूल तो सुहावना होता है, पर फलमें निस्सार घुआ निकलता है। 6 त्याग दे। ........ 413 Scanned with CamScanner Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 12) - बोल्यौ नाहिं भगवान करतें न दयौ दान, उरमैं न दया आन यों ही परवान रे // .....पाप करि पेट भरि पीठि दीन तीय पर, मा .... पाँव नाहिं तीर्थ कर सही सेती(2) जान रे। स्याल कहै बार बार अरे सुनि श्वान यार,. इसकौं तू डारि डारि देह निंद्यखान रे // 33 // देखो चिदानंद राम ज्ञान दिष्टि खोल करि, तात मात भ्रात सुत स्वारथ पसारा है।। तू तो इन्हें आपा मानि ममता मगन भयौ, वह्यौ भ्रममाहिं जिनधरम बिसारा है // PIS यह तौ कुटुंब सब दुःखहीको कारन है, तजि मुनिराज निजकारज विचारा है। तातें गहौ धर्म सार स्वर्गमोक्षसुखकार, छ ॐ सोई लहै भवपार जिन धर्म धारा है // 34 // " सोचत हौ रैनि दिन किहिं विधि आवै धन, सो तौ धन धर्म विना किनहू न पायौ है। यह तौ प्रसिद्ध वात जानत जिहान सब, धर्मसेती धन होय पापसौं विलायौ है // धर्मके कियेते सब दुःखको विनास होत, सुखको निवास परंपरा मोख गायौ है। * ताते मन वच काय धर्मसौं लगन लाय, - यह तौ उपाय वीतरागजी बतायौ है // 35 // (13) व्यबसायचतुष्क / केई सुर गावत हैं केई तौ वजावत हैं, केई तौ बनावत हैं भांडे मृत्ति सानिके। केई खाक फटकै हैं केई खाक गटकै हैं, : केई खाक लपटै हैं केई स्वांग आनिके // : केई हाट बैठत हैं अंबुधिमैं पैठत हैं, केई कान ऐंठत हैं, आप चूक जानिके। एक सेर नाज काज अपनो सरूप त्याज, डोलत हैं लाज काज धर्म काज हानिके // 36 // शिष्यकौं पढ़ावत हैं देहकौं बढ़ावत हैं, हेमकौं गढ़ावत हैं. नाना छल ठानिके। कौड़ी कौड़ी मांगत हैं कायर है भागत हैं। प्रात उठि जागत हैं स्वारथ पिछानिके // कागदको लेखत हैं केई नख पेखत हैं,... केई कृषि देखत हैं अपनी प्रवानिके। एक सेर नाज काज़ अपनो सरूप त्याज, डोलत हैं लाज काज धर्म काज हानिके // 37 // केई नटकला खेलें केई पटकला वेलें, / केई घटकला झेलें आप वैद मानिके। केई नाच नाचि आवै केई चित्रकौं बनावें, केई देश देश धावै दीनता वखानिके // की मूरखको पास चहैं नीचनकी सेवा बहैं, .. चोर के संग रहैं लोक लाज मानिके / 1 राग / 2 वर्तन, मिट्टीके / 3 समुद्रमेंद्र। 4 सोनेको / 5 खेती। .. Scanned with CamScanner Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (14) एक सेर नाज काज अपनो सरूप त्याज, डोलत हैं लाज काज धर्म काज हानिके // 38 // कई सीसको कटावें केई सीस वोझ लावें. केई भूपद्वार जावें चाकरी निदानकै। केई हरी तोरत हैं पाहनको फोरत हैं, केई अंग जोरत हैं हुनर विनोनकै। केई जीव घात करें केई छंदकों उचरै, .. नानाविधि पेट भरें इन्हें आदि ठानकै।। एक सेर नाज काज अपनो सरूप त्याज, डोलत हैं लाज काज धर्म काज हानकै // 39 // ____ गृहदुःखचतुष्क / रुजगार वन नाहिं धन तौ न घरमाहि,जि खानेकी फिकर बहु नारि चाहै गहना / ... देनेवाले फिरि जाहिं मिलै तौ उधार नाहिं, साझी मिलें चोर धन आवै नाहिं लहना / / कोऊ पूत ज्वारी भयौ घरमाहिं सुत थयौ, एक पूत मरि गयौ ताकी दुःख सहना।: पुत्री वर जोग भई व्याही सुता जम लई, एते दुःख सुख जानै तिसै कहा कहना // 40 // देहमाहिं रोग आयौ चाहिजै जिया भरायौ, फटि गये अंवर चरणदार नारी मन जार भायौ तासौं चित्त अति लायौ, __यह तौ निवल वह देत दुःख अतिही // 1 नौकरीकी इच्छा करके / 2 विज्ञान / गृहमाहिं चोर पर आगी लग सब जर, ... राजा लेहि लूट वांध मारै सीस पनही। इष्टको वियोग औ अनिष्टको संजोग होइ, एते दुःख सुख मानै सो तौ मूढ़मति ही // 41 // जेठमास धूप परै प्यास लगै देह जरै, कहीं सुनी शादी गमी तहां जायौ चहिये / वामें चुचात भौन लकरी निवरि गई, ..ताकों चलौ लैन पाँच डिगौ दुःख लहिये / शीतके सहायमाहिं अंबर नवीन नाहिं, भूख लगै प्रात मिलै नाहिं कष्ट सहिये। जे जे दुःख गृहमाहिं कहांलौं वखाने जाहि, तिन्हें सुख जाने सो तौ महामूढ कहिये // 42 // तिनको पुरानो घर कौड़ी सौ न धान जामैं, मूसे विल्ली सांप बीछू न्योले जु रहत हैं। भाजन तो मृत्तिकाके फूटे खाली धान नाहिं, टूटी जो खरैरी खाट मल्लिका लहत हैं। कुटिल कुरूप नारी कानी काली कलहारी कर्कश वचन बोलै औगुन महत है। , हाहा मोहकर्मकी विटंवना कही न जाइ, एसा गृह पाय मूढ़ त्यागी ना चहत है॥४३ / / ... . .....उपदेश... .. जिंदगी सहलपै नाहक धरम खोवै,... 25. जाहिर जहान दीखै ख्वावका तमासा है। 1 फूसका / 2 चुभनेवाली / 3 सटमल / 4 थोड़ीसी / 5 खप्न।... करणादामी नही। 37. Scanned with CamScanner Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कैथीलेके यातिर तू काम बद करता है, अपना मुलक छोड़ि हाथ लिया कांसों है / कौड़ी कौड़ी जोरि जोरि लाख कोरि जोरता है, कालकी कुमक आएँ चलना न मासा है।। सोइत न फरामोश हूजिये गुसईयाको, यही तो सुखन खूब ये ही काम खासा है // 44 // कवित्त (31 मात्रा)। हर छिन नाव लेइ साईका, दिलका कुफ़र सवै करि दूर। पाक बेऐव हमेश भिस्त दे, दोजके-फंद करै चकचूर // हमां सुमां जहान सब बूझै, नाहीं बूझैं बर्दै ते कूर। वेचि मूल वैचमन साहिब, चैसमों अंदर खड़ा हुजूर॥४५॥ जीवके वैरी वर्णन, सबैया इकतीसा / सफरस फास चाहे रसना हू रस चाहै, 'नासिका सुवास चाहै नैन चाहै रूपकौं। श्रवन शवद चाहै काया तौ प्रमाद चाहै, वचन कथन चाहै मन दौर धूपकौं॥ क्रोध क्रोध कस्यौ चाहै मान मान गह्यौ चाहै, माया तौ कपट चाहै लोभ लोभ कूपकौं।। परिवार धन चाहै आशा विपै-सुख चाहै,। एते वैरी चाहैं नाहीं सुख जीव भूपकौं // 46 // Jac वैरी दूर करनेका उपाय / जीव जो पै स्याना होय पांचौं इंद्री वसि करै, फास रस, गंध रूप सुर राग हरिकै / 1 परिवार / 2 अपना राज्य / 3 भिक्षाका पात्र / 4 चढ़ाई। 5 क्षणभर भी।-६ भूल जाना। 7 मलिनता।८-मोक्ष / 9 नर्कका जंजाल। 10 हम। तुम सब / 11 आखोंके (17) आसन वतावै काय वचकौं सिखावै मौन, ध्यानमाहिं मन लावै चंचलता गरिकै॥ क्षमा करि क्रोध मारै विनै धरि मान गारै, सरलसौं छल जारै लोभदसा टरिकै। . परिवार नेह त्यागै विषै-सैन छांडि जागै, तब जीव सुखी होय बैरी वस करिकै॥४७॥ नरकनिगोददुःख कथन / बसत अनंतकाल बीतत निगोदमाहिं, अखर अनंत भाग ग्यान अनुसरै है। छासठि सहस तीनसै छतीस बार जीव, अंतर मुहूरतमै जन्मै और मरै है॥ अंगुल असंखभाग तहां तन धारत है, तहांसेती क्यों ही क्यों ही क्यों ही कै निसरै है। इहां आय भूलि गयौ लागि विषै भोगनिमैं, ऐसी गति पाय कहा ऐसे काम करै है॥४८॥ निगोदके छत्तीस कारण / मन वच काय जोग जाति रूप लाभ तप, कुल बल विद्या अधिकार मद करना। फरस रसन घ्रान नैन कान मगनता, भूपति असन नारि चोरका उचरना // .. 1 संख्या प्रमाण; श्रुतज्ञानके अक्षरोंका भाग श्रुतकेवलीके ज्ञानमें देनेपर जो लब्ध आवे, उसको अक्षर कहते हैं / उसमें अनन्तका भाग दिया जाय फिर जो लब्ध आवै, उसका एक भाग सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका ज्ञान होता है / 2 राजकथा, भोजनकथा, स्त्रीकथा और चोरकथाका कहनाः / / ध. वि.२ Scanned with CamScanner Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवीलेके खातिर तू काम वद करता है, अपना मुलक छोड़ि हाथ लिया कांसा है। कौड़ी कौड़ी जोरि जोरि लाख कोरि जोरता है, कालकी कुमक आएँ चलना न मासा है। सोइत न फरामोश हूजिये गुसईयाको, यही तौ सुखन खूब ये ही काम खासा है // 44 // . कवित्त (31 मात्रा)। हर छिन नाव लेइ सांईका, दिलका कुंफ़र सबै करि दूर। पाक वेऐव हमेश भिस्त दे, दोजक-फंद करै चकचूर // हमां सुमां जहान सव वूझै, नाहीं वूझैं बर्दै ते कूर / वेचि मूल वेचमन साहिब, चसमों अंदर खड़ा हुजूर॥४५॥ जीवके वैरी वर्णन, सवैया इकतीसा / / सफरस फास चाहै रसना हू रस चाहै, नासिका सुवास चाहै नैन चाहै रूपकौं। / श्रवन शवद चाहै काया तो प्रमाद चाहै, वचन कथन चाहे मन दौर धूपकों / / / क्रोध क्रोध की चाहै मान मान गयी चाहै, माया तो कपट चाहै लोभ लोभ कृपकौं। परिवार धन चाहै आशा विष-सुख चाहै, एते वैरी चाहें नाहीं सुख जीव भूपकौं // 46 // वैरी दूर करनेका उपाय। जीव जो पै स्याना होय पांचों इंद्री वसि कर, फास रस गंध रूप सुर राग हरिक / 1 परिवार / 2 अपना राज्य / भिक्षाका पात्र / 4 चढ़ाई। ५क्षणभर भी। भूल जाना / 7 मलिनता। 8 मोक्ष / 9 नकंका जंजाल / 1. हम तुम सब / 11 आखोंके। (17) आसन बतावै काय वचकौं सिखावै मौन, ध्यानमाहिं मन लावै चंचलता गरिकै॥ क्षमा करि क्रोध मार विनै धरि मान गारै, सरलसौं छल जारै लोभदसा टरिक। , परिवार नेह त्यागै विप-सैन छोडि जागै, . तब जीव सुखी होय बैरी वस करिकै // 47 // नरकनिगोददुःख कथन। बसत अनंतकाल वीतत निगोदमाहिं, अखर अनंत भाग ग्यान अनुसरै है। छासठि सहस तीनसै छतीस बार जीव, अंतर मुहूरतमें जन्म और मरै है // अंगुल असंखभाग तहां तन धारत है, तहांसेती क्यों ही क्यों ही क्यों ही के निसरै है। इहां आय भूलि गयौ लागि विपै भोगनिमें, ऐसी गति पाय कहा ऐसे काम करै है // 48 // निगोदके छत्तीस कारण / मन वच काय जोग जाति रूप लाभ तप, कुल वल विद्या अधिकार मद करना / फरस रसन घान नैन कान मगनता, भूपति असन नारि चोरका उचरना॥ 1 संख्या प्रमाण; श्रुतज्ञानके अक्षरोंका भाग श्रुतकेवलीके ज्ञान में देनेपर जो लब्ध अवि, उसको अक्षर कहते हैं / उसमें अनन्तका भाग दिया जाय फिर जो लना आव, उसका एक भाग सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तकका ज्ञान होता है। राजकथा, भोजनकथा, स्त्रीकथा और चोरकथाका कहना।। ध. बि. 2 Scanned with CamScanner Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नोट पंथ हरना // 49 // ( 18) मांस मद दारी आखेट चोरी पर,नारी विसन क्रोध मान माया लोभ धरना एकांत विनय विपरीत संसय अग्यान एई भाव त्यागिक निगोद पंथ हरना नरकदुःख। सीत नर्कमाहिं परै मेरुसम उस्न गोला, उस्त नर्क सीत गोला बीचमै विलायौ है। छेदनता भेदनता काटनता मारनता, चीरनता पीरनता नाना भाँति तायौ है / रोग छयानवै विख्यात एक एक अंगुलमैं, परनारी भोगी आगि-पूतली जलायौ है। सागरौंकी थिति पूरी करी ते अनंती वार, अजहूं न समुझे है तोहि कहा भायों हैं // 50 // 9 भूख तो विसेस जो असेस अन्न खाइ जाइ, मिलै नाहिं एक कन एतौ दुःख पायौ है / / तृषा तौ अपार सब अंबुधिको नीर पीवै, पावै नाहिं एक बूँद एतौ कष्ट गायौ है // आँखकी पलक मान साता तौ तहां न जन, क्रोधभाव भूरि वैर उद्धत वतायौ है। सागरोंकी थिति पूरी करी ते अनंती वार अजहूं न समझे है तोहि कहा भायौ है / / / 51 // ----पुण्यपाप कथन, छप्पय। कबहुं चढ़त गजराज, बोझ कबहूं सिर भारी।। कबहुं होत धनवंत, कबहुं जिम होत भिखारी / / (10) कबहुं असन लहि सरस, कबहुं नीरस नहिं पावत / कबहुं वसन सुभ सघन, कबहुं तन नगन दिखावत // कवहूं सुछंद बंधन कबहुं, करमचाल बहु लेखिये / यह पुन्यपाप फल प्रगट जग, राग दोप तजि देखिये॥५२॥ कबहुं रूप अति सुभग, कबहुं दुर्भग दुखकारी। कबहुं सुजस जस प्रगट, कबहुं अपजस अधिकारी // कबहुं अरोग सरीर, कबहुं बहु रोग सतावत / कवहं वचन हित मधुर, कवहं कछ वात न आवत // कवहूं प्रवीन कवहूं मुंगध, विविधरूप जन पेखिये / यह पुन्यपापफल प्रगट जग, राग दोष तजि देखिय॥५३॥ मिथ्यादृष्टि कथन, सवैया इकतीसा। नारीरस राचत है आठौं मद माचत है, रीझि रीझि नाचत है मोहकी मगनमैं / ग्रंथनकौं वाचत है विपैकौं न वाचत है, आपनपो वांचत है भ्रमकी पगनमैं // स्वारथकौं जांचत है स्वारथ न जांचत है,... पाप भूरि सांचत है कामकी जगनमैं / पोपत है पांचनकौं सहै नर्क आंचनकौं, ऐसी करतूति करै लोभकी लगनमैं // 54 // ग्रंथनके पढ़ें कहा पर्वतके चढ़ें कहा, कोटि लच्छि व कहा कहा रंकपनमैं / 1 खच्छन्द, खतंत्र। 2 मुग्ध, मूर्ख / 3 विषयोंको नहीं छोड़ता है 4 आत्मत्वसे वंचित होता है। 5 अपने मतलबके लिये याचना करता है 6 आत्महित / 7 संचित करता है / 8 पांचों इंद्रियोंको। 1 रंडीबाजी। Scanned with CamScanner Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (20) संजम आचरै कहा मौनव्रत धरै कहा, तपस्या करें कहा कहा फिरै वनमैं // छंद करें नये कहा जोगासन भये कहा, दानहूके दये कहा बै साधुजनमें। जौलौं ममता न छूटै मिथ्याडोरी हून हूँ ब्रह्मज्ञान विना लीन लोभकी लगनमैं // 55 // सवैया तेईसा। मौन रहैं वनवास गहैं, वर काम दहैं जु सहैं दुख भारी। पाप हरै सुभरीति करें, जिनवैन धरै हिरदे सुखकारी // देह तपैं बहु जाप जपैं, न वि आप जपें ममता विसतारी। ते मुनि मूढ करें जगरूद, लहैं निजगेह न चेतनधारी॥५६॥ . .. गुरु शिष्यके प्रश्नोत्तर।... सोचत जात सबै दिनरात, क न बसात कहा करियेजी। सोच निबार निजातम धारहु, राग विरोध सवै हरिये जी॥ यौं कहिये जु कहा लहिये,सुवहै कहिये करुना धरिये जी। पावत मोख मिटावत दोष, सुयौं भवसागरकौं तरिये जी 57 वीतरागस्तुति, छप्पय / वीतरागको धर्म, सर्व जीवनको तारन / ' वीतरागको धर्म, कर्मको करै निवारन // वीतरागको धर्म, प्रगट क्रोधादिक नासै / वीतरागको धर्म, ग्यान केवल परगासै // जय वीतरागको धर्म यह, राग दोष जामैं नहीं। संसार परत इस जीवको, धर्म सरन जिनवर कही 58 (21) धर्मका महत्व, सर्वया इकतीसा / चिंतामनि पोरसा (2) रसायन कलपवृच्छ, कामधेनु चिंतावेलि पारस प्रमान रे। इन्हें आदि उत्तम पदारथ हैं जगतमें, मिलें एक भव सुख देत परधान रे // परभी गमन किये चलत न संग कोऊ, विना पुन्य उदै एऊ मिलत न आन रे। धर्मसी अनेक सुख पावै भव भव जीव, ताते गही धर्म परंपरा निरवान रे // 59 // मिथ्यादृष्टिवर्णन। असिधारी देव माने लोभी गुरु चित्त आने, हिंसामै धरम जानें दूरि सो धरमसौं। माटी जल आगि पौन वृच्छ पशु पंखी जौन, इन्हें आदि से कैसे छूटै ते करमसौं // रोम चाम हाड़ विष्टा आदि जे अपावन हैं, तिन्हें सुचि मानै आंखि मूंदी है भरमसौं। दीरघ संसारी तिन्हें देखि संत चुप्पु धारी, सबसौं बसाय न वसाय वेसरमसौं // 6 // सम्यग्दृष्टीकी इच्छा, सवैया (मदिरा)। आगमकौ पढ़िवौ जिनवंदन, संगति साधरमीजनकी। संजमवंत गुनज्ञ कथा, गहि मौन कथा सठ लोगनकी // सर्वनिसौं हितवैन उचारन, भावन पावन चेतनकी। एप्रगटौ भवभौ मुझतौ लग, जौलगमोख न कर्मनकी॥६१॥ . 1 पवित्र आत्माकी भावना / Scanned with CamScanner Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (22) व्यवहारसम्यक्त्व तथा निभयसम्यक्त्व, छप्पय / नमौं देव अरहंत, अष्टदश दोष रहित हैं। वंदौं गुरु निरग्रंथ, ग्रंथ ते नाहिं गहत हैं। वंदौं करनाधर्म, पापगिरि दलन वज्र वर। बंदौं श्रीजिनवचन, स्यादवादांक सुधाकर // सरधान द्रव्य छह तत्त्वको, यह सम्यक विवहार मत / निह. विसुद्ध आतम दरब, देव धरम गुरु ग्रंथ नुत॥६२॥ ___ सोचके छोड़नेका वर्णन, सवैया तेईसा। काहेकौं सोच करै मन मूरख, सोच करैं कछु हाथ न ऐ है। पूरव कर्म सुभासुभ संचित, सो निह● अपनो रस दै है।। ताहि निवारन को बलवंत, तिहूं जगमाहिं न कोइ लसै है। तातें हि सोच तजौ समता गहि, ज्यौं सुख होइ जिनंद कहै है। उद्यम वर्णन, सवैया इकतीसा / रोजगार विना यार यारसौं न करै प्यार, रोजगार विना नार नाहर ज्यों घूरै है। रोजगार विना सब गुण तौ बिलाय जाय, एक रोजगार सब औगुनकौं चूरै है // रोजगार विना कछू बात वनि आवै नाहिं, विना दाम आठौं जाम वैठो धाम झूरै है। रोजगार वनै नाहिं रोज रोज गारी खाहिं, ऐसौ रोजगार एक धर्म कीये पूरै है // 64 // ज्ञानीचिन्तवन, सवैया तेईसा। कर्म सुभासुभ जो उदयोगत, आवत हैं जब जानत ज्ञाता। पूरव भ्रामक भाव किये बहु, सो फल मोहि भयौ दुखदाता॥ ( 23 ) सो जड़रूप सरूप नहीं मम, मैं निज सुद्ध सुभावहि राता। नास करौं पलमैं सवकों अब,जाय वसौं सिवखेत विख्याता॥ सिद्ध हुए अव होइ जु होइगे, ते सब ही अनुभौगुनसेती। ताविन एक न जीव लहै सिव, घोर करौ किरिया बहु केती॥ ज्यौं तुपमाहिं नहीं कनलाभ, किये नित उद्यमकी विधिजेती। यौं लखि आदरिये निजभाव, विभाव विनास कला सुभ एती, ज्ञानीका बलवर्णन, छप्पय / धाम तजत धन तजत, तजत गज वर तुरंग रथ। नारि तजत नर तजत, तजत भुवपति प्रमादपथ // आप भजत अघ भेजत, भजत सब दोप भयंकर / मोह तजत मन तजत, सजत दल कर्म सत्रुपर // अरि चट्टचट्ट सव कट्टकरि, पट्टेपट्ट महि पैट्ट किय / करि अह नह भंवकह दहि, सट्ट सट्ट सिव सट्ट लिय॥६७॥ तजत अंग अरधंग, करत थिर अंग पंग मन / लखि अभंग सरवंग, तजत वचननि तरंग मन // जित अनंग थिति सैलसिंग, गहि भावलिंग वर / तप तुरंग चढ़ि समर रंग रचि, करम जंग करि॥ अरि झट्ट झट्ट मद हट्ट करि, सट्ट सट्ट चौपट्ट किय / करि अट्ट नह भव कठ्ठ दहि, सट्ट सट्टसिव सट्ट लिय।।६८॥ भरम नष्ट भय नष्ट, कष्ट तन सहत धीर धर। वचन मिष्ट गहि रहत, लहत निज धाम पुष्टकर // 1 मैं अपने शुद्ध खभावमें रक्त हूं। 2 भागते हैं। 3 चटाचट, चटपट / 4 काटकरके। 5 पटापट। 6 पृथ्वीपर। 7 पछाड़ दिये। 8 नष्ट / 9 भवकष्ट / 10 पा लिया। 11 शैलशृंग, पर्वतका शिखर / 2. Scanned with CamScanner Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (24) सुद्धदृष्टि लखि दुष्ट, सिष्टकौ हेत विहंडित / करम थान करि भिष्ट, भाव उतकिष्ट सुमंडित // सुभ परम मिष्ट समता सुधा, गट्ट गट्ट तिन गट्ट किय। करि अह नह भव कह दहि, सह सट्ट सिव सट्ट लिय॥१९॥ गहत पंच व्रत सार, रहित परपंच करन पन / समिति पंच प्रतिपाल, जपत नित इष्ट पंचे मन // धरत पंच आचार, पंच विग्यान विचारत / लहत पंच सिवहत, पंच चारित्त चितारत // अरि छट्ट छट्ट परिकट्ट करि, तट्ट तट्ट दहवट्ट किय / करि अह नह भवकह दहि, सट्ट सट्ट सिव सट्ट लिय // 7 // __ मिथ्यात्वादि सिद्धपर्यंत अवस्थाएँ, सबैया इकतीसा / मिथ्या भाव मारत हैं सम्यककौं धारत हैं, अबतकौं टारत हैं गारत हैं ममता। महाव्रत पारत हैं श्रेणीकों सँभारत हैं, . वेदभाव जारत हैं लोभ भाव ममता // घातिया निवारत हैं ज्ञानकों पसारत हैं, लोकालोककौं निहारे इंद्र आय नमता। जोगकौं विडारत हैं मोखकौं विहारत हैं, ऐसी गति धारै सुख होत अनोपमता // 71 // सर्वगुरुस्तुति वर्णन, छंद करखा / ' मोहकों भानिकै, आपकौं जानिकै, ज्ञानमैं आनिकै, होत ग्याता / (25) मारकौं मारिकै, वामकौं टारिकै, पापकौं डारिक, पुन्य पाता // क्रोधकों जारिक, मानकों गारिक, वंककौं दारिक, लोभ हाता। कर्मकों नासिकै, मोखमैं वासिकै, ताहिकों चित्तमें, भव्य ध्याता // 72 // उपदेश, सवैया इकतीसा / जगतके निवासी जगहीमै रति मानत हैं, मोखके निवासी मोखहीमैं ठहराये हैं। जगके निवासी काल पाय मोख पावत हैं, मोखके निवासी कभी जगमैं न आये हैं। एती जगवासी दुखवासी सुखरासी नाहिं, वे तो सुखरासी जिनवानीमैं बताये हैं। ताते जगवासतें उदास होइ चिदानंद, रत्नत्रयपंथ चलें तेई सुखी गाये हैं // 73 // याही जगमाहिं चिदानंद आप डोलत है, भरम भाव धेरै हरै आतमसकतकौं। अष्टकर्मरूप जे जे पुद्गलके परिनाम, तिनकौं सरूप मानि मानत सुमतकों // जाहीसमै मिथ्या मोह अंधकार नासि गयौ, भयौ परगास भान चेतनके ततकौ / तहीसमै जानौ आप आप पर पररूप, भानि भव-भावरि निवास मोख गतको // 74 / / 1 कामदेवको / 2 मायाको / 3 भ्रमण / * 1 पांच इंद्रिय / 2 पंचपरमेष्ठी। Scanned with CamScanner Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (26) रागदोप मोहभाव जीवको सुभावनाहिं, जीवको सुभाव सुद्धचेतन वखानिये / दर्व कर्मरूप ते तौ भिन्न ही विराजते हैं, तिनको मिलाप कहो कैसें करि मानिये // ऐसो भेद ज्ञान जाके हिरदै प्रगट भयौ, अमल अबाधित अखंड परमानिये / सोई सुविचच्छन मुकत भयौ तिहुँकाल, जानी निज चाल पर चाल भूलि भानियै // 75 // मूढदशा वर्णन। जैसैं गजराज कोई पाहनफैटिक जोई, प्रतिबिंब लखि सोई दंत दंतसौं अस्यौ / वानर मूठी विसेख पराधीन धरै भेख, कूपमाहिं सिंह देख सिंह देखकै पस्यौ / कांचभौनमाहिं स्वान सोर करै आप जान, नलिनीको सूवा मान मोहि किन पकस्यौ / तैसैं पसु-मोह व्याप परहीकौं कहै आप, भ्रमसेती आपनपो आपन ही विसस्यौ // 76 // जीवकी पूर्वदशा। स्वपर न भेद पायौ परहीसौं मन लायौ, मन न लगायौ निजआतम सरूपसौं। रागदोषमाहिं सूता विभ्रम अनेक गूता, भयौ नाहिं बूता जो निकसौं भवकूपसौं // - विद्वान् / 2 स्फटिक पत्थर / 3 देखकरके / 4 कांचका घर / 5 सोता 6 गूंथा, उलझा रहा। 7 सामर्थ्य / ( 27 ) अव मिथ्यातम मान प्रगटी प्रबोध-भान, महा मुखदान आन मोह दौर धृपमा / आप आपरूप जान्यो परहीकों पर मान्या, आपरस सान्यो ठान्या नेह सिवभूपमा // 77 / / मानवर्णन / सरसों समान मुख नहीं कहूं गृहमाहिं, दुःख ती अपार मन कहाली बताइये / तात मात सुत नारि स्वारथके सगे भात, देह तो चल न साथ और कौन गाइये // नरभौ सफल कीजै और स्वाद छांड़ि दीजै, क्रोध मान माया लोभ चित्तमें न लाइये / ज्ञानके प्रकासनको सिद्धथान बासनको, जीमैं ऐसी आवे है कि जोगी होइ जाइयै // 78 ____ अशोकपुष्पमंजरी छंद। रागभाव टारिकै सु दोपकों विडारिक, सु मोहभाव गारिकै निहारि चेतनामई / कर्मकौं प्रहारिकै सु भर्मभाव डारिक, सुचर्म दृष्टि दारिकै विचार सुद्धता लई // ज्ञानभाव धारिकै सु दृष्टिकों पसारिक, लखौ सरूप तारिकै अपार मुद्धता खई। मत्तभाव मारिकै सु मारभाव छारिकै, सु मोखकौं निहारिकै विहारकों विदा दई 1 ज्ञानसूर्य / 2 मुग्धता, अज्ञान / Scanned with CamScanner Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (28) भर्मभाव भानिकै सुभावकों पिछानिकै, सुध्यानमाहिं आनिकै सु आन-बुद्धि खै गई / धर्मकों वखानिकै सुधासुभाव पानिक, सुप्रानभाव जानिकै सुजान चेतनामई // सुद्धभाव ठानिकै सुवानिकौं प्रवानकै, सुरूप सुद्ध मानिकै सु मान सुद्धता नई। अष्टकर्म हानिकै सुदिष्टिकौं प्रधानकै, सुग्यानमाहिं आनिकै अग्यानकौं बिदा दई // 8 // चेतना सरूप जीव ज्ञानदृष्टिमैं सदीव, कुंभ आन आन घीव त्यौं सरीरसौं जुदा / तीनलोकमाहिं सार सास्वतो अखंडधार, मूरतीककौं निहार नीरको बुदैबुदा // सुद्धरूप बुद्धरूप एकरूप आपभूप, आतमा यही अनूप पर्मजोतिको उदा। स्वच्छ आपने प्रमानि रागदोष मोह भानि, ' भव्यजीव ताहि जानि छोड़ि शोक औ मुंदा // 81 // सुद्ध आतमा निहारि राग दोष मोह टारि, क्रोध मान वंक गारि लोभ भाव भानु रे / पापपुन्यकों विडारि सुद्धभावकौं सँभारि, भर्मभावकों विसारि पर्मभाव आनु रे // चर्मदृष्टि ताहि जारि सुद्धदृष्टिकों पसारि, देहनेहकौं निवारि सेतध्यान ठानु रे / पबुद्धि / 2 सम्यग्दर्शन / 3 बुदबुदा। 4 मोद, हर्ष / 5 नष्टकर / 6 शुक्लध्यान / (29) जागि जागि सैन छार भव्य मोखकौं विहार, एक वारके कहे हजार बार जानु रे // 82 // छप्पय / जीव चेतनासहित, आपगुन परगुन जाने / पुग्गलद्रव्य अचेत, आप पर कछु न पिछाने / जीव अमूरतिवंत, मूरती पुग्गल कहिये। ....जीव ज्ञानमयभाव, भाव जड़ पुग्गल लहियै // यह भेद ज्ञान परगट भयो, जो पर तजि अनुभौ करै। सोपरम अतिंद्री सुखै सुधा, भुंजत भौसागर तिरै // 8 // यह असुद्ध मैं सुद्ध, देह परमान अखंडित / असंख्यातपरदेस, नित्य निरभै मैं पंडित // एक अमूरति निर उपाधि, मेरो छेय नाहीं। 1. गुनअनंतज्ञानादि, सर्व ते हैं मुझमाहीं // मैं अतुल अचल चेतन विमल, सुखअनंत मोमैं लसैं / ...जब इस प्रकार भावत निपुन, सिद्धखेत सहजै बसैं॥८॥ ....... सबैया तेईसा। केवलग्यानमई परमातम, सिद्धसरूप लसै सिवठाहीं। ग्यायकरूप अखंड प्रदेस, लसै जगमैं जग सौ वह नाहीं॥ चेतन अंके लिय चिनमूरति,ध्यान धरौ तिसकौ निजमाहीं। राग विरोध निरोध सदा,जिम होइ वही तजिकै विधि-छाहीं॥ राग विरोध नहीं उरअंतर, आप निरंतर आतम जानै / भोगसँयोगवियोगवि, ममता न करै समता परवानै // 1 सोना छोड़। 2 सुखरूपी अमृत / 3 पुद्गलद्रव्य / 4 नाश / 5 चिह्न / 6 द्वेष / काँकी छाया। Scanned with CamScanner Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 31 ) (30) आन वखान सुहाइ नहीं, परधान पदारथसों रति माने, सो वुधिवान निदान लहै सिव, जो जगके दुख यौं सुख मान ज्ञायकरूप सदा चिनमूरति, राग विरोध उभै परछाहीं।" आप सँभार करै जब आतम, वे परभाव जुदे कछु नाहीं॥ भाव अज्ञान करै जबलौं, तवलौं नहिं ग्यान लखै निजमाहीं। भ्रामकभाव बढ़ाव करै जग, चेतनभाव करै सिवठाहीं // 8 // सिंहावलोकन-छप्पय / / . सुनहु हसे यह सीख, सीख मानौ सदगुरकी। 'गुरकी ऑन न लोपि, लोपि मिथ्यामति उरकी // उरकी समता गहौ, गहौ आतम अनुभौ सुख / सुख सरूप थिर रहै, रहै जगमैं उदास रुख // रखें करौ नहीं तुम विषयपर, पर तजि परमातम मुनहु / मुनहु न अजीव जड़ नाहिं निज, निज आतम वर्नन सुनहु // -भजत देव अरहंत, हंत मिथ्यात मोहकर / करत सुगुरु परनाम, नाम जिन जपत सुमन धर॥ धरम दयाजुत लखत, लखत निजरूप अमलपद। पैदमभाव गहि रहत, रहतँ हुव दुष्ट अष्ट मद // मदनबल घटत समता प्रगट, प्रगट अभय ममता तजत / तजत नसुभाव निज अपर तज,तजसुदुःख सिव सुख भजत लहत भेदविज्ञान, ज्ञानमय जीव सु जानत / जानत पुग्गल अन्य, अन्यसौं नातौ भानंत // भानत मिथ्या-तिमिर, तिमिर जासम नहिं कोई / कोई विकलप नाहिं, नाहिं दुविधा जस होई // होई अनंत सुख प्रगट जब, जब पानी निजपद गहत / गहत न ममत लखि गेय सब, सब जग तजि सिवपुर लहत / / जपत सुद्धपद एक, एक नहिं लखत जीव तन / तनक परिग्रह नाहिं, नाहिं जहँ राग दोप मन // मन वच तन थिर भयौ, भयौ वैराग अखंडित / खंडित आस्रवद्वार, द्वारसंवर प्रभु मंडित // मंडित समाधिसुख सहित जब, जव कपाय अरिगन खपत / खप तनममत्त निरमत्त नित, नित तिनके गुण भवि जपत // ज्ञाता साता कथन, सवैया (सुन्दरी)। जिनके घटमैं प्रगट्यौ परमारथ, रागविरोध हिये न विचारें। करकै अनुभौ निज आतमको, विषया सुखसौं हित मूल निवारें // हरिकै ममता धरिकै समता, . अपनी बल फोरि जु कर्म विडारें। जिनकी यह है करतूति सुजान, सुआप तिरै पर जीवन तारें // 92 // सवैया इकतीसा / चेतनासहित जीव तिहुंकाल राजत है, ग्यान दरसन भाव सदा जास लहिए। 1 अखिरकार / 2 हे आत्मन् / 3 आज्ञा / 4 अभिलाषा। 5 समझो। . 6 कमलकी तरह अलिप्त रहकर / 7 रहित / 8 कामदेवका जोर / 9 नाश करता है। 1 आत्मामें कर्म आनेका रास्ता / 2 आत्मामें नवीन कर्मका न आना। 3 विस्तरै-फैलें। Scanned with CamScanner Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (32) रूप रस गंध फास पुदगलको विलास, मूरतीक रूपी विनासीक जड़ कहिए // याही अनुसार परदर्वको ममत्त डारि, अपनौ सुभाव धारि आपमाहिं रहिए। करिए यही इलाज जातें होत आपकाज, राग दोष मोह भावको समाज दहिए // 93 // मिथ्याभाव मिथ्या लखौ ग्यानभाव ग्यान लखौ, कामभोग भावनसौं काम जोरजारिक। परकौ मिलाप तजौ आपनपौ आप भजौ, " / पापपुन्य भेद छेद एकता विचारिकै॥ आतम अकाज करै आतम सुकाज करै, पावै भवपार मोख एतौ भेद धारिकै। यातै हूं कहत हेर चेतन चेतौ सबेर, मेरे मीत हो निचीत एतौ काम सारिकै // 94 // अडिल्ल / अहो जीव निरग्रंथ, होय विषयन तजौ। निरविकलप निरद्वंद, सुद्ध आतम भजौ // तत्त्वनिमें परधान, निरंजन सोइ है। अविनासी अविकार, लखें सिव होइ है // 95 // मंदाक्रान्ता। देखौ देखौ भविक अधुना, राजते नाभिनंदा / घोरं दुःखं भजत भजते, सेवते सौख्यकंदा // . . मूह / 2 इस समय। ( 33 ) जाको नामै जपत अमरा, होत ते मुक्तिराजा / एई, एई भवदधिवि, धर्मरूपी जिहाजा // 16 // ज्ञाताका चिन्तवन / / सिद्धौ सुद्धौ अमल अचलौ, निर्विकल्पो अवंधौ / स्वच्छं भावं अजर अमरौ, निर्भयौ ज्ञानबंधौ // बर्नातीतौ रसविरहितौ, फासभिन्नं अगंधी। सोहं सोहं निज निजविषै, पैश्यतो नैव अंधौ // 97 // बुद्ध्यातीतौ अखल अतुलं, चेतनं निर्विकारौ / क्रोधं मानं रहित अछलं, लोभभिन्नं अपारौ॥ रागं दोष रहित अखयं, पर्म आनंदसिंधौ / सोहं सोहं निज निजविषै, पश्यतो नैव अंधौ // 98 // अक्षातीतौ गुणगणनिलौ, निर्गदौ अप्रमादौ / लोकालोकं सकल लखितं, निर्ममत्तौ अनादौ // सारं सारं अतनु अमनं, शब्दभिन्नं निरंधौ / सोहं सोहं निजनिजविष, पश्यतो नैव अंधौ // 99 / षद्रव्यकथन सवैया इकतीसा / जीव और पुद्गल धरम अधरम व्योम, काल एई छहौं द्रव्य जगके निवासी हैं। एक एक दरवमैं अनंत अनंत गुण, अनंत अनंत परजायके विकासी हैं। 1 वर्णरहित / 2 देखता नहीं है। ध. वि.३ Scanned with CamScanner Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनंत अनंत सक्ति अजर अमर सवै, सदा असहाय निजसत्ताके बिलासी हैं। सर्व दर्व गेयरूप परभाव हेयरूप, सुद्धभाव उपादेय याते अविनासी हैं // 10 // द्वादश अधिकार। परिनामी दोय जीव पुद्गल प्रदेसी पांच, / कालविना करतार जीव भोगै फल है। जीव एक चेतन अकास एक सर्वगत, एक तीन धर्म और अधर्म भेद लहै // मूरतीक एक पुदगल एकक्षेत्री व्योम, नित्य चार जीव पुदगल विना सु लहै / हेतु पंच जीवकौं है क्रिया जीव पुदगलमैं, जुदे देस आनपच्छ भापत विमलं है // 101 // नवतत्त्वस्वरूप वर्णन / जीवतत्त्व चेतन अजीव पुग्गलादि पंच, कर्मनके आवनकौं आस्रव वखानिए / आतम करमके प्रदेस मिलें बंध कह्यौ, आस्रव निरोध ताहि संवर प्रमानिए // कर्म उदै देय कछू खिरै निर्जरा प्रसिद्ध, सत्तातै कर्मको विनास मोख मानिए / एई सात तत्त्व यामैं पुन्य पाप और मिलैं, एही हैं पदारथ नौ भव्य हिये आनिए // 102 // ( 35) वीस स्थानों के नाम / गुणथान चौदै जीव-थान चौदै पर्यापत, पट प्राण दस संज्ञा गति चारि चार हैं। इंद्री पांच काय पट जोगे पंद्र वेद तीन, हैं कपाय चारि ज्ञान आठ परकार हैं / संजम हैं सात चारि दर्शन लेस्या हैं पट, भव्य दोय जानि पट सम्यक विथार हैं। सैनी दोय आहारक दोय उपयोग वार, बीसठान आतमाके भाखे गणधार हैं // 103 // कुबुद्धि वचन ( निन्दा स्तुति ) करखा / कहत है कुबुधि सुनि कंत मेरौ कह्यौ, भूलि जिने जाहु जिननाथ पासैं / जाहगे कहेंगे छांडि धन धाम तिय, गही तप सही दुख भूख प्यासें // 1 वादर एकेन्द्रिय सूक्ष्मएकेन्द्रिय द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पंचेन्द्रिय संज्ञी पंचेन्द्रिय इनके, पर्याप्त और अपर्याप्त इसप्रकार 14 जीव समास हैं / 2 आहार शरीर इन्द्रिय श्वासोछास भाषा मन इसप्रकार छह पर्व्याप्ति होती हैं। 3 पांच इन्द्रिय मनोबल वचनबल कायवल श्वासोछास और आयु इसप्रकार 10 प्राण हैं / 4 आहार भय मैथुन परिग्रह ये चार संज्ञा हैं। 5 सत्य मनोयोग असत्य मनोयोग उभय मनोयोग अनुभय मनोयोग इसतरह चार वचन योग और औदारिक काययोग औदारिकमिश्र काययोग वैक्रियिक काययोग वक्रियिक मिश्र काययोग आहारक काययोग आहारक मिश्रकाययोग कार्माण काययोग इसप्रकार 15 योग हैं / 6 अव्रत देशत्रत सामायिक छेदोपस्थापन परिहारविशुद्धि सूक्ष्मसांपराय यथाख्यात इसतरह सात संयम हैं / 7 मिथ्या सासादन मिश्र औपशमिक क्षायोपशमिक और क्षायिक ये 6 सम्यक्त्वके भेद 8 पति / 9 मत जाओ। Scanned with CamScanner Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) जहांको गयौ बाहुरौ कोई नहीं, . देत वह वास जगवासमासैं / / खान नहिं पान नहिं टकटकापुरीसम, मोहि तजि चलौ हौं कहाँ कावें॥ 104 // जिनस्तुति वर्णन-सवैया इकतीसा। स्याल ज्यों जुड़े अनेक काम तौ सरै न एक, सिंह होय एक तौ अनेक काज हुही है। तारे जो असंख्य मिलें कहा अंधकार दावें, एक भान-ज्योति दसौंदिसा जोति उही है। पाथर अपार भरे दारद न कहूं टरे, चिंतामनि एक मन चिंता जिन ट्रही है। तैसैं भगवान गुनखान करुनानिधान, सब देव आनमें प्रधान एक तुही है // 105 // ज्ञाता तथा मूढदशा, छप्पय / मिथ्यादृष्टी जीव, आपकौं रागी माने। मिथ्यादृष्टी जीव, आपकौं दोपी जानै / मिथ्यादृष्टी जीव, आपकौं रोगी देखै / . मिथ्यादृष्टी जीव, आपकौं भोगी पेखै // जो मिथ्यादृष्टी जीव सो, सुद्धातम नाहीं लहै / सोई ज्ञाता जो आपकौं, जैसाका तैसा गहै // 106 ___ज्ञानकथन, सवैया इकतीसा / चेतनके भाव दोय ग्यान औ अग्यान जोय, ___ एक निजभाव दूजौ परउतपात है। लौटकर आया / 2 सूर्यका प्रकाश। तातें एक भाव गहौ दूजी भाव मूल दही, जाते सिवपद लही यही ठीक बात है। भावको दुखायौ जीव भावहीसौं सुखी होय, भावहीकौं फेरि फेरै मोखपुर जात है। यह तो नीको प्रसंग लोक कह सरवंग, आगहीको दाधी अंग आग ही सिरात है // ____ ज्ञाता आलोचना कथन / आत्मा सचेतन है पुग्गल अचेतन है, जीव अविनस्वर सरीर छबि छारसी। यह तौ प्रगट भेद आलसी न जाने क्यों हू, जानै उद्यमीक सो तौ मोखकौं विहारसी। घटमें दयाविसेख देख और जीवनकों, आतमगवेपी बुध झूर मन नारसी। जहां देखौ ग्याताजन तहां तौ अचंभौ नाहिं, आरसीके देखें उर लागत है आरसी // 108 // मूढकथन। ग्यानके लखनहारे विरले जगतमाहिं, ग्यानके लखनहारे जगमैं अनेक हैं। भाखें निरपेक्षवैन सज्जन पुरुष केई, दीखत वहुत जिन्हें वचनकी टेक हैं / चूक परै रिसखात ऐसे बहु जीव भ्रात, औसर अचूक थोरे धरें जे विवेक हैं / 1 जला हुआ। 2 जिसका कभी निरन्वय ( सर्वथा ) नाश न हो Scanned with CamScanner Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . 38 ग्याता जन थोरे मूढमती वहुतेरे नर, जानै नाहिं ग्यान सर कूपकैसे भेर्क हैं // 109 // हितोपदेश वर्णन, मत्तगयन्द / ज्ञान सोई जु करै हितकारज, ध्यान सोई मनकौं वसि आने / बुद्ध सोई जु लखै परमारथ, मीतें सोई दुविधा नहिं ठाने / भूप सोई उर नीत विचारत, नारि सोई भरता सनमानै। द्यानतं सो न गहै परको धन, . पीर सोई परपीरकौं जानै // 110 // छन्दशास्त्रके आठगणोंके नाम, स्वरूप, खामी, फल, कवित्त 31 मात्रा। यगन आदिलघु, उदक, देत सुत, भगन आदि गुरु, ससि, जस देह। रगण मध्य लघु, अगनि, मृत्यु फल, जगन मध्य गुरु, रवि, गदगेह // तगन अंतलघु, व्योम, अफल है, सगन अंतगुरु, पवन, भजेह / नगन त्रिलघु, सुर, आयु प्रदाता, मगन त्रिगुरू भू, लच्छि भरेह // 111 // ( 39 ) अंतापिका, छप्पय / कौन धर्म है सार, आन-मत भजै कि नाहीं। किहि त्यागें है सुजस, भरत हारे किहि ठाहीं // किहि थिर की. ध्यान, कौन बर्दै अघ नासै / लोभवंत धन देह, श्रवणतें कहा अभ्यासै // वहु पाप कौनतें बुद्धि सठ, . दया कौनकी धरहि मन / मुनिराज कहा कहि भव्य प्रति, जैनधरम मुन सुमन जन / / 112 // ' शार्दूलविक्रीड़ित / चैतन्यं अमलं अनादि अचलं, आनंद भावं मयं / त्रैलोक्ये अखयं अखंडित सदा, सारं सुजानं स्वयं // राग द्वेष त्रिकर्म सर्व रहितं, स्वच्छं स्वभावं जुतं / सोहं सिद्ध विशुद्ध एक परमं, ज्ञानं उपाधिच्युतं // 113 // - जीवके नव दृष्टान्त, सवैया इकतीसा। जैसौ रैनिदीपक अरुन परकास वन्यौ, तैसौ परकास सुद्ध जीवको वखान्यौ है / दधिमाहिं घीव खीरमाहिं नीर पाहनमैं, धात जैसे तैसें जीव पुद्गलमैं जान्यौ है / / 1 तालाव / 2 मैंडक / 3 पंडित। 4 मित्र / 5 दयानतदार अर्थात् ईमानदार और प्रन्थकर्ताका नाम।६ पराया कष्ट / 7 यगणके आदिमें लघु होता है, शेष दो वर्ण गुरु होते हैं। 8 यगणका देव जल है / 9 यगण पुत्रका दाता है। 10 रोगोंका घर। 1 इस छप्पयमें किये हुए सब प्रश्नोंके उत्तर जैन धरम मुन जन इस पदमें निकलते हैं। इस पदके प्रत्येक अक्षरके साथ अन्त मिलानेसे क्रमसे 12 प्रश्नोंके इस प्रकार 12 उत्तर होते हैं-१ जन ३धन, 4 रन, 5 मन, 6 मुन(नि), 7 न न, 8 सुन, 9 मन, 10 जन, 12 जैन धरम मुन सुमन जन / Scanned with CamScanner Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RER जैसे हेमरूपो और फटिक जु निर्मल है, तैसें जीव निर्मल सुदिष्टिसौं पिछान्यौ है। नव दृष्टान्त करिकै जीवको सरूप जान्यौ, परभाव भान्यौ सुद्ध भाव मन आन्यौ है // 114 // . हर्ष-शोकजय मंत्र। केई केई वार जीव भूपति प्रचंड भयौ, केई केई वार जीव कीटरूप धखौ है। केई केई बार जीव नौग्रीवक जाय वस्यौ, केई बार सातमै नरक अवतस्यौ है॥ केई केई बार जीव राघौ मच्छ होइ चुक्यौ, केई वार साधारन तुच्छ काय बस्यौ है। सुख और दुःख दोऊ पावत है जीव सदा, यह जान ग्यानवान हर्ष सोक हस्यौ है // 115 // ज्ञानीमहिमा, कुंडलिया। समदिष्टी निजरूपकौं, ध्यावत है निजमाहिं। कर्मसत्रु छय करत है, जाकै ममता नाहिं // जाकै ममता नाहिं, आप परभेद विचारै / छहौं हव्यतै भिन्न, सुद्ध निजआतम धारै // करै न राग विरोध, मिलै जो इष्ट अनिष्टी / सो सिवपदवी लहै, वहै जो है समदिष्टी // 116 // उपसंहार। बार बार कहैं पुनरुक्त दोष लागत है, जागत न जीव तूतौ सोयौ मोह झगमैं / आतमासेती विमुख गहै राग दोपरूप, ... पंचइंद्रीविषैसुखलीन पगपगमें // पावत अनेक कष्ट होत नाहिं अष्ट नष्ट, महापद भिष्ट भयो भमै सिष्टमगमें। जागि जगवासी तू उदासी व्हकै विषयसौं, लागि सुद्ध अनुभौ ज्यों आवै नाहिं जगमैं // 117 // ग्रन्थमहिमा। जो इसकौं सुनै तिसै काननकौं हितकारी, जो इसकौं सुनै तिसै मंगलको मूल है। जो इसकौं पट्टै ताहि ज्ञान तौ विशेष बढे, यादि करै सो तौ पावै भव दधिको कूल है / / सकल ग्रंथनिमैं सार सार निज आतमा है, सुध उपयोगमई ताकौ जो न भूल है / सोई साध सोई संत सोई सब गुनवंत, लहै जु अनंत सुख नासै को धूल है // 118 // कविलघुता। पिंगल न पढ़यौ नहीं देखी नाममाला कोऊ, व्याकरण काव्य आदि एक नाहिं पढ़यौ है / आगमकी छाया लैक अपनी सकति सार, सैलीके प्रभावसेती स्वर कोट (?) गढ्यौ है // अच्छर अरथ छंद जहां जहां भंग होय, तहां तहां लीजै सोध ग्यान जिन्हें बढ़या है। वीतराग थुति कीजै साधरमी संग लीजै, आगम सुनीजै पीजै ग्यानरस कढ़यौ है // 11 १किनारा। Scanned with CamScanner Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ INES सत्रैसी ठावन मगसिरवदी छटि वढ़ी, आगरेमें सैली सुखी निजमनधनसों। मानसिंहसाह औ विहारीदास ताको शिष्य द्यानत विनती यह कहै सब जनसौं / जिहिविधि जानौ निजआतम प्रगट होइ, वीतरागधर्म बढ़े सोई करौ तनसौं। दुखित अनादिकाल चेतन सुखित करौ, पावै सिवसुखसिंधु छूटै दुःख बनसौं // 120 // बानी तो अपार है कहांलग बखान करौं, गणधर इंद्र आदि पार नहीं पायौ है। तुच्छमती जीव ताकी कौन बात पूछत है, जे तो कछू कहै ते तौ तहां ही समायौ है। अच्छर अरथ बानी तीनौ तौ अनादि मानी, करै कहै कौन मूढ कहत मैं गायौ है। याही ममतासौं चिरकाल जगजाल रुलै, ग्यानी सब्दजाल भिन्न आपरूप पायौ है // 121 // . अथ सुबोध पंचासिका। सौरटा। ओंकार मझार, पंचपरमपद वसत हैं। तीन भवनमै सार, वंदों मनवचकायसौं // 1 // अच्छरज्ञान न मोहि, छंदभेद समझौं नहीं। बुधि थोरी किम होय, भाषा अच्छर-बावनी // 2 // आतम कठिन उपाय, पायौ नरभी क्यों तजै। राई उदधि समाय, ढूढ़ी फिर नहिं पाइए // 3 // इहविधि नरभौ कोइ, पाय विषैरससौं रमै। सो सठ अंमृत खोय, हालाहल विष आचरै // 4 // ईसुर भाख्यौ एह, नरभव मति खोवै वृथा। फिर न मिलै यह देह, पछितावौ बहु होइगौ // 5 // उत्तम नर अवतार, पायौ दुखकरि जगतमै / यह जिय सोच विचार, कछु तोसा सँग लीजिए // 6 // ऊरधगतिको बीज, धर्म न जो नर आदरै। मानुष जौनि लही जु, कूप परै नर दीप लै // 7 // रिस तजिकै सुन वैन, सार मनुप सब जोनिमें / ज्यौं मुख ऊपर नैन, भान दिपै आकासमैं // 8 // छन्द चाल। रीझ रे नर नरभौ पाया, कुल गोत विमल तू आया। जो जैनधरम नहिं धारा, सव लाभ विषै सँग हारा॥९॥ लिखि बात हिये यह लीजै, जिनकथित धर्म नित कीजै। भवदुखसागरकौं तरिए, सुखसौं नौका जो बरियै // 10 // इति उपदेशशतक / Scanned with CamScanner Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (44) लीन विष डंक अहि भरिया, भ्रममोहत मोहित परिया। विधिना जव दइ है घुमरिया, तब नरकभूमि तू परिया॥११॥ ए नर करि धर्म अगाऊ, जब लो धनजोबन चाऊ / जब लौं नहिं रोग सतावै, तुहि काल न आवन पावै // 12 // ऐन हैं तुव आसन नैना, जब लौ तुव प्रकृति फिरै ना। जब लो तुव बुद्धि सवाई, करि धर्म अगाऊ भाई // 13 // ओस जल ज्यों जोवन जै है, करि धर्म जरा फिरि ऐहै / ज्यों बूढ़ा बैल थकै है, कछु कारज करि न सके है // 14 // औ खिन संयोग वियोगा, खिन जीवन खिन मृत रोगा। खिनमें धन जोबन जावै, किहिविधि जगमैं सुख पावै 15 अंबर धन जीतब गेहा, गजकरन चपल धन एहा // तन दरपन छाया जानी, यह वात सदा उर आनी // 16 // ढाल परमादीकी। अः जम ले नित आव, क्यों नहिं धर्म सुनीज। नैन तिमिर नित हीन, आसन जोबन छीजै // 17 // कमला चले न पेंड़, मुख ढांक परिवारा। देह थक बहु पोपि, क्यों न लख संसारा // 18 // खन नहिं छोड़े काल, जो पाताल सिधार / बसै उदधिके बीच, जो कहुं दूर पधार // 19 // गन सुर राखे तोहि, राखै उदधि मथैया। तबहु न छोड़े काल, दीप पतंग परया // 20 // घर गो सौना दान, मणि औषध सब यो ही। मंत्र यंत्र करि तंत्र, काल मिट नहिं क्यों ही // 21 // 1 हाधीके कानके सदृश धन चंचल है। (15) नरकतने दुख भूरि, जो तू जीव सम्हारे। ' तौ न रुचै आहार, अब सब परिग्रह डार // 22 // चेतन गरभ मँझार, नरक अधिक दुख पायौ। बालपनेकी खेद, सब जग परगट गायौ // 23 // छिनमै धनकी सोक, छिनमै विरह सतावै / छिनम इष्टवियोग, तरुन कवन सुख पावै // 24 // _ ढाल दोहरेकी। मन भाई रे, चेत मन भाई रे // टेक // जरापनै दुख जे सहे, सुन भाई रे, सो क्यों भूल तोहि, चेत मन भाई रे॥ जो तू विषयनमै लग्यौ, मन भाई रे, आतमहित नहिं होइ, चेत मन भाई रे // 25 // झूठ पाप करि ऊपज्यौ, मन भाई रे, गरभ वस्यो वस पाप, चेत मन भाई रे / सात धात लहि पापते, मन भाई रे, अजहु पापरत आप, चेत मन भाई रे // 26 // नहीं जरा गद आइ है, मन भाई रे, कहां गयौ जम जच्छ, चेत मन भाई रे। जो निचिंत तू है रह्यौ, मन भाई रे, ए सब हैं परतच्छ, चेत मन भाई रे // 27 // टुक सुखकों भवदधि पस्यौ, मन भाई रे, पाप लहर दख देत, चेत मन भाई रे।। पकरौ धर्म जिहाजकों, मन भाई रे, सुखसौं पार करेत, चेत मन भाई रे / / 28 // saster Scanned with CamScanner Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (46) ठीक रहै धन सासतौ, मन भाई रे, होइ न रोग न काल, चेत मन भाई रे। तबहू धर्म न छाँड़ियै, मन भाई रे, कोटि कटें अघजाल, चेत मन भाई रे // 29 // डरपत जो परलोकतें, मन भाई रे, चाहत सिवसुख सार, चेत मन भाई रे / क्रोध मोह विषयनि तजौ, मन भाई रे, धर्मकधित जिन धार, चेत मन भाई रे // 30 // ढील न करि आरंभ तजौ, मन भाई रे, आरंभमें जियघात, चेत मन भाई रे। जीवघाततै अघ वढ़े, मन भाई रे, अघते नरकनिपात, चेत मन भाई रे // 31 // नरक आदि तिहु लोकमैं, मन भाई रे, इह परभव दुखरास, चेत मन भाई रे / सो सब पूरव पापतै, मन भाई रे, जीव सहै वहु त्रास, चेत मन भाई रे // 32 // दाल, वीरजिनिंदकी। तिहु जगमैं सुर आदि दै जी, जो सुख दुलभ सार / सुंदरता मनभावनी जी, सो दै धर्म अपार // रे भाई, अब तू धर्म सँभार, यह संसार असार,रे भा० 33 धिरता जस सुख धर्मा जी, पाच रतन भंडार / धर्मविना प्रानी लहै जी, दुख नाना परकार ॥रे भा० 34 / दान धर्मतें सुर लहै जी, नरक होत करि पाप / इहविध जानें क्यों पड़े जी, नरकवि तू आपारे भा०३५ (47) धर्म करत सोभा लहै जी, जय धनरथ गज वाजे। प्रासुकदान प्रभावसौं जी, घर आवें मुनिराजारे भा० 36 नवल सुभग मनमोहना जी, पूजनीक जगमाहिं / रूप मधुर वच धरमत जी, दुख कोउ व्यापै नाहिं।।रे भा०३७ परमारथ यह वात है जी, मुनिकों समता सार / विन मूल विद्यातनी जी, धर्म दया सिरदार // रे भा०३८ फिर सुन करुना धर्मसी जी, गुरु कहिये निरग्रंथ / देव अठारह दोप विन जी, यह सरधा सिवपंथारे भा०३९ बिन धन घर सोभा नहीं जी, दान विना घर जेह / जैसे विषई तापसी जी, धर्म दयाविन तेह् // रे भा०४० दोहा। भौंदू धनहित अघ कर, अघसौं धन नहिं होय / धरम करत धन पाइय, मन मान कर सोय // 41 // मति जिय सोच किंच तृ, होनहार सो होय / जे अच्छर विधिना लिखे, ताहि न मैट कोय // 42 // यह वह बात बहु करौ, पैठौ सागरमाहिं / सिखर चढ़ा वस लोभक, अधिकी पावा नाहिं // 43 // रैनि दिना चिता चिंता,-माहिं जलै मति जीव / जो दीया सो पाय है, और न होय सदीय / / 44 // लागि धरम जिन पूजिय, साँच कह सब कोय / चित प्रभुचरन लगाइये, तब मनवांछित होय // 45 // वह गुरु हो मम संजमी, देव जैन हो सार / साधरमी संगति मिली, जव ला भव अवतार // 46 // १घोड़ा। Scanned with CamScanner Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (48) धर्मपचीसी। --- - - -: शिवमारग जिन भासियो, किंचित जानै कोइ / अंत समाधिमरण करै, चहुँ गति दुख छय होइ॥४७॥ षट् द्वै गुण सम्यक गहै, जिनवानी रुचि जास। सो धनसौं धनवान है, जगमैं जीवन तास // 48 // सरधा हिरदै जो करै, पढ़े सुनै दे कान।। पाप करम सब नासिक, पावै पद निरवान // 49 // हितसौं अरथ वताइयौ, सुगुरु बिहारीदास / ' सत्रह सौ बावन वदी, तेरस कातिकमास // 50 // ग्यानवान जैनी सबै, वसैं आगरेमाहिं। अंतरग्यानी बहु मिलें, मूरख कोऊ नाहिं // 51 // छय उपशम वल, मैं कहे, द्यानत अच्छर एहु / दोष सुवोधपचासिका, वुधजन सुद्ध करेहु // 52 // Prams. इति सुबोधपंचासिका। दोहा। भव्य-कमल-रवि सिद्ध जिन, धर्मधुरंधर धीर। नमत संत जग-तम-हरन, नमौं त्रिविध गुरु वीर // 1 // चौपाई ( 15 माना।) मिथ्याविषयनिमैं रत जीव, ताक् जगमैं भमै सदीव / विविध प्रकार गहै परजाय, श्रीजिनधर्म न नेक सुहाय 2 धर्मविना चहुं गतिमैं परै, चौरासी लख फिरि फिरि धेरै / दुखदावानलमाहिं तपंत, कर्म करै फल भोग लहंत // 3 // अति दुलेभ मानुष परजाय, उत्तम कुल धन रोग न काय। इस औसरमै धर्म न करै, फिर यह औसर कबधौं वरै // 4 // नरकी देह पाय रे जीव, धर्म बिना पशु जान सदीय / अर्थकाममें धर्म प्रधान, ताबिन अर्थ न काम न मान॥५॥ प्रथम धर्म जो करै पुनीत, सुभसंगम आवै करि प्रीत / विघन हरै सब कारज सरै, धनसौं चाखौं कौंने भरै // 6 // जनम जरा मृतुके बस होय, तिहूंकाल जग डोलै सोय / श्रीजिनधर्म रसायन पान, कबहुं न रुचि उपजै अग्यान 7 ज्यों कोई मूरख नर होय, हालाहल गहि अमृत खोय / त्यौं सठ धर्म पदारथ त्याग, विषयनिसौं ठानै अनुराग // 8 // मिथ्याग्रह-गहिया जो जीव, छांडि धरम विषयनि चित दीव। यौं पसु कल्पवृक्षकों तोड़ि, वृक्ष धतूरेके बहु जोड़ि // 9 // नरदेही जानौ परधान, विसरि विपै करि धर्म सुजान / त्रिभुवन इंद्रतने सुख भोग, पूजनीक हो इंद्रन जोग॥१०॥ ध. वि. 4 1 निःशांकित, निःकांक्षित, निविचिकित्सित, अमूढदृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य, प्रभावना, ये षड्दै अर्थात् आट सम्यग्दर्शनके अंग हैं। Scanned with CamScanner Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (50) चंद विना निसि गज बिन दंत, जैसे तरुण नारि विन कंत। धर्म बिना त्यौं मानुष देह, तातें करियै धर्म सनेह // 11 // हय गय रथ बहु पायक भोग, सुभट बहुत दल चमर मनोग। ध्वजा आदि राजा विन जानि,धर्म बिना त्यौं नरभौमानि१२ जैसे गंध विना है फूल, नीर विहीन सरोवर धूल। ज्यौंधन विन सोभित नहिं भौन, धर्म विना त्यौं नर चिंतौन॥ अरचैसदा देव अरहंत, चरचै गुरुपद करुनावंत / " खरचै दाम, धर्मसौं प्रेम, न रचै विषै सफल नर एम॥१४॥ कमला चपल रहै थिर नाहि, जोवन कांति जरा लपटाहि / सुत मित नारि नावसंजोग, यह संसार सुपनकालोग॥१५॥ यह लखि चित धरि सुद्ध सुभाव, कीजै श्रीजिनधर्म उपाव / यथा भाव जैसी मति गहै, तैसी गति तैसा सुख लहै // 16 // जो मूरख धिपनाकरि हीन, विषै-ग्रंथ-रत व्रत नहिं कीन। श्रीजिनभाषित धर्म नगहै, सो निगोदको मारग लहै // 17 // आलस मंदबुद्धि है जास, कपटी विषमगन सठ तास / कायरता मद परगुण ढकै, सो तिरजंच जोनि लहि सकै 18 . आरत रौद्र ध्यान नित करे, क्रोध आदि मच्छरता धरै / हिंसक वैरभाव अनुसरै, सो पापिष्ट नरकगति परै॥१९॥ कपटहीन करुणाचितमाहि, हेय उपादे भूलै नाहिं / भक्तिवंत गुणवंत जु कोय, सरलभाषि सोमानुष होय॥२०॥ श्रीजिनवचनमगन तपवान, जिन पूजै दे पात्रहिं दान // रहै निरंतर विषय उदास, सोई लहै सुरग आवास // 21 // . 1 हिताहित बुद्धिसे / 2 पारमहमें / ( 51 ) मानुषजोनि अंतकी पाय, सुनि जिनवचन विपै विसराय। गहै महाव्रत दुद्धर वीर, सुकलध्यान थिर लहि सिव धीर२२ धरम करत सुख होय अपार, पाप करत दुख विविधप्रकार। वाल गपाल कहैं सब नारि, इष्ट होय सोई अवधारि // 23 // श्रीजिनधर्म मुकतिदातार, हिंसाधरम करत संसार / यह उपदेश जानि वड़ भाग, एक धर्मसौं करि अनुराग 24 व्रत संयम जिनपद थुति सार, निर्मल सम्यक भावन वार। अंत कषाय विषय कृश करौ,ज्यों तुम मुकतिकामिनी वरी२५ दोहा। वुधकुमुदनि ससि सुख करन, भवदुख सागर जान / कहै ब्रह्म जिनदास यह, ग्रंथ धर्मकी खान // 26 // द्यानत जे वाँचें सुनें, मनमें करें उछाह / ते पावें फल सासतौ, मनवांछित फल-लाह // 27 // इति धर्मपच्चीसी। KAROKAR TAMAN .1 यान-जहाज .. . Scanned with CamScanner Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (52) तत्त्वसार भाषा। दोहा / आदिसुखी अंतःसुखी, सिद्ध सिद्ध भगवान / निज प्रताप परताप विन, जगदर्पन जग आन // 1 // ध्यान दहन विधि-काठ दहि, अमल सुद्ध लहि भाव। परम जोतिपद वंदिकै, कहूं तत्त्वको राव // 2 // चौपाई। तत्त्व कहे नाना परकार, आचारज इस लोकमँझार। भविक जीव प्रतिबोधन काज, धर्मप्रवर्तन श्रीजिनराज // 3 आतमतत्त्व कह्यौ गणधार, स्वपरभेदतें दोइ प्रकार। अपनौ जीव सुतत्त्व वखानि, पर अरहंत आदि जिय जानि अरहंतादिक अच्छर जेह, अरथ सहित ध्यावै धरि नेह। विविध प्रकार पुन्य उपजाय, परंपराय होय सिवराय॥५ आतमतत्त्वतने द्वै भेद, निरविकलप सविकलप निवेद। निरविकलप संवरको मूल, विकलप आस्रव यह जिय भूल 6 जहांन व्यापै विषय विकार, है मन अचल चपलता डार। सो अविकल्प कहावै तत्त, सोई आपरूप है सत्त // 7 // मन थिर होत विकल्पसमूह, नास होत न रहै कछु रूह / सुद्ध सुभाववि द्वै लीन, सो अविकल्प अचल परवीन // 8 सुद्धभाव आतम दृग ग्यान, चारित सुद्ध चेतनावान / इन्हें आदि एकारथ वाच, इनमैं मगन होइकै राच // 9 // परिग्रह त्याग होय निरग्रंथ,भजि अविकल्प तत्त्व सिवपंथ। सार यही है और न कोय, जानै सुद्ध सुद्ध सो होय // 10 (53) अंतर वाहिर परिग्रह जेह, मनवच तनसौं छांडे नेह / सुद्धभाव धारक जब होय, यथा ग्यान मुनिपद है सोय११ जीवन मरन लाभ अरु हान, सुखद मित्र रिपु गनै समान। राग न रोष करै परकाज, ध्यान जोगसोई मुनिराज॥१२॥ काललब्धिवल सम्यक वरै, नूतन बंध न कारज करै। पूरव उदै देह खिरि जाहि,जीवन मुकत भविक जगमाहि / / जैसै चरनरहित नर पंग, चढ़न सकत गिरि मेरु उतंग। त्यौं विन साध ध्यान अभ्यास, चाहै करौ करमको नास१४ संकितचित्त सुमारग नाहि, विषैलीन वांछा उरमाहिं / ऐसे आप्त कहैं निरवान, पंचमकाल विर्षे नहिं जान // 15 // आत्मग्यान देग चारितवान, आतम ध्याय लहै सुरथान / मनुज होय पावै निरवान, तातें यहां मुकति मग जान 16 यह उपदेस जानि रे जीव, करि इतनौ अभ्यास सदीव / रागादिक तजि आतम ध्याय, अटल होय सुख दुख मिटि जाय // 17 // आप प्रमान प्रकास प्रमान, लोक प्रमान, सरीर समान / दरसन ग्यानवान परधान, परतें आन आतमा जान 18 राग विरोध मोह तजिवीर, तजि विकलप मन वचन सरीर। कै निचिंत चिंता सव हारि, सुद्ध निरंजन आप निहारि॥१९ क्रोध मान माया नहिं लोभ, लेस्या सल्य जहां नहिं सोभ। जन्म जरा मृतुको नहिं लेस, सो मैं सुद्ध निरंजन भेस 20 बंध उदै हिय लबधि न कोय, जीवथान संठान न होय / चौदह मारगना गुनथान, काल न कोय चेतना ठान 21 1 सम्यग्दर्शन। Scanned with CamScanner Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (54) फरस वरन रस सुर नहि गंध, वरंग बरगना जास न बंधा नहिं पुदगल नहिं जीवविभाव,सो मैं सुद्ध निरंजन रावा२२॥ विविध भांति पुदगल परजाय, देह आदि भाषी जिनराया चेतनकी कहिये व्योहार, निह. भिन्न भिन्न निरधार // 23 // जैसे एकमेक जल खीर, तैसें आनौ जीव सरीर।। मिलें एक पै जुदे त्रिकाल, तजै नकोऊ अपनी चाल // 24 // नीर खीरसौं न्यारौ होय, छांछिमाहिं डार जो कोय / त्यौं ग्यानी अनुभौ अनुसरै, चेतन जड़सौं न्यारी करै / / 25|| दोहा। चेतन जड़ न्यारौ कर, सम्यकदृष्टी भूप / जड़ तजिक चेतन गहै, परमहंसचिदूप // 26 // ज्ञानवान अमलान प्रभु, जो सिवखेतमँझार / सो आतम मम घट वस, निहचे फेर न सार | // 27 // सिद्ध सुद्ध नित एक में, ग्यान आदि गुणखान / अगन प्रदेस अमूरती, तन प्रमान तन आन // 28 // सिद्ध सुद्ध नित एक में, निरालंब भगवान / करमरहित आनंदमय, अभै अखे जग जान // 29 // मनथिर होत विर्षे घटै, आतमतत्त्व अनूप / ज्ञान ध्यान वल साधिकै, प्रगटै ब्रह्मसरूप // 30 // अवर घन फट प्रगट रवि, भूपर करै उदोत / विषय कषाय घटावतें, जिय प्रकास जग होत // 31 // 1 समान अविभाग प्रतिच्छेदोंके धारक प्रत्येक कर्मपरमाणुको वर्ग कहते हैं। 2 वर्गके समूहको वर्गणा कहते हैं। 3 स्कन्ध / 4 निर्भय / 5 अक्षय / 6 आकाशमें। मन यच काय विकार नदि, निरविकारता बार। ग्रगट होय नित्र बानमा, परमादनपद मार // 32 // मौनगहिन आसन महिन, चिन चटाल खोय / पुग्व मत्तामें गले, नयं न मित्र होय / / 32 // भव्य करें चिरकाल तप, न न मित्र बिन म्यान / ग्यानबान ततकाल ही, याचे पद निवान // 34 // देह आदि पदव्यन, ममता की गवार / भयो परममं लीन मो, बांब कर्म अपार // 35 // इंद्रीविष मगन रहै, गग दोष घटमाहि / क्रोध मान ऋटुपित कृषी, ग्यानी एनी नाहि // 33 // देव मोतन नहीं. चेतन देन्बी नाहिं। राग दोष किहिमा करी, ही मैं ममतामाहिं // 37 // थावर जंगम मित्र रियु, देव आप ममान / राग विरोध कर नहीं, मोई ममतावान // 3 // सत्र असंखपन्देमजुन, जनमै मरे न कोय / गुणअनंत चेतनमह, दिव्यादिष्टि परि जोय // 39 // निहत्र रूप अमंद है. मेदव्य व्योहार। स्यादवाद मान सदा, तत्रि रागादि विकार // 40 // राग दोष कल्लोटबिन, जो मन जल थिर होय / सो देख निवल्पकी, और न देखें य॥४१॥ अमल मुथिर सरवर मर्य, दीन रतन डार / त्यों मन निरमल थिरविष, दीम चेतन सार // 42 // देखें विमलसरूपकी, इंद्रियविष बिमार / होय मुकति खिन आधर्म, तजि नरमी अवतार // 3 // Scanned with CamScanner Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यानरूप निज आतमा, जड़सरूप पर मान / जड़तजि चेतन ध्याइये, सुद्धभाव सुखदान // 44 // निरमल रलत्रय धरै, सहित भाव वैराग। चेतन लखि अनुभौ करें, वीतरागपद जाग // 45 // निरमल रलनय तहां, जहां न पुन्य न पाप // 46 // थिर समाधि वैरागजुत, होय न ध्यावै आप। भागहीन कैसे करै, रतन विसुद्ध मिलाप // 47 // विषयसुखनमैं मगन जो. लहै न सुद्ध विचार / ध्यानवान विषयनि तजै, लहै तत्त्व अविकार // 48 // अधिर अचेतन जड़मई, देह महादुखदान / जो यासौं ममता करै, सो बहिरातम जान // 49 // सरै परै आमय धरै, जरै मरै तन एह / हरि ममता समता करै, सो न वरै पन-देह // 50 // पापउदैको साधि, तप, करै विविध परकार / सो आवै जो सहज ही, बड़ौ लाभ है सार // 51 // करमउदय फल भोगते, करै न राग विरोध / सो नासै पूरव करम, आगें करै निरोधै // 52 // चौपाई (15 मात्रा) कर्मउदै सुख दुख संजोग, भोगत करें सुभासुभ लोग। ताते बांधै करम अपार, ग्यानावरनादिक अनिवार॥ 53 // जबलौं परमानूसम राग, तबलौ करम सकें नहिं त्याग / परमारथ ग्यायक मुनि सोय, रागत विनु काज न होय 54 १पर अर्थात् शरीरादि पुद्गल / 2 रोग। 3 संवर। . (57) सुख दुख सहै करम बस साध, करै नरागविरोध उपाध। ग्यानध्यानमैं थिर तपवंत, सो मुनि करै कर्मको अंत // 55 गहै नहीं पर तजै न आप, करै निरंतर आतमजाप / ताकै संवर निर्जर होय, आस्रव वंध विनासै सोय // 56 // तजि परभाव चित्त थिर कीन, आप-स्वभावविर्षे है लीन। सोई ग्यानवान दृगवान, सोई चारितवान प्रधान // 57 // आतमचारित दरसन ग्यान, सुद्धचेतना विमल सुजान। कथन भेद है वस्तु अभेद, सुखी अभेद भेदमैं खेद // 58 // जो मुनि थिर करि मनवचकाय, त्यागै राग दोष समुदाय / धरै ध्यान निज सुद्धसरूप, बिलसै परमानंद अनूप // 59 // जिह जोगी मन थिर नहिं कीन, जाकी सकति करम आधीन। करइ कहा न फुरै बल तास, लहै न चेतन सुखकी रास // 60 जोग दियौ मुनि मनवचकाय, मन किंचित चलि वाहिर जाय। परमानंद परम सुखकंद, प्रगट न होय घटोमैं चंद // 61 // सव संकल्प विकल्प विहंड, प्रगटै आतमजोति अखंड / अविनासी सिवको अंकूर, सो लखि सांध करमदल चूर॥६२ विषय कषाय भाव करि नास, सुद्धसुभाव देखि जिनपास। ताहि जानि परसौं तजि काज, तहां लीन हूजै मुनिराज // 63 विषय भोगसेती उचटाइ, शुद्धतत्त्वमै चित्त लगाइ / होय निरास आस सव हरै, एक ध्यानअसिसौं मन मरै // 64 मरै न मन जो जीवै मोह, मोह मरै मन जनम न होय। ज्ञानदर्शआवर्ने पलाय, अंतरायकी सत्ता जाय // 65 // / 1 बादलोंकी घटामें / 2 परसौं-परपदााँसे / 3 ध्यानरूपी तलवारसे / Scanned with CamScanner Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (59) सम्यकदरसन ग्यान, चारित सिक्कारन कहे / नय व्यवहार प्रमान, निह. तिहुमैं आतमा // 76 // लाख वातकी वात, कोटि ग्रंथको सार है। जो सुख चाहौ भ्रात, तो आतम अनुभौ करौ // 7 // लीजौ पंच सुधारि, अरथ छंद अच्छर अमिल / मो मति तुच्छ निहारि, छिमा धारियौ उरविर्षे / / 78 // द्यानत तत्त्व जु सात, सार सकलमैं आतमा / ग्रंथ अर्थ यह भ्रात, देखौ जानौ अनुभवौ // 79 // इति तत्त्वसार। जैसे भूप नसे सव सैन, भाग जाइ न दिखावै नैन / तैसे मोह नास जव होय, कर्मघातिया रहै न कोय // 6 // कीने चारिघातिया हान, उपजै निरमल केवलग्यान।" लोकालोक त्रिकाल प्रकास, एक समॆमें सुखकी रास // 67 // त्रिभुवन इंद्र नमैं कर जोर, भाजै दोषचोर लखि भोर / आजु नाम गोत वेदनी, नासि भय नूतन सिवधनी // 6 // आवागमनरहित निरवंध, अरस अरूप अफास अगंध / अचल अबाधित सुख विलसंत,सम्यकआदि अष्टगुणवंत 69 मूरतिवंत अमूरतिवंत, गुण अनंत परजाय अनंत / लोक अलोक त्रिकाल विथार, देखै जानै एकहि वार // 7 // - सोरठा। लोकसिखर तनुवात, कालअनंत तहां बसे / धरमद्रव्य विख्यात, जहां तहां लौं थिर रहै // 71 // ऊरधगमन सुभाव, तातै वंक चलै नहीं। लोकअंत ठहराव, आगें धर्मदरव नहीं // 72 // रहित जन्म मृति एह, चरमदेहत कछु कमी। जीव अनंत विदेह, सिद्ध सकल वंदौं सदा // 73 // . ते हैं भव्य सहाय, जे दुस्तर भवदधि तरें। तत्त्वसार यह गाय, जैवंतौ प्रगटौ सदा // 74 // देवसेन मुनिराज, तत्त्वसार आगम कह्यौ / जो ध्यावै हितकाज, सो ग्याता सिवसुख लहै // 75 // 1 राजाके मर जानेपर / 2 आयुःकर्म / 3 अनंतज्ञान वीर्य सुख दर्शन सूक्ष्म अव्यावाध अवगाहन अगुरुलघु / 4 अन्तिम शरीरसे / 5 शरीररहित / 6 मूलग्रन्थ (74 गाथा) देवसेनसूरिका प्राकृतमें है, उसका यह अनुवाद है। Scanned with CamScanner Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनदशका देखे प्रोजिनराज, आज नव विघन क्लिाये। देखे श्रीजिनराज, आज सब मंगल आये // देखे श्रीजिनराज, काज करना कछु नाहीं। देखे जिनराज, होन पूरी मनमाहीं // तुन देते श्रीजिनराजपद, भौजल अंजुलिजल भया। चिंतामनि पारस कलपतल, मोह सबनिसौं उठि गया // 1 // देखें श्रीजिनराज, भाव अघ जाहिं दिसंतर। देखे श्रीजिनराज, काज सब होंइ निरंतर // देख श्रीजिनराज, राज मनवांछित करिए। देव श्रीजिनराज, नाथ दुख कबहुं न भरिए / तुम देखे श्रीजिनराजपद, रोमरोम सुख पाइए। पनि आजदिवस धनि अत्र घरी,माय नाथकों नाइए // 2 // वन्य धन्य जिनधर्म, कर्मको छिनमैं तोरें। धन्य धन्य जिनधर्म, परमपदसों हित जोरै // वन्य धन्य जिनधर्म, मर्मको मूल मिटावै / वन्य धन्य जिनधर्म, सर्मकी राह बतावै / / जग धन्य धन्य जिनधर्म यह, सो परगट तुमने किया। भवि खेत पाप-तप तपतकों, मेघरूप है सुख दिया।॥ 3 // (61) वारिधिसम गुण कहूं, खारमैं कौन भलप्यन / पारससम जस कहूं, आपसम करै न पर-तन // इन आदिपदारथ लोकमैं, तुम समान क्यों दीजिये / तुम महाराज अनुपमदसा, मोहि अनूपम कीजिये // 8 // तब विलंब नहिं कियौ, चीर द्रोपदिको वाट्यौ / तव विलंब नहिं कियौ, सेठ सिंहासन चाढ्यौ // तब विलंब नहिं कियौ, सियात पावक टायौ। तव विलंब नहिं कियौ, नीर मातग उवाखौ // इहविधि अनेक दुख भगतके, चूर दूर किय सुख अवनि। प्रभु मोहि दुःख नासनविर्षे, अव विलंब कारन कवना॥५॥ कियौ भौन्ते गौन, मिटी आरति संसारी। राह आन तुम ध्यान, फिकर भाजी दुखकारी॥ देखे श्रीजिनराज, पापमिथ्यात विलायौ / पूजा थुति बहु भगति, करत सम्यकगुन आयौ // . इस मार्रवार संसारमैं, कल्पवृक्ष तुम दरस है। प्रभु मोहि देहु भौभौविपें, यह वांछा मन सरस है // 6 // जै जै श्रीजिनदेव, सेव तुमही अघनासक / जै जै श्रीजिनदेव, भेवं पटद्रव्य प्रकासक // जै जै श्रीजिनराज, एक जो पानी ध्यावै / जै जै श्रीजिनदेव, देव अहमेव मिटावै // तेज सूरैसम कहूं, तपत दुखदायक प्रानी। कांति चंदसम कहूं, कलंकित मूरति मानी // कल्याणकी, आत्माहत की। पापरूपअनिसे तप्त / 3 सूर्यासदृश / 1 पराये शरीरको अर्थात् दूसरी धातुओंको। 2 पटतर, उपमा / 3 जलमैसे। 4 हाथी / 5 पृथ्वीमें। 6 घरसे / 7. गमन। 8 मारवाडरूपी (वृक्षरहित सूखेदेश) संसारमें / 9 भेद। .. .. Scanned with CamScanner Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 63 ) दर्सनदसक कवित्त, चित्तौं पटै त्रिकालं। प्रतिमा सनमुख होय, खोय चिंता गृहजालं // सुखमैं निसिदिन जाय, अंत सुरराय कहावै। सुर कहाय सिवपाय, जनम मृति जरा मिटावै // धनि जैनधर्म दीपक प्रगट, पापतिमिर छयकार है / लखि साहिवराय सु आँखिसौं, सरधा तारनहार है // 11 // इति दर्शनदशक / (62) जै जै श्रीजिनदेव प्रभु, हेय करमरिपु दलनकौं। . दाय संघरायजी, हम तयार सिंवचलनको // 7 // जै जिनंद आनंदकंद, सुरवृंदवंद पद। ग्यानवान सब जान, सुगुन-मनि-खान आन पद (1) दीनदयाल कृपाल, भविक भौजाल निकालक। आप बूझ सब सूझ, गूझ नहिं बहुजन पालक / प्रभु दीनबंधु करुनामई, जगउधरन तारन तरन। दुखरास निकास स्वदासकौ, हमें एक तुम ही सरन // देखनीक लखि रूप, बंदि करि वंदनीक हुव / पूजनीक पद पूज, ध्यान करि ध्यावनीक धुव // हरष बढ़ाय बजाय, गाय जस अंतरजामी। दरव चढ़ाय अघाय, पाय संपति निधि स्वामी // तुम गुण अनेक मुख एकसौं, कौंन भाँति बरनन करौं / मन वचन काय बहु प्रीतिसौं, एक नामहीसौं तरौं // 9 // चैत्यालय जो करै, धन्य सो श्रावक कहिए। तामैं प्रतिमा धरै, धन्य सो भी सरदहिए // जो दोनों विसतरै, संघनायक ही जानौ। बहुत जीवकों धर्म,-मूल कारन सरधानौ // इस दुखमकाल विकराल मैं, तेरौ धर्म जहां चलै / हे नाथ काल चौथौ तहां, ईति भीति सब ही टलै॥१०॥ CERAM 1 गद ऐसा भी पाठ है। 2 संदेह / 3 देखनेलायक / 4 अतिवृष्टि अनावृष्टि आदि सात / 5 इहलोक परलोक भय आदि सात। Scanned with CamScanner Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानदशक। कुंडलिया। देत मरत स्वामिकी, वीतराग ए आप / रागभाव इनकी गयो, रही चेतना व्याप // रही चेतना व्याप, आपकी सोई जाने। गयौ भाव पर जान, ग्यान निहवे उर आने / ते सोई निजल्प, भूप सिवसुंदर पेखें। ग्याता आठौं बाम, स्वामिकी मूरति देखें // 1 // जिन जिन नैनौं , देखौ दर्वविलास / / दरवित अविनासी सदा, उपजे उतपति नास // उपनै उतपति नान, तासतें सत्ता साधी / निजगुन गुनी अभेद, वेद सुखरीत अराधी // साधक साध उपाध, व्याध तजि दीनी तिननें। आप आपरसमगन, लगन लौ कीनी जिननें // 2 // मानी क्रोधी कौन है, विनै छिमाधर कोय। मान विनै चितधारतें, जीवभाव नहिं होय / / जीवभाव नहिं होय, जोय विकलप उपजाये। नामकथन भ्रमंछाप, आप निरनाम कहावै // नय परमान निछेप, टेपकी कौन कहानी / आप आप निर्रवाच, राच हमने यह मानी // 3 // मैं मैं काहे करत है. तन धन भवन निहार / तू अविनासी आतमा, विनासीक संसार / / प्रहर। 2 उत्पादन्य व्यसे / 3 मयुरू है, निभ्या है / 4 निवाच्य (65) विनासीक संसार, सार तेरो तोमाहीं। आप आप सिरमौर, और उपमा जग नाहीं // विन जानं चिरकाल, बाल जग फिरो बहुत तें। मुद्ध वुद्ध अविरुद्ध, आतमा सो में सो में // 4 // करता किरिया कमकी, कर जीव व्योहार / निहर्च रतनत्रयमई, है अभेद निरधार // है अभेद निरधार. धारना ध्यान न जाक। साहब सेवक एक, टेक यह वरतै ताकें / आप आपमैं आप, आपको पूरन धरता / मुसंवेद निजधरम, करम किरियाको करता // 5 // ग्यानी जाने ग्यानमें, नमैं वचन मन काय / कायम परमारथविष, विषै-रीति विसराय // विष रीति विसराय, राय चेतना विचारै / चारे क्रोध विसार, सार समता विसतारे / तारे औरनि आप, आपकी कोन कहानी। हानी ममता-बुद्धि, वुद्धिअनुभौते ग्यानी // 6 // सोहं सोहं होत नित, साँस उसासमझार / ताको अरथ विचारियै, तीन लोकमैं सार / / तीन लोकमैं सार, धार सिवखेतनिवासी / अष्टकर्मसों रहित, सहित गुण अष्टविलासी // जैसी तैसी आप, याप निहचै तजि सोहं / अजपा-जाप सँभार, सार सुख सोहं सोहं // 7 // आत्मानुभव। Scanned with CamScanner Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (66) दरव करम नोकरमतें, भावकरमतें भिन्न / . विकलप नहीं सुवुद्धकै, सुद्ध चेतनाचिन्न // सुद्ध चेतनाचिन्न, भिन्न नहिं उदै भोगमैं। सुखदुख देहमिलाप, आप सुद्धोपयोगमै // हीरा पानीमाहिं, नाहिं पानी गुण है कव / (67) द्यानत चक्री जुगलिये, भवनपती पाताल / सुर्गइंद्र अहमिंद्र सव, अधिक अधिक सुख भाल // अधिक अधिक सुख भाल, काल तिहुं नंत गुनाकर। एकसमै सुख सिद्ध, रिद्ध परमातमपद धर // सो निहचै तू आप, पापविन क्यों न पिछानत / दरस ग्यान थिर थाप, आपमें आप सु द्यानत // 11 // इति ज्ञानदशक। आग लगै घर जलै, जलै नहिं एक नभदरव // 8 // जो जानै सो जीव है, जो मानै सो जीव / जो देखै सो जीव है, जीवै जीव सदीव // जीवै जीव सदीव, पीव अनुभौरस प्रानी। आनंदकंद सुवंद, चंद पूरन सुखदानी // जो जो दीसै दर्व, सर्व छिनभंगुर सो सो / सुख कहि सकै न कोइ, होइ जाकौं जानै जो // 9 // सब घटमैं परमातमा, सूनी और न कोइ / बलिहारी वा घट्टकी, जा घट परगट होइ // जा घट परगट होइ, धोइ मिथ्यात महामल / पंच महाव्रत धार, सार तप तपै ग्यानबल // " केवल जोत उदोत, होत सरवग्य दसा तब / देही देवल देव, सेव ठानें सुर नर सब // 10 // 1 पुदूगल पिण्डको द्रव्यकर्म कहते हैं। 2 कर्मके उदयको जो सहकारी द्रव्य वह नोकर्म द्रव्य है / 3 पुदूगलपिण्डमें आत्मगुण घातनेकी जो शक्ति सो भाव कर्म है। 4 मन्दिर। 1 भवनवासी / 2 व्यंतर। Scanned with CamScanner Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यादि चौबोल-पचीसी / . दरख खेत अन काल, मात्र दरव पट तत्व नव। न्यायक दीनदयाल, मो अरहंत नमी सदा // 1 ट्रब्यय मिनटी / सर्वत्रा इटीमा / जघन एक धर्मद्रव्य, कालानू असंख्यात, तात अनंते अमञ्च, मन्च दव्य गहे हैं। नाहीत अनंत सिद्ध, बंदी मन वच काय, सिद्धत अनंते जीव, निगोदमें लहे हैं / यात अनंत निगोद, पांचौइंद्रीआनवते, अनंते सो परमान, उतकिटे कहे हैं। यही द्रव्य मंद है, जघन्य मध्य उतकिष्ट, सरधा करत, मरघानी मरदहे हैं // 2 // क्षेत्र गिनी। जघन एक आकामको प्रदेस अनूसम, सर्व दर्वदेमनिकी थानदान देत है। आठ परदेस मेहतलें जीव छुवै नाहिं, जपनं निगोद देह असंख्यात खेत है / / अंगुल जी हाथ धनुष कोम जोजनभेद, मनी औ प्रतर लोक दर्वको निकेत है। .. नुगंतिनिगोदमें। नियनिगोदनें। व्यपयांतकनिगोदियात्री उपन्याबगाना। 4 वैयणी। लोकत अनंत है अलोकखेत उतकिष्ट, व्योमसी अमल मेरी आतमा सचेत है // 3 // बाल गिनती। जघन काल एक ही समका है वर्तमान, तीन समै अनाहार आवटी उसास है। घरी दिन मास वर्ष पूरवांग आदि भेद, इकतीस ताके अंक डेडसी विलास है // पल्ल सागर छभेद नाना भांति और एक ताहीतं अनंतता अतीत सम राम है। याहीत अनंत गुनै समै हैं अनागतके, काल उतकिष्ट सब ग्यानम प्रकास है // 4 // नावी गिनती। भावको जघन्य कह्या सूच्छम निगोदियाको, एक सम एक अंस खुल्या निरावन है। तीनस चौतीस स्वास छह हजार वारे वार, जनम मरन कर अंत वेर मर्न है॥ भयौ है कलेस घोर खुली है तनक कोर, दूजे समै बढ़े ग्यान विधिको आचर्न है। मरने बाद जीव जबतक आहारवर्गणाको ग्रहण नहीं करता है, उस समयतक उसे अनाहारक कहते हैं। व्यवहारपल्य उद्धारपल्य अद्धापल्य इसीतरह व्यवहार सागर उदारसागर अदासागर। आनेवाला काल। 4 सूक्ष्मनिगोद लब्ध्यपप्तिक जीवके उत्पन्न होने के प्रथम समय में सबसे छोटा हमेशा प्रकाशमान और जिसका कोई कम ढकनेवाला नहीं है ऐसा ज्ञान होता है, उसको निरावरण कहते हैं। ज्ञानावरणादि कमाका / Scanned with CamScanner Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (70) मति श्रुति औधि मनपरजै अनेक भेद, उतकिष्टो केवल सरव संसे हने है // 5 // छह द्रव्यके बारह अधिकार। परिनामी दोय जीव पुग्गल प्रदेसी पांच, ___ काल विना करतार जीव भोगै फल है। जीव एक चेतन आकास. एक सर्वगत, ___एक तीन धर्म औ अधर्म नभदल है // मूरतीक एक पुदगल एक छेत्री व्योम, नित्य चार जीव पुदगल विना सु लहै / हेत पंचे जीवकौं है क्रिया जीव पुग्गलमैं, जुदे देस आन पच्छ भासतु विमल है // 6 // छह द्रव्यकी और प्रदेशोंकी संख्या / धर्म औ अधर्म एक दर्व देस असंख्यात, व्योम एक है ताके परदेस अनंत हैं। काल असंख्यातके प्रदेस असंख्यात जुदे, चेतन अनंत एकके असंख नंत हैं। पुग्गल अनंतानंत दर्व तीन भाँति देस, . __संख भी असंख भी अनंत भी महंत हैं। एही छहों दर्व लोक आगें और है अलोक देत हौं त्रिकाल धोक जामें झलकत हैं // 7 // 1 अवधि ज्ञान / 1 एक हालतको छोड़कर दूसरी हालतमै जानेवाले। 3 बहुत प्रदेशवाले। 4 एक अर्थात् अखंड द्रव्य / 5 मिथ्या दर्शन अविरति प्रमाद कषाय और योग ये बंध कारण है / 6 यह कवित्त पृष्ठ 34 में भी आ चुका है। (71) निगोद जीवसंख्या। खंध हैं निगोद गोल लोकतें असंख गुणे, ___एक खंध अंडर असंख लोक कहे हैं। एक एक अंडरमैं आवास असंख लोक, पुलवी आकासमें असंख लोक लहे हैं / एक एक पुलवी असंख लोक हैं सरीर, ___ एक तन सिद्धसौं अनंत जीव गहे हैं। आठ थानमाहिं नाहिं भरे तीन लोकमाहिं आप जान दया आन ग्याता सरदहे हैं // 8 // क्षेत्रका भेद, परमाणुसमप्रदेशसे योजनतक / अनंते परमानूको खंध सन् सन्न नाम, ___टरैन त्रसरैन रथरैन सुने है। कुंरुहरि हैमवत भत वाल लीख तिल, __जौ अंगुल वारै भेद आठ आठ गुने हैं / अंगुल चौवीस हाथ चार हाथको है चाप, __चाप दो हजार कोस चौ जोजन मुने हैं पंच सत गुना महा जोजनको पल्लकूप, ___ वंदत हौं ग्यान जिन संसै सब धुने हैं // 9 // 1 लोकसे असंख्यात गुणे स्कंध होते हैं / २एक एक स्कंधमें उससे असंख्यात लोकगुणे अंडर हैं इसीतरह सर्वत्र जानना / 3 पृथिवी, जल, तेज वायु, केवली, आहारक, देव और नारकियोंके शरीरमें निगोद नहीं रहते हैं। '4 अनन्त परमाणु समूहके स्कंधको सन्नासन्न कहते हैं ( यद्यपि अनन्ते परमाणु, पुंजको अवसन्नासन्न और आठ अवसन्नासन्नको एक सन्नासन्न कहते हैं, तथापि यहां उसकी विविक्षा नहीं है) 5 सन्नासन्नसे आठगुना टरैन / 6 कुरुक्षेत्रके जीवोंके बाल रथरैनसे आठ गुणे हैं, इसी प्रकार हरिक्षेत्रमें समझना। 7 व्यवहारपल्यका गड्डा / Scanned with CamScanner Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सावरान कोकनी उनचायानिकी लोकको ग्रेगर दोन गुणा या मारिए। भेद तक अनेक मन कहा कोई एक, ऋरिक वियेक श्राप मांदायचामिण 1221 . होपरी मागे वापरायद किराग 2: है। जयू एक लाख दो दो दोनों ओर लौनोदधि, सब पांच सूगी गुनी पश्चीस फलाइए। दीप एकली निकार चौवीस समुद्रधार, जंयूसौं चौवीस गुणे उदधि पताइए / धातखंड चार चार सब सूची तेरहकी, __गुनौ सौ उनहत्तरि पञ्चीस घटाइए। जंबूसेती एक सौ चवाल गुनी धातखंड 'आमैं दधि दीप यों ही जिनवानी गाइए. // 10 // मोशनसे लेकर लोफाफाशतक क्षेत्रभेद / विवहारपल्ल रोम एक एक रोमनिपे, ___ असंख्यात कोट वर्ष समै रोम राखिए। यह पैल्ल उद्धार कोराकोरी पच्चीसगुनी, एते दीप सागरको राजु अभिलाखिए // . . अमण्यात मम एक आवटी यखानी म्यानी, मंग्य आवटी मिलने होन पर याम / मैतीमम तिहतरि बाम एक मुहरत, तीस एक दिन दिन तीम एक माम है। बार मास वर्ष लाग्न चटरामी पूग्वांग, गुणाकर मा पूरब आग मंद गम है। नस्वर्ग अवस्थित गुनथान मारगना, ग्यानम प्रकाम दव दम्रो घट बाम है // 12 // कारके याद मंद और बल्यमंशा / चारि तीन दोर्य एक कोराकारी दधि चीथा, बीयालीस घाट दो वियालीम हज़ार हैं। तीन दोय एक पल्य आव कोर पूरवकी, वीसी सौ वीम वर्ष नर त्रिजंच धार है। 1 सात राजू प्रमाण जगन्दगी होती है। उनचास गा लोक तर होता है। 3 चौरासी लाखको चागमा टावने गुणा करनेमे पूर्वाग होता है। 4 प्रथम मुखमा मुखमा काल चार कोदाकोडी मागरका होता है। ५दूमय सुखमा काल तीन कोदाकोडी गागरका। 6 तीसरा मुन्द्रमा दुखमा दो बट्टाकोड़ी सागरका / 7 चीथा दुबमा मुन्द्रमा 4100 वर्षकम एक कोट्टाकोही सागरका / 8 पांचवां दुखमाकाल 21 हजार वर्षका, इसी तरह छहा दुबमा टुखमा भी होता है / 9 चौथे काटमें उत्कृष्ट आयु एक करोड़ पूर्व वर्षकी होन्टी है। 10 पंचममें 120 वर्षकी। 11 छैने वीस वर्षकी। १लपण समुद्र / 2 एक समुद्र या द्वीपके सिरेसे लेकर दूसरे सिरे तककी रेखा प्रमाणको जो कि केन्द्रमें होकर जाती है सूची कहते हैं। इसप्रकार 1 लाख जय द्वीप, दोनों तरफ दो दो लाख लवणसमुद्र सब मिलकर पांच लाख, इसको इसीको गुणनेसे पचीस हुए। इसमेंसे जंबूद्वीपकी एक लाखसूचीको घटानेपर जंबूद्वीपसे लवणसमुद्र चौवीस गुणा भया / इसीप्रकार लवणसमुद्रके दोनो तरफ चार चार धातकी खंड है, सब मिलकर 13 हुए। इसको इसीसे गुणनेसे 169 हुए। इसमेंसे पचीस घटानेसे 144 गुना जंबूद्वीपसे धातकी खंड भया / इसी प्रकार सर्वत्र जानना / 3 व्यवहार पल्यके प्रत्येक रोमके ऊपर असंख्यातकोट वर्षके समय प्रमाण रोम रखनेसे उद्धार पल्य होता है / 4 उद्धार पल्यसे पचीसगुने ( अढाई सागर प्रमाण ) सब द्वीप समुद्र होते हैं / इतने प्रमाणहीको एक राजू कहते हैं। . Scanned with CamScanner Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (71) तीन दोय एक दिन बीत लेत हैं अहार, एक वार दोय वार वह बार कार हैं। अवसर्पिनी छह काल उत्सर्पिनी उलटी, वीस कोराकोर भन्यौ प्रभुजी उद्धार हैं // 13 // पल्य सागर और निगोद। कूप रोम सौ सौ वर्ष विवहार पंल्य वीज, तातें असंख्यातको उधार पल्य नाम है। याते असंख्यात गुणौ पल्य अद्धा उतकिष्ट, दस कोरा कोरीको इक सागर स्वाम है // वीस कोरा कोरी दधि ताकौ एक कल्प नाम, .. ता मध्य चौवीसी दोय तिनकौं प्रनाम है। निकलि निगोद दो हजार-दधि इहां रहै, (75) मति तीनसै छतीस श्रुत ग्यान भेद वीस, ___ अंग अंग-बाहज पूरव सौ चालीस हैं। औधि तीने पेट भेद मर्नपरजै दो भेद केवल अभेद पांच भाव सिद्ध ईस हैं। मूल पंच भावके तरेपन उत्तर भाव, वंदत हों एक जहा सर्व भाव दीस हैं // 15 // त्रेपनभाव और चौदह गुणस्थान / मिथ्या गुनथान भाव, चौतीस बत्तीस दजे, तीजे में तेतीस, चौथे छत्तीस वखानिए / 1 बहु, बहुविध, क्षिप्र, अनिःसृत अनुक्क, भुव इनके उटटे एक, एकविध, अक्षिप्र, निःसृत, उक्त, अध्रुव, इनको अवग्रह ईहा अवाय धारणासे गुणा करनेते 48 हुए। इनको पांच इन्द्रिय छटे मनसे गुणा करनेसे 288 हुए।व्यंजनावग्रह चन: और मनसे नहीं होता,इस लिये चार इन्द्रियोंसे गुणाकरनेसे 48 हुए।सव मतिज्ञानके भेद 336 हुए। 2 पर्याय पर्यायसमास ( सूक्ष्नानगोद लन्थ्यपर्याप्तकका) अक्षर, अक्षरसमास, पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्तिः, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतप्राभृतः प्रामृतप्राभूतसनास, प्रामृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास, पूर्व, पूर्वसमास, ये 20 भेद श्रुतज्ञानके हैं। 3 अंगवाह्य / 4 देशावधि, परमावधि, सर्वावधि / 5 अनुगामिनी, अननुगामिनी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित / 6 ऋजुमति, विपुलमति / 7 कुमति, कुश्रुत, विभंगावधि, चक्षुर्दर्शन, अचभुर्दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य्य, पांच लब्धि, चार गति, चार कषाय, तीन लिङ्ग, मिथ्यादर्शन, अज्ञान, असंयत, असिद्ध, छै लेझ्या, जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व ये चौंतीस भाव मिथ्यात्व गुणस्थानमें है। 8 दूसरे गुणस्थानमें, मिथ्यादर्शन अभव्यत्व छोड़कर 32 भाव होते हैं। पिछले 32 में अवधिदर्शन और मिलानेसे 33 होते हैं। 10 तीन अज्ञानकी जगह तीन * सम्यग्ज्ञान और औपशमिक क्षायोपशमिक क्षायिक सम्यक्त्व मिलानेसे 36 होते है। पावै सिव नाहीं जावै वही सही ठाम है // 14 // भाव चेतना तीन प्रकार, पांचो ज्ञानके मूल भाव पांच, उत्तर भाव त्रेपन / भावं एक चेतनसौं तीन कर्म फल ग्यान, ग्यान एक पंच भेद भाषत मुनीस हैं। 1 कल्पकाल / 2 एक योजन (चारकोस) लंबे चौड़े कूपमें एक दिनसे सात दिन तकके भेड़के बच्चेके जिनका कि कैंचीसे दूसरा खंड न हो सके ऐसे भरे हए वालोंमेंसे एक 2 वालको सौ 2 वर्षमें निकाले / जितने वर्षोंमें खाली होवे. उसे व्यवहार पल्य कहते हैं। 3 दश कोड़ा कोड़ी पल्यका सागर होता है। 4 सागर। 5 दो हजार सागर। आत्मगुण। 7 कर्मचेतना, कर्मफलचेतना, ज्ञानचेतना ( सम्यग्दृष्टिके होनेवाली)। Scanned with CamScanner Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 77 ) (76.) पांच छटै साते, इकतीस आ3 अाईस, नौमैं अठाईस दसैं वाईस प्रमानिए // ग्यारहैं इकवीस वारे वीस ते चौदह, __ चौदहमें "तेरै सिद्धमाहिं पांचं जानिए। सम्यक दरस ग्यान जीवत अनंत बल, .. दर्व दिष्ट सासतो सुभाव आप मानिए // 16 // सामान्य विशेष 21 स्वभाव। असंत नासत नित्य अनित्य अनेक एक, भव्य औ अभव्य भेद औ अभेद पर्म है। चेतन अचेतन अमूरत मूरत सुद्ध असुद्ध विभाव एक परदेस धर्म है // बहु परदेस उपचार दस ए विसेस पहली तुकके ग्यारे ते समान धर्म हैं। जीवके इकीस पुदगल वीस धर्माधर्म नभ सोलै.काल 'पंदै जानैं होत सर्म है // 17 // दव्य क्षेत्र काल अल्प पहुरय सभा इनके रादृशोक गाग रागपाग / अणूसौं अनंत काल समसौं अनंत खेत, नभसौं अनंतानंत भाव ग्यान मानिए / दर्वसौं समान धर्म दर्व औ अधर्म दर्य खेतसौं समान पंच पैताला वखानिए // कालसौं समान आव सागर तेतीस तहां सर्वारथसिद्ध नर्क माघवी प्रवानिए / भावसौं समान ग्यानरूप है सरय जीव एक आदि भेद बहु आगमत जानिए // 18 // पद द्रव्य नव तत्त्वके द्रव्य क्षेत्र कालभावका जुदा 2 प्रमाण / दर्वको प्रमान, जीव सिद्धसौं अनंत गुणी, खेतकी प्रमान जीव लोकतै अनंत है / कालको प्रमान, जीव अनूसौं अनंत गुणा, __ भाव नभसौं अनंतानंत ज्ञानवंत है / पांच दर्व नव तत्त्व, इनके प्रमान चार, पंचसंगै ग्रंथमाहि, भापो विरतंत है। इहां कहें भेद बढ़े थिरता न कौन पढ़े, जाही ताही भांति आप जानें सोई संत हैं // 19 // 1 चेतनखभाव मूर्तखभाव अशुदखभाव विभावसभाव और उपचरितस्वभाव ये पांच पटानेसे धर्मादि तीनमें सोलह रहते हैं / 2 अनेक प्रदेश घटानेसे कालमें पन्द्रह खभाव है। 3 गोमठसारका दूसरा नाम पंचसंप्रद भी है। . 2 नरक, देव गति और तीन अशुभ टेश्या पट्यनेसे तथा अम तकी जगह संयत होनेसे होते है। इसी प्रकार में मातमें संयन मेयतकी जगह क्षायोपशमिक चारित्र तथा तिग्गतिकी जगह मनःपक झान जोड़नेमे 31 होते हैं / 2 शुभ मादिकी दो टेश्या क्षायोपशमियः सम्यक पटानेसे 28 होते है। आदिकी तीन कवाय तीन वेद पटानेसे 22 भाव हो। 4 सुक्ष्म लोभकेविना २१भाव होते हैं।५ श्रीपश्रमिक सम्यक्त्व घटानेसे 20 है। तीन दर्शन तीन ज्ञान घटानेसे 14 होते हैं / 7 एकटेश्या पटानेसे 11 भाव होते है / 8 अनंतज्ञान वीर्य दर्शन मुख जीवत्व ये पांच भाव सिद्धोंमें है। अस्तित्व नास्तित्व नित्यत्व अनिखत्व अनेकत्य एकत्व भव्यत्व अभय्यत्व भेद बभेद और परम (पारणामिक भावयी प्रधानतासे) ये द्रोफे ग्यारह सामान्य खभाव है और चेतन अचेतन मूर्त अमूर्त शुद्ध अशुद्ध विभाव एकप्रदेश अनेकप्रदेश और उपचरित ये यो दश विशेष स्वभाव है। Scanned with CamScanner Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छहों द्रव्य लोकमें हैं। छहों दर्व भरे लोक, कोई कहैं कछू नाहिं, / अहं शब्दसेती जीव जानिये प्रतच्छ है। पुग्गल प्रगट देह धन आदि दीसत हैं, धर्मविना सिद्ध चले जाहिंगे कुपच्छ है / अधरम दर्व विना थिरता सहाय कौन, मास वर्ष बोदा नया, कालहीसौं लच्छ है। ' व्योम विना रहैं कहां, सरधा मुकत मूल, मोखपुरपंथी ताहि यह राह दच्छ है // 20 // छहों द्रव्य क्षेत्र काल भाव उत्पाद व्यय ध्रौव्य खभाव विभाव / व सत्तारूप आपखेत परदेस माप, काल समै मरजादा, भाव मूल सत्त है। चार-मई आप तिहुं काल सर्व दर्व लसै, गुन द्रव्य परजाय होत नास व्यक्त है / चारौंके सुभाव ग्यात ध्रौव्य व्यय उतपात, सुभाव विभाव जीव जड़ सेत रक्त है। पांचनिसौं कौन काज अपनौ विभाव त्याज, कीजिये इलाज सुद्ध भाव बड़ी भक्ति है // 21 // शजमल जैन (79) की बीटी पदव्यके दश सामान्य गुण और सोलह विशेष गुण / अस्त वस्त दरव अगुरू-लघु परमेय, परदेस चेतन अचेतन अमूरती / मूरतीक समान दस हैं गुन दर्वनके, जुदे जुदे आठ आठ भाषे वुध-पूरती // ग्यान दर्स सुख बल वर्न रस गंध फास, ___ गैति थिति अवगाह वरतना मूरती। चेतन अचेतन अमूरत. विसेस सोले, दोके पट चौके तीन जानैं आप सूरती॥ 22 // पद्रव्य पंचास्तिकाय / जीव पुग्गल धरम अधरम व्योम पंच, अस्तिकाय काल मिलें पट द्रव्य कहिए। एक एक दरवमें अनंत अनंत गुन, अनंत अनंत परजाय सक्ति लहिए // ब्रह्मा करै विष्णु धरै ईस हरै कभी नाहिं, तिहुं काल अविनासी स्वयं-सिद्ध गहिए / 1 अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, अगुरूलघुत्व, प्रमेयत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, अमूर्तत्व, और मूर्तत्व दश गुण द्रव्योंके सामान्य है / 2 चलनेमें सह- . कारीपना / 3 रुकनेमें सहायपना / 4 अन्यवस्तुको अपनेमें जगहका देना। 5 वस्तुके रूपान्तर करनेमें सहाय होना। 6 जीवके ज्ञान दर्शन सुख वीर्घ्य चेतनत्व और अमूर्तत्व ये छै विशेष गुण हैं। अजीवके स्पर्श रस गंध वर्ण मूर्तत्व और अचेतनत्व ये छै विशेष गुण हैं। 7 धर्ममें गतिहेतुत्व अमूर्तत्व अचेतनत्व हैं। अधर्ममें स्थितिहेतुत्व अमूर्तत्व अचेतनत्व है। आकाशमें अवगाहहेतुत्व अमूर्तत्व अचेतनत्व है। कालमें वर्तनाहेतुत्व अमूर्तत्व अचेतनत्व है। 1 आत्मामें अहं (मैं) ऐसा खसंवेदन प्रत्यक्ष होता है / 2 पुराना। देखा जाता है। 4 धर्म धर्मीमें अभेद विवक्षासे सत्खरूप पदार्थके देश ही खद्रव्य है। 5 आकाशमें स्थित अपने देशांश ही स्वक्षेत्र है। 6 निजगुणांश ( ऊवाश पर्याय ) खकाल है। 7 निज ज्ञानादिगुण खभाव हैं। 8 खभावपरिणमन शुद्ध जीवखरूप है। 9 विभावपरिणमन पुद्गलका भाग है। यहां केवल पुद्गल पायकी ही विवक्षा है। 1. सफेद / / Scanned with CamScanner Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (80) सब भेद जानौ जड़ मिलेकौं जुदा ही मानौ, आप आप-विषै देखै तातें दुःख दहिए // 23 // तीत अनागत भेस। नसा दरव प्रछन्न काल कालानू, खेत प्रछन्न अलोक प्रदेस भाव ग्यान केवल मिथ्याती, काल अतीत अनागत दरव खेत अरु काल भाव सब, देखौ जानौ तुमहि जित हाथ जोरि बंदना करत हौं, हर मेरौ संसार कलेस कवित वनाए सवनि सुनाए, मन आए गाए गुन ग्या चरचा कूप. अनूपम वानी, हंस भूप चिद्रूप-निसान। गोमटसार धार द्यानतनैं, कारन जीव-तत्त्वसरधान / अच्छर अरथ अमिल जो देखौ, लेखौ सुद्ध छिमा उर आन॥ - इति द्रव्य चौबोल पच्चीसी। (81) व्यसनत्याग पोड़श। सवैया तेईसा (मत्तगयन्द)। पापको ताप कलेस असेस, __निसेस यथा छिनमाहिं हरे हैं। देव नमैं गन-मौलि दिपैं, मनि नील मनौं अलि सेव करें हैं। नाम ही सांत करै जिनकौ, तिनको जस इंद्र कहा उचरें हैं / सांतिप्रभू जिन-रायके पायपयोज भजै भवतें निकरें हैं // 1 // ग्यारह प्रतिमा / सवैया इकतीसा / दंसनविसुद्ध बरै वारै व्रतसौं न टरै, ___सामायिक करै धरै पोसह विधानकै। सरब सचित्त टारि छांरिकै निसा अहार, सदा ब्रह्मचार धार निरारंभ ठानकै // . परिगह त्याग देत पापसीखसौं न हेत, याके काज किया लेत ना भोजन दानकै। 2002 एक हू न प्रतिमा है एक विस्नवानकै // 2 // कवित्त (31 मात्रा)। ग्यारै प्रतिमा भिन्न भिन्न सब, कहीं सातमैं अंगमँझार ताके सरब भेद लखि कीनें, आचारजों श्रावकाचार // 1. चन्द्रमाके समान / 2 भौंरा / 3 पाद-पयोज-चरणकमल / 4 प्रोधप्रतिमा। ध. वि. 6 Scanned with CamScanner Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (82) (83) नहार अंग देखिकै ग्रंथ पेखिकै, जानौ सकल गृही-व्योहार। संजम नीव मनुष-भौ-सोभा, विसन त्याग-विधिकहूँ कि सप्तव्यसनोंके नाम / अडिल्ल छन्द। जूवा आमिष, मदिरा दारी छोरिए। आखेटेक चोरी, पर-तियहित तोरिए // महा-सूर ए सात, विषम-दुख दैनकौं। सात नरकने भेजे, जग-जिय लैनकों // 4 // ज्ञा व्यसन / कवित्त (31 मात्रा)। अजस-धाम सबविसनस्वाम, इक नरक गौनकौं सौन किन सकल-आपदा-नदी-सैले यह, पाप विरछको वीज विच धन सुभ धर्म सर्म सब खंडे, मंडै झूठ वचन-व्योहार। द्यूत भूत वस ऊत परै मति, परगट देख देख संसार | सवैया इकतीसा। आरति अपार करै, मार सांचसौं विगार, जस सुख दर्व पुन्य प्रभुता विनास है। जीतेकों त्रिपति नाहिं हारे पै न गांठिमाहि, लेत है उधार देत महा दुःखरास है // आमिष-व्यसन / पानी पाक गंदी देह लोकमाहिं कहैं ऐह, पाकसेती पाक गंधसेती गंध होत है। जलसेती मेवा नाज उत्तम सरव साज, __ भूत-भयौ मांस कैसे उत्तम उदोत है // हिंसा बिना बनै नाहिं करकै नरक जाहिं, सहज भयौ अनंत जीवको निगोत है। नाम लैनौ छ्वनौ देखनौ नाहिं संतनिकों, ___ अंगीकार कौन वात बँधै नीच गोत है // 7 // फिरत अनादि-काल एक एक जीवनिसौं, ___तात मात सुत नारि नाते बहु भए हैं। एक जीव घात कियें सब ही कुटुंब हत्यौ, हिंसाके भावनिसौं निज हू मर गए हैं। जोई जीव मरै सोई क्रोधकी लगनसेती, __ मारै भव भव ताहि वैर-भाव छए हैं। जीतवता चाही जिनौं जीवौंकों विराधे नाहिं, भांति भांति पोष सुख आपनिकौं लए हैं // 8 - मदिरा-व्यसन। ___ कवित्त (31 मात्रा) मदिरा पीय मातसौं कु-नजर, महानिलज ताकौं कहि कोय। देखौ और राहमैं चाटें, स्वान पूतमुख मीठा होय // 1 पवित्र / 2 अपवित्र / 3 प्राणीसे पैदा हुआ। 4 आप ही आप हुआ भर्थातू खयं मरे हुए प्राणीका मांस / 5 बुरी नजर-कामवासना। / और कौन वात तातको न इतवार जात, नारिकों नहीं सुहात मात हुन पास है। चौपड़ हू त्याग धर्मध्यान लाग वड़भाग, आयु तौ तनक सोऊ होत सदा नास है // 6 // 1 वेश्यागमन। 2 शिकार / 3 अकीर्तिका घर / 4 जानेके लिये / 5 जीना, सौदियां / 6 पर्वत / 7 विश्वास / Scanned with CamScanner Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / 84 ) - AELismentations सोय॥९॥ और लैन आयौ कहि हमकी, दीजै इसते अधिका हो ऐसौ मद को गहै विचच्छन, भांग खाय नहिं उत्तम सोय। वेश्या-व्यसन / मत्तगयन्द सर्वया / माँसकौं खात सुहात सदा मंद, वात मृपा तन नीचनि भी कीरत दाहक जी रत चाहक, दामकी गाहक ज्यों गुर-ची। कर सुभाव उपाव विना नर, अंबर छ्वत लत हैं / नर्कसखी लख आन मिल, गनिका कहँ जेम कुहारीको / ... शिकार-व्यसन / सबैया इकतीसा। दर्व नाहिं हर पर नरसौं न बात करे, वेश्या मदको न काज जूवा नाहिं जानती। पंज ऐब सरै विना सदा दाँत धरै तिना, पुरसौं दई निकास वनवास ठानती // कछू नहीं पास भय-त्रास रच्छासौं निरास सवको सहाय दिल्लीपति तोहि मानती। साहनिका साह पातसाह महंमदसाह साहवसौं मृगी दीन वीनती वखानती // 11 // राजमल जैन बी.ए. (85) दर्व लैन काज प्रान दैन जात रनमाहिं, याकी नाव जीतवसौं जीतव रहत हैं। प्रान हरॆ एक नास दर्वसौं कुटंब त्रास, प्रानसेती दर्व-दुःख अति ही महत हैं। यातें चोर भाव निरवार है द्यानतदार सत्तकी पदवी सार सज्जन लहत हैं // 12 // परस्त्रीव्यसन / साधनि. त्रिया जात लखी सुता सुसौ मात ही सक्त सवै छोड़ि व्याही एक वरी है। रावनकों देखौ सब परनारि सेई कव, अवलौं अकीरति दसौं दिसामैं भरी है // चोरी दोप जिहमाहिं संतान रहत नाहि, हाकिमकी दंड पंच फिटकार परी है। एते दुःख इहां आगें पूतली नरक जहां, कच्छ-लंपटी है कौंन जाकी बुद्धि खरी है // 13 // सातों व्यसन जूआसे उत्पन्न होते हैं ? * कंथो यह स्वामी? नहीं सफरी गहन जाल खेलत सिकार? कभी मांस चाह भएतें / चोरी-व्यसन / भावो कोई दर्व हरौ भावी कोई प्रान हरी, * दोऊ हैं समान केई मूढ़ यों कहत हैं / १शराव / 2 झूठ। 3 छुआ हुआ। 4 मनमें संभोग चाहनेवाली / 5 जैसे गुड्पर चींटे आ लगते हैं। 6 यदि किसीने वेश्या का वस्त्र छू जावे, तो उसे छींटा लेने पड़ते हैं-स्नान करना पड़ते हैं। 7 कुल्हाडीमें जो लकड़ी पोई जाती है, उसे बीटा या बेंट कहते हैं। 8 चाहे। ' 1 दयानतदार अर्थात् ईमानदार। 2 पुत्री। 3 बहिन। 4 हीनशक्ति होनेके कारण-ब्रह्मचर्यकी सामर्थ्य न होनेके कारण / 5 कथरी।६ मछली पकड़नेका जाल। * एक राजाको जूआ खेलनेकी आदत पड़ गई थी। उसे छुड़ानेके लिए उसका मंत्री साधूका वेप धरकर आया / साधूका जव राजा भक्त हो गया, तब एक दिन राजाने उससे जो प्रश्न किये और उनके जो उत्तर पाये, वे सय इस कवित्तमें वर्णित हैं। Scanned with CamScanner Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सरधा चालीसी। . (86) मांस ह भखत? कभी दारूकी खुमारीमाहिं सुरापान करो? कभी वेश्या-घर गएते॥ वेश्या हू गमन ? परनारी जोपै मिलै नाहिं परनारी भोगो? कभी दाम चोर लएतें। चोरी हू करत ? कभी जूवे माहिं हार होय सबै गुन भरे नष्ट भाव परनएतें // 14 // एक एक व्यसनके धारक पुरुष / छपय / पंडपूत दुख द्यूत, भूप यक मांस दुखी भुव / जादौं मदजल छार, चारदत वेस्यावस हुव // ब्रामदत्त कु सिकार धार, सिवभूत चोर विध। रावन तिय अविवेक, एक इक विसन गई रिध // ए सात विसन दुखमूल जग, सात नरक करतार हैं। . करि सात तत्त्व सरधान दस,लच्छन पार उतार है॥१५॥ सात विसन इक थूल, भूल परनामनिकेरी। जब जब चले कुराह, वाहि तब फेरि सवेरी // जथासकति व्रत धरी, करौं नरभी सफला इम। धन जोबनको चाव, आव चंचल चपला जिम // यह विसनत्याग श्रावक कथा, निज परहित द्यानत कही। सुनि विसन राग दुखखानि है, मानहिंगे सज्जन सही॥१६ दोहा। वंदी हो परमातमा, जगग्यायक जगभिन्न / दरपन सब परगट करै, होय न सवसौं चिन्न // 1 // नासिक निन्दा। पट मत मान ईसकों, जाप ध्यान तप दान / महा निंदमत नासतिक, सदा पापकी खान // 2 // नास्तिकके चार प्रश्न / कह जीव नाहीं कहीं, पुन्य पाप नहिं दोय / मुरग नरक दोनों नहीं, करि फल लहै न कोय // 3 // चौपाई। नास्तिकप्रश्न-लोहमई इक मंदिर करौ, छिद्र बिना ताम नर धरौ / ताकों काढ़ो जव मरि जाय, किहि मग जीव गयौ समझाय // 4 // उत्तर-तामंदिरमै राखौ ढोल,ताहि वजावौ करो किलोल। बाहर सुनिये छेक न होय, तैसें जीव दरव है लोय॥५ प्रश्न-फिरि बोल्यो-इक प्रानी लेय, ताकी तीली ठीक करेय। मूए पीछे तोली सोय, घट नहीं जी कैसे होय // 6 // उ०-मसक एकमैं भरिए वाय,मुखकौं वाँधि तौल मन लाया पान काढ़ि फिरि तौलि सुजान,घटै नहीं त्यौं चेतनमान 1-2 हवा / इति व्यसनलाम पोडश / Scanned with CamScanner Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (88) प्रश्न-चोर एकले दो खंड करौ,सौ हजार लाखौं विसर जुदे जुदे देखौ निरधार, दीसे नहीं कहीं जिय सार उत्तर-अरनैकी लकड़ी लै वीर, ढूंक किरोर करौ किन बिना घसैं न अगनि परगास,त्यों आतम अनुभौअभ्या प्रश्न-भूजल अगन पवन नभ मेल, पांचौं भए चेतना खे ज्यों गुड़ आदिकतै मद होय, मद ज्यौं चेतन थिर नहिं को दोहा। उत्तर-पांचौं जड़ ए आप हैं, जड़तें जड़ ही होय। गुड़ आदिकतै मद भयौ, चेतन नाही सोय // 12 // भू जल पावक पौन नभ, जहां रसोई जान / क्यौं नहिं चेतन ऊपजै, यह मिथ्या-सरधान // 12 // प्रश्न-जल वुदबुदवत जीव है, उपजै और विलाय। देह साथ जनमै मरै, जैसें तरवरछाय // 13 // ___चौपाई। उत्तर-बालक मुखमै थनकौं लेय, दावै अंचे दूध पिवेय। जो अनादिको जीव न होय, सीखविना क्यों जानै सोय 14 मरिकै भूत होंय जे जीव, पिछली वातें कहैं सदीव / / सिर चढ़ि वोलें निज घर आय, तातें हंस अमर ठहराय 15 : प्रश्न-पुन्य पाप भा जगमाहिं, पै काहूनें देखे नाहिं। 1. भिड़हाँ चाल चलै संसार,समझै कोई समझनिहार१६ उत्तर-एक भूप सुख कर अनेक, पेट भरि सके नाहीं एक / परगट दीख धोखा कौन, चार वरन छत्तीसौं पनि // 17 // प्रश्न-सुरग नरक नाहीं निरधार, जिन देखे सो कही पुकार। * खंजर वेग? कहें सब लोग,लरकै डरपाव हित जोग // 18 // करिक धरम सुरग गयो, कह्यौ न फिरि जिह आय / भयौ पापत नारकी, क्यों नहिं आयौ भाय // 19 // चौपाई। उत्तर-पापी पकरयौ औगुनकार, पगवेरी गल संकल धार / धेरै रहें निकास न होय, त्यौं आवै नहिं नारक कोय // 20 // न्हाय सुगंध वसन सुम-माल, नेवज दीप धूप फल थाल। पूजन चल्यौ दिसाकौं जाय, तैसें नहिं आवै सुरराय // 21 // तुम निचिंत तप करौ न वीर, हम तप करै धेरै मन धीर। जो परलोक न हम तुम सोय, है परलोक तुमैं दुख होय 22 प्रश्न-खेती कीनी सुपर्नेमाहिं, पै काहूनें खाई नाहिं। कोई काटै कोई खाय, कोई हाथ धरै मरि जाय // 23 // उत्तर-कोई काहूकौं दे दाम, ताहीपै मांगै अभिराम / जोई खाय पेट ता भरै, जहर खाय है सोई मरै // 24 // दोहा। जो काहूको धन हरै, मारै काहू कोय / जनम जनम सो क्रोधतें, हरै प्रान धन दोय // 25 // 1 जंगलकी। 2 जहां रसोई बनती है, वहां पांचों भूत एकत्र होते हैं। भेड़चाल, जहां एक भेड़ जावे, वहां उसके पीछे सब जाती हैं। / 1 जातियां / 2 यदि परलोक नहीं है तो हम तुम बराबर है, और यदि कहीं हुआ तो तुम्हें दुख भोगना पड़ेगा हम आनन्दसे रहेंगे। Scanned with CamScanner Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A YOJAANEuwarearma (90) चौपाई। जो तरु बोवै सो फल होय, नरत नर पसुतें पसुह कर सुपावै बोवै लुनै, परगट वात लोग सब सुनै // दोहा। जीव धरम परलोक फल, चारौं हैं निरधार। ताते सरवग सेइयै, वांछितफलदातार // 27 // चौपाई। मिथ्यातीकी शंका-सरवग कहा कहां है सोय, .. देखो सुनो न हमनें कोय। ऐसे मिथ्या वचन सुनेय, जैनी हित लखि उत्तर देय 20 समाधान-इस पिरथी इस कालमँझार, न कहौ तौ तुम वच सत सार / और लोक अरु कालमॅझार, है सरवग सब जाननहार 20 शंका-तीन लोक तिहुं कालनि माहिं, हम जानैं हैं सरवग नाहिं।। समाधान-तुम जाने तिहुँ जग तिहुं काल, तुम ही सरवग दीनदयाल // 30 // दोहा। . जब यह वचन प्रगट सुन्यौ, जान्यौ जिनमत सार। छोड़ि नासतिक निपुन नर, कर जोरे सिर धार // 31 // अथ पंच मतवालोंके वचन। दोहा। उत्तर-कहै लाख नौंका वरू(?), सवको एक दुवार / बहुत भेद मतकल्पना, एक जैन सिवकार // 33 // चौपाई। अंधे पांच खरे इक ठौर, आगें गज इक आयौ दौर / एक एक अंग सब. गहा, सो सरधान जीवमैं लहा // 34 // सुंडि पकरि गज मूसल होय, छाज कानतें मानें कोय / माना थंभ पकरि पग अंग, पेट पकरि चौंतरा अभंग // 35 पूँछ पकरि लाठी सरदहा, पाँचौं– गजभेद न लहा। झगरै लरै करै बहु रार, समझाए सब देखेनहार // 36 // ____ उपदेश वर्णन। सरवग देव सुगुरु निरग्रंथ, दया धरम तीनों सिवपंथ / पहली यह सरधा थिर करौ,पीसकति देखि व्रत धरौ 37 दोहा। अंतरतत्त्व सु आप लखि, बाहर दया निहार / दोनौं धरि करि हूजिये, सिव-वनिता-भरतार // 38 // निकटभव्य जे पुरुष हैं, तिनकौं यह उपदेस / दीरघ-संसारी सुनें, धारै अधिक कलेस // 39 // द्यानत जिनमत न्याय लखि, किए छंद चालीस / . पढ़ें सुनें तिनके हियँ, सरधा विस्वावीस // 40 // . इति सरधाचालीसी। - चौपाई। कोई कहै छहौं मतमाहिं, निज निज क्रिया करें सिव जाहिं। जैसैं एक महल षट द्वार, छहौं राह पहुचें नर नारि // 32 // 1 सूप / 2 देखनेवाले सूझतेने। Scanned with CamScanner Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धार। - tirrn ( 92 ) अथ सुखवत्तीसी। . दोहा। / सिद्ध सरव बंदौं सदा, सुखसरूप चिद्रूप / जाकी उपमा देनकौं, वसत न तिहुँजगभूप // - सिद्धोंका सुखवर्णन / चौपाई। जो कोई नर औगुनधार, नख सिख बंध बँध्यौ निशा एक सिथिल कीलें सुख होय, सब टूटें ता सम नहिं कोय। वाय पित्त तप कफ सिर-वाह, कोढ़ जलोदर दम अस एक गए कछु साता गहै, सरव गए परमानंद लहै॥ एक सास्त्र जो पढे पुमान, कछु संदेह होय हैरान / ताकौं समझै हरष अपार, क्यों न सुखी सव जाननहार पत्र दोहा। / नरक गरभ जनमन मरन, अधिक अधिक दुख होय। जहाँ एक नहिं पाइयै, सुखिया कहियै सोय // 5 // नरकदुःख। तन दुख मन दुख खेत दुख, नारक असुर करंत / पांचौं दुख ये नरकम, नारक जीव सहंत // 6 // तिर्यंचदुःख / भूमि खोदि जल गरम करि, अगिनि दाह दुख जोय / पौन बीजना तरु कटें, त्रस निरोध दुख होय // 7 // चौपाई छुधा तृषा करि पीड़ित रहै, गलमैं फाँस सीस तप सहै। मार खायअरु मोल विकाय, विन विवेक पसुगति दुख दायर (93) खग मृग मीन दीन अति जीव, मारै हिंसक भाव सदीव। तेहू मरें महा दुख पाय, भौभौ वैर चल्यौ सँग जाय // 9 // मनुष्यगतिदुःख / हीन होय अरु गर्भ विलाय, जनमत मरै ज्वान मर जाय। इष्ट वियोग अनिष्ट सँयोग, महादखी नर व्याप सोग।॥१०॥ मूतनि हगनि महा दुख वीर, द्रव्य उपावन गहर गंभीर / चाहदाहदुख कह्यौ न जाय, धन्न सिद्ध अविनासी काय 11 दोहा / रूखा भोजन करज सिर, और कलहिनी नार / चौथे मैले कापड़े, नरक निसानी चार // 12 // उद्दिम बिन अरु मांगना, बेटी चलनाचार / सब दुख जिनके मिट गए, तेई सुखी निहार // 13 // चौपाई। रस-लोहू-अरु मांस वखान, मेद हाड़ अरु मज्जा जान / वीरज सात धात नहिं जहां, सुद्ध सरूप विराज तहां // 1 // दोहा / कान आंख मुख नाक मल, मूत पुरीपं पसेव / सातौं मल जाकै नहीं, सोई सुखिया देव // 15 // देवगतिदुःख / चौपाई। हीन होय पर-संपति देख, मरन वार दुख करै विसेख / . देव मरै एकेंद्री होय, जनम मरन वसि डोल सोय // 13 // 1 पक्षी। 2 पाखाना / 3 पसीना। . . . . . Scanned with CamScanner Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कौनैं वरनए॥१७ (94) चारचौं गतिमैं दुःख अपार, पांचपरावर्तन संसार करम काटि जे सिव-पुर गए, तिनके सुख कौनै व 'सिद्धखरूपवर्णन। / दोहा। तीन लोकके सीसपै, ईस रहैं निरधार / छहाँ दरस मानें सदा, एक अंग लखि सार चौपाई। सुर-नर-असुर-नाथ थुति करें, साध त सो पदम ध्यावें ब्रह्मा विष्णु महेस, विन जानें बहु करें कलेसी जो जो दीसे दुख जगमाहि, ताकी एक अंस हू नाहिं।" जा दुखकौंसुख जानै जीव,सरव करम तन भिन्न सदीवर इह भव भै पर भव भै दोय, रोग मरन भै सबको हो रच्छक नहीं चोर भै महा, अकस्मात जीतें सुख लहा॥ देसभूप परभूप विगार, वहु वरसै वरसै न लगार। मूसे तोते टीडी व., सात ईति विन सब सुख सधैं॥२२॥ फरस दंति रस मीन पतंग, रूप गंध अलि कान कुरंग एक एक वस खोवै प्रान, पांचौं नहीं सुखी सो मान॥२३ व्यापै क्रोध लराई करै, व्यापै काम नारि वस परै। व्यापै मोह गहै दुख भूर, जहां नहीं सो सुख भरपूर // 24 दोष अठारह जिनकै नाहिं, गुन अनंत प्रगटे निजमाहिं / अमर अजर अज आनंदकंद, ग्यायक लोकालोक सुछंद२५ व्यापै भूख जलै सब अंग, व्यापै लोभ दाह सरवंग। तन दुरगंध महादुखवास, जहां नहीं सोई सुखरास // 26 1 द्रव्य क्षेत्र काल भाव भव / 2 हाथी / 3 मछली / 4 भोरा / 5 हरिण / दोहा / अमल अनाकुल अचल पद, अमन अवचन अकाय / ग्यानस्वरूप अमूरती, समाधान मन ध्याय // 27 // चौपाई। नरक पसू दोन्यौं दुखरूप, बहु नर दुखी सुखी नरभूप / तातें सुखी जुगलिए जान, तातें सुखी फनेस बखान // 28 तातें सुखी सुरगको ईस, अहमिंदर सुख अति निस दीस। सब तिहुँ काल अनंत फलाय, सोसुख एक समै सिवराय२९ दोहा / परम जोति परगट जहां, ज्यौं जलमैं जलबुंद / अविनासी परमातमा, निराकार निरढुंद // 30 // सिद्धनिके सुख को कहै, जानै विरला कोय / हमसे मूरख पुरुषकों, नाम महा सुख होय // 31 // द्यानत नाम सदा जपै, सरधासौं मनमाहिं। सिववांछा वांछाविना, ताकौं भौदुख नाहिं // 32 // ___ इति सुखवत्तीसी। Scanned with CamScanner Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (96) विवेक-चीसी। उनक। जनम जरा मृति अरति, राग में दोष मोह मद / चिंता विल नींद, भूख तिस सोग स्वेद गद // खेद अगरे चूरि, दूरि घातिया भगाए। गुन अनंत भगवंत, उचालिस परगट गाए // देवाधिदेव अरहंत पद, सुर-नर-पति पूजा करें। वंदी त्रिकाल तिहुँ जोगौं, विधनपुंज छिनमें हरें। ज्ञान प्रशंसा। कारतिकी रति नाहि. मान कविता न करनको। ग्यान गान गुदरान (8) जैन परवान धरनको // आपद संपद सबै, फत्रै पुग्गलके माहीं। मैं निज सुद्ध विसुद्ध, सिद्ध सम दूजो नाहीं // . इम आठ पहर जाकी दसा, गुसा खात हू ग्यानले / ( 97 ) लोभी दूजो नाहि, सुगुन धन दै न दिखावै // मैं करे चहूँ-गति गमनको, दया विसन लीनौ पकर / तब करम नाहके हुकमतें, चढ्यौ मुकति गढ़ ग्वालियरा॥४ तिय मुख देखनि अंध. मूक मिथ्यात भननकों। बधिर दोष पर सुनन, टुंज पटकाय हननकों। पंगु कुतीरथ चलन, सुन्न हिय लोभ धरनकों। आलनि विषयनिनाहिं, नाहिं बल पाप करनौं / यह अंगहीन किह कामको कर कहा जग वैठक। द्यानत तातें आठौं पहर, रहै आप घर पैठकें // 5 // होनहार तो होय, होय नहिं अन होना नर। हरप मोक क्यों कर, देख सुख दुःख उदेकर // हाथ कळू नहिं पर, भाव-संसार वहाब। मोह करमको लियौ, तहां सुख रंच न पावै // यह चाल महा मूरखतनी, रोय रोय आपद सह। ग्यानी विभाव नामन निपुन, ग्यानलप लन्ति मित्र लहाद अरचं नित अरहंत, मुगुरुपदपंकज पर। परचे तत्त्वनिमाहि; धरम कारज धन बर।। पात्र दान नित देहि, लैहि व्रत निरमल पाल / छुधित त्रिपित जन पोख, मोखमारगनल टालें।। घरमी सज्जनसों हित धरै, इन गृहस्य युति बुब / जे मोह-जालमें फँसि रहे, ते चहुंगति दुव-दीर! तत्त्व दोय परकार, मु-पर भाप्यो जिन-स्वानी। पर अरहंत सरूप, पुन्यकारन जग नानी !! आप तत्त्व दो भेद, सहित विकलप निरविश्वन / निरविकलप निरवंध,बंध विकलप ममता जर घ. वि. द्यानत सोई ग्याता महा, कहा करै जमराज भै // 2 // ग्यानकूप चिद्रूप, भूप सिवरूप अनूपम / रिद्ध सिद्ध निज वृद्ध, सहज ससमृद्ध सिद्ध सम // अमल अचल अविकल्प, अजल्प, अनल्य मुखाकर। मुद्ध बुद्ध अविरुद्ध, सुगुन-गन-मनि-रतनाकर // . उतपात-नास-धुव साध सत, सत्ता दरव सु एकही। द्यानत आनंद अनुभौ दसा, बात कहनकी है नहीं॥३॥ क्रोध कर्म करे, मूलसेती इह भानौं। मान महा परचंड, त्रिजगपति हो किह मानों / / कपट-खान परधान, स्वाद अनुभो न बतावै / Scanned with CamScanner Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (98) अभाव नोकर्मसौं, भिन्न सरूप विवेक है। सरधान आन दुख दान सव, यानत अनुभौ निहचै अरु विवहार, ताल दो हाथन बाजै।" दरवतने परजाय, सौंठ गुड़ मारत भाजै (2) . उदै उद्यमी भाव, दोय कर मथ घी लहिये। ग्यान क्रियासौं मोख, पंग अँध मिलि पथ गहिरी इमि स्यादवाद नै समझकै, तत्त्वज्ञान निहचै किया यानत सोई ग्याता पुरुष, बाहर मन अंतर दिया भोग रोगसे देखि, जोग उपयोग बढ़ायौ। आन भाव दुख दान, ग्यानको ध्यान लगायौ।।. सकलप विकलप अलप, बहुत सब ही तजि दी। आनंदकंद सुभाव, परम समतारस भीनें // द्यानत अनादि भ्रमवासना, नास कुविद्या मिट गई, अंतर वाहर निरमल फटक, झटक दसा ऐसी भई ___ पंचभेद धर्मवर्णन / एक दया उर धरौ, करौ हिंसा कछु नाहीं / जति श्रावक आचरौ, मरौ मति अव्रतमाहीं // रतनत्रै अनुसरौ, हरौ मिथ्यात अँधेरा। दसलच्छन गुन वरौ, तरौ दुख-नीर सवेरा // इक सुद्ध भाव जल घट भरौ, डरौ न सु-पर-विचारमैं। _ए धर्म पंच पालौ नरौ, परौ न फिरि संसारमैं // 11 // सचा साधु / - सोई साँचौ साध, व्याध भै नाहीं जाकैं। सोई साँचौ साध, आध व्यापै ना ताकै सोई साँचौ साध, वाध लाहेकौं जाने / सोई साँचौ साध, लाध आपो भौ भान // सोई जोगी भोगी नहीं, ताहीकी ल्यौ लाइए / सोई ग्याता ध्याता वही, सोई साता पाइए॥१२॥ छप्पय (सर्व लघु)। सदय हृदय नित रहत, कहत नहिं असत वचन मुख / दत अनदत नहिं गहत, चहत नहि छिन मनमथ-सुख / सब परिगह परिहरत, करत थिर मन वच तन तिय / दुख सुख अरि मित जनम, मरन सम लखत हरख हिय॥ सहत सुवल धर परिसह सरव, दरव अमल पद मन धरत / तजि थविरकलप जिनकलप तनि, धनि मुनिवर सिवतिय वरत // 13 // दयाविचार / अंगहीन धन भी न, लीन बहु रोग लोग हुव / जीवभाव परभाव, चहै जीवन न मरन धुव // तीन लोकको राज लेय, नवि देय प्रान छिन / यह विचार मनमाहिं, राजकौं हरै मोह विन // ऐसे प्यारे निज प्रानको, दान समान सु दान नहिं / तप सील भाव सब ही रहैं, सुखसौं करुना ग्यान महि१४ सुरग राग व्रत नाहिं, नरक अति दुखी भयंकर / पसु विवेक नहिं रंच, मनुष तप विरत जयंकर // सो तैं नरभौ पाय, कियौ परमारथ कछु ना। .. नाम तिहारौ बड़ौ, राय चेतन पर चछु ना // जिनधर्म रसायन पायकै, जिन अपना कारज किया। सोधन्य पुरुष संसारमैं,तिन ही नर-लाहा लिया॥१५॥ Scanned with CamScanner Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (100) वहिर भाव सब खोय, होय अंतर आतम सम, परमातम लख भ्रात, बात यह बड़ी अनूपम / देव धरम गुरु जान, आन सरधान अकंपत। . पूजा दान विधान, करौ सफली घर संपत // अरु बहुत वात कहियै कहा, ग्यान क्रियामैं मन तझ बीती रीती आव सव, अवै समझि कारज करी एक बूंद लहि सीप, अमल मुकताफल होई। एक बूँद गहि सर्प, महाविष उपजै सोई॥ एक बूंद तरु केदलि, सुद्ध कर्पूर विराजै। ताते तए मँझार, तासको नाम न पांजै // इम स्वाति बूंद बहु भेदसों, संगति फल परवानिरी तिमसुगुरुवचन नर भेदसों, भेद अनेक पिछानिये॥ एक सौ सैंतालीस शुभाशुभाक्रियाओंका त्याग / मन वच तनसौं एक, एक मन वच इक मन तन / इक वच तन इक वचन, एक मन जान एक तन // जोगभेद ए सात, सात कृत कारित अनुमत / उनचास विध वरत,-मान सु अतीत अनागत // इक सौ सैंतालिस सब क्रिया, पुन्य पाप ममता तजौ। निज परमानद समरस दसा, आप आपमें नित भजौ 18, कुकवि मुकवि वर्णन / कुमति रात तम नैन, प्रगट मारग नहिं पावै / (101) सुकवि ग्यान रवि जोति, मुकतिको पंथ चलावै / भविनि राह दिखलाय, आप सिव पदवी पावै // जिम मोह मिटै वैराग वढ़, सो वानी उर लेखियै। धनिद्यानत तारन तरन जग,सुगुरु जिहाज विसेखियै१९ अन्तमंगल / नमौं देव अरहंत, सिद्ध बंदौं जग ग्यायक। आचारज उबझाय, साधु तीनों सुखदायक // पंचे समान न आन, ध्यान तिनको करि लीजै / और उपाव न कोय, मनुप-भौ लाहो लीजै॥ द्यानत विवेकवीसी सदा, पढ़ौ महागुनकार है / निज आनँदमगन सदा रहो, सब ग्रंथनको सार है // 20 // इति विवेकवीसी। 1 केलेके वृक्षमें / 2 पावै / 1 भव्य जीवोंको / 2 पंच परमेष्टी। Scanned with CamScanner Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (102) भक्ति-दशक। सवैया इकतीसा। रिपभ अजित संभौ अभिनंदन सुमति, पदम सुपास चंदाप्रभु जिन गाईयै / सुविधि सीतल श्रेयांस वासुपूज्य विमल, अनंत धरम सांति कुंथु उर भाईयै // मल्लि मुनिसुवरत नमि नेमि पारसजी, वर्धमान सुखदान हिये आन ध्याईयै / आदि मेर दक्खिनके वर्तमान वीस कहे, नाए सीस निस दीस रिद्धि सिद्धि पाईयै // 1 // आदिनाथ तीर्थंकरके भवान्तर। जयवर्मा दिच्छावल विद्याधर महावल, दूजे स्वर्ग ललितांग वज्रजंघ दानी जू। भोगभूमिमाहिं जाय सम्यक दरस पायौं, स्रीधर ईसानमैं सुविधि भूप ध्यानी जू॥ सोलहैं सुरग इंद्र वज्रनाभि चक्री भए, सर्वारथसिद्धि बसे आदिनाथ ग्यानी जू / बसे मोखदेस जाय द्वादस अवस्था पाय, गावै मनवचकाय द्यानत कहानी जू // 2 // गरभ जनम तप ग्यान निरवान भोग, लोग कहैं महाजोग धारयौ वन जाय जी। वादी सिच्छ विक्रिया अवधि सुत मनपर्जे, केवली गनेस धरे को तज्यौ वताय जी॥.. (103) चामकी अपावन महा दुर्गधं नारि छारि, मोख नारि कंठ लाई सीलवान राय जी। बानत चरित्र तेरे हमकों पवित्र करौ, बड़ेई विचित्र राग विनाल्यो वुलाय जी // 3 // चोरीको अघोरी थोरी वारमैं दया दयाल, कियौ है निरंजन तें अंजनके नामतें / / पांडौसे जुवारी अविचारी राजरिद्धि हारी, किरपा तिहारी सिव धारी भव धामर्ते // कीचक सौ नीच चाही द्रौपदी सती जीवीच, सौऊ तो लियौ नगीच धोय कीच कामतें। द्यानत अचंभ कहा तपसों वैकुंठ लहा, अधम उधारन हो स्वामी जी प्रनामतें // 4 // धरममें अलसानौ खान पानकों सयानौ, कहालौं वखानों सब जानौ बात हमरी। चाहत हौं मोष वरचौ दोपनिकै कोप पोप, कोटीधुज भयौ चाहों गांठमें न दमरी // दया भक्ति नई कई (2) पामरी तिहारी दई, घरमें है उठी नाहिं डारि लोभ कमरी / द्यानत कहाऊ दास यह तौ वड़ो लिवास, कीजिये उदास नास जाय आस चेमरी // 5 // बड़े धनवान इंद धरनिंद चक्रवर्ति, जेऊ जाहि जाचे ऐसे साहब हमारे हैं। 1 अंजन चोर / 2 पाण्डव / 3 मनमें / 4 समीप / 5 चमारिन नीच / Scanned with CamScanner Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संत (105) (104) फरसते न्यारे रस न्यारे रूप गंध न्यारे, सवदतै न्यारे पै सब जाननहारे हैं। जैसा कोई भाव धरै तैसा सोई फल वर. आरसी सुभाव रागदोपसेती न्यारे हैं। पास कछु राखें नाहिं दाता मनवांछितके. ऐसे देव जानें जिन पातिग विदारे हैं // 6 // सब सुख लायक सरव गेय ग्यायक, सकल लोकनायक हौ घायक करनके। मैन फैन नासत हो नैन ऐन भासत हो, वैन हु प्रकासत हो पापके हरनके // कर्म भर्म चूरत हौ पर्म धर्म पूरत हो, हुनर वतावत हो भौ-जल तरनके / द्यानतके ठाकुर हौ दासपै कृपा कर हो, हर ही हमारे दुख जनम मरनकें // 7 // देखौ जिनराज जिन राजकौ गुमान देखौ, मान देखौ देव मान मान पाईयत है। जपके कियतै जप तपको निधान होत, ध्यानके कियेत आन ध्यान ध्याईयत है // नामके लियतें पर नामकी न रहै चाह, चाहके कियैः चाह दाह घाईयत है। अई अरहंत अरिहंत भगवंत संत, ब्रह्मा विष्णु सिव जिन वीतराग बुद्ध हो / दाता देव देवदेव परब्रह्म सुरसेव, .. मुनीस रिसीस ईस जगदीस सुद्ध हो / अनादि अनंत सार सरवग्य निराकार, जित-मार निराधार साहब विसुद्ध हो / भगवान गुनखान जती व्रती धनी नाथ, राजा महाराजा आप द्यानत सुवुद्ध ही // 9 // ग्रंथ हैं अपार सव केतक पढ़ेगा कव, . जामें ना परंगी सुधि तामै पचि मरि है। दान जोग लच्छ लच्छ कोरि जोरि पापनितें, तिनहीकी थापनितें दुर्गतिमें परि है // संजम अराध तीनों जोग साध पुन्य महा, चित्तके चलायें घट दुःकृतसौं भरि है / द्यानत जो पूछ मोहि प्रानी सावधान होय, वीतराग नाव तोहि वीतराग करि है // 10 // आवके वरस घनै ताके दिन केई गनै, दिनमें अनेक स्वास स्वासमाहिं आवली / ताके वहु समै धार तामें दोष हैं अपार, जीव भावके विकार जे जे वात वावली // ताको दंड अब कहा लैन जोग सक्ति महा, हों तो बलहीन जरा आवति उतावली / द्यानत प्रनाम करै चित्तमाहिं प्रीत धरै, नासियै दया प्रकास दासकी भवावली // 11 // इति भक्तिदशक / ऐसे जिन साहबके द्यानत मुसाहव, भए हैं पद पूज दूज चंद गाईयत है // 8 // 1 पातक पाप / 2 इन्द्रिय विषय / Scanned with CamScanner Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (106) धर्मरहस्ययावनी। ____ मंगलाचरण / संवैया तेईसा (मत्तगयन्द)। पंचनिम कहिये परमेसुर, पंच हु अच्छर नाम दियेते। 'ओनम'कार सबै सिर ऊपर, पंचनित उतपत्ति कि लोक अलोक त्रिकालमै नाहिं, कोई तिनकी सम देख हिश आठहिरिन्द्रि नवा निधि सिद्धिको,द्यानत पाइयै गाय लिए भी-अरि हत भए अरिहंत, जपें नित संतनिके दुख-त्राता सिद्धि भई निज रिद्धिकी सिद्धकौं,नाम गहें लहै सेवक साल साधत मोखका तीनहु साध मैं, साध अराधमै द्यानत रात एपद इष्ट महा उतकिष्ट सु, मंगल मिष्ट सुदिष्टकै दाता // जा पदमै सब केवली द्यानत, जानत सो अरहंत हियेत जा पद सुद्ध, सबै जिय रिद्धिकौं, पाइयै सिद्धको नाम लिये। जी गुण थानक सातके बंदिय, सूरि गुरू मुनि जाप दियेते घोर उदंगल संचक वंचक, पंचक मंगलचार कियेते // 3 // अरहंतस्तुति। गर्भ छमास अगाऊ रचे पुर, जन्म सुरासुर मेरु न्हुलावै। देव रिसीस विरागि कर थुति, ग्यानविभौ हम कौन वता॥ आपनि जातकी वात कहा सिव, वातनित परकौं पहुंचा। पंचकल्यानक थानक द्यानत,जानत क्यों न महा सुख पावैट केवलग्यान अखैदृगवान, महासुखखान सुवीरज पूरा। द्यानत इंद नरिंद फनिंदनि, वंदितघाति किये चकचूरा // चौतिस आठ नौं गुन पाठ, दुवादस कोठनिको हित पूरा। भौ-अरिहंत सुमो अरिहंतहु, नाम जपो तुम ठाम हजूरा // 5 // १आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु / (107) मानुप थुति देव करें वहु, देवनित अति इंद्र वखाने / इंद्रनितें जुतकेवलि भासत, केवलितै गनजी अधिकानें // ताइपै ओर न पुव्व किरोरन, काल गये हम कौन समान। द्यानत पाय पर सिर नाय, विसेस बताय कहा हम जानें // 6 // आदिनाथस्तुति / आदि नरेसुर आदि मुनीसुर, आदि जिनेसुर आदिवतारी / मागर कोर किरोर अठारह. आरज रीति कुरीति निवारी // स्वर्ग विलासकै मोख निवासकै, राह चलाय कुराह विदारी। द्यानत देव पसूनर को कहि,नारकको सुखकारक भारी॥७॥ चंद्रप्रभस्तुति / पावन बावन चंदन मोहके, द्रोहकी दाह हरै न हरै तू। ताप लिये रविरूप उजासक. सांत अरूप प्रकास करै तू // द्यानत चंद असंखतें जोति, अनंत गुनी प्रभु चंद धेरै तू। अद्भुत राग विरागि कहावत, रागनिके घर रिद्धि भरैतू॥८॥ शान्तिनाथस्तुति / सांति जिनेस निसेस दिनेसते, तेज विसेस सुरेस न वोलें। कामपदी वर चक्र-विभौधर, आपनि रिद्धि कहें किह तौलें // बंदत चर्न निकंदत मन सु, वर्न दुई भव-बंधन खोलें / द्यानत हाथ गहौ किन नाथ, रहैं तुम साथ नहीं भव डोलें।। नेमिनाथस्तुति / नेमकुमारसौं पेम किए विन, केम कहौ सुख हे मन पावै। आनंद-लायक भौ-गद-घायक,स्यौ-पद-दायक ताहि नध्यावै। तीरथ दूरि अनेकनि धावत, गावत जीभ कहा घसि जावै / द्यानत आपसमान करैतोहि,चाहत और कहा सु बतावै 10 Scanned with CamScanner Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम सका रसता रसपा (108) पानावरतुति। पारसकौं भजि आरसकी तजि, जा रसका रसतार कार सजाय सुआरस पाय, सुधारस काय जरा जरा पारस पास कुधात विनास, सुधात प्रकास धरीन नागिनि नाग किए पड़ भाग सु,यानतमोर नकनकि महावीरस्तुति। वीर महा महावीर जिनेसुर, गोतम मान-धनेसुर की पालक चालमै सील धरेसुर, चंदना देखत बध सुला मैंड़क हीन किए अमरेसुर, दान सबै मन-पांछित पाए। यानत आज लौ ताहीको मारग, सागर है सुख होत सवाल सिखस्तुति / सिद्धकीरिद्धि प्रसिद्ध कहा कहुं,सूम भीपहु ग्यानीनजाने लोक अलोक त्रिकाल समाय, गए किम थूलको मान प्रयान वैन न आवत बुद्धि न पावत, चित्तमै प्रीतिसौं नामह जाने। धानत ठानत जा पदकौं तप,सो पद आप ही दें भगवान 16 ___भाचार्यस्तुति। पंच अचार विना अतिचार, करावनहार सु पांच हु धारी। चारि हु ग्यान दुआदस वान, रचे परवान लहैं रिधि भारी। वैकुल सुद्ध करें प्रतिबुद्ध सु, यानत भव्यनके उपकारी। तास अचारजके पद-वारज, मंगल-कारज धोक हमारी।१४॥ उपाध्यायस्तुति। ग्यारह अंग सुचौदह पूरव, आप पढ़े सु प. सव, याते। जीव अपार परे भवधार, निहार विचार दयामय बातें // आतम ग्यान सहैं दुख जान, करै थुति ग्यान सुबुद्ध कहातें। द्यानत ते उबझायनि पायनि, गांयनिके गुन गाय हियातै 15 (100) गावति / जीतन-भोग नज्यो गहिजोग, जोग नियोग गगान निहार। नंदन लागत गर्ग पाठापन, पुरुष पदापन समार॥ दगी शिपम निज निधन विगहमें रामभा। मानत गाधनमामिति निवारिक जोनि विधार भूजल पापमा मत गनी रवि, गंध मागुन जानुपांग। शीत नदीला पीपर, पाप माना निगर। पल पर नहिं ध्यान र, तिल-बाप नाही ना विद्यार। पानगाधनमामि राशिकागो निवारिक जीनिविषा भापति। यंगन राज गई प्रत शुज, बिगना गमाविषयी विधि दाई / पोसह ठान राणित जपान, निमिमान सुगीर भाटि। गारंग प्रष्ट परिमार हैटन, पाकी पात मान लिफाट / गयानल गोगनहिं उड, सादग भूगि गरायफ बाय 18 गाठ धरै गुनमूल दुभादरा, गृत गई तप हादस गा / 'वारि हु दान पिवं जल छान, न रातिम समता-रग या) / ग्यारह भेद लहें प्रतिगा सुभ, दरीन ग्यान परित अराध / थानत नेपन भेद पिया यह, पालत टालत कर्म-उपाधैं / 11 / जितनाणीवति / देव गुरू सुभ धर्मको जानिय, सम्यक आनिय मोखनिसानी। सिद्धनित पहले जिन मानिय, पाठ पहें हाजिय मुतग्यानी // सूरज दीपक मानक चंदत, जाय न जो तम सो तम हानी। यानत मोहि कृपाकर दो वर,दो फर जोरि नौ जिनयानी // Scanned with CamScanner Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिब नारिपरी है। (110) पिसमाव(म यावमहाज,माध्य-काला कविसीय विस असा विरकिए तिन, देस बिसेख मिया राम प सुनि साप प तिन, दान शरी उपरीन पानतपात कहा यह मात, क्रियातुमसे सिवा नारिका प्रतिमा-गावाम्म। 4 श्रीगरहसके पिंषौं, धात पखानके भव्य पना धिन धिना सिप राह पतापत, आसन ध्यान अनोप पानत आन सिंगार न सोहत, मोहत तीन लोक सभा पूजन गायनध्यापन को कहि,देखत ही पद वांछित पाया केवलग्यानि शहा न सुखेतमैं, सिख प्रसिद्ध न आँखिन पेर सूरि गुरू महावीर मनें फिय, साध नजीक न जाय विसेस पानि पिसुन लसै न धसै बुध, पानत सीख यही उर लेखे पंच-निकारक भौजल तारक,प्रात उठे प्रतिमा मुख देख॥२३॥ (111) शाखिनसौ सय देखि लिया प्रभु,नाक अनी लव ध्यान सजा है कानगिसौ सुननौ न लियो यन, यांधि निराकुल ध्यान धजा है अगाछिकदया। लोगनिसौं मिलनों हमको दुख,साहनिसों मिलनौ दुख भारी। भूपतिसौं मिलनों मरने सम, एक दसा मोहि लागत प्यारी // याएफी दाह जल जिय मूरख, वे-परवाह महा सुखकारी। घानत याहीत ग्यानी अच्छक, कर्मकी चाल सबै जिन टारी महावीर भगवानकी बन्दनाफे लिए श्रेणिकका गमन। ग्यान प्रधान लहा महावीरनैं, सेनिक आनंद भेरि दिवाई। मत्त मतंग तुरंग बड़े रथ, द्यानत सोभत इंद्र सवाई॥ घांभन छत्रिय वैस जु सूद, सु कामिनि भीर घटा उमड़ाई। कान परी न सुनै कोऊ बान सु, धूरके पूर कला रवि छाई 28 आदिनाथकी यानावस्था / ग्रीपम काल जलै भुविजाल,खरे गिरि सीस सिलापर स्वामी। ईधन कर्म उदासकी पौनते,ध्यानकीआगि जलै अभिरामी॥ ता निकलौ कन जाम उभ दिन,सीस दिपै छविसौं रवि नामी। आदि जिनेसुर ही परमेसुर, बंदत पाय करौ सिवगामी॥२९ चार प्रकारके गनुष्य / पानत उत्तम आतम चिंत, करै न डरै जमराज वलीतैं। मध्यम पूजन दान करें, निकरें दुरगीत (?) अँधेर गलीते // १-कायोत्सर्गायसागो जयति जिनपतिनाभिसूनुर्महात्मा, मध्याले यस भास्वानुपरि परिगतो राशते सोग्रमूर्तिः / धके कर्मेन्धनानां अतिबहुदहतो दूरमौदास्थयातरफूर्जरसधानव रिप रुचिरतरः प्रोगतो पिस्फुलिङ्गः // -पानन्दिपञ्चविंशतिका / -- - - -Timi m पूर्णमस्तुति। इंद फर्निद नरिंदतै काम , रूप अनूप कयौ नहिं जाई। दीपक मानिक चंदकी सूरकी, जोतितै देहकी जोति सवाई। चंदतै चंदनहत कपूरते, पालेरौं सीतल बानि बताई। धानतएगुनको नहिं पार सु, फेवलग्यानिकी कौन बड़ाई२४ रंचक राग नहीं जिनरायकै, सर्व परिग्रह त्याग दिया है। दोष कहा कहियै पिन कारन, आयुध एक न संग लिया है। साम्यतया निज ग्यान भया सव,कर्म विनास प्रकास किया है। आनंदकंद महा सुख साहब, धानतर्ने तकि याद किया है 25 यान / पाँवनिसौं कछु पावनौं नाहिं है,याहीत आवन जान तजा है। हाथनिसौं करना कछु काम न,लब किए कर आप भजा है / Scanned with CamScanner Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (112) अद्धम जी रुजगार बखानत, ठानत पेटमें आगिवली अद्धमअद्धम पाप उपाजेत,गाज उठे मुखवात चलीत॥३. भावनाचतुष्क। धावर जंगम जीव सवै, समता धरि आप समान वखाने। दर्सन ग्यान चरित्त गुनाधिक, देख विसेख विनै अतिठा भूख त्रषादि महा दुखवंतनि, संत भयौ करुना मन आने साम्य दसा विपरीतनसौं बुध, द्यानत चार विचच्छन। ज्ञाताको उपदेश। मैल भरयौ दुरगंध महाजल, गंग सुगंग प्रसंग हुएते। कांठ अपार निहारि भयौ दव, लागत नैकसी आग फुएते। द्यानत क्यों नहिं देखहु वारिधि, वारिदकौ जल बूँद चुएते। आतमतें परमातम होत है, वाती उदोत है दीप वुएते॥३२॥ जाहीकौं ध्यावत ध्यान लगावत, पावत हैं रिसि पर्म पदीकों। जाथुति इंद फनिंद नरिंद, गनेस करैं सब छांडि मदीकौं // जाहीकों वेद पुरान वतावत, धारि हरै जमराज वदीकौं। द्यानत सो घट माहिं लखौ नित, त्यागअनेक विकल्प नदीकौं ज्ञातादशा। धातनके घर नीव महा वर, सोच नहीं छिनमै ढहिजाते। पुत्र पवित्रसु मित्र विचित्र न, चित्र जहां लखिए जम खाते॥ द्यानत इंद फनिंद नरिंदकी, संपत कंपत काल-कलाते। हांननदीननकै सुख कौंन, प्रवीन कहा विषयारस रातें ? / 34 // -सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वम् / माध्यस्थ्यभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव // -अमितगतिसूरि। (113) बात कहैं न गहैं हट रचक, वाद विवाद मिटै सव यात। कान सुनैं वहु वान मुर्ने लह, हंस सुभाव सुकारज रातें। बोलत डोलत पापनि छोलत, खोलत मोख किवार धकातें। द्यानत संतनकी यह रीत, दया रस पीत अनीतनियात।३५। मूढदशा। पापकी बातनि प्रातकी प्रातलौं, जापकी वात न एक घरी है। खानकौं आपसु बाप सुता सुत, दानके भाव न नैंक लरी हू॥ भौन चुनावनकौं गहना धरि, जैनके भौन न ईट परी हूँ। ता पर चाहत हौसुख द्यानत,जानत मोहिन मौति मरी हू॥ भूख गई घटि, कूख गई लटि, सूख गई कटि, खाट पस्यौ है। वैन चलाचल नैन टलावल, चैन नहीं पल, व्याधि भयौ है। अंग उपंग थके सरवंग, प्रसंग किए जन ना द्यानत मोह चरित्र विचित्र, गई सव सोभ न लोभ टस्यौ है। बालक बालखियालिनि ख्याल,जुवानि त्रियान गुमान भुलानें मे घरवार सबै परिवार, सरीर सिंगार निहार वृद्ध भए तन वृद्धि गए खसि, सिद्धत काम नखाट तुला. (?) / द्यानत काय अमोलक पाय, न मोख दुवार किवार खुलानें // प्रात उठे सुमथें विकथा रस, कै जल छान तमाखु भरावें। रात ही जात तगाद उगाहनि, भोजन त्यार भए हिंग खावै॥ सोच करें रुजगारके कारन, काम कहा किहके घर जावै / संकट चूरत मंगल मूरत, द्यानत पारसनाथ न गावँ 39 जामहिं खाध किधौं विटिता, सठ ता रुजगार लगोई रहै है / जामहिं नित्त नफा सब जानत, ताहि लग्यौ यह नाहिं कहै है // स्वारथ देस विदेस भमै धन, कर्मवसात लहै न लहै है। यानत आतम स्वारथ है ढिग,आलस त्याग करौ न चहै है४० घ. वि. 8 Scanned with CamScanner Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (11) कायकै उद्यम कीना हाट बनायक बाट लगायके, टाट बिछायकै उस लैनकौं बाढ़ सु दैनकौं घाट, सुबाँटनि फेरि ठगे। ताहमैं दानको भाव न रंचक, पाथरकी कहूँ नाव नाव तरी ना। ना४ यानत याहीतै नर्कमैं वेदनि, कोर किरोरन ओर सही स्वानका नहीं उर, पाठ पढ़े हैं४२ सुबाँटनि फेरि ठगे बहु दी। त आय बड़ा कुल पाय, हुए भुवि राय सदा सुख कीर्ने / जोगनि जाचक लोगनि, दान सबै मनवंछित दीन / माग मौन भये सिव सौन, करै थुति कौन महा रसभीन। तर ध्यानकौं कातर, मान महातहार चढे धके पायनमें सिर नाय, कहैं जस होत हैं पापत हीन।।४७ साधुके अष्टगुण। दैनकौं आरस लैन महा रस, वैन कहा रस रीति गरे। / भमि समान छमा गुनवान, अकास सरूप अलेप रहे हैं। काम अनाहक दामके गाहक, राम अचाहक चाह है। निर्मल ज्यौं जल आगज्यों तेज, सदा फलदायक वृच्छ गहे हैं।। द्यानत या कलिकालके पंडित, ग्यान नहीं उर, पार . उपदेश। पापमहातमनासक सूरज, आनंददायक चंद लहे हैं। क्रोध फसे गति नर्क वसे दुख, नाग डसे फिर कोप कला है। मेघ समान सबै विध पोषक, आठ महा गुण साध कहे हैं४८ जो दुख देख विसेख दुखी जन, तामहिं धीरजसौं थिर ठाढ़े। माया लए तिरजंच गए बहु, कष्ट सए फिर माया बला द्यानत कामके भावनि भाव, निबाह नहोय कुलोभ जला ग्रीषम सैल सिला तरु पावस, सीतमैं चौपथभावनि गाढ़े // त्यागिकपाय छिमा सुखदाय,सुनाय कहू अव दाव भलारे वन परै न समाधि टरै निज, आतम लौ रत आनँद वाढ़े। नर्कनिमाहिं कहे नहिं जाहिं, सहे दुख जे जब जानत नाही द्यानत साधनकौ जस को कहि, बंदत पाप महा वन दाढ़े 49 गर्भमझार कलेस अपार, तले सिर था तब जानत नाही एककौं देखनि जात सबै जग, केई देखें केई देख न पावें। धूलके वीचमैं कीच नगीचमैं, नीच क्रिया सव जानत नाहीं एक फिरै नित पेटके काज, मिलै नहिं नाजदुखी विललावें॥ द्यानत दाव उपाव करौ जम, आवहिगी अब जानत नाहीं सो यह पुन्यरु पाप प्रतच्छ, न राग विरोध सुधी सम भावें। द्यानत आतम काज इलाज, सुखी जनमाहिं सुखी कहला अंबर डार अडवर टार, दिगंवर धार सु संवर कीना। वैठि सभा रस रीति सुनाय, कला कवि गायकै मूढ़ रिझावें / मंगल आस उदंगल नास, सु जंगल वास सुधातम भीना॥ ऐसे अनेक भरे भुवि लोकमैं, आपनि डूवत और डुवावें // कोह निवारिक लोह बिडारिक, मोह विदारिके आपप्रवीना। ते धनि जे परमातम ग्यान, वखान सुमारगमाहिं लगावें। कर्मकौं भेदिकै पर्मकों वेदिकै,द्यानत मोखविर्षेचित दीना४५ द्यानत ते बिरले इस कालमें, आपमें आप जथारथ ध्या५१ निंदक नाहिं छमाउरमाहिं, दुखी लखि भाव दयाल करें हैं। धर्म पचास कवित्त उभैजुत, भक्ति विराग सुग्यान कथा है। जीवको घात न झूठकी वात न, लैंहि अदात न सील धरै हैं॥ | आपनि औरनिकों हितकार, पढ़ौ नर नारि सुभाव तथा है॥ गर्व गयो गल नाहिं कहूं छल, मोम सुभावसौं जोम हरे हैं। / अच्छर अर्थकी भूल परी जहाँ, सोध तहां उपकार जथा है। देहसौं छीन हैं ग्यानमैं लीन हैं,द्यानत ते सिवनारि वरै हैं४६ द्यानत सजन आपविषैरत, हो यह वारिधि शब्द मथा है 52 इति धर्मरहस्यवावनी। उद्यम / Scanned with CamScanner Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (117) दान बावनी। . छम्पर। वंदों आदि जिनिंद, वृत्त-तीरथ परगास्यौ। नमो स्रियांस नरिंद, दान-तीरथ अभ्यास्यौ // दोऊ चक्र अवक, धर्मरथकों लहि नामी। सिवपुर पुर बहु गए, जाहिं जै हैं आगामी // ए बड़े पुरुष संसारमै, कौन महातम ऊचरै। सोई जानौ मानौ चतुर, विरत दान रुचिसौ करो। सवैया इकोसा। सबके अंतरजामी तीनलोकपति स्वामी, आदिनाथ प्रभु नामी गामी सिव भौनके / तिनकों दियौ अहार हथिनापुर मझार, ताके गुन कहें सार ऐसे गुन कौनके // उज्जल सरद घन चंद जस व्यापि रह्यो, लोकमैं सुगंध फैलि बाय चलें पौनके / तेई सिरीअंस मोहि, लोभको विधंस करो, घरौ हियै ग्यान हरौ दुख आवागौनके // 2 // कुरुवंसी-भूप-मनिमालमधि नायक है, सिरीअंस दानेस्वर दानीमैं गिनाईयै / वार मासके उपास किये आदिनाथ तास, सो दिन अजौं लौं विद्ध अखतीज है प्रसिद्ध, कौनसी न रिद्ध सिद्ध नाम लेत पाईयै // 3 // सवैया तेइसा / (मत्तगयन्द) लभमानुष भौ सु विभौ जुत, पाय कहा गरवाय अनारी / व कला कमला पट पेखनि, देखनिकौं चपला उनहारी // लोभमहातम कूप परे तिन, देखि दया हम चित्त विचारी। नास निकारन कारन वैन, कहैं पकरौ निकरौ मतिधारी॥४॥ उत्तम नारि सपूत कुमार, भयौ धन सारतें मोह बढ्यौ है। बारन पार समुद्र विर्षे सुभ, दान विधान जिहाज चढ्यौ है। खेवट भावसौं प्रीति भई तव, भीति गई सुख राह पढ्यौ है। . धर्म जिहाज इलाज बिना, दुख वारिधितें जिय कौन कढ़यौ है अडिल। बहुत जीव हितकार, सार धन संग्रहा। पात्र दान विधि जान, सफल गिरही कहा // पावै सुभगतिद्वार, धारकै दानकों। ज्यौं वारिधि तरि जाय, पायक यानकौं // 6 // सवैया तेईसा। देस विदेस कलेस अनेक, करोर उपाय कमाय रमा रे। नारि सुहात न पूत ददात न, आपनि खात न जोरि जमा रे॥ ऐसौ महा धन प्यारो लहा जन, संत कहैं सुनि बैन हमारे / ताइक दान सु गति(?)बिना दुख,चेति अवै फिरि नाहिं समारे कवित्त। भोजन आदिमाहिं जो जन धन, नित प्रति खात जात हैसोय। ताको सुपनै विष न दरसन, ताते तए बूंद अवलोय // दियौ जी गिरास जास कैसे जस गाईयै // आनंद भयौ अकास बरसे रतन रास, तबतें पृथ्वीको वसुधा कहि वुलाईये / Scanned with CamScanner Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लहै परलोय। सब कोय // 8 // मोखपुर माहि। दान एक पूरौ सव गुन गते धोखा नाहिं॥ (118) मुनिवर दान जोग सुभ खरच्यौ, सोई दरव लहै पर इक वट वीज सुखेत बोय, फल अनेक पावै सबको जिन अहार दीनों मुनिवरकों, तिननें धस्यौ मोखपुर निज ह अमर नगर घर कीनों, उच्च संगतें धोखा नार राज चुनें जिनमंदिर, तिनकै साथहि ऊरध जाति दैहिं दान अभिमान लोभ तजि, धन चंचल है ढरती छार __ अडिल्ल। ... जो थोरौ हू दान भगतिसौं देत है। साधुनिकौं सु अनंतगुनौ फल लेत है। . जैसे खेतमझार वीज कछु डारियै / तातें अति वहु पुंज प्रतच्छ निकारियै // 10 // कवित्त / जिन दान दियौसाधुनिकौं, निरमल मनवच काय लगाय। तिननैं पुन्य वीज उपराज्यौ, जातें भौ वारिधि तरि जाय॥ ताकी इंद करै अभिलाषा, कव मैं दैहुं मनुज भव पाय। तुक्यौं ढील करत है प्रानी, जानी वात देहि मन लाय // 11 // अडिन्छ। / मोख हेत रतनत्रै, मुनिवर धरत हैं। " काय सहाय उपाय, सु भोजन करत हैं। .. मुनिकों दान भगतिसौं, जिन स्रावक कखौ। तिन गृह जननें, सिव मारगमैं लै धस्यौ // 12 // कवित्त। (31 मात्रा) जप तप संजम सील विविध वृत, स्रावककै संपूरन नाहिं। आरंभ झूठ वचन चंचल मन, पाप पुंज बाटै घर माहिं // (110.) + पूरी सव गुनमैं, दैक सुरग लोकमै जाहिं / व काय सुद्ध है दीजै, कीजै नहिं वांछा तिह ठाहिं 13 लते दान तनक जल, सरता जेम बड़े विसतार / सलिल वढे दिन दिनप्रति,सुजसफैन सिवदधिलग सार त पुरुप सरधासौं, दियौ दान सुभ पात्र विचार / कहत नहिं वस्तु लहत है, 'देय लेय' परगट व्यौहार 14 बारिगहको भार माहिं नहिं, थिरता परमातमको ग्यान / बिन तीनों अथे सधत है, साधं साध चार सुख दान / / चारों हाथ बीच हैं जाके, देय प्रीतिसौं पात्र दान / भवन दान वनमाहि तपस्या,"यह तो परगट वात जहान१५ सोरठा। सिव-पुर-पंथी साध, नाम रटै पातग हटै / दान अराध, तिरै जगत अचिरज कहा // 16 // सवैया तेईसा / (मत्तगयन्द) भौन कहा जहां साध न आवत, पावन सोभुव तीरथ होई। पाय प्रछालकै काय लगायकैं, देहकी सर्व विथा नहिं खोई // दान करयौ नहिं पेट भयौ वहु, साधकी आवन वार न जोई। मानुष जोनिकौं पायकै मूरख,कामकी वात करी नहिं कोई१७ देव कहा जहां भाव विकार, भजौ कि न देव विरागमई है। साधु कहा जिसकै नहिं ग्यान, गुरू वह जास समाधि भई है। धर्म कहा जिसमें करुना नहिं, धर्म दया अघरीति खई है। दानबिनालछमी किह कारन, 'हाथ दई तिन साथ लई है'१८ कवित्त / (31 मात्रा) गुन बहु भए ग्यान नहिं पायौ, बहुत भोग नहिं वृत्त लगार। धनकौं पायदान नहिं दीनौं, गुन धन भोगनिकौं धिक्कार // Scanned with CamScanner Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जप मुखकार / परममाकासार।।१९।। विध प्रकार। जहिय सार // रगति दुःख अपार। अति कर लगार२० मिटी कपाय। (120) तीनजगत यस करन हरन दुख, धरम मंत्र न जप 'बहते पानी हाय नधोई,फिरि पछिताय होय का पात्रदानमैं जो धन खरच, इह पर भी सुख विविध आप देस परदेस भोगवे, राजलच्छमी कहिये दान विना इह भीम दारिद, पर भौ दुरगति दुःख दान समान न आन पुन्य कछु, देहि ढील मति कर काय पायकै व्रत नहिं कीन, आगम पढ़ि नहिं मिटी धनकौं जोरि दान नहिं दीनी, कहा काम कीनों इह में लीनों जनम मरनकै कारन, रतन हाथसौं चला गमा तीनों वात फेरि कब पात्र, सास्त्रग्यान धन नर-परजाय सर्वया इकतीसा ( मनहर)। पापको इलाज त्याज पुन्य काजके समाज, खात है परायो नाज आनँदको खेत है। ग्यानकों जगावत है मानकों भगार्वत है, पारको लगावत है, जैनधर्म केत है // मानुप जनम पाय, तप कीजै मन लाय, भीसागर सुखसेती, तरित्रकों सेत है। वुरौ धन घरमाहिं, पूजा दान वनै नाहि, दुर्गतिके दुख होहिं तासों कहा हेत है // 22 // अडिल ( 21 मात्रा)। श्रीजिनचरनकमलकी पूजा ना करी / देखि संयमी दान भगति नहिं आदरी // ... धाममाहिं वसि काम, कहा तेने किया। गहरे जलमें, नरमौकों पानी दिया // 23 // (121) जो सागरमें भमत, कठिन नरभी लहै / तन-भोग विराग, धन्य जो तप गहै // सीन वनै ती घरमै, अनुव्रत पालियै / पात्रदानविधि, दिन दिन अधिक संभालियै // 24 // चल्यौ धामतें गाम, बहुत तोसा लिया। राहमाहि दुख नाहि, सदा सुख तिन किया // भवते पर-भव जात, दान व्रत जो धरै। अद्भुत पुन्य उपाय, साहवी सो करै // 25 // सबैया तेईसा ( मत्तगयन्द)। में नर भोग विथारन, कीरत कारन काम वनाचै / उदैमहिंजोग वनैं नहिं, आपकौं दुःखकी वेलि बढ़ावै // के भाव सदा अति उत्तम, दान दिय बहु-पुन्य कमावै / टानकौं देत है भाव समेत है, सो जगमैं जनम्यौ कहलावै 26 गीता। निज सत्रु जो घरमाहिं आवै, मान ताकौ कीजियै / अति ऊंच आसन मधुर वानी, वोलिकै जस लीजियै / / भगवान सुगुन-निधान मुनिवर, देखि क्यौं नहिं हरखियै / पड़गाहि लीजै दान दीजै, भगति वरखा वरखियै // 27 // ___कुंडलिया। / दान देत है साधकों, नित प्रति प्रीति लगाय / जा दिन मुनि आवें नहीं, दुख मानै अधिकाय // दुख मानै अधिकाय, पुत्र मृतु अति भारी / अहो कर्म दुर्भाग्य, वात तें कहा विचारी। विफल आज दिन गयौ, भयौ नहिं धर्महेत है। *चित उदार तजि लोभ, साधकों दान देत है // 28 // Scanned with CamScanner Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दैननि जोग घरै सछिद्र नि जो धनवान करना ता नरकौ साहव है। (122) सवैया इकतीसा। साधनकौं दान देय सो तो फल-पुंज लेय ताकौं लखि अभिलाखै सो भी फल पावै है। चंदकांत मनि देखौ सुधा झरै चंद देखि, भावना ही फलै जो कै नीकै मन भाव है। धन होत साध पाय दान देत जो न मूढ, धरमी कहावै आप मायाको बढ़ावै है। विजली कपट परलोक सुख-गिरि फोड़े। जापै दान वनि आवै मोहि सो सुहावै है // 20 // अडिल्ल ( 21 मात्रा)। ग्रास अर्ध चौथाई नित प्रति दीजिये। जथा सकति ज्यों आपन भोजन कीजियै // आवत है जम भील न ढील लगाइयै / मनवांछित धन साध समा कव पाइयै // 30 // दोहा। मिथ्याती पसु दानरुचि, भोग भूमि उपजंत / कल्पवृच्छ दस सुख लहै, क्यों न लेत नर संत // 31 // __कवित्त (31 मात्रा)। जैसैं खान निधान पाय तजि, और ठौर खोदै अग्यान / (123) लोग सँजोग दरवको, दान देय नहिं मूरख जोय / द जिहाज रतन लै, सागर पार कौन विधि होय 33 चौपाई / दान करै नहिं दान, इह भौ जस पर भौ सुख खान। को साहव है और, सेवक भेजौ रच्छा-ठौर // 34 // सबैया तेईसा। में तन-भोग लखै पन, इंद्रनसौं रन जीतवौ चाहै / विषै मन चाह रहै वन, कोप नहीं छन सांत दसा है। Dad मन पोख दुखी जन, दान विर्षे धनकौं निरवाहै / लगैलछमी अपनी वह, आन लहै धन औरनका है।३५। घटै विघटै लछमी घर, दान दिय न घटै धन भाई। निवारहु कूप निहारहु, काढ़तते जल बाढ़त जाई // कौं दान निरंतर ठान, हियँ सरधान महासुखदाई। खाय गयौ वह खोय गयौनर, लेय गयौ जिह और खिलाई३६ कवित्त ( 31 मात्रा ) / खान पान पट भौन गौनमै, लोभ अकीरतवान बखान / पजामाहिं नाहिं जल फल सुभ, दीजै नीरस दानविधान // इह परलोक थोक सुख चूरै, महालोभ पूरै दुखदान / लोभी होइ लोभ तजि भाई, देय हाथ ले साथ निदान // 37 // सवैया तेईसा। लच्छि भई न भई घरमैं, नरमैं उपगार महा मन ढीलौ / जन्म भयौ नभयौ तिनको,जिनको चित नाहिं दयारस गीली संखकी भांति मुए जगमैं,जिनकौ कोऊनाम सुनै नहि कीलौ। दोष नहीं पर नाउन लैं जन, लेत हि होत अहारको हीलौ 38 +NA तैसैं घरमै दैन जोग सव, नैननि देखे मुनि गुन खान // दानवुद्धि जाकै नहिं उपजै, तासौं महा मूढ़ को आन / पुन्य जोगते द्रव्य कमायौ, सोन लगायौ उत्तम थान // 32 // ज्यौं नर रतन गमाय जलधिमैं, ढूढ़े भागौं पावै कोय / त्यों चिरकाल भमत भवसागर, कठिन मनुष भौ प्रापति सोय Scanned with CamScanner Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दवक तातें बढ़ौ गुन का लोभवुरो सव औगुनमें दीनकौं दीजिये होय नत्र आराध भगति अगाध साधको (124) रोडकी। खान पेट निज भरे, भूप हू पेट भरै है। कहा बड़ाई भई, खाय दुरगंध कर है। पात्रदान नित देइ, लेइ नर-भौ-फल तर, अंत रहे कछु नाहिं, नाम तिनको जग ले / वित्त ( 31 मात्रा)। इंद्र फनिंद नरिंदन स्वामी, गामी सिवमारगके साः लोक अलोक सकल परकासत, निरमल रतनत्रै का तिनकी थिरता होत असनतें, दै भोजन करि भगति, यह गृहि-धर्म कौन नहिं चाहै, एक दान विन सबै उपा अडिल्ल। धरा धरामें द्रव्य, पेंड़ इक ना टलै। परिजन मरघट थाप, आप घरकों चलै // भली विचारी लकड़ी, जो साथै जले।। आगें दीरघ राह, धरम कीनों फलै // 41 // जस सौभाग्य सल्प, सूर सुख कुल भला / जाति लाभ सुभ नाम, विभौ पंडित कला // सरव संपदा पात्र, दानतें पाइयै / ... जतन करो किन जीव, बहुत क्या गाइयै // 42 // ___सबैया तेईसा। भौन करौं सुत नारिवरौं, धन गाढ़ि धरौं कठिनी महिं खहीं। काम घने इतने करने, अब दान सदा मनवंछित देहाँ // लोभ मलीन प्रवीन लखै निज, जानहुँगा जब ही कर लै हौं। न है जगम कहा, आप न याय मयाय मकानमाहिं बंध्या दृद्ध, दानकी बात मुन नीट गुन कागम देखिंथ, जात बुलायक in सब औगुनम इक, ताहि त दिमite दीजिय होय दया मन, मीठको त्रिय प्रतिमा दीजिये काम करै वहु, माहव दीत्रिय श्रादरपद सवाजिय वर रह नहि, भाटका दाथि गरमाथ। सदीजिये मोखके कारन, हाथ दियो न अशाची अडिया दाता पुरुषनि पास, नाम व जात है। रहों सूर घर माहि, मुहाग बिलान है। विद्या पंडित धाम, साति दुख को मंह। लछी कृपनकों पाय, महा माता गह // 46 // ऋवित्त (31 मात्रा)। उत्तम पात्र साध सिवसाधक, मध्यम पात्र सरावग मार। अपनपात्र समकिती अविरती,विन समकित कुपात्र व्रत-धार समकित विरत-रहित अपात्र हैं, पांच भेद भाव निरधार / उत्तम मध्यम जघन भेदसों, एई पंद्र पात्र विचार / / 47 // उत्तम मध्यम जघन पात्रतें, तीनों भोगभूमिमुख होय। लहे कुभोग कुपात्र दानतें, दान अपात्र दिय दुख होय / / वीजसु खेत डारि फल खइये, असर डारि बीज मति खोय / तातें मन वच काय प्रीतिसौं, पात्रदान दीजो सब कोया४८॥ यूरं त्यजामि वैधव्यादुदारं लजया पुनः / सापत्न्यात्पण्डितमपि तस्सास्कृपणमाश्रये // सोचत सोचत आय गई थिति, तौन कहै अबकै मरि जहाँ४३ Scanned with CamScanner Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ HTARNAKERww.. 1 संसार। देखि निहार // r m तिल मंदिर नाशि - - - - नरक मझार 49 वह वस्तु अपार। सिंहासन सार॥ - - 8.126) सास्त्र अभै आहार ओषधी, चारों दान बड़े संसार निहवे सुरग मुकतिके दाता, दाता भुगता देखिल गो गजराज वाजि दासी रथ, कनक भूमि तिल मंदिर दसौं कुदान पापके कारन, देत लेत सो नरक जो दीजै चैत्याले कारन, भूमि आदि बहु वस्तु अ तामें श्रीजिनविंव विराजै, चमर छत्र सिंहासन से पूजा करें पढ़ें जिनवानी, चारों संघ मिलें निरधार बहत काललों बढ़े जैनमत, धरम मूल पर-भौ-सुखकर दान वखान किया हमनें यह, कृपन दुःख सवकों म पाय चमेली अलिगन गुंजै, काग न जाने गुन समुदाय चंद किरनित कुमुदनि विकसै, पाथर कौन भांति हरखा भान तेज दसदिसि उजियारो, एक उलू दुख नाहिं उपाय रतनत्रै आभरन विराजै, वीरनंदि गुरु गुनसमुदाय। तिनकै चरन कमल जुग सुमिरत,भयो प्रभावग्यानअधिकाया तव श्रीपद्मनंदिनै की , दान प्रकास काव्य सुखदाय। पद्मनंदिपद बंदि बनाई, दानवावनी द्यानतराय // 52 // कार/५० - सवकों सुखदाय। ( 127) चारसौ छह जीवसमास। दोहा। नेमि जिनंद पद, सव जीवन सुखदाय / ब्रह्मचारी भए, पसुगनबंध छुड़ाय // 1 // समास अनेक विध, भाखे गोमटसार / समिचंद गुरु वंदिके, कहूं एक अधिकार // 2 // चौपाई। सीकाय दुभेद वखान, कोमल माटी कठिन पखान / पावक पौन विचार, नित्य इतर साधारन धार // 3 // "तों सूच्छम सातौं थूल, इनकै चौदै भेद कबूल / प्रतेककाय दो जात, परतिष्ठत अप्रतिष्ठत भ्रात // 4 // दोहा। दव बेलि छोटा विरख, वड़ा विरख अरु कंद / पंच भेद परतेकके, लखत नाहिं मतिमंद // 5 // जब इनमाहिं निगोद हैं, तव परतिष्ठत जान / जब निगोद नहिं पाइए, अपरतिष्ठ तव मान // 6 // जाति दसौं परतेककी, वे चौदह चौवीस / परज अपरज अलब्धसौं, भेद बहत्तरि दीस // 7 // वे ते चौ इंद्री त्रिविध, परज अपरज अलब्ध / विकलनकै भेद नव, हिंसा करै निषिद्ध // 8 // चौपाई। करम भूमि तिरजंच विख्यात, गर्भज सनमूर्छन दो जात // गरभज परज अपरज प्रवीन, अलवध हू सनमूर्छन तीन॥९॥ इति दानवावनी / -armiri Scanned with CamScanner Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (129) दौरा। उड़े सुभाय 1.. ( 128) सैनी पंच असैनी पंच, दसौं भेद जलचर तिरजंच। वसों भेद थलचर पसुकाय, दसौं व्योमचर उड़ें सुभा करम भूमि तिरजंच मझार, तीस भेद भाखे निरमा भोग भूमि अय सुनी सुजान, थलचर नभचर दो सर परज अपर्जापति दो भेद, चारि भेद जानी दिन से उत्तम मधम जघन भूतनें, बार भेद जिनागम भने / दोहा। नरी दोसरधान५५ विन खेद। गमभन // 12 // माहि ठानचे, पसु इक सौ तेईस / सब देवक, सतक बहत्तरि दीस // 20 // पवित। परजापत एक सी, छियासी जानिये / अपरजाप्त एक सी, अठ्यासी मानिये // अलबध परजापत जीव, चौतीस है। चव सत पट पर करना, करें मुनीस है॥२१॥ नियत एक चेतनमई, भेद सरय व्यौहार / निहाच अरु व्योहारका, जाननहारा सार / / 22 // सुदया समता आपमें, यह परदया विचार / द्यानत सुपरदया करें, ते यिरले संसार / / 23 / / इति चारगी-छह-जीयममास। -- तेरे भेद मनुष्यके, समझौ गरभ उछेद // 13 // चौपाई। उत्तम भोगभूमि सुख खान, उत्तम पात्रदानफल जाना। मध्यम जघन भोग भुव दोय, चौथे कुभोग भू नर जोय, पंचम मलेछ खंड मझार, छटे आरज गरभज सार। परज अपरज दुवादस जान,अलवधि नर इनमैं नहिं मान 10 अडिल्ल / . नारि जोनि थन नाभि, काखमैं पाइए / नर नारिनक, मल मूतरमें गाइए // 16 // मुरमें संमूर्छन, सैनी जीयरा।। अलबंध परजापती, दया धरि हीयरा // 17 // सोरठा। . नरक पटल उनचास, परज अपरजापत कहे। जीवसमास प्रकास, साताम अहानवे / / 18 / / चौपाई। त्रेसठ पटल सुरगके पाठ, भुवनपती दस व्यंतर आठ / जोतिस पांच छियासीभए, परज अपरजापति गति लए 19 - ध. वि. 9 Scanned with CamScanner Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल अमर। ( 150) पारवानीपीसी। / रिभयेष रिपयेय, धीर गंभीर धीर धुनि / चार पीस जगदीस, ईस तेईस पुगुन गुनि // सुरग-ठाम निज नाग, गात पुर तात घरन तन / आप काय सुभ चिश, गुफत शासन दस घरमान जस गाय पुन्य उपजाय सुधि, पाय फरी मंगल सिर नाय नमो गुग जोर कर, भो जिनिंद भय-ताप. पएपनि / रिपभदेव रिपिनाथ, वृषभ लच्छन तन सोह। नाभिराय-फुरल-कमल, मात मरदेवी मोहे // चौरासी लख पुव्य आय, सत पंच धनुप तन / नगर अजोध्या जनम, फनफ घपु घरन हरन मन // सर्वार्थसिद्धः गमन पद,-मासन केयल ग्यान वर / सिर नाय नमी जुग जोरि करि, भो जिनिंद भव-ताप-हर॥२॥ अजितनाथ / सिंदभव-ताप-ह॥२॥ - -- - प्रेमनाथ। संभय संमय-हरन, पुरी गायत्ती जानी। मात सुपना रूप, भूप दिदराज प्रवानी / / खरगामन मुग्य स्यादि, आदि ग्रीवकत आए / चिन तुरंग उतंग, रंग कंचनम गाए / थितिमाठि लाख पूरब मुगति, धनुष चारिस दखि चतुरा सिर, नाय नमीं // 4 // अभिनन्दन / अभिनंदन अभिनंद,-कंद मुख भूप स्वयंवर / माता सिद्धारथा, कथा सुवरन तन मनहर / / तीन सतक पंचास, धनप तन नगरि विनीता। पुव्य लाख पंचास, तास कपि लांछन मीता / / खरगासन विजय विमानत, करम नास परकास कर। सिर नाय नमी० // 5 // ___ मुमतिनाथ / सुमति मुमतिदातार, सार वस वैजयंत मन / भूप मेघरथ तात, मात मंगला कनक तन // पुव्य लाख चालीस, ईस तन धनुप तीनसै / चक्रवाक लखि चिन्न, खरग आसन सुख विलस // छहमास अगाऊ गरभते, भयौ विनीता सुर-नगर / सिर नाय नमी०॥६॥ पद्मप्रभ / पदम पदम भवि भमर, पदम लांछन सुखदाई। धरन भूप गुनकूप, सरूप सुसीमा माई॥ 1 श्रावस्ती नगरी। अजित अजित रिपु अजित, हेम तन गज लच्छन भन / पिता राय जितसत्रु, अत्र (1) खरगासन आसन // लाख बहत्तरि पुव्व, आव पुर जनम अयोध्या / धनुष चारिसै साठि, गाढ़ बच बहु प्रतिवोध्या // तजि विजय थान परधान पद, बसे विजैसैना उदर। सिर नाय नर्मो०॥३॥ / Scanned with CamScanner Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m h रख करन मन / / बिजन सुघर। तारै चौंसठ चमर। (12) अंतम ग्रीवक वास, दुसै पंचास चाप तन खरगासन बहु सकत, रकत तन हरख कर थिति तीस लाख पूरव पुरी, कौसंवी सब जा सिर नाय नमौं० // 7 // सुपार्श्वनाथ / देत सुपास सुपास, पंच ग्रीवकतें आए। सुपरतिष्ठ भूपाल, पृथीसैना मन भाए // नगर बनारस धाम, स्वाम खरगासन राजै। चिन्न साथिया बीस, लाख पूरब थिति छाजे तन हरित वरन दोसै धनुष, सुर ढारै चौंसठ सिर नाय नमौं० // 8 // चंद्रप्रभ / चंदप्रभू प्रभ चंद, चंदपुर चंद चिन्न गन / महासैन विख्यात, मात लछमना स्वेत तन / वैजयंततॆ आय, काय खरगासनधारी। आव पुव्व दस लाख, भए सबको सुखकारी॥ डेडसै धनुष तन भविक जन,हंस पाय तुम मानसर सिर नाय नमौ० // 9 // पुष्पदन्त। सुवुधि सुबुधि करतार, सार प्रानतके थानी। महा भूप सुग्रीव, जीव जयवामा रानी॥ उज्जल वरन सरीर, धीर खरगासन जानौ। काकंदीपुर साख, लाख दो पूरब मानौ // (133) तन धनुष एक सौ भौ-रहित, सहित चिन्न जलचर मकर / सिर नाय नमौ० // 10 // शीतलनाथ। सीतल सीतल वचन, भद्रपुर आरन स्वर वर / दिढरथ तात विख्यात, सुनंदा माता अवतर // नबै धनुषको देह, धीर कंचनमय गायौ / आव पुव्व इक लाख, खरगआसन सुख पायौ // श्रीवृच्छ चिन्न केवल प्रगट, भिन्न भिन्न भाख्यौ सुपर। सिर नाय नमौ० // 11 // श्रेयांसनाथ। भज नेयांस स्रयास, स्वर्ग सोलमके वासी / ... विस्नुराज महाराज, मात नंदा परकासी // असी चाप तनमाप, आप गैंडेको लच्छन / खरगासन भगवान, सिंहपुर कनक वरन तन // चौरासी लाख वरस भुगत, दुख-दावानल-मेघ-झर। सिर नाय नमौ० // 12 // वासुपूज्य / वासुपूज्य वसुपूज्य, भूप वसु विधिसौं पूजौ। दसम लोकतें आय, रकत सुभ काय न दूजौ // सत्तर चाप सरीर, धीर चंपापुर आए। लंछन महिष मनोग, जोग पदमासन गाए // थिति लाख बहत्तरि वरसकी, जयावती माता सुमर / सिर नाय नमौं० // 13 // 1 लाल। Scanned with CamScanner Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (134) विस्वसैन नृप तात, मात ऐरा मृगलंछन / धनापुरमै आय, काय चालीस धनुष तन // शिति लाख वरस आसन पदम, नाम रट अप जाय टर। तिर नाय नमो० // 17 // कुंभुनाथ / विमलनाथ। विमल विमल अवलोक, लोक द्वाद-स बसस कंपिल्लापुर आय, काय कंचन जग नामी // कृतवर्मा भूपाल, भाल जयस्यामा माता। सकर चिन्न निसान, साठि धनु तन अति साता। थिति साठि लाख वरसनसुखी,खरगासन सवतेंजु सिर नाय नमौ० // 14 // ____अनंतनाथ / सुगुन अनंत अनंत, अंत सुर सोल जिनेवर। सिंघसैन नृपराय, माय जयस्यामाके घर // कनक वरन परगास, तास पंचास चाप तन। आव लाख है तीस, ईसको सेही लंछन // खरगासन कौसलपुर जनम, कुसल तहां आठौं पहरा सिर नाय नमौं० // 15 // धर्मनाथ / धर्म धर्म परकास, वास सरवारथसिध भुव। भान राज जस ख्यात, मात सुप्रभादेवी हुव // खरगासन निहपाप, चाप चालीस पंच तन / आव लाख दस वरस, सरस कंचनमय है तन // लखि वन चिन्न सुभ रतन पुर, पार न पावै सुर निकर / सिर नाय नमो० // 16 // शांन्तिनाथ / सांति जगत सव सांति, भोगि सरवारथसिधि रिधि / कामदेव तन कनक, रतन चौदहौं नवौं निधि // कुंथु कुंथु रखवार, सार सरवारथसिधि वस / हस्तिनागपुर आय, काय चामीकर हर सस // सूरसैन नृप जैन, ऐन नीकांता सुभ मन। पंचानबै हजार, वरस पैंतीस धनुप तन // खरगासन लंछन छाग सुभ, तारे जिन वैराग धर। सिर नाय नमो० // 18 // अरनाथ। अर अरि-करि-हर सिंघ, जयंत विमान जानि जन। भूप सुदरसन सार, मित्रसैना माता भन / हस्तिनागपुर आय, चाप तन तीस विराजै। थिति चौरासी सहस, वरस कंचन उवि छाजै / / खरगासनलंछन मीन सुभ,बैन जलद सर-भविक भर। सिर नाय नमो० // 19 // मल्लिनाथ / मल्लि करम-रिपु-मल्ल, धान अपराजित जानौ। मिथिलापुर अवतार, सार घट चिन्न पिछानौ।। कुंभराज महाराज, खरगआसन सरदहिये / धनुप पचीस सरीर, सहस पचपन धिति लहिये। Virani Scanned with CamScanner Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विफल अजर (136) देवी मगायती कनक तन, अमल अचल अविकार सिर नाय नमो० // 20 // शुनिगुमत / मुनिसुप्रत प्रत वर्ग, स्वर्ग मानतकै थानी। भूप सुमित्र पवित्र, मित्र सुभ सोमा रानी। राजगृहीम आय, काय कज्जल छवि छाजै। वरस सहस थिति तीस, बीस तन चाप वित लच्छन कछुआ आसन खरग, दीनदयाल दयान सिर नाय नमो० // 21 // नामिनाथ / नमि नमि सुरनरराज, राज सरवारथसिधि कर। विजयराज महाराज, विप्पला रानी उर धर // आव वरस दस सहस, पुरी मिथिला सुखदाई / पंद्रे धनुप सरीर, खरगआसन लौ लाई // तन कनक वरन लच्छन कमल,ग्यान भान हर भ्रम तिमर सिर नाय नमी० // 22 // नेमिनाथ / नेमि धरम-रथ-नेमि, जयंत विमान वास किय / समुदविजै महाराज, सिवादेवी जानौ जिय // नगर द्वारिका नाम, स्याम तन जन-मन-हारी। आव वरस इक सहस, चाप दस रजमति छाँरी॥ खरगासन आसन मोखकौ, संख चिन्न हरिवंस-नर / सिर नाय नौ० // 23 // (137) पार्थनाथ / पास पास अघ नास, बास प्रानत करि आए। अवसन अवदात, मात वामा मन भाए // नगर वनारसि थान, जान फनि लच्छन नामी / आव एक सौ वरस, खरग आसन सिवगामी.॥ तनहरित वरन नव कर धरन,वज्र प्रगट संवर सिखर। सिर नाय नमी० // 24 // वर्धमान / वर्धमान जस वर्धमान अच्युत विमान गति / नगर कुंडपुर धार, सार सिद्धारथ भूपति // रानी प्रियकारनी, वनी कंचन छवि काया / आव वहत्तर वरस, जोग खरगासन ध्याया // तन सात हाथ मृग नाथपति,तुमतें अवलौं धरम जर। सिर नाय नमों जुग जोरि कर,०॥ 25 // समुच्चय चौबीस तीर्थंकर / रिपभ अजित संभव अभिनंदन सुमति पदम सम / जिन सुपास प्रभु चंद, सुविधि सीतल स्रेयांस नम // वासपूज्यजी विमल, अनंत धरम पंदरमा / सांति कुंथु अर मल्ल, सु मुनिसोविरत वीसमा // नमि नेमि पास वीरेस पद, अष्ट सिद्धि नौ रिद्धि धर। सिर नाय नमो० // 26 // पांच कुमारतीर्थकर / वासुपूज्य सुरपूज्य, मल्ल विधिमल्लजयंकर / नेमि देह जम नेम, पास भौ-पास-छयंकर // 1 दो पुस्तकोंमें 'ब्राह्मी' पाठ है। Scanned with CamScanner Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (138) बालक उनर। महाशर महावीर, धीर पर-पीर-निवारन / बडे पुरुष संसार, सार संपतिं सुखकारनी एपंच कुमरपदई सुमर, कठिन सील वालक सिर नाच नौ // 27 // कलपवृच्छ कलपते, चिंततें चिंतामनि मन / पारस हू परसते, करें हित एक जनम जन भगत अकल्प अचिंत, अपरस तिहारी नामी भोभो सब सुख देहि, कौन उपमा है स्वामी हौनिपट सिघिलताके विर्षे, चपल चित्त निसदिन कि निर नाय नमौ० // 28 // महापुरान प्रवान, जान आठों विध वरना वासठ ठान वखान, जान दो लच्छन आसन होय कोय संदेह, नेह करि तहां निहारी। सुद्ध छंद सो सुद्ध, फेरिक कवित समारो॥ हाँ अलपवुद्धि वुद्धनविष, एक बात लीनी पकर। सिर नाय नमो०॥ 29 // जै जै मल ब्रह्मचारिज, अटल चल सकल बनाए। एक एक जिन स्वाम, नाम दस दस गुन गाए॥ सुनत मुनत चित चुनत, धुनत दुख-संतत प्रानी। द्यानतराय उपाय, गाय जिन पाय कहानी // गद जनम जरा मृतु नहिं भगत,भगति एक ओपध विगर। सिर नाय नमों जुग जोरि कर,भो जिनंद भवतापहर३० इति दशस्थानचीवासी। (139) व्यौहार-पचीसी। अरहंतस्तुति-सवेगा इकतीसा / सरवग्यपदधारी तीनलोकअधिकारी, क्रोध लोभ परिहारी ऐसौ महाराज है। सबको समान गिना राग दोप भाव विना, पास नहिं तिना सक सौको सिरताज है // ताहीको वखान्यौ धर्म सोई सांची सोई पर्म, औरको कह्यौ अधर्म झूठको समाज है। सिवपुर बाटकै बटाउनिकों संबलं है, सुखकी दिवैया महाकालमाहिं नाज है // 1 // दयाधर्मखरूप / साध और स्रावक सकलव्रत जातै पल, गलै जास विना सुख संपतिकी जननी / धर्मतरुमूल पाप धूल पुंज महा पौन, विद्या उपजावनकों बड़ी एक गननी / / उच्च मोख भौनकी नसैनी इच्छपद दैनी, जैनी प्रान-दया करौ दोपनिकी हननी / अदयाको नाम दसौं दिसामाहिं सुंन गिना, दया पुन विना एक बात हू न वननी // 2 // दान दियें कहा सिद्धि ध्यान कियें कहा रिद्धि, पाठ पढ़ें कहा वृद्धि जीवनको जोरिक। 1 वटोही-मुसाफिर / 2 कलेबर-पाथेय / 3 दुर्भिक्षके समयमें। 4 अ. नाज-अन्न. Scanned with CamScanner Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (141) (140) कविता पखान करी लोगनिमें रीझ परी. सपमाहिं बुद्धि धरी चंचलता छोरिक। एक बिना सबै हेय, ऐसी दया क्यों न लेय छहौं धर्ममाहिं ध्येय पाप डोरि तोरिक। कोमलता हियेकी सहेली आप ही अकेली. स्वर्गकी नवेली निधि करै दुख बोरिकै // 3 // महालोगवधा / 'पाय दो अटपटात जान हू थकत जात, कटि हू पिरात गात घात बात बनी है। छाती छवि छीज गई पीठ हू सकुच भई, हाथ हलै चलै नई जरा पौन घनी है // बैन गह्यौ रूप और आंखि लाज तजी ठौर, कान वान सुनें कौन आन वनी अनी है। काल असवारीपै हुस्यारी मृत वासनकी, (?) डूबै जहां बांस तहां पोरी किन गनी है // 4 // दानखरूप। अजस विहार करै वारिधि हू जाय परै, आपदा प्रसंग हरै विस्न (?) एक हू कहां। क्रोधकी न जौन होय लोभकी न पौन होय, नरकको न गौन होय कौन कहै दुख तहां // पापको विनास होय भोगभूमिवास होय, स्वर्गमैं निवास होय शत्रु को रहै जहां। साधनकै दान” निधान-पुंज व्योम देत, या समान दूसरौ न मोटौ गुन है इहां // 5 // सजनता। टानको विसन जाप ग्यानमै रिस न काप, खानको न तिसना प मिसना सरलता। सोमता सुभाव लिये जोमकी न बात हिये, मोमरीति लई गई मानकी गरलता // . भोगनसों विरमात जोगनसौं निजरात, लोगनकी सुनत बात दोपमें न लरता / रोस रीति भाननकी तोप प्रीति ठाननकों, मोखफल खाननकों वई है वर लता // 6 // शोकनिवारण। पीतम मरेकी सोच कर कहा जीव पोच, तजे ते अंनते भव सो कछू सुरत है। एक आवै एक जाय ममतासी बिललाइ, रोज मरे देखे सुने नैक ना झुरत है। पूतसौं अधिक प्रीत वह ठान विपरीत, यह तौ महा अनीत जोग क्यों जुरत है। मरनौ है सूझै नाहिं मोहकी गहलमाहिं, काल है अवैया स्वास नौवति घुरत है // 7 // धनतृष्णानिवारण / एकनकै सैकड़े हजार लाख कोटि दर्व, रोज आवै रोज जाहि ताहि ना खबर है। एक हाट हाट माहिं वाट वाट विललाहिं, कौड़ी कन पावे नाहिं नैक ना सवर है // 1 मिस-छल / Scanned with CamScanner Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (142) सुभासुभ परतच्छ चच्छसौं विलोकत है, पाप घन जोरि धन भानकौं अवर है। धन परजन तन सवसौं निराला आप, सुच्छ लखै दच्छ कर्म नासकौं जबर है . .. ममतानिवारण। . भोगक कियेतें पापकर्मको संजोग भूरि, संजम धरेते पुन्य कर्मको निवास है। धनकै बढ़ेते मोह भावनकी वढ़वार, आसकै निरोधसेती बोधकौ प्रकास है // परगह भार गहें आरंभ अपार होय, संग-निरवार करें दयाको विलास है। द्यानत कुटुंब माहिं ममता छूटै है नाहिं, एकरूप भए सम सुखता अभ्यास है // 9 // . आशा। केई विषै भोग पाय त्यागें मन वच काय, लैक मुनिराय पाय वंदनीक भए हैं। केई विपैमैं निवास चित्तमै रहें उदास, ग्यानको प्रकास भववास पर गए हैं / किनहीकै विष नाहिं वांछा हू न उरमाहिं, चाह दाह हीन आप-लीन परनए हैं। हमें विपै योग उपयोग सुद्ध दोनों नाहिं, वृथा आस-पास परे दोषनिसौं छए हैं // 10 // देस देस धाए गढ़ बांके भूपती रिझाय, धल हू खुदाए गिरि ताए पारा ना मस्यौ / (143) सागरकों तरि धाए मंत्र ह मसान ध्याए, पर घर भोजन ससंक काक ज्यों कयौ / बड़े नाम बड़े ठाम कुल अभिराम धाम, तजिकै पराए काम करे काम ना सम्यो / तिसना निगोड़ीन न छोड़ी बात भाँड़ी कोऊ, मति हु कनौड़ी कर कौड़ी धन ना सी // 11 // हर्पशोकल्यागके छह दृष्टान्त / / आंव फल छाहिं खरबूजे फल छाहिं नाहिं, नीबमाहिं फल नाहिं छाहिं ही सहाय है। आक फूल छाहिं नाहिं कंटक थूहर माहि, कांटे हैं बंदूर राह आए दुखदाय है // पुन्य पाप उतकिष्ट मध्यम जघन्य भेद, जैसा उदै तसा धन दारा सुत पाय है। हरख सोक की कहा बीज बोय वृच्छ लहा, दावा तजि साखी होय आव बीती जाय है // 12 // वाद विवादमें मत पड़ी। साधरमी जन माहिं जो चरचा बने नाहिं, भेपधारी सिष्यनिमें कहैं जे अवन हैं। सेतपटधारी जे पुजारी लोके ढूंढ़िये हैं, वांभन वैरागी औ संन्यासी जे कटन हैं। मीमांसक आदि जात जिनसौं मिले न वात, राग दोष किये घात ग्यानकै पतन हैं। समता सरूप धरौ ऐंच बैंच में न परी, ग्रंथ नाय करौ हरौ दोप भरे जन हैं // 13 // Scanned with CamScanner Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतकालपरीषद / कंज सुरक्षात कपिहूको मद गल जात, दहत पृच्छनि पात रंक रोम खरे हैं। सीतकी विथा अपार पानी जमै बारबार, पान लगै तीर धार लोक दुख भरे हैं॥ तप-भौनमाहिं साधि ध्यान ऊषमा अराधि, नदी तट चौपथमैं कर्मनिसौं अरे हैं। जोगी बड़े धीर वीर पावै भव नीर तीर, देह मोखलच्छि हियँ भद्र भाव धरे हैं // 14 // प्रीष्मकालपरीषह। ग्रीषमको तेज सूर गरमी परत भूर, सूकत है जलपूर धूर पांवकौं धरे। धूप है अगनिरूप लू फुलिंगको सरूप, दिनमैं दुखी अनूप रात नींद को करे / भूमिकी तपतिसौं दसौं दिसा तपै है सैलसिलापर निराधार खरे साध भै हरे / ग्यान जोत उर धार तमकी हरनहार, वंदत हौं पाय जातें मेरे भव भय टरे // 15 // वर्षाकालपरीषह / / स्थाम घटा अति घोर वरसै करत सोर, रहै नाहिं एक ओर मूसलसी धार हैं। मानौं जल पियौ छार सोई वम्यौ है अपार, नदी दौरै टूटि टूटि खरते पहार हैं // कारी निस वीजली गरज और झंझा पौन, / तामें साध वृच्छ तलें ठाड़े निरधार हैं। ( 145) आप सुन ध्यावत है कर्मको बहावत हैं, भोख पावत है नौं सुखकार हैं // 16 // शानको कार्यकारिता / सीत ताप पावसको सहें धीर वीर होय, भेदग्यान भए बिना आपसौं विकल है। तीन कर्म सेती भिक्ष सदा चेतना ही चिन्न, ताकी न खबरि कैसे जगसौं निकल है // बरसौं लौं धूल धोय न्यारिया सुखी न होय, धातकी पिछान बिना दाम एक न लहै / आप ग्यान जानत है साम्य भाव आनत है, घोर तप ठानत है कर्मसौं विकल है // 17 // हितोपदेश / भन्यौ तू अनंती बार सम्यक न लह्यौ सार, ताते देव धर्म गुरू तीनौं ठहराय रे / लाग रह्यौ धन धाम इनसौं है कहा काम, जपै क्यौं न जिन नाम अंत सो सहाय रे // क्रोध है कठिन रोग छिमा ओषधी मनोग, ताको भयौ है सँजोग संगत उपाय रे। . पूरव कमायौ सो तौ इहां आय खायौ अब, करि मन लाय जो पै आर्गे जाय खाय रे // 18 // बाग चलनेकौं त्यार ढीलौ तीरथ मझार, झूठ कहनकौं हुस्यार सांच ना सुहाय रे। देखत तमासा रोज दर्सनको नाहिं खोज, विकथा सुनन चोज सास्त्रकौं रिसाय रे / / - घ. वि. 10 Scanned with CamScanner Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (146) खान पानकौं खुस्याल व्रत सुनै विकराल, सावककी कुल चाल भूली बहु भाय रे। पूरब कमायो सो तो इहां आय खायौ अब. करि मन लाय जो पै आगें जाय खाय रे / / 10 ____उद्यमी पुरुष / अनंगशेखर छन्द।। मिथ्यात जात घातकै सुधा सुभाव रातक, अवृत्तकौं निपातकै सुवृत्तकी दसा वरी। कुराग दोस नासकै कुआसको निरासके, प्रसांतता प्रकासकै उदास रीत आदरी // सरीर प्रीत छारकै अनेक रिद्धि डारकैं, सुसिद्धिकौं निहारकै स्वरिद्धि सिद्धि लौं धरी। अकर्म कर्म गया सुग्यान ग्यानमै भया, महा स्वरूप देखके सुवंदना हमों करी // 20 // छुधा त्रिपा न भै करै न सीत तापसौं डरै, न राग दोपकौं धरै न काम भोग भोगना / त्रिभेद आप धारकै त्रिकर्मसौं निवारकैं, त्रिजोगसौं विचारकै त्रिरोगका मिटावना // 'अराधना अराधकै कपायकौं विराधकैं, सु सामभाव साधकै समाधका लगावना। वहाय पाप पुंजकों जलाय कर्म कुंजकों, सुमोख माहिं जाहिंगे इहां न फेर आवना // 21 // ___भगवानसे यथार्थ विनती / सवैया-इकतीसा / तारक स्वरूप तेरौ जानत है मन मेरौ, ध्यान माहिं घेरौ घिरै नाहिं को उपाय है। (117) तात मात भ्रात नात सात-धात-जात गात, हमसौं निराले सदा चित्त क्यों लुभाय है। क्रोध मान माया लोभ पांचों इंद्रीविष सोन, महा दुखदाय जीव काहे ललचाय है। न्याव तो तिहारे हाथ द्यानत त्रिलोकनाथ, नावत हौं माथ करी जो तुमैं सुहाय है // 22 // शिक्षा। चाह रहै भोगनिसौं लागत है लोगनिसौं, वेऊ तौ फकीर तोहि कैसे सुख करेंगे / जाकी छाहिं छिन माहिं चाह कछू रहै नाहि, ताहि क्यों न सेवै तेरे सब काम सरेंगे / ग्रीषम तपत सैल नीचें बहु जलकुंड, धाराधर आए विन कौन ताप हरेंगे। गंगा जमना अनेक नदी क्यों न चली जाहु, चातककौं स्वाति बूंद महाराज झरेंगे // 23 // आए तजि कौन धाम चलिवौ है कौन ठाम, करते हौ कौन काम कछू हू विचार है। पूरव कमाय लाय इहां आय खाय गए, आगैंको खरच कहा बांध्यौ निरधार है // विना लिये दाम एक कोस गामकौं न जात, उतराई दिय विना कौन भयौ पार है। आजकाल विकराल काल सिंह आवत है, मैं कह्यौ पुकार धर्म धार जो तू यार (!) है // 24 // Scanned with CamScanner Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (158) धनाना। धर्म नात करै ताकौं धर्म भी विनास करै, धर्म रच्चा करै ताकी धर्म रच्छा करै है। दलो करें दुख जाय सुखी करें सुख पाय, नकै दुःखतें निकाल मोख माहिं धरै है। धर्म करें जय होय पाप करें छय होय, भासत हैं सब लोय ताहि क्यों विसरै है। आगिमैं जलत नाहिं पानीमें गलत नाहि, जगर्ने बैवंत सदा धर्म धरै तरै है // 25 // चाहत धन संतान नई देह मिलै आन, डरै कालसेती सदा तनहीमैं रहै है / वांडा अरु भय दोऊ भाव भयौ दीसत है, नाना भांति सुख देखि साता नहिं लहै है // पाप देखि रोवै पाप खोवे नाहिं महामुद्ध, स्वान-वान डारि कोऊ सिंह-वान गहै है। द्यानत यौहारकी पचीसी पढ़ौ संत सदा, ग्यान बुद्धि थिर होय आन नाहिं वहे है // 26 // इति व्यवहारपचीसी। (149) आरतीदशफ। इह विध मंगल, आरती कीजै। पँच परम पद भजि, सुख लीजै // इह० // टेक // प्रथम आरती, श्रीजिनराजा। भव-जल-पार उतार जिहाजा / इह० // 1 // दूजी आरति, सिद्धन केरी। सुमिरन करत मिटै भवफेरी // इह० // 2 // तीजी आरति सूरि मुनिंदा। जनम मरन दुख दूरि करिंदा // इह० // 3 // चौथी आरति श्रीउबझाया। दर्सन देखत पाप पलाया // इह० // 4 // पंचमि आरति साध तुमारी / कुमतिविनासन सिव अधिकारी // इह० // 5 // छट्ठी ग्यारह प्रतिमाधारी। सावक बंदों आनंदकारी // इह० // 6 // सातमी आरती श्रीजिनवानी। द्यानत सुरग मुकतिकी दानी // इह०॥७॥ जिनराजकी आरती। आरती श्रीजिनराज तुमारी / करम दलन संतन-हितकारी / टेक // सर नर असुर करत तुम सेवा / तुम हि देव देवनिकै देवा // आरती०॥१॥ SHETRY आदत। Scanned with CamScanner Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (150) - (151) आरती० // 2 // // आरती०॥४॥ आरती० // 5 // पंच महाव्रत दुद्धर धारें। राग दोष परनाम विडारें // आरती भवभयभीत सरन जे आए। ते परमारथ पंथ लगाए // आरती०॥ जो तुम नाम जपै मन माहीं।। जनम मरन भय ताकौ नाहीं॥ आरती समोसरन संपूरन सोभा। जीते क्रोध मान छल लोभा // आरती०॥ तुम गुन हम कैसे करि गावें। गनधर कहत पार नहिं पावें // आरती० करुनासागर करुना कीजै। द्यानत सेवककों सुख दीजै // आरती० // 7 // मुनिराज-आरती। आरती कीजै श्रीमुनिराजकी। अधम उधारन आतम काजकी // टेक // जा लच्छीके सव अभिलाखी। सो साधनि कर्दम वत नाखी // आरती० // 1 // सब जग जीति लियौ जिन नारी। सो साधनि नागिन वत छारी // आरती० // 2 // विषयन सब जग वौरे कीनैं। ते साधनि विष वत तजि दीनें // आरती०॥३॥ भूको राज चहत सब प्रानी। जीरन तृन वत त्यागत ध्यानी // आरती० // 4 // 1 बावरे (पागल)। सत्रु मित्र दुख सुख सम मानें। लाभ अलाभ वरावर जानें // आरती० // 5 // छहौं काय पीहर व्रत धारें। बकौं आप समान निहारें // आरती०॥६॥. यह आरती पढ़े जो गावै। द्यानत मनवांछित फल पावै // आरती० // 7 // नेमिनाथ तीर्थकरकी आरती। किह विध आरति करौं प्रभु तेरी। अगम अकथ जस बुधि नहिं मेरी / / टेक०॥ समुदविजै सुत रजमति छोरी। यौं कहि थुति नहिं होय तुम्हारी // किह० // 1 // कोट खंभ वेदी छवि सारी। समोसरन थुति तुमते न्यारी // किह० // 2 // चारग्यानजुत तिनके स्वामी। सेवकके प्रभु यह वच खामी // किह०॥३॥ सुनके वचन भविक सिव जाहीं। सो पुदगलमें तुम गुन नाहीं // किह०॥४॥ आतम जोति समान वताऊं। रवि ससि दीपक मूढ़ कहाऊं // किह० // 5 // . नमत त्रिजगपति सोभा उनकी / तुम सोभा तुममैं निज गुनकी // किह० // 6 // मानसिंघ महाराजा गावै / तुम महिमा तुम ही बनि आवै // किह० // 7 // 1 पीड़ानाशक (अहिंसाव्रत)। Scanned with CamScanner Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करी० // 3 सो तिह कालाहारा। (152) निश्चय आरती। इह विध आरति करौं प्रभु तेरी। अमल अवाधित निज गुन केरी // टेक // अचल अखंड अतुल अविनासी। लोकालोक सकल परगासी // इह० // 1 // ग्यान दरस सुख बल गुन धारी। . परमातम अविकल अविकारी // इह०॥ क्रोध आदि रागादि न तेरे / जनम जरा मृतु कर्म न नेरे // इह० // 3 // अवपु अबंध करन-सुखनासी / अभय अनाकुल सिवपदवासी // इह० // 4 // रूप न रेख न भेख न कोई / चिनमूरति मूरति नहिं होई // इह० // 5 // अलख अनादि अनंत अरोगी / सिद्ध विसुद्ध सु आतमभोगी // इह० // 6 // गुन अनंत किम वचन वतावै। दीपचंद भवि भावन भावै // इह० // 7 // आत्माकी आरती। करौं आरती आतमदेवा। गुन परजाय अनंत अभेवा // टेक // जामैं सब जग वह जगमाहीं / वसत जगतमैं जग सम नाहीं // करौं० // 1 // ब्रह्मा विस्नु महेसुर ध्यावें। साधु सकल जिहके गुन गावै // करौं० // 2 // (153) न जानैं जिय चिर भव डोले। हि जानें छिन सिव-पट खोले / करौं० // 3 // ती अव्रती विध व्यौहारा। सो तिहु काल करमते न्यारा // करौं० // 4 // सिख उभ वचन करि कहिए। चनातीत दसा तिस लहिए // करौं // 5 // सपर भेदकौ देखि उछेदा। आप आपमैं आप निवेदा // करौं० // 6 // सो परमातम पद सुखदाता। होहि विहारीदास विख्याता // करौं० // 7 // गौरी राग, आरती / कहा लै पूजा भगत बढ़ावें। जोग वस्तु कहांत लै आवें // टेक // छीरउदधि जलमेरु न्हुलावें। सो गिरि नीर कहां हम पावै // कहा० // 1 // समोसरनविधि सरव वनावें। सो न बनै मुख क्या दिखलावै // कहा // 2 // जल फल स्वर्ग लोकतै ल्यावें। सो हमपैं नहिं कहा चढ़ावें // कहा० // 3 // नाचैं गावें वीन वजावें। सो न सकति किम पुन्य उपावै // कहा० // 4 // द्वादसांग सुत जो थुत गावें। सो हम बुद्धि न कहा बतावै // कहा०॥५॥ चार ग्यान धर गनधर गावें। सो थिरता नहिं चपल कहावें // कहा० // 6 // Scanned with CamScanner Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा०॥७॥ (154) द्यानत प्रीतिसहित सिर नावें। जनम जनम यह भक्ति कमावै // कहा। वर्धमानकी आरती, राग गौरी / करौं आरती वर्धमानकी। पावापुर निरवान थानकी // टेक // राग विना सब जग-जन तारे। दोष विना सब कर्म विडारे // करौं० // सील धुरंधर सिव-तिय-भोगी। मनवचकायन कहिये जोगी // करों० // 2 रत्नत्रयनिधि परिगह डारी। ग्यान-सुधा-भोजन व्रत-धारी / करौं०॥३॥ लोकअलोकव्यापि निज माहीं। सुखमय इंद्री सुख दुख नाहीं // करौं० // 4 // पंचकल्यानकपूज्य विरागी। विमल दिगंबर अंवरत्यागी // करौं० // 5 // गुनमनिभूपन भूषन स्वामी। जगत उदास जगंतरजामी // करौं० // 6 // कहै कहां लौँ तुम सब जानौ / द्यानतकी अभिलाख प्रमानौ // करो० // 7 // . वृषभनाथकी आरती / कहा ले आरती भगत करें जी। तुम लायक नहिं हाथ परै जी // टेक॥ .. छीर जलधिको नीर चढ़ायौ। कहा भयौ मैं भी जल लायौ // कहा०॥१॥ (155) उजल मुक्ताफलसी पूजी। पै तंदुल और न दूजी // कहां // 2 // कलपवृच्छ-फलफूल तुम्हार।. अखक क्या ले भगति विथार // कहा०॥३॥ जनसौं चंदन अगर न लागे। सुगंध धरै तुम आगे // कहा०॥४॥ सम कोटि चंद रवि नाहीं। दीपक जोति कहो किह माहीं // कहा०॥५॥ ग्यानसुधाभोजन व्रतधारी। नेवज कहा करें संसारी // कहा० // 6 // द्यानत सकत समान चढ़ावै / कपा तिहारीतें सुख पावै // कहा०॥७॥ . परमात्माकी आरती। मंगल आरती आतमराम / तन मंदिर मन उत्तम ठाम // टेक // सम रस जल चंदन आनंद / तंदुल तत्त्व-सरूप अमंद // मं० // 1 // समैसार फूलनकी माल। अनुभौ सुख नेवज भरि थाल // मं // 2 // दीपक ग्यान ध्यानकी धूप / निर्मल भाव महा फलरूप // मं० // 3 // सुगुन भविक जन धा भगति प्रवीन || मं०॥४॥ धुनि उत्साह सु अनहद ग्यान।। परमसमाधिनिरत परधान // मं०॥५॥ Scanned with CamScanner Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (156) एक सरूप असे रतनत्रै करिती पंचम गतिमा सातौं भैकरिश मखदाय ।मंगल. नव नो-कपाय दस पूजौं ध्याऔंगा बाहज आतम भाव वहाव / अंतर है परमातम ध्याव // मं० // 6 // साहव सेवक भेद मिटाय / द्यानत एकमेक हो जाय // मंगल०॥ मंगल आरती। मंगल आरती कीजै भोर, विघनहरन सुख करन किस अर्हत सिद्ध सूरि उबझाय,साधनाम जपियै सुखदाय नेमिनाथ स्वामी गिरनार, वासुपूज्य चंपापुर धार। पावापुर महावीर मुनीस, गिरिकैलास नमौं आदी सिखर समेद जिनेसुर वीस, वंदौं सिद्धभूमि निस प्रतिमा स्वर्ग मर्त्य पाताल,पूजौं कृत्य अकृत्य त्रिकाल पंचकल्यानक काल नमाम, परमादारक तन गुनधार केवल ग्यानआतमाराम,यह पटबिधमंगलअभिराम मंगल तीर्थकर चौवीस, मंगल सीमंधर जिन बीस मंगल श्रीजिनवचन रसाल,मंगल रत्नत्रय गुनमाला मंगल दसलच्छन जिनधर्म, मंगल सोलैकारण मंगल वारैभावन सार,मंगल चार सघ परकार|मंगलकाला मंगल पूजा श्रीजिनराज, मंगल सास्त्र पढ़ें हितकाज। मंगल सतसंगति समुदाय,मंगल सामायिक मनलायमिंगळ मंगल दान सील तप भाव, मंगल मुक्तवधूको चाव / द्यानत मंगलआठौं जाम,मंगल महाभक्तिजिनस्वाम।मंगल इति आरतीदशक। आदीस।मंगल. मिनिसदीस। त्यत्रिकाला।मंगल. दारक तन गुनधाम। ( 157) दशवोल पचीसी। मंगलाचरण, छप्पय। रूप अभेद, दोय विध विधि-निषेधमै / करि तीन, चार विध दर्वादिकमैं // गति सुचि ठौर, आप पटकारक राजै / करि भिन्न, आठ गुनसहित विराजै // कपाय दस बंध हरि, तास रूप हिरदै धरौं। "औं गाऔं सदा, जिह तिह विधभव जल तरौं॥ एक बोलके चौवीस भेद / भवानी एक, एक ध्यानी अघनासक। रव आकास, एक केवल सव भासत // . मानू इक चले, एक कालानू परसै. समै निरअंस, एक तीर्थकर दरसै // गुरु निरग्रंथ जिहाज सम, एक दया-मारग भला / में जीव रिजुगति करै, एक आप अनुभौ कला॥२॥ एक प्रान चौदहें बंध, इक तेरम जिनवर / एक मेर मरजाद, एक मिथ्यात घातकर // जघन देह इक समे, राजु चौदै उ अनु जावै / धर्म अधर्म विमान, एक वसि सिव पद पावै // सत ग्यान करम विन इक समै, जीव तत्त्व नौ परिनमै / डक नभ प्रदेस बहु देसकौं, ठौर देत जिनवचनमै // 3 // दो बोलके चौवीस भेद। : नौं दुविध जिनराय, जीव निरजीव वखानैं। * सिद्ध और संसार भेद, त्रस थावर जानें // Scanned with CamScanner Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (159) चार बोलके चौवीस भेद। कौं परनए। यान दरस भए (158) कही प्रतेक निगोद, नित्त ईतर साधारन / सूच्छम थूल वखान, पंचइंद्री मन विन मन / / आगम अध्यातम कथन सुन, सुपर भेदकों पर थिरकलप त्यागि जिन कलप धरि, केवल ग्यान बंदौं बंदसरूप, साध स्रावग सुखदायक / नित्त अनित्त प्रवान, गुनी गुन सबके ग्यायक // * पुन्य पाप परकासि, तास फल सुख दुख भाखें। रूप अरूप निहार, दोय परिगह नहिं राखें // दो भेद ग्यान वरनन करें, दरव भावसौं पूजिये। निहचै व्यौहार सँभार मन, दोय दयामय हूजियें // 5 // तीन बोलके चौवीस भेद / तीन साध आराध, वचन मन काय लायकर। तीन पात्र सरधान, तीन विध आतम मन धर // तीन लोककौं जान, काल तीनौं अवधारौ / संख असंख अनंत, दरव गुन परज विचारौ // संसै-विमोह-विभ्रमरहित, ध्यान ध्येय ध्याता मुनौ। करतार करम किरिया समझि, ग्यान ग्येय ग्यातासुनौ सामायिक तिहुँ वार, तीन सव सल्ल नसाऊं। तीनौं दरसन मोह, जनम मृत जरा मिटाऊं // तजि तीनौं अग्यान, तीन समकित मन आनौं। तीन समै अनहार, देवगुरुधर्म प्रवानौं / लखि भाव पारनामी त्रिविध, तीन करमसौं भिन्न है। तजि राग दोष अरु मोहकों, तीन चेतना चिन्न है॥७ 1 स्थविरकल्प। तरानन भगवान, दान विध च्यारि बताये। मारि अराधन धारि, च्यारि अरथनिकौं पावै // रिसंघ आराधि, च्यारि विध वेद वखाने / * च्यारि विध देव, च्यारि निच्छेपै जाने / घाति करम चकचूर करि, जरि संग्या चारौं गई। नह ध्यान बखान विधानसों, च्यारि भावना मन भई॥ माहित अनंत चतुष्ट, च्यारि चौकरी विनासी। च्यारि कषाय जलाय, च्यारि विकथा नहिं भासी॥ पान च्यारि परकार, च्यारि दरसन परगासक / पागलके गुन च्यारि, नारि चहु सील विनासक // माहि च्यारि जात उपसर्गकौं, च्यारिभेद मन वस किया। तिन बंध च्यारि परकार हरि, चहु गतिकौं पानी दिया। ___ पांच बोलके चौवीस भेद। नमौं पंच पद सार, पंच इंद्री वस कीजै। पंच लवधिकौं पाय, पंच स्वाध्याय पढ़ीजै // चारित पंच विचारि, पंच परमाद विसारौ / अंतराय विध पांच, पांच मिथ्यात निवारौ // पांचौं सरीर ममता तजौ, नींद पांच नहिं कीजिये। धरि पंच महाव्रत भावसौं, पंच समिति चित दीजिये। सिद्ध पंच ही भाव, पांच पैताले जानौ / पंचाचार विचार, पंच सिवकारन मानौ // Scanned with CamScanner Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (160) पंच जोतिषी देव, पंच गोले साधारन / पढ पंचासतिकाय, मूलके भाव पंच गन // भव पंच परावरतनि निकलि, पंच नरक दुखसौं वह भेद पंच थावर समझि,पंच कल्यानकपद धरी छह वोलके चौवीस भेद।। नौं छमतमैं सार, दर्व षट् भेद प्रकासक। वाहज तप पट भेद, भाव तप पट दुखनासक // पट अनायतन तजौ, हानि पट वृद्धि अगुरू लघ। पुग्गलकै पट भेद, क्रिया षट गेह माहिं अघ // पट नरक जाय नारी कुमति, पट विध समकित वरनयौ। पूजादि कर्म षट् पापहर, पडावसिकसौं सुख भयौ // 12 // षट मंगल बंदामि, छहौं परजापति जानौ / पट सैना चक्रेस, संघनन पट परवानौ // संसथान पट जान, छविधि परजै नै धारौ / छहों काल परवान, काय पट दया बिचारौ // जिय मरन बेर षट दिसि चलै, पट लेस्या जो धारि है। षट अवधि ग्यानके भेद पट, विध निहचै व्योहार है१३ सात वोलके चौवीस भेद / सात नरक भयकार, व्यसन सातौं तज भाई। सात खेत धन खरचि, प्रकृति सातौं दुखदाई // सक सात विध सैन, रतन सव सात कृष्ण घर / * सात अचेतन रतन, सात चेतन चक्रेसर // 1 स्कंध-अंडर-आवास-पुलवि-देह गोलाकार पांच साधारण हैं। 2 पांच भस्तिकाय। .. (161) लखि सात धातमय तन असुचि, मौन सात विध धारकै। दाता गुन सातौं सात विध, अंतरायकौं टारकै // 14 // सात भंग सरधान, जान तन जोग सात है। समुद्घात हैं सात, सात संजम विख्यात हैं। तीन जोग विध सात, सात तन मैल वखाने / सात स्वरनके भेद, सीलव्रत सातौं जानें // निज नाम सात सातौं उदधि, यहां सात ही खेत हैं। प्रभु नाम ईति सातौं टलैं, सात तत्त्व सिवहेत हैं // 15 // आठ बोलके चौबीस भेद। आठ मूलगुन पाल, आठ मद तजौ सयानें। सम्यक आठौं अंग, ग्यानके आठ वखाने / ओठ ठौर न निगोद, आठ गुन सुरगन छाजैं। आठ जुगलके देव, आठ विध व्यंतर राजै॥ पूजियै आठ बिध देव जिन, आठौं अंग नबाइयै / देहरे आठ मंगल दरव, आठ पहर लौं लाइयै // 16 // आठौं प्रवचन धार, जोगके आठ अं आठ रिद्धि दातार, फरसके आठ भंग हैं। आठ समै दंडादि, आठ उपमान बखाने / आठ भेद सत आदि, आठ लौकांतिक जानें // अंगुल उत्तमभुव रोम वसु, आठ प्रातहारज भले / सब आठ ध्यान-पावकवि, काठ करम आठौं जले // 17 // नव वोलके चौबीस भेद। नवौं पदारथ धार, दरसनावरनी नौ विधि / नौ नै नैगम आदि, चक्रधारीकै नौ निधि // 1 पृथ्वी, जल, तेज, वायु, केवलीका शरीर, तथा आहारक ये छह और देव नारकीके शरीर, इन आठ स्थानोंमें निगोदजीव नहीं होते हैं। घ. वि. 11 Scanned with CamScanner Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (162) // तिविना गरव 19 नौ नारायन जानि, मानि नौ हैं बलभद्दर। प्रतिनारायण नवौं, नवों नारद हरि हितकर / नौ नै गुन परजै दरवकी, आव वंध नौ बार नौगनथानकके भेद नों, समकित नौ परकार छायक गुन नौ नमों, सील नौ बारि संभारौ प्रायश्चित नौ भेद, सांत रस नौमैं धारौ // नौ ग्रैवक उर धार, नौ नउत्तरे भरे बुध / जोनि-भेद नौ जान, मान मंगल नौ पद सुध॥. नौ गुनथानक नव कोरिमुनि, नौं गुरु अच्छर अंक नौ दानतनी विध जानके, नौधा भगति विनाग दश बोलके चौवीस भेद / पूजौं दस अवतार, जनम दस गुन जिन साहब / घाति घाति दस सुगुन, दसौं समकित भाखे सब इंद्र आदि दस भेद, भवनवासी दस जानैं / पुग्गल दस परजाय, सूत्र दस भेद बखाने / दस दोषरहित आलोचना, काम कुचेष्टा दस तजै। भुव आदि जीवके भेद दस, वेंयावृत दस विध भजैर दसौं दिसा मन रोकि, प्रान दस भिन्न चेतना। दरवतने दस भेद, संग दस साथ लेत ना // दस विध हैं दिगपाल, निरजरा दस विध जानी। दसौं विसेख सुभाव, अंक दस सिवपदवानी // दस विध कुदान फल नरक दुख, दस सामानिक गुन दरव सुभ समोसरनमें दस धुजा, धरमध्यान दस विध सरव॥ षट् नय। असत कथन उपचार, जीवकौं जन धन जानौ / असत बिना उपचार, काय आतमकौं मानौ // ( 163) सांच कथन उपचार, हंसकों राग विचारी / सांच विना उपचार, ग्यान चेतनकी धारी // निह. असुद्ध नर भेदनै, रागसरूपी आतमा / आदेय सुद्ध निह. समझि, ग्यानरूप परमातमा // 22 // व्यवहार और निश्चय नयसे द्रव्य कर्म, भाव कम, शुद्ध भावका कर्ता कीन है ? . दरव करमकौं करै, जीव व्यौहार बतावै / दरव करम पुद्गलसरूप, निहचै नै गावै॥ भाव करम करतार, धार व्यौहार सु पुद्गल / भाव करम आतमारूप, निहचै नैको वल // दोनों असुद्ध जिय मोहमैं, पुग्गल खंध लगावना। अनुभवी सुद्ध पुद्गल अनू, जीव ग्यानमय भावना 23 शिक्षारूप श्रद्धान / न रचौ विपयनि माहिं, करौ परचौ इनमें नर / खरचौ दरव सुखेत, सदा अरचौ श्रीजिनवर // चरची वारंवार, अतरचौ (2) मन सुखदायक। पुद्गल धर्म अधर्म, व्योम जम जड़ जी ग्यायक // सव अकृत अनादि अजर अमर, गुन परजाय दरवमई। प्रतिभासै केवल आरसी, माहिं मोहि सरधा भई॥२४॥ ... कविकृत लघुता / वृषभसैन गुनसैन, गोतम नरोत्तम गनधर। सकल पाय सिर नाय, पुन्य उपजाय बुद्धि वर // कहे कवित हितकार, सार जहां हीन अधिक अति / छमा वरौ सुख करौ, दोप मति धरौ विपुलमति // यह शब्द ब्रह्म वारिधि लहर, गनत पार को पाय है। द्यानत ग्यानी आतम मगन, यह पुद्गल-परजाय है 25 : इति दश-बोल-पचीसी। Scanned with CamScanner Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (164) जिनगुणमालसप्तमी। अशोकपुष्पमंजरी ( एक गुरु एक लघुके फ्रेमसे 31 वर्ण / मान थंभ देख औ सरोवरी भरी विसेख. खातका गभीर पेख पुष्प वारि राज ही। रूपकोट नाटसाल भाग दो वनै विसालं, वेदिका धुजा सताल माल आदि छाजहीं। हेमकोट कल्पवृच्छ वाग सोहने प्रतच्छ, रत्नपुंज धाम आवली मनोग गाजहीं। वज्र कोट चार पौल वार कोट सोल भीत. वीच वेदिका त्रिपीठ संभुजी विराजहीं // 1 // ___ जन्मके दश गुण / सवैया इकतीसा / वल तौ अतुल वीर स्रमको न होय नीर, हितमित वानी सब प्रानीकौं सहावनी। आदि संसथान है गभीर संहनन धीर, रूपकी सोभा अनूप सबकौं रिझावनी // सहस आठ लच्छन सरीर लोहू है खीर,... देहकी सुगंध और गंधकौं लजावनी। मलकौ न लेस लीय उपजै दसौं जिनेस, मेर करैं न्हौन सो सुरेस भक्त भावनी // 2 // घातिया कर्मोंके नाशसे दश गुण / जोजन सौ सौ सुभिच्छ व्योम चलें अंतरिच्छ, चारौं मुख चारौं दिस सब विद्यापत हैं। जीवको न वध होय उपसर्ग नाहीं कोय, कौलाहार लेत नाहिं ग्यानसुधा-रत हैं। (165) निर्मल सरूप माहिं तनकी न परै छाहिं, नख केस च. नाहिं आंख ना लगत हैं / घातिया करम नासि दसौं गुन परगास, जिनकी भगत कीय पाप-भै भगत हैं // 3 // ___ देवोंकृत चौदह गुण। / अरध मागधी भापा सवै रितु फल फूल, सिंह स्याल प्रीति रीति आरसी अवनि है / पौन वुहारै मेघ जल कन सुगंध झारै, . पाय तलैं कंज धारै आनंद सवनि है // निर्मल गगन और दसौं दिसा उजल हैं, फलैं खेत सोभै भूमि धर्म चक्र मनि है / आठौं मंगलीक सार सुर करें जैजैकार,. चौदै अतिसय तेरै देवकृत धनि है // 4 // फूल सनमुख वरखत मानौं वंदनिकों, देव दुंदुभीके बाजै भाजै पापभार जी। सिंघासन तीनसेती तीनलोकसाहब हौ, तीन छत्र कहैं रतनत्रय दातारजी // जानौं अच्छर सुपेद चौसठि चमर दुरै, औ कहा असोक वृच्छ हू असोक धारजी / भामंडल आरसी है वानी सुधा-धारसी है, नमों आठ प्रातिहारजके सिरदारजी // 5 // . अनंतचतुष्टय / लोकालोक दर्व गुन परजाय तिहूं काल, टांकी ज्यौं उकेर राखै ग्यानमैं प्रकास है / आठ प्रातिहार्य / Scanned with CamScanner Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (166) चंद भान असंख्याततै अनंतगुनी जोति सोऊ नाहिं लगै ऐसे दर्सनकी रास है। निराबाध सास्वतौ अनाकुल अनंत सुख. अंस हू न लोकमाहिं इंद्री सुखभास है। सत इंद्रसेती जोर बलको नहीं है ओर, अनंतचतुष्टै नाथ वंदौं अघ नास है॥६॥ छयालीस गुणवर्णन। दसौं जनमत सार दसों घात घात कर, चौदै सुरकृत प्रातिहारज आठौं गहे / अनंतचतुष्टै कहिवतकौं छियालीस हैं, गुन हैं अनंत तेरे ग्यानी ग्यानमैं लहे // तारनकौं मान मेघ धारके प्रवांन और, संभूरमनि-लहर तातें अधिके कहे। कौन भांति भाखे जाहिं थिरता औ बुद्धि नाहिं. द्यानत सेवकने न्यारे न्यारे सरदहे // 7 // इति जिनगुनमालसप्तमी। ( 167) समाधिमरण / जोगीरासा। गौतम स्वामी बंदी नामी, मरनसमाधि भला है। मैं कब पाऊं निसदिन ध्याऊं, गाऊं वचन कला है // देवधरम गुरु प्रीति महा दिढ, सात विसन नहिं जाने / तजि वाईस अभच्छ संयमी, बारह व्रत नित ठानै // 1 // चक्की उखरी चूल बुहारी, पानी त्रस न विराधै। . बनिज करै परद्रव्य हरै नहिं, कर्म छहौं इम साधै // पूजा सास्त्र गुरूकी सेवा, संजम तप बहु दानी। पर उपगारी अल्प अहारी, सामायिकविधग्यानी // 2 // जाप जपै तिहुं जोग धरै थिर, तनकी ममता टारै। अंतसमै वैराग सँभारै, ध्यानसमाधि विचारै // .. आग लगै अरु नाव जु डूवै, धर्मविघन जब आवै / चार प्रकार अहार त्यागिकै, मंत्रसु मनमैं ध्यावै // 3 // रोग असाध्य जरा वहु दीखे, कारन और निहारै / बात बड़ी है जो वनि आवै, भार भवनको डारै // .. जो न बनै तौ घरमैं रहिकैं, सबसौं होइ निराला / मात पिता सुत तियकौं सोंपै, निज परिगह अहि काला // 4 // कुछ चैत्यालै कुछ स्रावक जन, कुछ दुखिया धन देई / छिमा छिमा सबसौं करि आछ, मनकी सल्य हनेई // सत्रुनिसौं मिलि निज कर जोरै, मैं बहु करी बुराई / तुमसे पीतमकौं दुख दीनँ, ते सब बकसौ भाई // 5 // धन धरती जो मुख” मांगै, सो सव दे संतोखै / छहौं कायके प्रानी ऊपर, करुना भाव विसेखै // Scanned with CamScanner Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (158) नमो अरहताना, नौं उबजी / शारा। गि प्यारा॥ // 1 // गहियौ // 7 // नी, घर बैठे इक जागै, कुछ भोजन कुछ जारी कमक्रम तजिक, छाछि अहार पहै लै / त्यागिक पानी राखै, पानी तजि संथारा। भमिमाहिं थिर आसन मांडे, साधरमी ढिग प्यार जतम जानौ यह न जपै है, तब जिनवानी कहिन यौं कहि मौन लियौ सन्यासी, पंच परमपद गहियो। च्यारों आराधन मन ध्यावै, बारै भावन भावै। दस लच्छन मुनिधर्म विचार, रत्नत्रय मन लावै॥ पैंतिस सोलै पट पन चारौं, दो इक वरन विचारै। काया तेरी दुखकी ढेरी, ग्यानमई तू सारै // 8 // अजर अमर निज गुनगन पूरी, परमानंद सुभावै। आनंदकंद चिदानंद साहब, तीन जगतपति ध्यावै॥ छधा तृषादिक होहिं परीपह, सहै भाव सम राखे। अतीचार पांचौं सब त्यागै, ग्यानसुधारस चाखै // 9 // हाड़ चाम रहि सूकि जाय सब, धरमलीन तन त्याग। अदभुत पुंन उपाय सुरगमैं, सेज उठै ज्यौं जागै॥ तहाँसौं आवै सिवपद पावै, विलसै सुक्ख अनंता। द्यानत यह गति होहि हमारी, जैनधर्म जैवंता // 10 // इति समाधिमरण / (169) आलोचनापाट। प्रथम नमौं अरहतानं, दुतिय नमों सिद्धानं जी। त्रितिय नमों आइरियानं, नमों उवज्झायानं जी // पंच नमों लोए सव्य, साहूनं गुन गाऊं जी। चारों मंगल अरहंत, सिद्ध साधु धर्म ध्याऊं जी // 1 // चारों उत्तम लोकमैं, जिन सिद्ध साधु सुधर्म जी। चारौं सरन गहौ जिनवर, सिद्ध साध धर्म पम जी // वृपभ चंदप्रभ सांतजिनं, वर्धमान मन वंदों जी। हुई होहिंगी चौवीसी, सब नमि पाप निकंदों जी // 2 // श्रीजिनवचन सुहावने, स्याद्वाद अविरुद्धं जी। तीन भवनमें दीपक बंदों, त्रिकरण सुद्धं जी // प्रतिमा श्रीभगवंतकी, स्वर्ग मर्त्य पातालं जी। कृत्य अकृत्य दुभेदसौं, चंदन करौं त्रिकालं जी / / 3 // पूरव पाप जु मैं कियौ, कृत कारन अनुमोदं जी। मन वच काय त्रिभेदसौं, सब मिथ्या होदं (2) जी॥ आगें पाप जु होयगौ, उनचास विध नासौं जी। वर्तमान अघ छै करौ, तुम आगें परकासौं जी // 4 // सर्व जीवसौं मित्रता, गुनी देखि हरखाऊं जी। दीन दया सठसौं समता, चारौं भावन भाऊ जी। प्रभु पूजूं जुग भेदसौं, गुरुपदपंकज सेऊं जी। आगम अभ्यासों सदा, रतनत्रै नित बेऊं जी // 5 // अच्छर मात्र अरथ अनमिल, भूलि कह्यौ सु खिमाऊं जी। प्रात दोपहर सांझकों, अर्ध रात्रमैं भाऊ जी // द्यानत दीनदयालनी, भौ भौ भगति सु दीजै जी।। अंत समाधिमरन करों, राग विरोध हरीजै जी // 6 // / इति आलोचनापाठ। Scanned with CamScanner Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 170) एकीभावस्तोत्रभाषा। दोहा। वंदौं श्रीजिनराजपद, रिद्धिसिद्धिदातार। विघनहरन मंगलकरन, दारिद दलन अपार // . . चौपाई। मिथ्याभावकरमव॑ध भयौ, दुरनिवार भव भव दुख दयौ सोसवनास भगतितें होय, रहै न प्रभु दुखकारन कोय // 2 ग्यान जोत अघतमछयकार, अघट प्रकासि कहैं गनधाः मो मन-भवन वसै तुव नाम, तहां न भरम तिमिरको का पूजा गदगद वच मन काय, करों हपे-जल वदन न्हवा विपयव्याल चिरकाल अपार, भा तज तन वंवइ द्वार प्रथम कनकमय भू सब करौ, भविक भाग सुरतै अवतरौ चित-गृह ध्यान-द्वार तुम आय, करौ हेम तन चित्र न काय विन स्वारथ सब जग सुखदाय, जानौ सर्व दर्व परजाय। भगति रची चित-सज्या मोहि, तुम वस दुख-गन कैसे होहि भन्यौ जगत वनमैं चिरकाल, उपज्यौ खेद अगनि विकराल। तुम नय-सुधा-सीत-वावरी, पुन्य उदै लहि सव तप हरी // 6 // गमन प्रभाव कमल ह देव, परमल श्रीजुत कनक अभेव / मो मन परसै तुम सब काय, क्यों न मिलै मुझ सब सुख आया विधि वन तजि सिवसुख घर कियौ,मदन-मानछिनमैं हर लियौ पीत-पात्र वच सुधा पिवंत, विपै रोगरिपु-त्रास हनंत // 6 // तुम ढिग मानसथंभ'जु रहै, रतनरासि वह सोभा लहै। देखत मान रोग छय होय, जद्यपि है पाहनमय सोय 9 1 श्रीवादिराजसूरिके संस्कृत एकीभावस्तोत्रका भावानुवाद / 2 बमीठासर्पका विल / 3 बावड़ी-बापी। (171) मरति-गिरि सपरस वार्य, लगें कर्मरजपुंज पलाय / शान तोहि उर कमल मझार, होइ परम पद जग निस्तार१० भव पायौ दुःख अपार, यादि करत लागै असि-धार / तमसव जान प्रधान कृपाल, करी भगति अब होहु दयाल 11 पी स्वान अंतकी वार, लह्यौ स्वर्ग-सुख सुनि नौकार / जपौं अमल मन तुम भगवान, अचरज कहा बरौं सिवथान॥ तम प्रभु सुद्ध ग्यान-दृगवंत, ताली-भगति विना जो संत / महजरे दृढ़ मोख-किवार, खोल सकै न लहै सुख सार॥१३॥ मकति-पंथ अघतम बहु भस्यौ, गढ़े कलेस विषम विसतस्यौ। खसौं सिवपद पहुंचै कोय!जो तुम वच मन दीप न होय / कर्म धरा आतम निधि भूरि, दवी केवी पावै नहिं कूर / भगति कुदाल खोद लैं संत, विलसैं परमानंद तुरंत // 15 // स्यादवाद हिमगिरिसौं चली,तुम पद परसि उदधि सिव रली। भगति गंगमैं मो मन न्हाय, क्यों न पाप मल कलुप तजाय 16 परमातम थिरपद सुखमई, मैं सदोष तुम सम वुध ठई। यदपि असत यह ध्यान तुम्हार, तदपि सुवांछित फलदातार वचन उदधिसव जग विसतस्यौ,स्याद लहरि मिथ्यामल हस्यौ। थिर मन द्वादसांगमैं धरै, ग्यान सुधा पी जम-भय हरै 18 भूषन वसन कुसुम असि गहै, सोभा रंचक देव न लहैं। तुम निपरिग्रह अभै मनोग, कौन काज भूपन असि जोग१९ तुम सोभा नहिं इंद्र जु नयौ, एकाअवतारी सो भयो / लोकनाथभौ-वारिधि पोत,मुकति-कंत इह विध थुति होत // 1 वायु-हवा / 2 कभी। Scanned with CamScanner Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (172) एथतिवचन सु पुदगलरूप, नहिं व्यानी नापि भगति सुधा जोगह, मनवांछित पर अगदोष बिन परम उदास, चाहरहित अर भवनतिलक तुम ढिग रिपुनर्स,यहमभुता कति जस गावै सुरनारि अपार, ग्यानरूप ग्यायक द्वादसांग पढ़ि मोह न रहे, थुति करि सुगमपंथ अनँतचतुष्टयरूप निहाल, ध्यावै मन रुचि सहित पुन्यवान सुभ मारग होइ, तीर्थकर पद विलसी इंद्र सेव करि पार न लहैं, गनधरादि सव गन हम मति तनक कियौ कछु एहु, भगतनि सिवस दोहा। सबद काव्य हित तर्कमैं, वादिराज सिरताज। एकीभाव प्रगट कियौ, द्यानत भगति जहाज॥ इति एकीभावस्तोत्र। तम गुन चिद्रूप। लसुरतरु लद्द२१ सब जग दास। आननलस। कि संसार। सिव लहै२३ हित त्रिकाल / मै सोइ // 24 // सब गुन नहिं कहें। सिव सुरतरु समदेह (173) स्वयंभृस्तोत्र। चौपई / विर्षे जुगलन सुख किया,राज त्याज भवि सिवपद दिया। यंवोध स्वंभू भगवान, बंदों आदिनाथ गुनखान // 1 // छीरसागर जल लाय, मेर न्हुलाए गाय बजाय / नविनासक सुखकरतार, वंदों अजित अजितपदधार 2 ध्यान करिकरम विनास,घाति अघाति सकल दुखरास जो मुकतिपद सुख अविकार, बंदों संभव भवदुखटार 3 माता पच्छिम रैन मझार, सुपनै सोलै देखे सार / ॐ पूछि फल सुन हरखाय, बंदों अभिनंदन मन लाय 4 सब कुवादवादी सिरदार, जीते स्यादवाद धुनि धार / जैनधरमपरकासक स्वाम, सुमतिदेव पद करौं प्रनाम 5 गरभ अगाऊ धनपति आय, करी नगरसोभा अधिकाय। बरखे रतन पंदरै मास, नमों पदमप्रभु सुखकी रास // 6 // इंद्र फनिंद्र नरिंद्र त्रिकाल, वानी सुनि सुनि हाँहिं खुस्याल / बारै सभा ग्यानदातार, नमों सुपारसनाथ निहार // 7 // सुगुन छियालिस हैं तुम माहिं, दोप अठारै कोऊ नाहिं / मोह महातमनासक दीप, नमों चंदप्रभु राख समीप // 8 // बारै विध तप करम विनास, तेरै भेद चरित परकास। निज अनिच्छ भवि इच्छकदान, बंदोपहुपदंत मन आन९ भवि सुखदाय सुरगतै आय, दसविध धर्म कह्यौ जिनराय / आप समान सवनि सुख देह, बंदौं सीतल धरि मन नेह 10 समता सुधा कोपविपनास, द्वादसांग बानी परकास / चारि संघ आनँददातार, नमों स्रिअंसजिनेसुरसार 11 रतनत्रय सिर मुकुट विसाल, सोभै कंठ सुगुनमनिमाल / मुकत-नारि-भरता भगवान, वासुपूज्य वंदों धरि ध्यान 12 राजमल जैन जी. ए. वी.. Scanned with CamScanner Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (174) द्वितउपदेस / नाथ भगवत 13 व्रतको धार। वचन मन काय। दरव वहुभाय। अघनास 15 -- तत्त्व पंचासतिसाचनमा अबका पा३ - - --- दोहरखाय 16 हनहिं सोय। मिवभूप // 17 // समाधिसरूप जिनेस, ग्यानी ध्यानी हितरपर नास सिवसुख विलसंत, वंदों विमलनाधभा अंतर बाहर परिगह डार, परम दिगंवर व्रतको, सरव जीव हित राह दिखाय,नमा अनंत वचन म सात तत्त्व पंचासति काय, अरथ नवा छ दरवव लोक अलोक सकल परकास, वंदो धर्मनाथ अघना पंचम चक्रवर्ति निधि भोग, कामदेव द्वादसम मनी सांतिकरन सोलम जिनराय,सांतिनाथ वंदौं हरखा वह थुति करें हरख नहिं होय, निंदें दोष गहै नहि सीलवान परब्रह्मस्वरूप, बंदों कुंथुनाथ सिवभूप॥ वारै गन पूजें सुखदाय, थुति वंदना करें अधिकाय। जाकी निज थुति कवहुन होय,बंदों अर जिनवर पर परभौ रतनत्रै अनुराग, इस भी व्याह समै वैरागी वाल ब्रह्म पूरनव्रतधार, बंदों मल्लिनाथ जितमार // विन उपदेस स्वयं वैराग, थुति लौकांत करें पग ला 'नमः सिद्ध' कहि सब व्रत लैहिं,वंदों मुनिसुव्रतव्रत दैहि स्रावक विद्यावंत निहार, भगतिभावसौं दियौ अहार वरखे रतनरासि ततकाल, वंदों नमि प्रभु दीनदयाल सब जीवनके वंदी छोर, राग दोप दो बंधन तोर।' रजमति तजि सिव तियकों मिले, नेमिनाथ बंदी सुखनिन्। दैत्य कियौ उपसर्ग अपार, ध्यान देखि आयौ फनिधार। गयौ कमठ सठ मुख करि स्याम,नमों मेरु सम पारसस्वाम भौसागरते जीव अपार, धरमपोतमैं धरे निहार / ड्रबत काढ़े दया विचार, वरधमान वंदों बहु वार // 24 // दोहा। चौवीसौं पदकमलजुग, बंदौं मन वुच काय / द्यानत पढ़े सुनै सदा, सो प्रभु क्यों न सुहाय // 25 // इति खयंभूस्तोत्र / (175) पार्श्वनाथस्तवन / भुजङ्गप्रयात / नरिंदं फनिंदं सुरिंदं अधीसं / सतिंदं सुपूजें भजे नाइ सीसं // मुनिंद्रं गनिंद्रं नमें जोरि हाथं / नमो देवदेवं सदा पार्सनाथं // 1 // गजेंद्रं मृगेंद्र गह्यौ तू छुटावै। महा आगरौं नागते तू बचावै // महानीरतें जुद्धतै तू जितावै। महारोगते बंधतै तू खुलावै // 2 // दुखी दुःखहर्ता सुखी सुःखकर्ता / सवै सेवकोंकौं महानंदभर्ता // हरै जच्छ राच्छस्स भूतं पिसाचं / विपं डाकिनी विघ्नके भै अवाचं // 3 // दरिद्रीनिकों से भले दान दीनैं। अपुत्रीनिको ते भले पुत्र कीने // महा संकटोंतें निकालै विधाता। सवै संपदा सर्वकौं देह दाता // 4 // महा चोरको वज्रको भै निवारै। महा पौनके पुंजते तू उबारै // महा क्रोधकी आगकों मेघधारा / महालोभ सैलेसहीं वज्र भारा // 5 // महा मोह अंधेरकों ग्यान भानं / महा कर्म-कांतारको दौ प्रधानं // Scanned with CamScanner Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (176) किये नाग नागी अधोलोकस्वामी। हस्यौ मान ते दैत्यको है अकामी // 6 // तुही कल्पवृच्छं तुही कामधेनं। तुही दिव्य चिंतामनिं नास ऐनं // पसू नर्कके दुःखसेती छुड़ावै / महा स्वर्गमें मोच्छमैं तू वसावै // 7 // करै लोहकों हेम पाखान नामी। रटै नाम सो क्यों न हो मोखगामी॥ करै सेव ताकी करें देव सेवा / सुनै वैन सो ही लहै ग्यान मेवा // 8 // जपै जाप ताों कहा पाप लागें। धरै ध्यान ताके सवै दोष भागें // विना तोहि जानें धरे भौ घनेरे / * तिहारी कृपातें सरे काज मेरे // 9 // सोरठा। गनधर इंद्र न करि सकें, तुम विनती भगवान / द्यानत प्रीत निहारिक, कीजै आप समान // 10 // इति पार्श्वनाथस्तोत्र / (177) तिथिषोड़शी। दोहा। बानी एक नौं सदा, एक दरव आकास / एक धरम अधरम दरव, पड़िवा सुद्ध प्रकास // 1 // चौपई / दभेद सिद्ध संसार, संसारी त्रस थावर धार। पर-दया दोनों मन धरी, राग दोप तजि समता करौ॥२ तीज त्रिपात्र दान नित भजी, तीन काल सामायिक सजौ / उतपात ध्रौव्य पद साध, मन वच तन थिर होय समाध॥३ चौथ चार विध ध्यान विचार, चास्यौं आराधना सँभार / मैत्री आदि भावना चार, चारवंधसौं भिन्न निहार // 4 // ●पंच लवधि लहि जीव, भज परमेष्ठी पंच सदीव / पांच भेद स्वाध्याय वखान, पांचौ पैंताले पहचान // 5 // छट छै लेस्याके परनाम, पूजा आदि करौ पट काम। पुग्गलके जानौं पट भेद, छहौं काल लखिकै सुख वेद // 6 // सातै सात नरकतें डरौ, सात खेत धन जलसौं भरौ / सातौं नय समझौ गुनवंत, सात तत्त्व सरधा करि संत // 7 // आठ आठ दरसके अंग, ग्यान आठ विध गहौ अभंग। आठ भेद पूजौ जिनराय, आठ जोग कीजै मन लाय॥८॥ नौमी सील-वाड़ि नौ पाल, प्रायश्चित नौ भेद सँभाल / नो छायिक गुन मनमें राख, नो कपायकी तजि अभिलाख // दसमी दस पुग्गल परजाय, दसौं बंध हर चेतनराय / जनमत दस अतिसै जिनराज,दस विध परिगहसौं क्या काज ग्यारसि ग्यारै भाव समाज, सब अहमिंदर ग्यारै राज। ग्यार जोग सुरलोक मझार, ग्यारै अंग पढ़ें मुनि सार 11 ध. वि. 12 Scanned with CamScanner Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ // जिनंद // 13 // विचार॥१४॥ ( 178 ) बारसि वारै विध उपजोग, वारै प्रकृति दोपकी रोग वारै चक्रवर्ति लखि लेहु, वारै अव्रतकौं तजि देह // तेरसि तेरै स्रावक थान, तेरै भेद मनुज पहचान। तेरै रागप्रकृति सव निंद, तेरै भाव अजोगि-जिनंद चौदस चौदै पूरव जान, चौदै वाहिज अंग वखान। चौदै अंतर परिगह डार, चौदै जीवसमास विचार। मावस सम पंदै परमाद, करम भूमि पंदरै अनाद / पंच सरीर पंदरै रूप, पंदरै प्रकृति हरै मुनिभूप // 1 पूरनमासी सोलै ध्यान, सोलै स्वर्ग कहे भगवान / सोलै कपाय राह घटाय, सोल कला सम भावनिक सब चरचाकी चरचा एक, आतम आतम पर पर लाख कोटि ग्रंथनको सार, भेद-ग्यान अरु दयाविचा दोहा / गुनविलास सब तिथि कहीं, हैं परमारथरूप / पढ़े सुनै जो मन धरै, उपजै ग्यान अनूप // 16 इति तिथिपोड़शी। भावनि भाय 16 ( 179) स्तुतिवारसी। दोहा। तम देवनिके देव हौ, सुखसागर गुनखान / / मरति गुन को कहि सकै, करौं कछ थुति गान // 1 // फले कलपतरुवेलि ज्यौं, वंछित सुर नर राज / चिंतामनि ज्यौं देत है, चिंतित अर्थसमाज // 2 // स्वामी तेरी भगतिसौं, भक्त पुन्य उपजाय / तीन अरथ सुख भोगवै, तीनों जगके राय // 3 // तेरी थुति जे करत हैं, तिनकी थुति जग होय / जे तुम पूर्जे भावसौं, पूजनीक ते लोय // 4 // नमस्कार तुमकौं करें, विनयसहित सिर नाय / वंदनीक ते होत हैं, उत्तम पदकौं पाय // 5 // जे आग्या पालैं प्रभू, तिन आग्या जगमाहिं / नाम जपै तिस नामना, जग फैलै जस छाहिं // 6 // सफल नैन मेरे भये, तुम मुख सोभा देख / जीभ सफल मेरी भई, तुम गुन नाम विसेख // 7 // सफल चित्त मेरौ भयौ, तुम गुन चिंतत देव / पाय सफल आयें भये, हाथ सफल करि सेव // 8 // सीस सफल मेरौ भयौ, नमों तुमैं भगवान / नर-भौ लाहा में लहा, चरनकमल सरधान // 9 // गनधर इंद्र न जात हैं, तुम गुनसागर पार / कौन कथा मेरी तहां, लीजै प्रीत निहार // 10 // ताते वंदौं नाथजी, नमौं सुगुनसमुदाय / तीर्थकर पदकौं नमौं, नमौं जगत सुखदाय // 11 // पूजा थुति अरु वंदना, कीनी निज मन आन / द्यानत करना भावसों, कीजै आप समान // 12 // इति स्तुतिवारसी। Scanned with CamScanner Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (180) यतिभावनाष्टक। सवैया इकतीसा। जगत उदास आपकों प्रकास संग नास, धर सुभ व्रत रास वनवास बसे हैं। मोह कर्मको प्रभाव संकल्प विकल्प भाव, सबको अभाव करि अंतरकौं धसे हैं। प्रानायाम बिध साध ध्यानरीतिकौं अराध, पौन मन ग्यान थिर एक रूप लसे हैं। परमानंद लीन धीर मेर ज्यौं अचल बीर, नमौं साध पायनिकौं देखें दुख नसे हैं // 1 // मनकौं निरोध इंद्री सांपकी जहर सोध, सासोस्वास पौन सोऊ थिर भाव करी है। सूनी कंदरामैं पैठि वैठि पदमासनसौं, सिव अभिलाखा अभिलाख सब हरी है / तजि राग दोप व्याध समता चेतन साध, धीरजसौं अंतर सरूप दिष्टि धरी है। ऐसी दसा होयगी हमारी कव भगवान, सोई पुरुषारथ है सोई धन घरी है // 2 // धूलि करि मंडित न मंडित है अंवरसौं, बैठि पदमासन खड़ासन अटल है। तत्त ग्यान सार गहि मौन सांत मुद्रा धारि, अध खुले नैन दिष्टि नासिका अचल है // बाहर वैरागरूप अंतर निरंजन लौ, खाजकौं खुजावै मृग जानकै उपल है / 1 परिग्रह / 2 कपड़ा। (181) ऐसी दसा होयगी हमारी तव जानहिंगे, नरभव पाय पायौ सुक्रतको फल है // 3 // सून्यवास घर वास छिमा नारिसौं अभ्यास, दसौं दिसा अंवर संतोप महा धन है / सैल-सिला सेज सार दीप चंद्रमा निहार, तपका व्यौहार सब मैत्री परिजन है। ग्यान सुधा भोजन है अनुभौ-सरूप सुख, ऐसी सौंज परसेती कहा परोजन है। एक दसा लई महाराजकी अवस्था भई, समता कहा है महा लोभको सदन है // 4 // जगमैं चौरासी लाख जोनिको फिरनहार, नर अवतार महा पुन्य उदै पावै है। उत्तम सुकुल दिढ काय आयु पूरनता, बुद्धि सास्त्र-ग्यान भागसेती वनि आवै है। तिसपै वैराग होय तप तपै कृती सोय, सोऊ ध्यान सुधापान करै लव लावै है / कंचन महल पर मंनिमै कलस धर, आतमतें सोई परमातम कहावै है // 5 // ग्रीषम सिखर सीस पावसमें तरु तलैं, सीत काल चौपथमैं देह नेह हस्यौ है / वन परै त्रासनसौं आगके प्रकासनसौं, प्रानके विनासनसौं ध्यान नाहिं टस्यौ है // जप जोग तप धारि भेदग्यानकों संभारि, चंचलता चित्त मारिकै समाध वस्यौ है / १प्रयोजन-मतलव / 2 मणिमय-रत्नजडित / Scanned with CamScanner Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (182) समरस-धाम अभिराम साध राजत है, ऐसे कव होहिं हम ऐसौ मन करखी है // 6 // विवहारमाहिं तत्त्व वैनदार आवत है, निहचै विसुद्धरूप न्यारौ है उपाधसौं। चिदानंद जोतको उदोत अंतरंग भयौ, ताहीमैं मगन सदा भीजै है समाधसौं // सोई धन सोई धाम सोई सोभ सोई काम, सोई प्रीत सोई सुख सिद्धता अराधसौं। ऐसे मुनिराज मम काज करौ दोप हरौ, निज मुद्रा देहु हम छूटें आध व्याधसौं // 7 // पाप-अरि-हार चक्र सक्र सिव-सुखकार, धीरज व अपार वंछित दातार जी। भारौं भोग कारे नाग प्रगटै महा विराग, साधभावनाअष्टक पढ़ौ तिहुं वार जी // चिदानंद भावमैं पदमनंद राजत हैं, भक्तिवस भव्यनको कीनौ उपगारजी। भूल चूक सोधि लेहु हमें मति दोप देह, द्यानत या मिससेती लीनौं नाम सार जी // ___ दोहा। द्यानत जिनके नामतें, पाप धूरि हो दरि। तिन साधनकी भावना, क्यों न लहै सुख भूरि // 9 // इति यतिभावनाष्टक / (183) सज्जनगुणदशक / सर्वया इकतीसा। तरौंकी कलम सिंधु स्याही भूमि कागदप, सारदा सहस कर सदा लिख नाथ जी। तम गुनको न पार ग्यानादि अनंत सार, कर्म धन हान निरावर्ण भान आथ (?) जी॥ तिनमैं को कोई एक गुनहूको कोई अंस, हमैं देहु सज्जन कहावै संत साथ जी। तुम हो कृपाल प्रतिपाल दीनके दयाल, . द्यानत सेवक वंदै हाथ लाय माथ जी // 1 // धन तौ तनक पाय दानको पन न जाय, काय है निवल व्रत धीरजसौं धरै हैं। वुद्धि थोरी जिय माहिं पै अभ्यास किये जाहिं, वात नाहिं कहैं जो पै कहैं सोई करें हैं / कैसे किन कष्ट परै सज्जनतासौं न टरें, ग्रीपममैं चंद किरन अमृत ही झरै हैं। साहवसेती हजूर भोगनसौं रहैं दूर, सुख भरपूर लहैं दुःखमूर हरैं हैं // 2 // बात कहा दुष्टनिकी सांपकौ सुभाव लियें, गुन दूध दिय विष औगुन धरत हैं। ऐसे बहु जीव गुन दोप गुन दोप करें, गालागाली मुजरेसौं मुजरा करत हैं // धनि आम ईखसे हैं मारै फल पीडै रस,. चंद जैसे जनदुख-तापकौं हरत हैं। 1 यह पद्मनन्दि आचार्यकी पद्मनन्दिपंचविंशतिकाके एक अष्टकका अनुवाद है। Scanned with CamScanner Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (184) पर उपगारी गुन भारी सो सराहनीक, और सब जीव भव भाँवर भरत हैं // 3 // एकनिकैं पुन्य उदै पुन्यकर्मबंध होय, एकनिक पुन्य उदै पापबंध होत है / एकनिक पाप उदै पापकर्मबंध होय, एकनिकै पाप उदै बंधै पुन्य गोत है // उदै सारू कौन बात उदै कहैं मूढ़ भ्रात, आलस सुभावी जिनके हियें न जोत है। उद्यमकी रीत लई पर्मारथ प्रीत भई, स्वारथ विसारै निज स्वारथ उदोत है // 4 // . विद्यासौं विवाद करें धनसौं गुमान धरै, वलसौं लराई लरै मूढ आधव्याधमैं / ग्यान उर धारत हैं दानकौं संभारत हैं, परभै निवारत हैं तीनौं गुन साधमैं // . पर दुख दुखी सुखी होत हैं भजनमाहिं, भवरुचि नाहीं दिन जात हैं अराधमैं / देहसेती दुवले हैं मनसेती उजले हैं, सांति भाव भरै घट परै ना उपाधमैं // 5 // पोषत है देह सो तौ खेहको सरूप वन्यौ, नारि संग प्यार सदा जार-रंग राती है। सुतसौं सनेह नित 'देह देह' किया करै, पावै ना कदाचि तौ जलावै आन छाती है / दामसौं वनावै धाम हिंसा रहै आठौं जाम, लछमी अनेक जोरै संग नाहिं जाती है। . नामकी विटंबनासौं खाम काम लागि रया, पाहयकी जान बिन होत ब्रह्मवाती है // 6 // काह न सताये छर छिद्र न बनाय सबडीके मन भाव परमारथ सुनावना। नोभकी न वाव होय क्रोधको न भाव जोय, पांचौं इंद्री संवर दिगंवरकी भावना // अरचाकी चाल लिये चरचाको ख्याल हियं, साधनिकी संगतिमै निहसौं आवना / मौन धर रहै कहै सुखदाई मीठे वैन, प्रभुसेती लव लाय आपको रिझावना // 7 // वच्छ फलैं पर-काज नदी औरके इलाज, गाय-दूध संत-धन लोक-सुखकार है। चंदन घसाइ देखौ कंचन तपाइ देखौ, अगर जलाइ देखौ सोभा विसतार है। सुधा होत चंदमाहिं जैसे छांह तरु माहिं, पालेमैं सहज सीत आतप निवार है। तैसैं साधलोग सब लोगनिकौं सुखकारी, तिनहीको जीवन जगत माहिं सार है // 8 // पूजा ऐसी करें हमें सब संत भला कहैं, दान इह विध दैहिं लैंहिं मुझ नामों। सास्त्रके संजोग कर लोग आ3 मेरे घर, बात अच्छी कहूं मोहि पूछ सव कामकों // प्रभुताकी फांसमैं फस्यौ है जगवासी जीव, अविनासी वूझ नाहिं लाग्यौ धन धामकौं / Scanned with CamScanner Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सीमंधर परथम भविक जीव मन समोसरन वार बीसौं जिन अ (186) धारी ते अनंती जोनि नाम गह्यौ कौन कौन. तेरी नाम चेतन तू देखि आप ठामों // 9 // भाड़ा दे वसत जैसैं भौनमैं लसत ऐसे, आपकौं मुसाफिर ही सदा मान लेत है। धाय-नेह वालक ज्यों पालक कुटंब सव, ओषध ज्यौं भोगनिकौं भोगत सचेत है। नीतिसेती धन लेय प्रीतिसेती दान देय, कव घर छटै यह भावनासमेत है। औसरकौं पाय तजि जाय एक रूप होय, द्यानत वेपरवाह साहवसौं हेत है // 10 // पंडित कहावत हैं सभाकौं रिझावत हैं, जानत हैं हम बड़े यही बड़ी मार है। पूरव आचारजौंकी वानी पेख आप देख, मैं तौ कछु नाहिं यह बात एक सार है / भाषत हौं कौन ठाम ठानत हौं कौन काम, आवत है लाज दूजी वात सिरदार है। तीजी वात वैन सब पुद्गल दरवरूप, द्यानत हम चिद्रूप लखें होत पार है // 11 // इति सज्जनगुणदशक / जंबु सुदरसन मेर सीता नदी तासते देवारन वनकेस तामें श्रीदेवाशित जंबु सुदरसन मे सीतोदाकी उत्तर ( 187) वर्तमान-बीसी-दशक। कवित्त (31 मात्रा)। परथम जिन साह्न, अंत अजितवीरज परमेस / वमन-पदम विकासन, मोह तिमिरकहरन दिनेस नबारै जोजन धनु, पनसै पूरव कोड गनेस / जिन अब हैं विदेहमैं, बंदि निकंदों पाप कलेस // 1 // दरसन मेर मध्यत, पूर्वविदेह आठमा थान। नदी तासतें उत्तर, नील सिखरतें दच्छिन आन // चनके समीप है, पुंडरीकनी नगरी मान / देवाधिदेव सीमंधर स्वामि नमों धरि ध्यान // 2 // घासन मेर मध्यतै, पछिम विदेह आठमा ओर। की उत्तरकी दिसि, नील सिखरतें दच्छिन जोर // मरन वनके समीप है, नगरी विजय वचन न कठोर / सपूज जुगमंधर सूरज, भजै भ6गे पातिग चोर // 3 // सुदरसन मेर मध्यतें, पूर्व विदेह आठमा थान / मीता नदी तास” दच्छिन, निपध सैलते उत्तर जान // देवारन वनके समीप है, पुरी सुसीमा सुखकी खान / करुनासिंधु सुबाहु जिनेसुर, सेऊं मनवांछित-फल-दाना॥४॥ जंबु सुदरसन मेर मध्यतै, पच्छिम दिसि अहम सुभ खेत / सीतोदातें दच्छिनकी दिस, निषध सैलतें उत्तर चेत // भूतारन वनके समीप है, नगरी वीतसोक सुखहेत / बाहु प्रभू सिवराह बतावत, वंदत पाऊं परम निकेत // 5 // विजय मेरतें चार इही विध, अचल मेर चव इसी प्रकार। मंदर मेर चार याही विध, विद्युतमाली इह विध चार // Scanned with CamScanner Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन सार। सुखदातार // 6 // आठ करम करम हरे सब जगत माहिं (189) अध्यात्मपंचासिका। दोहा। जसके बंधम, बँधे जीव भववास / सब गुन भरे, नमी सिद्ध मुखरास // 1 // पाहिं चहु गतिवि, जनम-मरन-यस जीव / पाहिं तिहु कालमें, चेतन अमर सदीय // 2 // माहिं सेती कभी, जगम आवे नाहिं। जीव सदीव ही, कम काटि सिब जाहिं // 3 // मुकति माह मोख माहिं (188) अहम धान नदी गिर बन पुर, पूरववत सोल जिल अनुक्रम नाम फेर अरु कछुना, बंदी बीसौं सुखदातार सवैया इकतीसा। सीमंधर जुगमंधर औ सुबाहु बाहुजी, सुजात स्वयंप्रभजी नासौ भव-फंदना। रिखभानन अनंत वीरज सौरीप्रभजी, विसाल वज्रधार चंद्राननकौं वंदना // भद्रवाहु स्रीभुजंग ईस्वरजी नेमि प्रभू , वीरसेन महाभद्र पापके निकंदना। जसोधर अजितवीर्ज वर्तमान वीसौं जी, द्यानतपै दया करौ जैसैं तात नंदना // 7 // कवित्त (31 मात्रा)। जहां कुदेव कुलिंग कुआगम,-धारक जीव छहौं नहिं कोय। तीन वरन इक जैन महामत, तहां पट् मतको भेद न होय चौथा काल सदा जहां राजै, प्रलैकाल कब ही नहिं जोय" तप करि साध विदेह होत सो,भूविदेह सरधैं बुधसोय इक सौ साठ विदेह विराजै, वीसौं तीर्थंकर नित ठाहिं। कौन जिनेस्वर कौन थानमैं, यह व्यौरा सब जानैं नाहिं। द्यानत जाननि कारन की., हंसौ मती हौं सठ बुधिमाहिं। जिह तिहभांति नाम जिन लीजै,कीजैसवसुखदुखमिटिजाहि। दोहा। वीसौं तीर्थकर उहां, इहां न जाने कोय / सरधा निहचै मन धरै, सम्यक निरमल होय // 10 // .. इति वर्तमानवीसी-दशक / परव कर्म उदोतते, जीव करै परनाम। मदिरा पानते, करै गहल नर काम // 4 // जाते बांधै करमकों, आठ भेद दुखदाय / में चिकने गातपै, धूलि पुंज जम जाय // 5 // र तिन कमेनिके उदै, करै जीव बहु भाव / कै बाँधै करमकों, यह संसार सुभाव // 6 // सभ भावनतें पुन्य है, असुभ भावतें पाप / दह आच्छादित जीव सो, जान सकै नहिं आप // 7 // चेतन कर्म अनादिके, पावक काठ बखान / पीर नीर तिल तेल ज्यौं, खान कनक पाखान // 8 // लाल बंध्यौ गठरी वि, भान छिप्यौ घन माहिं। सिंह पीजरेमैं दियौ, जोर चलै कछु नाहिं // 9 // नीर बुझावै आगिकों, जलै टोकनी (?) माहिं / देह माहिं चेतन दुखी, निज सुख पावै नाहिं // 10 // जदपि देहसौं छुटत है, अंतर तन है संग। सो तन ध्यान अगनि दहै, तब सिव होय अभंग // 11 // देह माहि जाटत है, अवसिव होय Scanned with CamScanner Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (190) रागदोपतें आप ही, परै जगतके माहिं। ग्यान भावतें सिव लहै, दूजा संगी नाहिं // 12 // जैसे काहू पुरुषको, दरव गढ़ा घर माहिं / उदर भरै कर भीखसौं, व्यौरा जानें नाहिं // 13 // ता दिनसौं किनही कहा, तू क्यों मागै भीख / तेरे घरमैं निधि गढी, दीनी उत्तम सीख // 14 // ताके वचन प्रतीतिसौं, हरख भयौ मन माहिं। खोदि निकाले धन विना, हाथ परै कछु नाहिं॥२५ त्यौं अनादिकी जीवकैं, परजै-बुद्धि वखान / मैं सुर नर पसु नारकी, मैं मूरख मतिमान // 16 // तासौं सदगुरु कहत हैं, तुम चेतन अभिराम। निहचै मुकति-सरूप हौ, ए तेरे नहिं काम // 17 // काल लब्धि परतीतिसौं, लखौ आपमैं आप। पूरन ग्यान भये विना, मिटै न पुन्य न पाप // 18 // पाप कहत हैं पापकौं, जीव सकल संसार / पाप कहें हैं पुन्यकौं, ते विरले मति-धार // 19 // बंदीखानामें पस्यौ, जाते छूटै नाहिं / विन उपाय उद्यम किये, त्यौं ग्यानी जग माहिं // 20 // सावुन ग्यान विराग जल, कोरा कपड़ा जीव / रजक दच्छ धोवै नहीं, विमल न लहै सदीव // 21 // ग्यान पवन तप अगनि बिन, देह मूस जिय हेम / कोटि वरपलौं राखियै, सुद्ध होय मन केम // 22 // दरव-करम नोकरमतें, भाव करमतें भिन्न / विकलप नहीं सुबुद्धिकैं, सुद्ध चेतनाचिन्न // 23 // (191) च्या नाहीं सिद्धकै, तू च्या के माहिं / च्यारि विनासैं मोख है, और वात कछु नाहि // 24 // ग्याता जीवन-मुकत है, एकदेस यह वात / ध्यान अगनि करि करम वन, जलै न सिव किम जात॥ दरपन काई अथिर जल, मुख दीसै नहिं कोय / मन निरमल थिर विन भयें, आप दरस क्यों होय२६ आदिनाथ केवल लह्यौ, सहस वरस तप ठान / . सोई पायौ भरतजी, एक महूरति ग्यान // 27 // राग दोष संकल्प हैं, नयके भेदविकल्प / दोय भाव मिटि जायं जव, तव सुख होय अनल्प 28 राग विराग दुभेदसौं, दोय रूप परनाम / रागी भ्रमिया जगतके, वैरागी सिवधाम // 29 // एक भाव है हिरनकैं, भूख लगँ तिन खाय / एक भाव मंजारक, जीव खाय न अघाय // 30 // विविध भावके जीव वहु, दीसत हैं जग माहिं। एक कछू चाहें नहीं, एक तर्जे कछु नाहिं // 31 // जगत अनादि अनंत है, मुकति अनादि अनंत / जाव अनादि अनंत हैं, करम दुविध सुनि संत // 32 // सवकै करम अनादिके, कर्म भव्यकै अंत / करम अनंत अभव्यकैं, तीन काल भटकंत // 33 // फरस वरन रस गंध सुर, पाचौं जान कोय / वोले डोले कौन है, जो पूछ है सोय // 34 // जो जानै सो जीव है, जो मानै सो जीव / जो देखै सो जीव है, जीवै जीव सदीव // 35 // Scanned with CamScanner Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (192) आसव वेद // 36 // जानपना दो विध लसे, विपै निरविष भेटी निरविषई संवर लहै, विषई आस्रव वेद प्रथम जीवसरधानसों, करि वैराग उपाय। (193) सव आगमको सार जो, सब साधनको धेव। जाकी पूर्जे इंद्र सौ, सो हम पायौ देव // 48 // सोहं सोहं नित जपे, पूजा आगम सार। संतसंगतिमें वैठना, एक करै व्यौहार // 49 // अध्यातम पंचासिका, माहिं कह्यौ जो सार / द्यानत ताहि लगे रहौ, सब संसार असार // 50 // . इति अध्यात्मपंचासिका। देय // 38 // दोय // 39 // यासौं मोख है, यही बात सुखदाय // 3 // पदलसौं चेतन वंध्यौ, यह कथनी है हेय / जीव बंध्यौ निज भावसों, यही कथन आदेयर बंध लखै निज औरसौं, उद्दिम करै न कोय। आप बंध्यौ निजसौं समझ, त्याग करै सिव होय जथा भूपकौं देखिकै, ठौर रीतिको जान / तव धन अभिलाखी पुरुप, सेवा करै प्रधान // तथा जीव सरधान करि, जानै गुन परजाय। सेवै सिव धन आस धरि, समतासों मिलि जाय. तीन भेद व्यवहारसौं, सरव जीव सम ठाम / बहिरंतर परमातमा, निह. चेतनराम // 42 // कुगुरु-कुदेव-कुधर्मरत, अहंबुद्धि सब ठौर / हित अनहित सरधै नहीं, मूढ़नमें सिरमौर // 43 // आप आप पर पर लखै, हेय उपादे ग्यान / अव्रती देशव्रती महा,-व्रती सबै मतिमान // 44 // जा पदमै सव पद लसैं, दरपन ज्यौं अविकार / सकल विकल परमातमा, नित्य निरंजन सार // 45 // बहिरातमके भाव तजि, अंतर आतम होय / परमातम ध्यावै सदा, परमातम है सोय // 46 // बूंद उदधि मिलि होत दधि, वाती फरस प्रकास / त्यों परमातम होत हैं, परमातम अभ्यास // 47 // ध. वि. 13 Scanned with CamScanner Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - तीन लोबानी माहिकाई ध्यावं सुखकाजाजी॥ . (194) अक्षर-बावनी। ॐकार सरव अच्छरको, सब मंत्रनको राजा जी। तीन लोक तिहं काल सरव घट, व्यापि रह्यौ सुखकाजा श्रीजिनवानी माहिं बतायौ, पंच परमपदरूपी जी।" द्यानत दिढ़ मन कोई ध्यावै, सोई मुकत-सरूपी जी अमर नाम साहिबका लीजै, काम सवै तजि दीजैसी आतम पुग्गल जुदे जुदे हैं, और सगा को कीजै जी' इस जग मात पिता सुत नारी, झूठा मोह बढ़ावै जी। ईत भीत जम पकड़ मंगावै, पास न कोई आवै जी॥ 2 // उसका इसका पैसा ठगि ठगि, लछमी घरमैं लावै जी। ऊपर मीठी अंतर कड़वी, वातै बहुत बनावै जी॥ रिन ले सुख हो देते दुख हो, घरका करै संभाला जी। रीस विरानी करै देखिकै, बाहिर रचै दिवाला जी // 3 // लिखै झूठ धन कारन प्रानी, पंचनमैं परवानी जी। लीन भयौ ममतासौं डोले, बोलै अंमृत वानी जी॥ ए नर छलसौं दर्व कमाया, पाप करम करि खाया जी। ऐन मैन (?) नागा हो निकला, तागा रहन न पायाजी // 4 // ओस बंद सम आव तिहारी, करि कारज मनमाहीं जी। औसर जावै फिरि पिछतावै, काम सरै कछु नाहीं जी॥ अंतर करुनाभाव न आने, हिंसा करै घनेरी जी। अहि सम हो परजीव सतावै, पावै दुखकी ढेरी जी // 5 // काम धरमके करै अधूरे, सुख लोरे भरपूरे जी। खाया चाहै आंव गंडेरी, बोवै आक धतूरे जी // दि. अ. मुनियमसाणा येथ (195) मांजर अपदान, ने. गुरुकी सेवा ठानत नाहीं, ग्यान प्रकास निहारे जी। . घरमें दान देय नहिं लोभी, बंछ भोग पियारे जी // 6 // नेक धरमकी वात न भाव, अधरमकी सिरदारी जी। चरचामाहिं बुद्धि नहिं फैले, विकथाकी अधिकारी जी / छिन छिन चिंता करै पराई, अपनी सुधि विसराई जी। जामन मरन अनेक किये ते, सो सुध एक न आई जी // 7 // झूठे सुखकों सुख कर जाना, सुखका भेद न पाया जी। निराकार अविकार निरंजन, सौ ते कबहुं न ध्याया जी। टेक करै वातनिकी प्रानी, झूठे झगडै ठान जी। ठौर ठिकाना पावै नाही, संजम मूल न जाने जी // 8 // डरै आपदासौं निसवासर, पाप करम नहिं त्यागै जी। दृढ़े वाहिर स्वारथ कारन, परमारथ नहिं लागै जी // निसदिन बाँध्यौ आसाफासी, डोलै अचरज भारी जी। तब आसा बंधनसौं छूटै, होय अचल सुखकारी जी // 9 // थिरता गहि तजि फिकर अनाहक, समता मनमें आनौ जी। दरसन ग्यान चरन रतनत्रै, आतमतत्त्व पिछानौ जी॥ धरम दया सब कहें जगतमैं, पाल ते बड़भागी जी। नेम विना कछु बनि नहिं आवै, भावनहोय विरागी जी 10 पंच परम पद हिरदै धरिय, सुरग मुकतिके दाता जी। फिरो अनंत बार चहु गतिमें, रंच न पाई साता जी // बिनासीक संसारदसा सब, धन जोवन घनछाहीं जी। भूला कहां फिरत है प्राणी, कर थिरता मन माहीं जी 11 मंत्र महा नौकार जपो नित, जमैं तिहूं जग इंद्रा जी। यही मंत्र सुनि भए नाग जुग, पदमावति धरनिंद्रा जी // Scanned with CamScanner Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (196) निपाली जी। भालौजी॥१२॥ राखौ सम्यक सात विसन तजि, आठ मूल गुन पाली लगन लगाय प्रथम प्रतिमासों, बारै वरत संभाला वह मन महा चपल थिर कीजै, सामायिक रस पीजे सिव अभिलाख धरौपोसहव्रत,भोजन सचित न कीजैली निसभोजन नारी संगत, तजिक सील संभारी जी सव आरंभ परिग्रह भाई, अघ उपदेस संभारौ जी // 13 // हरिममता सब धन परिजनकी, करि निरभै भुव वासा लेह अहार उदंड-विहारी, तजि कायाकी आसा जी छिन छिन आतम आतम पर पर, यही भावना भाऊंनी बावन अच्छर पढ़ों अर्थसों, अथवा मौन लगाऊंजी // 14 // सुद्ध असुद्ध भाव दो तेरे, सुभ अरु असुभ असुद्धं जी। असुभ भाव सरवथा विनासौ, सुभमें हो प्रतिबुद्धं जी. सुद्ध भाव जिह बिध बनि आवै, सोई कारज धारोह द्यानत जीवन निपट सहल है, जगतैं आप निकारौ जी॥१५॥ इति अक्षरवावनी। (197) नेमिनाथ-बहत्तरी। अडिल्ल / वंदों नेमि जिनंद, चंद निरधार हैं। वचन किरन करि, भ्रम तम नासनिहार हैं। भवि चकोर वुध कुमुद, नखत मुनि सुक्खदा / ग्यान-सुधा भी-तपत, नास पूरन सदा // 1 // मथुरामैं हरि कंस, विधंस किया जव। . समुदविजै दस भ्रात, किस्न हलधर सबै // जरासिंधसौं डरि, सौरीपुरकौं चले। आए सागर तीर, चतुर सव ही मिले // 2 // होनहार श्रीनेम, जिनंद प्रभावतें। नारायनको पुन्य, हली लखि चावतें // : आयौ देव तुरंत, द्वारिका पुर किया। महावली लखि राज, किस्नजीकौं दिया // 3 // गरभ छमास अगाऊ, धनपति आइयौ।। जनक भवन तिहुँ काल, रतन बरसाइयौ // कनक रतनमै, अति सोभा पुरकी करी।। मात सिवादेवी सोई, बहु सुख भरी // 4 // सोलै सुपने देखे, पच्छिम रातमैं / गज पावक अभिराम, उठी सो प्रातमैं // समुदविजै पैजाय, सुपन फल सुन लिया। तिहुजगपति सुत होसी, अति आनंद किया // 5 // Scanned with CamScanner Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (198) कमलवासिनी देवी, सब सेवा करें। पंद्रह मास रतन, बरसासौं घर भरै॥ आसन काप्यो इंद्र, जनम जिनको भयो। ऐरावति चढ़ि आए, सव सुर सुख लयौ // 6 // गजपै कोड़ सताइस, अपछर नाचहीं। देवी देव चहूं विध, मंगल राचहीं // इंद्रानी प्रभु लाय, इंद्र करमैं दियौ। गज चढ़ि छत्र चमर बहु, मेर गमन कियौ // 7 पांडुक सिल सिंघासनपै, प्रभु थापियो। सहस अठोतर कलस, धार जै जै कियौ / पूजा अष्ट प्रकार, करी अति प्रीतिसौं। नेमिनाथ यह नाम, दियौ गुन रीतिसौं // 8 // मात पिताकौं सौंप, निरत बहु विध भया। देवकुमारन थाप, आप थानक गया // .... खान पान पट भूषन, देवपुनीत हैं। भए कुमर दस गुन, तिहुँ ग्यान सुरीत हैं // 9 // सारथ-वाह रतन ले, चक्रीपै गयौ। जरासिंधु मन कोप, कृस्न ऊपर भयो / हरि पूछै तब आय, जीत प्रभु कौनकी। वदन खुसी लखि, जान्यौ हम जै हौनकी // 10 // (199) भूप कुमर सव साथ, इक दिन कृस्न सभा गये। उठे सवै नरनाथ, सिंघासन बैटे प्रभू // 12 // बात चली बलरूप, एक कहैं पांडा बड़े। एक कहैं हरि भूप, कंस जरासंध जिन हते // 13 // वलभद्दर तिह ठाम, कहैं त्रिजग तिहं कालमैं / मति लो झूठा नाम, नेमिनाथ सम चल नहीं // 14 // कृस्न कहै तिह बार, स्ववल दिखाऊं स्वामिजी / सुनि आई सव नारि, लखें झरोखेमें खरीं // 15 // नेमि सहज कर वाम, दई कनिष्ठा अंगुली। मेर अचल ज्यौं स्वाम, कृस्न हलाय सक्यौ नहीं // 16 // नारायन सत भाय, कहै जोर अपनो करौ। ताही अंगुली लाय, कृस्न उठाय फिराइयौ // 17 // छोड़ि दियौ ततकाल, दीनदयाल दयाल है। वोल्यौ कृस्न खुष्याल, राज हमारौ अटल है / / 18 // नाम भजें जैकार, देव पहुप-वरपा करें। गुन थुति करि वहु बार, बिदा किये प्रभु मान दे॥१९॥ हरिकों फिकर अपार, राज सुथिर मेरौ कहां। जब लौं नेमिकुमार, मन सोचै देखौ हली // 20 // मोतीदाम / बल तब हरिकों समझावै, इन तिहुँ-जग-राज न भाव / कछु कारन देखि धरेंगे, दिच्छा सिवनारि बरेंगे // 21 // तब रितु वसंत सुभ आई,सव भागि चले मिलि भाई। नेमीस्वर हरि बल सारे, परिजन तिय संग सिधारे // 22 // सोरठा। जरासिंधुकौं जीत, सुर नर खग सव वसि करे। सोल सहस तिय प्रीत, तीन खंड राजा भये // 11 // Scanned with CamScanner Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिय भेजी प्रभु पाहीं। मचावें // 23 // बड भागी॥२४॥ बी ए बानी // 25 // लावी॥२६॥ (200) क्रीडा बह करि वनाहीं, हरि तिय भेजी पर सब नाचें गाय बजावे, होली सम ख्याल मचावें। बोली जंबवंती नारी, तुम व्याह करौ सुखकारी। प्रभ रंच भए न सरागी, सुचि जल न्हाए बड़ भागी। यह धोती धोय हमारी, सुनि जंववती रिस धारी। मैं कृस्तनी पटरानी, तिन हू न कही ए बानी॥ जिन संख धनुष फनि साधे, ए काम कठिन आराखी जब तुम तीनों करि आवौ, तव धोती वात चलावी सुनि वोली रुकमनी रानी, सो दिन तू क्यों विसराती प्रभु कृस्न उठाय फिरायो, तब धोती धो गुन गायौ। जब नेमीस्वर मन आई, जल रेखा सम गरमाई। अहिसेजा धनुष चढ़ायौ, नासासौं संख वजायौ // 28 // सुर असुरन अचिरजकारी, अदभुत धुनि सुनि नर नारी भई धूम देसमें भारी, डरि कंपन लाग्यो मुरारी // 20 // जांववंती विध सुनि आयौ, प्रभुकों हरि सीस नवायो। तुम सम तिहु जग बल नाहीं, जिन खुसी गए घरमाहीं // 30 // चौपई। तब हरि उग्रसैनसौं भाखी, राजमती कन्या अभिलाखी। उत्तम नेमि कुमर वर दीजै, समदविजै नृपसमदी कीजै३१॥ उग्रसैन नृप सुनि हरखाया, नेमिकुमार जमाई पाया। छठे सुकल सावन ठहराया, ब्याह लगन नृप भौन पठाया 32 कुल आचार दुहूं घर कीने, मंगल कारज आनंद भीने। दान अनेक सवनि सुखदानी, बहु ज्यौनार बहुत विध ठानी॥ (201) चली वरात विविध विसतारी, गान नृत्य वादित्र अपारी। जादी छप्पन कोड़ि तयारी, और भूप बहुविध असवारी 34 रथ ऊपर श्रीनेमि विराज, छत्र चमर सिंघासन छाज। देवपुनीत दरव सव सोहैं, सुर नर नारिनके मन मोह // 35 // पसु पंखी घेरे वन माहीं, सबनि पुकार करी इक टाहीं। तुम प्रभु दीनदयाल कहाऔ, कारन कौन हमैं मरवाऔ 36 // यह दुख-धुनि सुनि नेमिकुमारं, सारथिसौं पूछी तिह वारं। प्रभु तुम व्याह निमित सब घेरे, संग मलेच्छ भूप बहुतेरे 37 // कंटक-भै पेनही पग माहीं, जीवसमूह हनें डर नाहीं।। पर माननि करि प्रान भरें हैं, प्रानी दुरगति माहिं परें हैं // 38 // धिग यह व्याह नरकदुखदानी,ततछिन छोड़ि दिये सब प्रानी खुसी सरव निज थान सिधारे, प्रभु तुम वंदी छोर हमारे३९।। कुल हरिवंस पुनीत विराजै, यह विपरीत तहां क्यों छाजे। राज-काज हरि यह विधि ठानी,प्रभु मनमैं बातें सव जानी४० चौपई, दूजी ढाल। * प्रभु भावें भावन निहपाप, भवतनभोग अथिर थिर आप / चहु गति सव असरन सिव सर्न, सिद्ध अमर जग जंमन मर्न। एक सदा कोई संग नाहिं, निह● भिन्न रहै तन माहिं / देह असुच सुच आतम पर्म,नाव छेक जल आस्रव कर्म॥४२॥ संवर दिढ वैराग उपाय, तप निर्जरा अवंछक भाव / लोक छदरव अनादि अनंत,ग्यान भान भ्रम तिमर हनंत४३ काम भोग सब सुख लभ लोय, एक सुद्ध पद दुरलभ सोय। लोकांतिक आए तिह घरी, कुसुमांजली दे वहु थुति करी४४॥ 1 देवोपनीत-दिव्य / 2 जूतियाँ। ... कल हरिवहविायनी डाल / Scanned with CamScanner Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (202) जल कलस न्हुलाय। बनेरसाल // 45 // जैजै उचरंत / पकरी आय॥४६॥ सनी चेतन सोय। को आधार॥४७॥ नकीने बहुवार। अव वस्यौनजाय 48 दखिया होहि। चतर निकाय देव सव आय, छीरोदधि जल कल सीस मुकुट पट भूपन माल, मुकति वधू-वर वनेरसा चदि सुखपाल चले भगवंत, सुर नर खग जै जैसी मात सिवादेवी बिललाय, दौरि पालकी पकरी भई मूरछा सुधि बुधि खोय, ज्यौं त्यौं कीनी चेन अहो पुत्र तुम कुल सिंगार, मुझ दुखियाको को आधा जीव भ्रम्यौ जग दुःख अपार, जनम मरन कीने की निज पर भौ भाखे समझाय, गरभवास अव वस्यौन तुम माता, चाहो सुख मोहि, हमैं दुखी लखि दुखिया है मैं जग तरौं वरौं सिव नार, सुत गुन सुनि तुम हरखौ सार हल वलभद्र कहैं वहु भाय, राज करौ हम सेवै पार राज विनासीसो किह काज, हम पायी परमातमराज दोहाकी ढाल। जै जै स्वामी नेमिजी, नौं स्वपद दातार हो। आप स्वयंभूनें धरी, दिच्छा गढ़ गिरनार हो // 51 // एक सहस नृप साथ ले, सिद्धरूप उर धार हो। इंद्र करी थुति बंदना, सब मिलि बारंवार हो // 52 // वेलासौं उठि पारना, प्रासुक खीर अहार हो। वरदत नृप घरमै भए, पंचाचरज अपार हो // 53 // खग मृग ले फल फूल सो, वर्दै सीस नवाय हो। जाकै दरसन देखतें, जनम बैर मिटि जाय हो // 54 // छप्पन दिनमैं पाइयो, केवल ग्यान अपार हो। समोसरन धनपति कियो, कहत न आवै पार हो // 55 // (203) रजमति अति विललायक, ग्यारह प्रतिमा धार हो। सवै आरजामैं भई, गननी पद सिरदार हो // 56 // सूरज सम तम नासक, ससि सम वचन प्रकास हो / मेघ समान सुखी करे, सुरतरु सम गुणरास हो // 57 // हरि वल सब पूजा करें, पूर्जे इंद्र समस्त हो। गनधर ठाड़े थुति करें, पावें वंछित वस्त हो // 58 // नारायन बलदेवनें, पूछी प्रभुसौं वात हो। द्वारापुर अरु किसनकी, कितनी थिति विख्यात हो॥५९॥ मदके दोष प्रभावतें, द्वीपायन नर-नाह हो / इनतें बारै वर्षमैं, नगर द्वारिकादाह हो // 60 // हरिकों जरदकुमारको, वाण लगैगौ आय हो। तातें संजम लीजिय, घर वासा दुखदाय हो // 61 // किसन दई पुर घोषणा, दिच्छा लो नरनारि हो। मैं काहू रोकों नहीं, नेमि-वचन उर धारि हो॥१२॥ दोहाकी दूसरी ढाल। हो स्वामी भौ जल पार उतार हो। (आंचली) सतभामा रुकमिनि सबै जी, प्रदमनि आदि कुमार / बहुतनिने दिच्छा लई जी, जान अथिर संसार हो // 63 // नगर जरन हरिको मरन जी, कहैं बढ़े विसतार / बलभद्दर दिच्छा धरी जी, भयौ सुरग अवतार हो॥६४॥ पांचौं पांडौनें लई, दिच्छा सहित कुटंव। सुन सुन निज परजायकों जी, जान्यौ जगत विटंब हो६५ 1 आयिकाओंमें / 2 गणनी-अर्जिकाओंके संघकी खामिनी / Scanned with CamScanner Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (205) वज्रदंत कथा ' डार हो / / 66 // सभास। स हो // 67 // चौपई। क) पकी मन (204) नाम कहा लौं मैं कहूं जी, धनि धनि नेमिकुमार बंदी छोरे परमजती जी, सब जग तारनहार हो। सगुन अनंत महंत हो जी, प्रगट छियालिस भास। दोष अठारै छय गये जी, लोकालोक प्रकास हो बह नारी प्रतिवोधिके जी, भेजी सुरगति सार। रजमति तिय लिंग छेदिक जी, सोलै सुरग मझार होकर बहुतनकौं सुरपद दियौ जी, बहुतनकौं सिवठाम / तीन सतक तेतीस संग जी, भये अमर सुखधाम हो। तन कपूर ज्यों खिर गया जी, रहे केस नख धार। सुगंध दरव धरि अगन सुर जी, मुकट नम्यौ तिह वार हो कथा तिहारी मुनि कहें, हमनें लीनौ नाम। दो अच्छर नर जे जपें जी, सीझें वंछित काम हो॥७२॥ सांचे दीन दयाल हौ जी, द्यानत लौ तुम माहिं। अपनी पन प्रतिपाल हौ जी, चिंता व्यापै नाहिं हो॥७२॥ इति नेमिनाथबहत्तरी। मातसुत अवर खोई बैठौ वन्नदंत भूपाल, माली लायौ फूल रसाल // (टक)। कमल माहिं मृत भ्रमर निहार, चक्री मन कंप्यौ तिह वार१॥ नासा वसि इन खोई देह, मैं सठ कियौ पंचसौं नेह // 2 // मति सुत अवधि ग्यानकौं पाय,मैं न कियौ तप मोख उपाय भव तन भोगनिकौं धिक्कार, दिच्छा धरौं वरौं सिव नार॥४॥ सुतकौं सर्व संपदा देय, सो वैरागी राज न लेय // 5 // पुत्र हजार सबनसौं कहा, वौन जेम किनहू नहिं गहा // 6 // आपनि मुकत होत हौ भूप, हमकौं क्यौं डोवौ जगकूप // 7 // पोतेकौं दे राज समाज, आपन चले मुकतिके काज // 8 // पितातीर्थकरके ढिग जाय, नव निधि रत्त तजे दुखदाय॥९॥ तीस सहस नृप पुत्र हजार, साठि सहस रानी संग धार // 10 // आप मुकति सब सुगतिमझार, द्यानत नौ सुपद दातार११ इति वज्रदंतकथा। 1 वमन-कैके समान किसीने राज्य नहीं लिया। Scanned with CamScanner Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (207) धीर // 1 // (206) आठ गणछन्द / दोहा / वरधमान सनमति महा, वीर अति महावीर। वीर पंच जिस नाम सो, नमौं अंत जिन धीर। सोरठा। सब संसार अनित्य, नित्य एक परमातमा। वंदि कहूं सुन मित्त, आठ छंद गन आठके // 2 // यगण / अकर्ता च कर्ता अभुक्ता च भुक्ता, अनेका अनित्ता निता एक उक्ता। मरै ऊपजै ना मरै ना पजै है, सदा आतमा स्वांग ऐसे सजै है // 3 // रगण। चेतना आन है आन देही यही, तेयपै भेद ज्यौं भेद जानौ सही। त्यागिय देहके नेहकी थापना, देखियै जानिये आतमा आपना // 4 // तगण। जो देह सो देह जो ग्यान सो ग्यान, संबंधके होततें होत ना आन / जो भेदविग्यान धारंत धीवंत, सो नास भौचास स्यौ-वास वासंत // 5 // . भगण। केवल दर्सन ग्यान विराजत, लोक अलोक लखें गुण छाजत / कर्म ढक्यौ नहिं आप पिछानत, सो परमातम क्यों नहि जानत // 6 // .. जगण। न राग न दोप न बंध न मोप, सदा अपने गुनमंडित कोप / सुभाव रमै पर भावनि खोय, . तिसै परमातमको पद होय // 7 // - ‘सगण। जिसकी थुति इंद्र करै हरखे, जिसके गुन साध सदा परखै। जिसकौं नित वेद वतावत है, सु तुही निजमैं किन ध्यावत है // 8 // नगण। धरम गगन जम अधरम, वध अवध पुदगल करम / पर विरहत सुपदसहत, सुगुन गहत सु सुख लहत // 9 // __ मगण। सत्तोहं तत्तोहं गेयोहं ग्याताई, ग्यानोहं ध्यानोहं ध्येयोहं ध्याताहं / पर्मोहं धर्मोहं सर्मोहं वुद्धोहं, रिद्धोहं वृद्धोहं सिद्धोहं सुद्धोहं // 10 // सोरठा। वारै अच्छर छंद, चार सहस अरु छयानवै। द्यानत हम मतिमंद, भेद कहां लौं कहि सकें॥११॥ इति आठगणछंद। Scanned with CamScanner Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिरदै धरौं। मैं देव नित अरहंत चाहूं, सिद्धको समि (202) प्रतिमा दिगंवर सदा चाई, ध्यान आसन मोहना। सब करमसों में छुटा चाहं, सिय लहीं जहां मोह ना॥६॥ मैं साहमीको संग चाहूं, मीत तिनहीकी करी / मैं परयके उपवास चाहूं, सरव आरंभ परिहरी // इस दुखम पंचम काल माहीं, कुल सरावग में लहा। सब महाव्रत धरि सकू नाहीं, निवल तन मैंने गहा // 7 // यह भावना उत्तम सदा, भाऊं सुनी जिनराय जी। तुम कृपानाथ अनाथ द्यानत, दया करनी न्याय जी॥ दुख नास कर्म विनास ग्यान, प्रकास मोकों कीजिये। करि सुगतिगमन समाधिमरन, भगति चरनकी दीजियै // 8 // भ्रम-जुरी // 2 // (208) धर्म-चाह गीत / चाई, सिद्धकी सुमिरन करौं। *सरि गरु मुनि तीन पदम, साध पद हिरदै मैं धरम करुनामई चाहूं, जहां हिंसा रंच ना। मैं सास्त्रग्यान विराग चाहूं, जास, परपंच ना // चौवीस श्रीजिनराज चाहूं, और देव न मन वसै। जिन बीस खेत विदेह चाहूं, बंदतें पातिग नसै॥ गिरनार सिखर समेद चाहूं, चंपापुर पावापुरी। कैलास श्रीजिनधाम चाहूं, भजत भाजै भ्रम-जुरी. नौ तत्त्वका सरधान चाहूं, और तत्त्व न मन धौ षट् दरव गुन परजाय चाहूं, ठीक तासौं भै हरौं। पूजा परम जिनराज चाहूं, और देव नहीं सदा / तिहं कालका मैं जाप चाहूं, पाप नहि लागे कदा // 3 // सम्यक्त दरसन ग्यान चारित, सदा चाहूं भावसौं। दसलच्छनी मैं धरम चाहूं, महा हरप बढ़ावसौं // सोलहौं कारन दुखनिवारन, सदा चाहूं प्रीतिसौं। मैं नित अठाई परव चाहूं, महा मंगल रीतिसौं // 4 // मैं वेद चाखौं सदा चाहूं, आदि अंत निवाहसौं / पाए धरमके चारि चाहूं, अधिक चित्त उछाहसौं॥ मैं दान चाखौं सदा चाहूं, भौन वसि लाहा लहूं। मैं चारि आराधना चाहूं, अंतमैं एही गहूं // 5 // मैं भावना बारहौं चाहूं, भाव निरमल होत है। मैं वरत बारै सदा चाहूं, त्याग भाव उदोत है // इति धर्मचाहगीत / SRRESS ध. वि. 14 Scanned with CamScanner Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (210) आदिनाथस्तुति। रेखता। कीनों, नाम प्रजापति कीन / / 13 / / तुम आदिनाथ स्वामी, वंदों त्रिकाल नामी। तुम गुन अनंत भारी, हम तनक बुद्धिधारी // 1 // थुति कौन भांति गावे, यह वुद्धि कहां पावें। तुम ही सहाय हूजो, प्रभु सम न देव जी // 2 // सर्वार्थसिद्धिवासी, तिहुं ग्यान सुखविलासी। गर्भ मास पट अगाऊ, सुर कियौ नगर चाऊ // 3 // भवि भाग जोग आए, सुर मेरपै न्हुलाए। नाभिरायके दुलारे, मरुदेविके पियारे // 4 // जव आठ वरस धारे, अनुविरत सव संभारे / पट लाख पुव्व आए, लखि सबनि सुक्ख पाए॥५॥ नाभिराय चित विचारी, संतानवृद्धिकारी। तुम परम गुरु सबनके, हम नाम गुरु भवनके (211) कलसाभिषेक कीनों, नाभिने स्वराज दीनौं / वीस लाख पुत्र आए, तब प्रजापति कहाए // 12 // सव दान सवौं दीनं, सब लोग सुखी कीनं / कियौ राज सुख उदारं, सब भोग बह प्रकारं // 13 // प्रभु भोग तजत नाहीं, इंद्र फिकर चित्त माहीं। तब अपछरा पठाई, सो नाचिकै विलाई // 14 // लखि जगत-थिति विनासी, भए पुब लख तिरासी / वैराग भाव भाए, लौकांत इंद्र आए // 15 // दियौ भरत राजभारं, किय भूप सव कुमारं। लग भाव भावभारं, किय जगतनाथ कहना हमारा कीजै, पानिग्रहन करीजै / प्रभु मोह उदै बूझा, चुप रहे भाव सूझा // 7 // तब इंद्र भी आया ही, दो भूप सुता व्याही। भए एक सौ कुमारं, दो सुता गुन अपारं // 8 // सब आप ही पढ़ाए, हुन्नर सबै सिखाए। जव कलपवृच्छ भागे, सब नाभि चरन लागे // 9 // नृप ले सबनिकों आए, प्रभुकों वचन सुनाए। यह प्रजा राखि लीजै, सबहीकों सुखी कीजै // 1 // प्रभु कालथिति विचारी, गई भोगभूमि सारी। तब ही सुधर्म आए, पट कमे सब लगाए // 11 // षट मास जोग दीनौं, तन अचल मेर कीनौं / सब साथतें सु भागे, छुध तृपा काज लागे // 17 // प्रभु पाय जग परे हैं, फल फूल लै धरे हैं। नमि विनमि तहां आए, प्रभुकों वचन सुनाए // 18 // सुत सरव भूप कीनें, हम क्यौं विसारि दीनें / धरनेंद्र तहां आया, वामनका भेष लाया // 19 // तुम जाहु भरत पासे, अव राज लेहु वासें। तुझकों कवन बुलावै, को भरत कौन जावै // 20 // इनका कहा करेंगै, इनहीकै हो रहेंगे। तब इंद्र भगति भीने, खगपती भूप कीने // 21 // प्रभु जोग पूरा कीना, आहार चित्त दीना। आए नगरके माहीं, विधि जानें कोई नाहीं // 22 // वन माहिं फिर सिधारे, समताके भाव धारे। दिन चार सै भए हैं, गजपुरमैं तब गए हैं // 23 // Scanned with CamScanner Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तबदामी बहु प्राया, (212) नौ भीको नेह जानौ, दाता श्रेयंस ठानी। लिया ईखरस नवीना, सुर पंचचरज कीना॥२॥ तब भरत भूप धाया, श्रेयांस भुवन आया। मौनीकी बात जानी, क्योंकर तुमें पिछानी॥ कही भरतसौं विख्यातं, भव आठकेरी वातं / / वनजंघ श्रीमतीका, सब कहा भेद नीका // 26 तब दान विधि बताई, सवहीके मन सुहाई। तप कियौ वह प्रकार, भए बरस इक हजार // 27 // चह करम तव भगाया, तब ग्यान भान पाया। सर कियौ समोसरना, सो काप जाय वरना // सुर नर असुरने पूजा, तुही देव नाहिं दूजा। बानी सु मेघ वरसे, सुनि सरव जीव हरसै // 20 गनधर भए चौरासी, वहु मुनि भए निरासी। स्रावक अनेक कीन, सवहीको वरत दीनें // 30 // पस नरकतें निकारे, सुर मुकति सुख विधारे / सब देस करि विहार, इक लाख पुव्व सारं // 31 // मुनि एक सहस संग, भए अमर सुख अभंगं। तन खिरा ज्यों कपूर, इंद्र भए सव हजूरं // 32 // करि बंद बार वारं, नख केश संसकारं / रज सीस लै लगाई, भावना चित्त भाई // 33 // जे गुन तिहारे ध्यावें, पूजा करें करावें / जे नामकौं भजै हैं, सब पापकों तजै हैं // 34 // जे कथा तेरी गावे, जे सुनै प्रीति लावें। जे चित्तमै धरै हैं, सव दुःखकों हरै हैं // 35 // तुम कथा है वहुतसी, मैं कही है तनकसी।।' यह चूक वकस दीजी, द्यानतको याद कीजो // 36 // . इति आदिनाथस्तुति। ... ( 213) शिक्षापंचासिका। दोहा। राग विरोध विमोह वस, भ्रमै जीव संसार / तीनों जीत देव सो, हमें उतारी पार // 1 // ... धंधेमै दिन जात है, सोबत रात विलात / कौन बेर है धरमकी, जब ममता मरि जात // 2 // नरकी सोभा रूप है, रूप सोभ गुनयान / गुनकी सोभा ग्यानतें, ग्यान छिमातें जान // 3 // आव गलै अघ नहि गलै, मोह फुरै नहिं ग्यान / देह घटै आसा बढ़े, देखौ नरकी वान // 4 // चेतन तुम तौ चतुर हौ, कहा भए मतिहीन / ऐसौ नर भव पायकैं, विपयनमै चित दीन // 5 // ग्याता जो कुकथा करे, पीछे, निंदै सोय / मूरख ग्यान वखानिक, आदर करै न लोय // 6 // त्याग करै त्यागी पुरुष, जान आगम भेद। सहज हरप मनमें धरै, करै करमको छेद // 7 // वालपने अग्यान मति, जोवन मदकर लीन / ' वृद्धपने है सिथिलता, कहौ धरम कब कीन // 8 // बालपने विद्या परै, जोवन संजमलीन / वृद्धपने संन्यास ग्रहि, करै करमकों छीन // 9 // जाहर जगत विलात है, नाहर जममुख माहिं / ता हरकै हूजै सुखी, चाह रहै कछु नाहिं // 10 // भमता जीव सदा रहै, ममता रत परजाय। समता जब मनमैं धरै, जम तासौं डर जाय // 11 // Scanned with CamScanner Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मग चार (3) 12 धिकाय // 13 // (214) लोभसैन विनसे भली, रमा विसन सचिमार। जैत करन सुनरक तजै, रचा जगत मग चा जैसे विषै सुहात है, तैसें धर्म सुहाय / सो निह. परमारथी, सुख पावै अधिकाय॥ सोरठा। सम्यक अरु साचार, सज्जनता अरु सील गुन। मागें मिलें न चार, पूरवले पुन्नों बिना // 14 // जे न करें दस चार, ते बारह पच-पन कहे। जे. हैं छप्पन ठार, आठ आठ पद सिद्धकौं॥१५ दोहा / जैनधर्म सब धर्मपै, सोभै तिलक समान / आन धर्म लागें नहीं, ज्यों पंटबीजन भान // 16 // चौपई / विविध प्रकार राजकौं त्याग, जिन सिव साधी ध्यान समाज। भिच्छा मांगि उदर तू भरै, अपनौ काज न काहे करै 17 दोहा / चिंता चिता दुहू वि, बिंदी अधिक सदीव / चिंता चेतनिको दहै, चिता दहै निरजीव // 18 // 'देह' वचन यह निंद है, 'नाहिं' वचन अति निंद। 'लेहु' वचन सुभरूप है, 'नाहिं' महा सुभ इंद // 19 // जुगल राग अरु दोषकी, हानि करौ बुधवंत। रुकै करम सिव पाइयै, यह 'जुहार' विरतंत // 20 // 1 दूसरी तीसरी प्रतिमें 'रचा गमत (2) मग चार' पाठ है। 2 जुगनू या खद्योतः / ... (215) यन वन होत न कलपतरु, तन तन बुध न अगाध / फन फन होत न मन सहत, जन जन, होत न साध 21 सुगुन बढे अभ्याससौं, भाग बढे नहिं कोय / कान बढ़ावै जोपिता, आंख बड़ी क्यों होय // 22 // निसिका दीपक चंद्रमा, दिनका दीपक भान / कुलका दीपक पुत्र है, तिहुँ-जगदीपक ग्यान // 23 // दोप बुरे सबके लगें, आतम दोप मुद्दाय / धूआं सवहीका बुरा, अगर धूम सुखदाय // 24 // घरकी सोभा धन महा, धनकी सोभा दान / सोभै दान विवेकसी, छिमा विवेक प्रधान // 25 // एक समैमैं सब लखा, ऐसा समरथ सोय / आगें पीछे सो लखै, जो दृगहीना होय // 26 // पूरन घट बोलै नहीं, अरध भए छलकत / गुनी गुमान करै नहीं, निरगुन मान करंत // 27 // मैं मधु जोखौ नहिं दियौ, हाथ मलै पछिताय / धन मति संचौ दान दो, माखी कहै सुनाय // 28 // कला बहत्तरि पुरुषकी, तामैं दो सिरदार। एक जीवकी जीविका, दूजे जी-उद्धार // 29 // सोम सुक्र गुरु चंद सुभ, मंद भौम रवि भान। बुद्ध उभै सुर प्रात सुभ, कहै सुरोदय ग्यान // 30 // घर वसि दान दियौ नहीं, तन न कियौ रूप लेस / 'जैसे कंता घर रहे, तैसें गए विदेस' // 31 // स्त्री। Scanned with CamScanner Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काज' // 33 // गार (216) नर भी पायो धरमकों, किया अधर्म बनाय। "विटते (1) कारन आनक, पूंजी चले गमाय' . चलौ भविक तहां जाइये, जहां वसत जिनराज। दुःखनिवारन सुखकरन, 'एक पंथ दो काज'॥ कर भाजन कूआ निकट, गुन बिन लहै न नीर / सो गुन क्यों नहिं धारियै, जो बुधि होय सरीर तन बल धन बल कपट बल, टाल बांह-बल जोगी अजस पापते ना डरै, पंच कहावै सोय // 35 // पंच परम पद नित जपै, पंचेंद्री सुख टारि। पंचनके पीछे चले, पंच वही सिरदार // 36 // एक कनक अरु कामिनी, ए दोनों दिढ़ वंध। . त्यागें निह. मोख है, और बात सब धंध // 37 // मान मुधा रस दूरि करि, दान छुधा रस देय। ध्यान छुधारस ठानिक, ग्यान सुधारस पेय // 38 समरथ हैं ते मीत नहिं, मीत न समरथ कोय। दोनों बातें कठिन हैं, औषधि मीठी होय // 39 // समरथ प्रीतम प्रभु बडे, तिन सेवौ मन लाय। इह पर भौ इन सम नहीं, मनवांछित सुखदाय // 40 // कहूं सफल आदर विना, कहुं आदर फल नाहिं। दोनौं लहिये धर्मतें, वृच्छ सफल अरु छाहिं // 41 // क्रोध समान न सत्रु है, छमा समान न मित्र / निंदा सम न गिलान है, प्रभुकी सम न पवित्र // 4 // (217) सोरटा। कहुं बिन ग्यान विराग, कहं ग्यान वैराग बिन / दोनों विना अभाग, ग्यान विराग सहित मुधी॥४३॥ चौपाई। देव धरम गुरु आगम मानि, चार अमोलक रतन समान / तजि मन क्रोध लोभ छल मान,भजि जिन साहिब मेरु समान दोहा। पाप पुन्य दोनों बसें, दरव माहिं भ्रम नाहिं / 'द्यानत' कीने पाप हैं, पुन्य अमानत माहिं // 45 // बड़े वृच्छकौं सेइयै, पूरन फल अरु छाहिं / जो कदाचि फल दे नहीं, छाहिं बहुत तप नाहिं // 46 // ताड़ ताप छेदन कसन, कनक-परीच्छा चार / देव धरम गुरु ग्रंथसौं, सम्यक परखी सार // 47 // दाना दुसमन हू भला, जो पीतम सनवंध / बड़े भाग्य” पाइयै, 'सोना और सुगंध' // 48 // धन जोरैतें ऊंच नहि, ऊंच दानतें होत / सागर नीचें ही रहै, ऊपर मेघ उदोत // 49 // यह सिच्छा पंचासिका, कीनी 'द्यानतराय'। पढ़ें सुनें जे मन धरै, सब जनकौं सुखदाय // 50 // इति शिक्षापंचासिका।. . .... Scanned with CamScanner Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (218) जुगलआरती। दोहा। (219) पंचाचार छतीस गुन, सात रिद्धि चहुं ग्यान / गनधर पद बंदों सदा, आचारज सुखदान / चौपई। एक परम परतीति विख्याता, दो दिच्छा सिच्छाके की तीन काल सामायिक धारी, चारों वेद कथन अधिकारी पंच भेद स्वाध्याय बतावें, पट आवस्यक सब समद्यान सातौं प्रकृति हनी दुखदानी, आठौं अंग अमल सरधान नौ बिध प्रायचित्त सिखलावे, दस विध परिगह त्याग करा ग्यारै विथा जोग जिन माने,वारै अंग कथन सव जाने तेरै राग प्रकृति सब नासे, चौदै जीवसमास प्रकासैं। पंट्टै मोह प्रकृति सब नासी, सोलै ध्यान-रीति परकासी // 5 // सत्रै प्रकृति लखै उदवेली, ठारै खै उपसम विधि झेली। परनै जिन उनईस बखानें, वरतमान बीसौं जिन मार्ने 6 इकइस गनत भेद सब सूझें, वाइस भाव दसम गुन बूझै। भवनत्रिक तेईस बताए, कामदेव चौवीस सुनाए // 7 // विकथा नाम पचीस वखार्ने, छब्बिस गुन दरवाँके जानें / दोहा / एक एक गुनमें कहे, हैं अनेक समुदाय / 'यानत' प्रभुकी बंदत, मोह धूरि झरि जाय // 11 // राजमल जैन बी.ए.बी.से सोरटा। ग्यारै अंग वखान, चौदै पूरय समझ सत्र। गुन पच्चीस प्रधान, उपाध्याय बंदों सदा // 1 // चौपाई। पहला आचारांग वखानं, पद अहारै सहस प्रमानं। . दूजा सूत्रकृतं अभिलाख, पद छत्तीस सहस गुरु भाखं 2 तीजा ठानाअंग सुजानं, सहस वियालिस पद सरधानं / चौथा समवायांग निहारं, चौसठिसहस लाख इक धारं // 2 // पंचम व्याख्याप्रगपति दरसं, दोय लाख अट्ठाइस सहसं / छहा ग्यातृकथाविस्तारं, पांच लाख छप्पन हज्जारं // 4 // सातम उपासकाध्ययनंगं, सत्तरि सहस ग्यार लख भंगं ।अष्टम अंतकृतं दस ईसं, ठाई सहस लाख तेईसं // 5 // नवम अनुत्तर दस सु विसालं,लाख बानवै सहस चवालं / दसम प्रसनव्याकरन विचारं, लाख त्रानवै सोल हजारं 6 ग्यारम विपाकसूत्र सुभाखं, एक कोरि चौरासी लाखं। चार किरोर पंदरै लाख, दो हजार पद गुरु सब भाख 7 बारम दिष्टवाद अवधार, तामैं पंच बड़े अधिकारं। . प्रकरनसूत्र प्रथम अनुयोगं, पूरव अरु चूलिका नियोगं // 8 // चारौं पद छप्पन हज्जारं, तेरै कोड़ी लाख अठारं / पूरव प्रथम नाम उतपातं, ताके एक कोड़ि पद ख्यातं // 9 // रतनत्रै उनतीस प्रकारं, तीसौं चौबीसी निरधारं / करम भेद इकतीस सिखाये, खेत विदेह बतीस सुहाये // 9 // तेतिस देव इंद्रके थानं, चातीसौं अतिसै परिमानं / पैंतिस धनुष कुंथ तन बंदै, छत्तिस गुन पूरन अभिनंदै॥१०॥ Scanned with CamScanner Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (220) व छानवै पद अभिरामं / लाख अनादं // 10 // व पद बुध प्रकास है। कविहीनं // 11 // बिस कोड़ी सुख स्वादं 12 पूरव अपनीय जुग नाम, लाख छान पद तीजा पूरव बीरजवादं, पद है सत्तर लाख अना चौथा पूरव अस्त-नास है, साठ लाख पद बुध पर पंचम पूरव ग्यान प्रवीन, एक कोड़ि पद एक विहीन छहा पूरव सत्य वखान, एक कोड़ि पटपद परवाने सातम पूरव आतमवाद,पद छब्बिस कोड़ी सुख स्व आठम पूरव करम सु भाखं, एक कोड़ि पद अस्सी नौमा पूरव प्रत्याख्यानं, पद चौरासी लाख वखान। दसमा पूरव विद्या जानं, पद इक कोडि लाख टा ग्यारम पूर्व कल्यान बखानं, पद छब्बिस कोडी परधान द्वादस पूरव प्राणावाद, पद किरोर तेरह अविखादं तेरम पूरव क्रियाविसालं, नौ किरोर पद बहुगुनमाला चौदम पूरव विंद त्रिलोकं, साड़े वार कोड़ि पद धोक। साडे पच्चानवै किरोरं, पंच अधिक पूरव पद जोरं // 16 // इकसौ बारै कोड़ि वखाने, लाख तिरासी ऊपर जाने / ठावन सहस पंच अधिकान, द्वादस अंगसरव पद माने॥१७ क्यावन कोडि आठ ही लाख, सहस चौरासी छै सै भाखं। साढडकीस सिलोक वताए, एक एक पदके ए गाए // 18 // ए पच्चीसौं सदा विथारें, स्वपर दया दोनौं उर धारें। भौ सागरमैं जीव निहारे,धरम वचन गुन धार निकाएँ॥१९॥ (221) वैरागछत्तीसी। दोहा / अजितनाथ पद बंदिक, कहूं सगर अधिकार / साठि सहस सुत आप नृप, सरव चरम तन धार // 2 // चौपाई। नगर अजुध्याकी चक्रेस, सुर नर खग बस दिपै दिनेस / भूप गयौ वंदन जिनराय, परभौ मित्र मिल्यी सुर आय // 2 // हम तुम हुते विदेह मझार, तुम थे मो भगनी-भरतार / तुमरै दोय पुत्र थे धीर, एक पुत्र खायौ जमवीर // 3 // दूजे सुतकौं देकरि राज, हम तुम तप लीनौ हित काज / उपजे सोलै स्वर्ग मझार, तहां किया था तुमौं करार // 4 // पहले जा सो दिच्छा लेय, इहां रहै सो सिच्छा देय / सुतवियोग दिच्छा परनए, तातें साठि सहस सुत ठए // 5 // भोगेभोग तृपति न लगार, दिच्छा गहौ न लावौ वार / समझ बूझ नृप लह्यौ लुभाइ, पुत्रमोह छोड्यौ नहिंजाइ॥६॥ सुर जानी इसकै संसार, फिरि आयौ मुनिको व्रत धार / जोवनवंत काम उनहार, रविससितै दुति अधिक अपार 7 चारन रिद्धि महा तपवान, नृप वंद्यौ चैत्याले आन / पूछे भूप तज्यौ क्यों गेह, व्यौरा सरव कहौधरि नेह // 8 // घर वंदीखाना सुत पास, नारी सकल दुःखकी रास / राजा सुनिकै रह्यो लुभाइ, मोह उदैवस कछु न वसाइ॥९॥ इक दिन सरव कुमारन आइ, कह्यौ भूपसौं वचन सुनाइ। तुमें काम करना है जोय, हमको आग्या दीजैसोय // 10 // ____दोहा। केवलग्यानि समान पद, सुतकेवलि जग माहिं / उपाध्याय द्यानत नमौं, बढ़े ग्यान भ्रम नाहिं // 20 // इति जुगलआरती। Scanned with CamScanner Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (223) दोहा। असवार॥११॥ बात कहन भूपरि गमन, करन खड़ग खगधार। कथनी कथ करनी करें, ते विरले संसार // 23 // चौपाई। (222) भूप कह मेरे यह काम, भोगी भोग सरव सुखधाम / गए विलखकै सरव कुमार, फिरि आए सब है असवार। हमकौं काम कही कुछ सार, हम तब ही करि हैं आज जब हम छत्रीकुल जगमाहिं, आप कमाई लछिमी खातिर खंड छहौं मैं साधे सबै, मुझे साधना कुछ नहीं अवै। कमर कहैं अब होहि दयाल, हमें काम करि करौ खुस्याल भूप कहैं कैलास पहार, तहां बहत्तरि जिनगृह सार। आगें काल होयगा दुष्ट, तिनकी रच्छा कीजै पुष्ट // 14 दंड लेइ ता खाई करौ, गंगा लाइ तासमैं भरौ। सुनत वचन सव चले कुमार,खाई करि जल भरि सुखधार१५ इस औसर सुर कै फनधार, कियौ मूरछा सरव कुमार। सुनी खबर मंत्रिनने सही, नृप सुत मोह जान नहिं कही है। तव सुर भयौ वृद्ध द्विजराय, मृतक पुत्र इक कंठ लगाय धर्मभूप तू दीनदयाल, मेरौ पुत्र हन्यौ है काल // 17 // तेरे राज दुखी नहिं कोय, मम सुख होय करौ तुम सोय। भूप कहै सुनि हो द्विजराय, जमसौं काहूकी न वसाय॥१८॥ सिद्ध बिना सबहीकौं खाय, काल गालमैं है षटकाय। जो तू जीता चाहै तेह, पुत्र मोह तजि दिच्छा लेह // 19 // बांभन कहै सांच जो बात, तो सुनियै विनती विख्यात / भूप कहै धोका नहिं कोय, दिच्छा बिन जमनास न होय 20 मेरा सुत इक मारा सार, मारे तेरे साठि हजार / जो तुम लखौ अथिर जग धाम,दिच्छा क्यों न धरौ नर स्वाम मेरा बैरी तनक कृतांत, तेरा बैरी बड़ा न भ्रांत / तुम क्यों नहिं जीतौ जमराय,अमर होहु सब दुख मिटिजाय सुन पूरछा नृपकौं भई, सीतल-दरव-जोग मिटि गई। भावै भावन चार, भौ-तन-भोग अथिर संसार 24 ___ दोहा। भूप कहै संसार सब, कदली वृच्छ समान। केले माहिं कपूर ज्यौं, त्यौं यामैं निरवान // 25 // दुर्लभ नर भव पायकैं, जो मैं साधौं मोप। तो मेरौ जीवन सफल, मिटै सरव दुखदोप // 26 // पुत्र मोह फांसी पखौ, मैं न लख्यौ हित काज। अव सब फांसी कटि गई, दियौ भगीरथ राज // 27 // जहां धरम दिढ़ जिन तहां, पहुंचे वहु नृप संग। दिच्छा लीनी भावसौं, सुर हरख्यौ सरवंग // 28 // चौपाई। गयौ जहां थे साठि हजार, किये सचेतन सरव कुमार / पिता बारतासबसौं कही, मैं तुम कुलकौ प्रोहित सही // 29 // ____सोरठा। मनास न होय. जो तुम लखोबारा सार, मारे तेरे धन्य हमारे तात, राज काज तजि बन बसे / हम हूं जाय विख्यात, पिता किया सोई करें // 30 // चौपाई। सब कुमरन तब दिच्छा लई, देव प्रगट है वानी चई। हम कीनौ अपराध अपार, छमा करौतुम सब मुनि सार 31 Scanned with CamScanner Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निहिं कोय। (224) मुनि बोले सब जगत टटोय, तुम सम उपगारी नगि भोग कीचते सर्व निकार, धरे मोखमैं धनि तू यार। मधुर कठिन दो बात बनाय, करे धरम उपदेस सुनार सो पीतम कहिये सिरदार, इस भी पर भी सुखदातार, दोदा। नरम कहै करडी कहै, करै पाप उपदेस / सो बैरी तातें बढ़े, दोनौं जनम कलेस // 34 // देव सुखी थानक गयौ, सब मुनि करि तप घोर। करम काटि सिवपुर गए, बंदत हो कर जोर // 35 // सगर-विरागछतीसिका, हेत भवानीदास / कीनी द्यानतरायनें, पढ़ौ सबन सुखरास // 36 // इति वैरागछत्तीसी। (225) वाणी-संख्या / दोहा। बंदी नानी बरन जुग, वरग किये पट जास / अच्छर एक घटाइक, अंग उपंग प्रकास // 1 // 'नेमिचंद' मुनिराजपद, चंदों मन वच काय / जस प्रसाद गिनती कहं, जनवचन-समुदाय // 2 // .. चौपई। अच्छर दोय गनतके काज, राखे भाखे स्रीजिनराज / तिनको वरग फलै विसतार, एक वरगसौं एक निहार // 3 // तातें लीजै अच्छर दोय, वरग छहाँ इस विध अवलोय / पहला वरग चार परवान, दजा सोलै घरग बखान // 4 // तीजा दोसै छप्पन अंक, भाखौ चौथा वरग निसंक। पेंसठ सहस पांचसै धार, छत्तिस अच्छर अधिक निहार // 5 // चार सतक उनतीस किरोर, लाख पचास एक कम जोर / सतसठि सहस दुसै छानवै, पंच वरग गिनती यह ठवै // 6 // दोहा। इक लख चौरासी सहस, चौसै सतसठि जान / इनको कोडाकोडि करि, आगें सुनौ बखान // 7 // लाख चवालिस जानिये, सात सहस से तीन / सत्तर एते कोर हैं, और कहूं परवीन // 8 // लाख कहे पच्चानवै, सहस एक पंचास / छै सै सोलै गनतका, छठा वरग परकास // 9 // 1 अंकोंमें यथा-१८४४६७,४४०७३७०,९५५१६१६। ध, वि. 15 Scanned with CamScanner Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (226) बीस अंककी दूसरी, गनती कहुं समझाय। सावधान है के सुनी, सब संस मिटि जाय // 10 // सोरठा। विजन हैं तेतीस, आदि ककार हकार लौं। स्वर हैं सत्ताईस, ह्रस्व पुलत दीरथ नमो // 11 // जोगवहा है चार, अं अः लख परगट वरन / चौसठ जैन मझार, आनमती भाखें कभी // 12 // दीरघ ऋल नहिं संसकृत, देस भापमैं जान / ए ऐ ओ औ इस्व ए, प्राकृत भापा मान // 13 // मूल वरन चौसठि कहे, अरु संजोग अनेक / ते अच्छर पुनरुक्त सव, परमागम यह टेक॥ एई चौसठ वरनकौं, भिन्न भिन्न करि राख / इक इक पर दो दो धरौ, गुनौ परस्पर साख // 15 // चौपई। पहले दो दुजे दो चार, तीजे दो गुन आठ निहार / चौथे सोलै पांच छतीस, छहे चौसठि कहे गनीस // 16 // मात गिनौ सौ अट्ठाईस, आ दो सै छप्पन दीस / इस बिध चौसठि लौंगिन सार, वीस अंक उपजै निरधार 17 . दोहा / इक वसु चौ चौ पट सपत, चौ चौ नभ सत तीन / सत नभ नौ पन पंच इक, पट इक पट गिन लीन // 18 // लीने थे दो एककै, पूरव गनती काज / सो या माहिं कमी करौ, यो भाख्यौ मुनिराज // 19 // 1 यथा अंकोंमें-१८४४६७४४०७३ 709551616 / / (227) वीस अंक गिनती वि, से सोल अंत / एक घटा वाकी रहे, सै पंद्र संत // 20 // इक वसु ची ची पट सपत, ची ची विंदी सात / तिय सत नभनी पंच पन,इक पटइक पन ख्यात / / 21 / / अव इनके पद वरनऊं, सो पद तीन प्रकार। प्रथम अरथ परमान विय, त्रितिय मध्य पद धार // 22 // जेते अच्छर जोरिक, कह परोजन नाम / धरम करी यों आदि दे, प्रथम अरथ पद धाम // 23 // सोरठा। .... .... नमः समयसाराय, आठ वरनत आदि दे। सो प्रमान पद गाय, भूपर परगट देखियै // 24 // दोहा। इक पट तिय ची आठ तिय, नभ सत वसु वसु आठ। ए अच्छर ग्यारै करै, कह्यौ मध्यपदपाठ // 25 // चौपई / सोलै सै चौतीस किरोर, लाख तिरासी ऊपर जोर / * सात सहस आठसै वखान, अहासी अच्छर पद मान // 26 // दोहा / वीस अंक इक पांचलौं, इक पद ग्यारै अंक।. - भाग दिए कितने भए, पद गन लेहु निसंक // 27 // एक एक दो आठ तिय, पंच आठ नभ सुन्न / : पंच सकल पद बंदना, कीजै लीजै पुन्न // 28 // .. ...1 यथा-१८४४६७४४०७३.७०९५५१ 615 / ' ... Scanned with CamScanner Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (228) सोरठा। इक सौ बारै कोर, लाख तिरासी जानिये। सहस अठावन जोर, पंच अधिक पद होत हैं॥२० वसु नभ इक नभ आठ, एक सात पन वरन वस। बाकी राखा पाठ, यात हुवा न एक पद // 30 // आठ कोड़ि इक लाख, आठ सहस अरु एक सौ। पचहत्तर हू भाख, ए अच्छर बाकी रहे // 31 // पदकै द्वादस अंग, कीनै गौतम स्वामिने। चौदै भेद उपंग, ते वाकी अच्छरनिके // 32 // चौपई। दादस चौदस अंग उपंग, भद्रबाहु जाने सरवंग। नाम मात्र हूं वरननि करों, अदभुत धीरज हिरदै धरौं॥३३॥ पहला आचारांग प्रधान, तामें जतिआचार विधान / सहस अठार पद हे तास, बंदन करों क्रिया परकास // 34 // सूत्रक्रान्त है दूजा अंग, धर्मक्रियाके सूत्र प्रसंग। पर छत्तीस हजार प्रमान, वंदन करोंजोरि जग पान॥३५॥ तीजा ठानाअंग विसेख, तामें दरव थान वह पेख / ( 229) दरवित धरम अधर्म समान, खेत पंच पैताले जान / सरवारथ सिध सातम जान, तेतिस सागर काल समान 40 केवल ग्यान वरावर जान, केवल दरसन भाव समान / पद इक लख चौसहिहजार, बंदों मनमें समता धार // 4 // व्याख्याप्रगपति पंचम अंग, ताके भेद कहीं सरवंग। जीव अस्तिको क्यों करिनास,किह विध नित्य अनित्य प्रकास साठि हजार प्रसनके काज, सब उत्तर व्याख्यान समाज / अट्ठाईस सहस द्वै लाख, पद वंदौं उत्तर रस चाख // 43 // धर्मकथा है छहा नाम, रतनत्रै दसलच्छन धाम / पांच लाख छप्पन हज्जार, पद वंदों में धरम विचार // 44 // सातम उपासकाअध्यैन, तामै स्रावककी विधि ऐन / पूजा दान संघ उपगार, ग्यारै प्रतिमा वरनन सार // 45 // अनाचार अतिचार विचार, घरकी सब किरिया विसतार। ग्यारै लाख छपन हजार, पद वंदौं स्रावकपदकार // 46 // दोहा। अंतकृतंदस अष्टमा, अंग कहे पद तास / तेईस लाख वखानिय, सहस अठाइस भास // 47 // इक इक जिन चारै भयौ, दस दस गुन उपसर्ग। सहि सहि सब सिवपुर गए, कथन सकल रिपिवगे॥४८॥ अनुत्तरोउपपाददस, नौमा अंग वखान / * लाख वानवै पद कहे, सहस चवालिस जान // 49 // दस दस मुनि उपसर्ग सहि, पहुंचे पंच विमान / एक एक जिनके समै, तिनको कथन विनान // 50 // गतिसौं चार भावसों पांच, चौ दिस अध ऊरध पट सांच। सात भंग वानीतें सात, इस प्रकार वहु थानक वात // 37 // पुदगल एक खंध अनु दोय, सरव दरव थानक यों जोय। सहस वियालिस पद अवधार, वंदौं सुद्ध थानदातार // 38 // चौथा समवायांग विसाल, तहां कथन सम बहुविध भाल / दरव खेत काल अरु भाव, जुदे जुदे वरनों विवसाय // 39 // Scanned with CamScanner Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनी बहु रंग। भविख्यात५१ चार प्रकार। तर ममे // 52 // सुख दुख जनम मरन जय द्वारा // 53 // चौरासीलाख॥५४॥ (230) चौपई। मन व्याकरण दसमा अंग, ताके भेद सुनौकर तन सुनि भाखै वात, धन कन लाभ अलाभवि जनम मरन जय हार, और भेद सुनि चार अकोदिनीथप निज धर्म, विच्छेपिनी हरे पर धर्मप्रभावक संवेजनी, भव दुख उदास निरवेजनी | लाख तिरानू सोल हजार, पद बंदा संदेह निवार विपाकसूत्र ग्यारमा देख, कर्म उदेकी बात विसेख। तीव्र मंद सुभ असुभ सुभाख, एक कोरि चौरासीलाख ग्यारै अंग कहे समझाय, नाम अर्थ पद संख्या गाय चार किरोर पंदरै लाख, दो हजार सबके पद भाख // मिथ्यादृष्टी बहु विध जीव, झूठ धर्मम मगन सदीय / जान तीनसै त्रेसठ जात, थोरे माहिं कहूं सब वात 18 किरियावाद असी सौ जीय, अक्रियावादी चौरासीय / अग्यानवादी सतसठि दीस, विनवादधारी बत्तीस // सवकौं जीतै नै समझाय, विविध भांति बहु जुगति उपाय। सोई दिष्टवाद है अंग, द्वादसमा जानी वहु भंग // 58 // 2. सोरठा / सारठा। इक सौ आठ किरोर, अड़सठ लख छप्पन सहस / पंच अधिक पद जोर, कहे वारमें अंगके // 59 // पंच भेद हैं तास, प्रथम परकरन सूत्र विध / प्रथमान जोग भास, पूरव गन अरु चूलिका // 6 // पंच भेद परकर्न, ससि रवि जंवूद्वीप भनि / दीप उदधि सुनि कर्न, व्याख्याप्रगपती सहित // 11 // (231) चौपई। चंद्रप्रगपती सुनी वखान, ससि ग्रह नछत्र तारे जान / आव काय गति उंद निहार, बत्तिस लाख पांच हजार // 6 // सूर्यप्रगपती माहिं विचार, देवी देव सकल परिवार / सूरजबितना विस्तार, पांच लाख पद तीन हजार // 6 // जंबूद्वीप प्रगपती जान, मेरु कुलाचल आदि बखान / तीन लाख पच्चीस हजार, बंदी चैत्याले सिर धार // 6 // दीप उदधि प्रगपत्ती सोय, असंख्यातकी कथनी होय। नाममानि वरनन पद सार, वावन लाख छतीस हजार॥६५॥ व्याख्याप्रज्ञप्ती है नाम, जीव अजीय दरव अभिराम / रूप अरूप विंव पद दीस, चौरासी लख सहस छतीस // 66 // दोहा / प्रथम भेद परकरन यह, पद इक कोर वखान / लाख इकासी जानिये, सहस पंच परवान // 37 // चौपई। स्त्र भेद दूजौ परवान, जीव अवंध अकरता जान / ... सुपरप्रकासक बहुविध भाख, याके पद अहासी लाख // 68 // प्रथमानजोग तीजा जथा, त्रेसठ पुरुष सलाका कथा / नाम काय थिति भेद प्रकास, पंच हजार कहे पद तास 69 पूरव चौथा भेद चखान, ताके चौदै नाम सुजान / साड़े पंचानवै किरोर, पंच अधिक सब पदका जोर // 70 // प्रथम कह्यौ पूरव उतपात, एक कोरि पद कहे विख्यात / उतपत व्यय धुव तीनों काल, नौ विध दरव भेद बहु साल७१ Scanned with CamScanner Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (232) अग्रनीय दूजी अभिराम, तहां सुनै दर्ज दहे॥७२॥ लिजुग बल भाटी मार // 73 // चौसठ गन सौ आठ प्रका,जिनवानी अभिराम। डित गहे // 7 // नौं अग्यान / किरोर // 75 // अधिकार। पद सरदहे॥७॥ से तिनके कहे, लाख छानवै पद सरत वीरजवाद विसाल, निजवल परवल जुग खेत काल तप भाव अपार, सत्तर लाख कहो चौथा अस्तिनास्ति है नाम, तामें सप्तभंग अर दर्व अस्ति साधनिकों कहे, साठि लाख पद पंडित पंचम ग्यानप्रवाद विधान, पांच ग्यान तीनों अन्य संख्या विष रूप फल जोर, एक घाटि पद एक कि छठा सत्य परवाद विचार, द्वादस भाषाको अधिक दस विध सत्य वचन तहं कहे, एक कोर पट पद सरद दोहा। आतम प्रवाद सातमा, पूरव सवतें जोर। जीव भाव अधिकार वहु, पद छब्बीस किरोर // 7 // . चौपई। कर्मप्रवाद नाम आठमा, ग्यानावरनादिककी जमा। सत्ता बंध आदि वहु भाख, एक कोर पद अस्सीलाख नौमा पूरव प्रत्याख्यान, पापक्रियाको त्याग विधान / भेद संघनन पालन काज, पद चौरासी लाख समाज दसमा पूरव विद्या भाख, पद इक कोरि कहे दस लान लघु सात से पांच सै महा, विद्या अष्ट निमित सव कहा॥८॥ कल्यानवाद ग्यारमा पेख, पंच कल्यानक कथन विसेख। पोड़सकारन भावन जहां, पद छैवीस कोर हैं तहां // 8 // द्वादस पूरव प्रानावाद, इडा पिंगला सुपमना स्वाद। (233) तेरम पूरव क्रियाविसाल, कला बहत्तरि कही रसाल / चौसठ गुन नारीके कहे, सील भेद चौरासी लहे // 83 // गरभ आदि सौ आठ प्रकार, सम्यक भेद पचीस प्रकार। नौ किरोरपद जग व्योहार, जिनवानी सबतें सिरदार // 84 // विंद त्रिलोकसार चौदहां, लोक अलोक कथन है जहां / अकृत अनादि अनंत प्रकास, बारै कोरि लाख पंचास // 5 // दोहा। पूरव चौथे भेदका, कह्यौ सकल व्यौहार / नाम चूलिका अब कहूं, पंचम भेद विचार // 86 // चौपई। जल थल माया नभ अरु रूप, पंच भेद चूलिका अनूप / पद दस कोडि लाख उनचास, सहस छियालिस वरन्यौ तास सोरठा। दो किरोर नौ लाख, सहस नवासी दोय सै। एक एकके भाख, पांचौंके पद एकसे // 88 // चौपई। नाम जलगता को आरंभ, जलमैं मगन अगनको थंभ / अगनि माहिं परवेस निकार, मंत्र जंत्र अरु तंत्र विचार // 89 // नाम थलगता कहियै सोय, मेरु कुलाचलमै गम होय / सीघ्र गमन भुवमैं परवेस, मंत्रादिक किरिया उपदेस // 9 // मायागता नाम है तास, इंद्रजाल विक्रिया प्रकास / मंत्र जंत्र तप भेद वखान, जिनवानी सवतै परधान // 9 // नाम अकासगता है तहां, व्योम गमन वहविध है जहां / जप तप क्रिया अनेक प्रकार,उपजै चारनरिद्धि निहार॥९२॥ अंग उपंग प्रान दस भेद, तेरह कोड़ तास पद वेद // 2 // Scanned with CamScanner Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (234) (235) अभिराम / विवेक॥१३॥ नऊं // 94 // इन माहिं। रूपगता है ताकी नाम, हयगय आदि रूप से अलेप अनेक, धातवाद रसवाद विर ___सोरठा। द्वादस अंग सरूप, पदसंख्या पूरा भया। वाहज अंग अनूप, सो चौद विध वरना चौपई। इहां पदनिकी संख्या नाहिं, थोरे अच्छर हैं इन मा आठ किरोर अधिक कछु भने, चौदै वाहज अंगनितने पहला सामायिक है सोय, समभावनिमैं आयक होण५॥ नाम थापना दरवित भाव, खेत काल पट भेद लखानी दजा स्तव कहिये है सोय, चौवीसौं जिनकी थुति हो तीजा भेद वंदना जान, एक जिनेस नमन विधि ठान चौथा प्रतिक्रम कहियै सोय, किया दोष निरवानर पंचम विनै पंच परकार, ग्यान दरस व्रत तप उपचार॥९॥ छहा कृतक्रम क्रिया विसाल, पंच परम गुरु भगत त्रिका सातम दसवैकालिक कहा, मुनि अहार विध सुध सरदहा 90 आठम नाम उत्तराध्यैन, सव उपसर्ग परीसै जैन / नौमा नाम कल्प व्यौहार,मुनि विधि गहन अवध परिहार१०० कलपाकलप दसम लख लेहु, सिख्या कथन कहा गुन गेह। दरवित खेत काल अरु भाव, मुनिको जोग अजोग लखाव महाकलप ग्यारम अभिधान, साध क्रिया उतकिष्ट प्रधान / पुंडरीक द्वादसम बखान, चउविध सुर उपजनि तप दान॥ तेरम नाम महापुंडरीक, इंद्र उपजनि क्रिया तप लीक / चौदम नाम निषध परवान, दोप प्रमाद त्याग गुनखान // दोहा / चौदै वाहज अंग ए, अगले चारह अंग। वीस अंककी गिनतिका, पूरन भया प्रसंग // 104 // मनपरजै मति औधिकी, केवल संग्या नाहिं / सुतकेवलि केवल कह्यौ, धड्यौ ग्यान जग माहिं 105 लिंगज सुत अच्छररहित, सवदज अच्छर रूप / दोय भेद स्रुत ग्यानके, सवदज स्रुत सुभरूप // 106 // चीपई। विकल चतुक एकेन्द्री माहिं, लिंगज स्रुतमैं सम्यक नाहिं / चहुं गति सैनी सवदज ग्यान, उपजै सम्यक दरस प्रधान // स्रीजिन गुन अनंत भंडार, ओंकार रूप धन सार / इच्छा विना अनच्छर झरै, अच्छरमै है संसै हरै // 108 // धुनि समझें गनधर भ्रम नाहिं, और सुनै निज भाखा माहिं / प्रभुको कथन समझ गनधार, सोगनती को लखै अपार 109 जो गनधरने रचना करी, सो वह हम कहं तक विस्तरी। यामैं भूल चूक जो होय, बुध जन सोध लीजियै सोय 110 रवि ससि दीपक तम नहि हरै, अंतर तमवानी छै करै / सो वानी नित करौ उदोत, हमैं तुमैं परमातम जोत 111 दोहा। द्यानत बानी कथनतें, वरै ग्यान घट माहिं / ज्यौं नैननितें देखियै, घट पट धोखा नाहिं // 112 // इति वानीसंख्या। Scanned with CamScanner Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (237) (236) पल्ल-पच्चीसी। दोहा। कलप अनंतानंत लों, रुलै जीव विन ग्यान / सम्यकसौं सिवपद लहै, नमों सिद्ध भगवान // जो कोई पूछे इहां, एक कलपका काल / कितना सो व्यौरो कही, कहीं सुनी तजि लाज // 2 // चौपई। एक कलपके सागर कहे, कोड़ा कोड़ बीस सरदहे। इक सागरके पल्ल बखान, कोड़ाकोड़ी दस परवान॥३॥ दोहा। तीन भेद हैं पल्लके, प्रथम पल्ल 'व्यौहार'। दूजा पल्ल 'उधार' है, तीजा 'अद्धा' धार॥४॥ सोरठा। प्रथम रोम गिन देह, दूजा दीप उदधि गिनै।। तीजा भौ-तिथि एह, चहु गति जिय वस करमके // 5 // दोहा। प्रथम पल्ल व्यौहारकों, कहूं जिनागम जोय / अंक पंच चालीसकी, गनती जातें होय // 6 // सवैया-इकतीसा। नभका प्रदेस रोके पुद्गल दरव अनूं, औधिग्यानी देखै नैनगोचर न सोई है। अनंत अनंत मिलि खंध सन्नासन्न नाम, रजरैन त्रटरैन रथरैन होई है // उत्तम भू मध्यम जघन कर्मभूमि वाल, लीख तिल जौ अंगुल वारै रास जोई है। सन्नासन्न अंगुलली वारै आठ आठ गुन, जिनवानी जानी जिन तिन संस खोई है // 7 // दोहा / भोगभूमि उत्तम विष, उपजेके सिरवाल / जनम सात दिनके कहे, महामहीन रसाल // 8 // तिनसेती कूवा भरौ, जोजन एक प्रमान / अति सूच्छम सव कतरिक, खंड होहि नहिं आन // 9 // भोगभूमि उत्तम मधम, जघन करम भुवि लीख / तिल जौ अंगुल आठ ए, भेद लेहु तुम सीख // 10 // अंगुल हाथ धनुप कहे, कोस जु जोजन पंच / तीन भेद पांचौं लखे, संसै रहै न रंच // 11 // प्रथम नाम उत्सेध है, दूजा नाम प्रमान / तीजा आतम नाम है, अंगुल तीन बखान // 12 // सवैया इकतीसा। वाल आदि गनती सो उतसेध अंगुलते, चारौं गति देह नर्क स्वर्गके प्रसाद हैं। यातें पांचसै गुनेको अंगुल प्रमान तातें, दीपोदधि सैल नदी जैनधाम आद हैं / छहौं काल वृद्ध हानि आतम अंगुल तातें, भौन घट रथ छत्र आसन धुजाद हैं। इसी भांति हाथ चाप कोस अरु जोजन हैं, सबको लखैया जीव ताके गुन याद हैं // 13 // Scanned with CamScanner Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (238) उत्तम सु भोगभूमि मेष बाल कोमल हैं, मध्यम जघन्य कर्म भूमिनको वार है। लीख तिल जी अंगुल आठौं आठ आठ गुनै. अंगुल चावीसनको एक हाथ धार है। चारि हाथ एक चाप दो हजार चापनको, एक कोस चारि कोस जोजन विचार है। ऐसे पांचसै गुनैको जोजन प्रमान एक, ताको पल्लकूप गोल ढोलके अकार है // 14 // बाल महा जोजन लौं गनती लंबाई करौ, नव अंक पट सून्य सव पंदै दीस हैं। लंवाई चौराईसेती गुनैं हाथ तीस अंक, पंट्टैकी ऊंचाई गुनौ भए पैंतालीस हैं। गोलकी कसर काज उन्निस गुनो समाज, चौविसका भाग देहु भाखत मुनीस हैं। सत्ताईस अंक ठारै सुन्य पल्ल रोम कहे, धन्न जैन वैन सब वैननिके ईस हैं // 15 // 805306368000000 // 64 85183463413 51424000000000000 // 52255954073510 8034 730680320000000000000000 // 992 2863127396876265988292608000000000 000000000 // 41345266303082031777495 12192000000000000000000 / एते एकठे भए॥ . . सवैया इकतीसा। ____एक महा जोजनके उतसेध अंगुल हैं, अड़तीस कोडि लाख चालीस वताइए। (239) वीस लाख सत्ता, सहम एक सौ बावन, अंगुलके एते रोम दुहंको फलाइए। आठ कोड़ा कोड़ी पांच लाख तीस ही हजार, सहस छत्तीस कोड़ि असी लाख गाइए / एही पंदरकी धन किए अंक पैतालीस, एते काल जीव भम्यौ ऐसे भाव भाइए // 16 // अंकनाम, अडिल / चौ इक तिय चर पांच दोय पट तीन हैं। नभ तिय नभ वसु दो नभ तिय इक कीन हैं। सत सत सत चौ नौ पन इक दो इक कहे। नौ दो आगें ठारै सुन्न सरव लहे / / 17 / / ... सवैया इकतीसा। चार सै तेरैको पट बार कोटि पैंतालीस, लाख सहस छब्बीस सत तीन तीन जी। पंच चारि कोडि आठ लाख वीस हैं हजार, तीन सत सत्रै चार चार कोड़ी कीन जी / / सतत्तर लाख सहस उनचास से पंच, बारहको तीन बार कोड़ा कोड़ी वीनजी / उनईस लाख बीस ही हजार कोड़ा कोड़ी, पैंतालीस हैं अनादि भाखे न नवीन जी // 18 // दोहा / इक इक रोम निकारिए, सौ सौ वरस मझार / जब जब खाली कूप है, यही पल्ल व्यौहार // 19 // Scanned with CamScanner Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (240) सोया इकतीसा / सब रोमकौं फलाय एक एक न्यारी करी, असंख्यात कोड़ि वर्षके समै फलाइए। एती एती रोम एक एक रोम पर राखौ, सबकी गनतीकै उधार पल्ल गाइए॥ कोड़ा कोड़ी पच्चीसके दीपोदधि राजू माहिं, उद्धार रोम सौ सौ वरसमें गिनाइए / सोई अद्धापल्ल दस कोड़ा कोड़ीके सागर, ऐसी थिति भोगिकै कपाय न घटाइए? // 20 // चौपई। चहुगति माहिं रुला तू जीव, अधापल्ल थिति लही सदीय / तेतिस सागर नरक मझार, इकतिस सागर प्रैवक धार // 21 // जगमें दुख सुख लहे अनेक, पायौ नाहीं ग्यान विवेक। सवमैं दुल्लभ नर अवतार, आय सुघाट चलै मतिहार // 22 // दोहा। इस गिनतीका हेत यह, जानि होय वैराग। जो सुनिकै समझे नहीं, ताके बड़े अभाग // 23 // कही सुनी भोगी लखी, जिन यह थिति बहु भाय। सो हम जान्यौ आतमा, रहूं तास ली लाय // 24 // गोमटसार निहारिक, भापी द्यानत सार / भूलचूक यामैं कह्यौ, लीजो संत सुधार // 25 // इति पल्लपचीसी। ( 241) पटगुणी-हानि-वृद्धि-वीसी। दोहा। संख असंख अनंत गुन, भए वृद्धि पट हान / सुद्ध अगुरुलघु गुनसहित, नमों सिद्ध भगवान // 1 // पुग्गल धर्म अधर्म नभ, काल पंच जड़रूप / छहाँ दरव ग्यायक सदा, नमी सिद्ध चिद्रुप // 2 // सबैया इकतीसा। धर्म अधरम नभ एक एक दर्व सब, काल असंख्यात दर्व चेतन अनंत हैं। पुग्गल अनंतानंत काहूकी न आदि अंत, परजै उतपात वै गुन धुववंत हैं। जीव दर्व ग्यायक सरीर आदि पुग्गल है, धर्माधर्म दर्व गति थिति हेत तंत हैं। व्योम ठौर देत काल नौ'-जीरन भाव हेत, ऐसी सरधासौं संत भौ-जल तरंत हैं // 3 // दर्व ग्यायकति हेत तत देत, एक एक दरव, अनंत अनंत गुन, . अनंत अनंत परजाय पेखियत है। एक एक गुन माहिं अनंत अनंत भेद, एक एक भेद न्यारे न्यारे देखियत है / केई भेद काहू समै वृद्धिरूप परनमैं, केई भेद काहू समै हानि लेखियत है। अद्भुत तमासा ग्यान आरसीमैं प्रतिभासा, दर्वित अलेख कर्मसेती भाखियत है // 4 // 1 नवीन तथा जीर्ण (पुराना) करनेका कारण है। ध. वि 16 Scanned with CamScanner Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (242) दोहा। अस्ति अमूरत अगुरुलघु, दर्व प्रदेस प्रमेय / वस्त अचेतन मूरती, चेतन दस गुन गेय // 5 // सवैया इकतीसा / दर्व खेत काल भाव चारौं गुन लिये अस्त, परसंग बात सान(2) सदा गुन वस्त है। उतपात वै धुव परनतसों दवे तत, गट्टै उडै नाहिं सो अगुरुलघु समस्त है / दर्व गुन परजायको अधार परदेस, आपकौं जनावै गुन परमेय लस्त है। मूरत अमूरत अचेतन चेतन दसौं, गुन छहौं दर्वमाहिं जाने भ्रम नस्त है॥६॥ जीव माहिं चेतन अमूरत ए दोन्यौं गुन, पुग्गलमैं मूरत अचेतन दो पाइए। अमूरत अचेतन ए दोऊ हैं तिहूं काल, धर्माधर्म नभ काल चारोंमें बताइए। अस्त वस्त दरवते परमेय परदेस, अगुरु लघु ए छहाँ सवहीमें गाइए। ताते एक एक दर्व माहिं आठ आठ सधैं, मुख्य गुन चेतनको ध्यान माहिं ध्याइए // 7 // जो तौ दर्व गुरु होय भूमैं वसि जाय सोय, जो तौ दर्व लघु होय उड़ जाय तूल ज्यौं / ताही” अगुरु लघु वड़ा गुन दर्व माहिं, जातें दर्व अविनासी सदा मेरमूल ज्यौं // (213) ताही गुनका विकार ताके वार भेद धार, केवलीके ग्यानमै विराज रहे थूल ज्या / तिन्हें कहि सके कोय ममझ मो बुध होय, किंचितसे भाखत ही मिट धर्म भूल ज्यों // 8 // जीवमै अनंत गुन तामै एक ग्यान नाम, मूल पंच भेद भेद उत्तर अनंत हैं। दूजे गुन दर्सनके चार भेद मूल कहे, उत्तर अनेक भेद लोकमैं भनंत हैं / तीजा गुन सुख सुखी चक्री जुगलिये जीव, फनी इंद अहमिंद सिद्धजी महंत हैं। चौथा वल गज सिंघ चक्री देव जिनराज, ऐसे ही अनंतकौं जे ध्यावें तेई संत हैं // 9 // पुग्गल दरवमैं अनंत गुन रूखा एक, ताके बहु भेद धूल राख रेत मान है। दूजे चिकनेके भेद हैं अनेक रूप पानी, छेरी गाय भैसि ऊंटनीको दूध जान है // तीजा गुन कड़वा है भेद निंव इंद्रायन, विष और महाविष लोकमैं निदान है। चौथा गुन मीठा गुड़ खांड सर्करा पीयूप, ऐसे ही अनंतनिसौं मेरौ ग्यान आन है // 10 // दर्वमें अनंत गुन एक जीवमें अनंत, एक अस्त भाव ताके चौदै गुनथान हैं। एक पुदगलमें अनंत वीस नाम कहे, एक फास वेल काठ हाड औ पखान है। Scanned with CamScanner Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (244) चारौं दर्व माहिं ती विभाव गुन जमा नाहिं, सुध भाव गुन भेद साधं बुधवान है। आतमके साधनको साधन बताए सब, वस्त सिद्ध भए साध हेत दुखदान है // 11 // चार अंक भाग दोय गुण करें सोलै होय, नव भाग तीन गुन एक असी धन(?) हैं। सोलहको भाग चार गुनते दोसै छप्पन, पच्चिसका भाग पांच सवा छसै गुन हैं। छत्तिसका भाग पट गुन वार से छानवै, सौ भाग दस गुन दस हजार सुन हैं। संख्यात असंख्यात अनंत यौही भाग गुण, पट वृद्धि षट हानि जानत निपुन हैं // 12 // वारै अंक दोय भाग पट तीन भाग चार, चार भाग तीन पट भाग दोय जाने हैं। वारै दुगुने चौवीस तिगुने छत्तीस दीस, चौगुने अठतालीस पांच साठ ठान हैं। इसी भांति उतकिस्ट मध्यम जघन्य भेद, भागाकार गुनाकार भावनमैं माने हैं। आलसकौं टारि नैंक अंतर विचार देखौ. परनाम भेद जान मिथ्याभाव भाने हैं // 13 // अनंत-भाग-वृद्धि औ असंख्यात-भाग-वृद्धि, संख-भाग-वृद्धि संख-गुन-वृद्धि थानजी / असंख्यात-गुन-वृद्धि औ अनंत-गुन-वृद्धि, अनंत-भाग-हानि असंख-भाग-हानजी॥ (245) संख-भाग-हानि संख गुनहानि असंख्यात, गुन-हानि औ अनंत गुन-हानि मानजी / एई परनामनके बारे भेद थूल कहे, एक एक भेदमें अनेक भेद जानजी // 14 // काहसमै संख-भाग भावनिकी वृद्धि होय, काहू समै संख-गुन भाववृद्धि रिद्ध है। काहू समै असंख्यात-भाग भाववृद्धि होय, काह समै असंख्यात-गुन-वृद्धि निद्ध है // काहू समैमें अनंत-भाग भाववृद्धि होय, काहू सममें अनंत-गुन-भाव वृद्ध है। इसी भांति छहाँ भेद हानिकों लगाय लीजै, धन्न ग्यान केवलमें सव वात सिद्ध है // 15 // जहां लौं गिनै सो संख्यात अगिन असंख्यात, जाको अंत नाहिं सो अनंत ठहराया है। संख भेद संखके असंखके असंख भेद, जाहीके अनंत भेद सो अनंत भाखा है // जातें भेद घाट होय भाग नाम कह्यौ सोय, जातें भेद बाढ़ होय सोई गुन गाया है। संख्यात असंख्यात अनंत भाग गुन पट, वृद्धि हानि बारै भाव सूधा समझाया है // 16 // ग्यान गेय माहिं नाहिं गेय हून ग्यान माहिं, ग्यान गेय आन आन ज्यों मुकुर घट है। ग्यान रहै ग्यानी माहिं ग्यान बिना ग्यानी नाहिं, दुहूं एकमेक ऐसे जैसे सेतपट है। Scanned with CamScanner Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (246) भाव उतपात नास परजाय नैन भास, दरवित एक भेद भावकी न वट है। यानत दरव परजाय विकलप जाय, तव सुख पाय जब आप आप रट है // 17 // निह. निहार गुन आतम अमर सदा, विवहार परजाय चेतन मरत है। मरना सुभाव लीजै जीव सत्ता मूल छीजै, जीवरूप विना काको ध्यान को धरत है // अमर सुभाव लखै करुना अतीव होय, दया भाव विना मोखपंथ को चरत है। अविनासी ध्यान दीजै नासी लखि दया कीजै. यही स्वादवादसेती आतमा तरत है // 18 // पट गुनी हानि वृद्धि भाव हैं सुभावहीके, सुद्धभाव लखेंसेती सुद्धरूप भए हैं। सरवथा कहनेकौं आप जिनराजजी हैं, आचारज उवझाय साधु परनए हैं / कुंदकुंद नेमिचंद जिनसेन गुनभद्र, हम किस लेखे माहिं सूधे नाम लए हैं। द्यानत सवद भिन्न तिहूं काल में अखिन्न, सुद्ध ग्यान चिन्न माहिं लीन होय गए हैं // 19 // दोहा / बुद्धिवंत पढ़ि बुधि बढे, अवुधनि बुधि दातार / जीव दरवको कथन सव, कथननिमें सिरदार // 20 // इति पट्गुणी हानिवृद्धि / (217) पूरण-पंचासिका। चिया इकतीसा / नाथनिके नाथ औ अनाथनिके नाथ तुम, तीनलोक नाथ तातें सांचे जिननाथ हो / अष्टादस दोप नास ग्यानजोतकी प्रकास, लोकालोक प्रतिभास सुखरास आथ ही // दीनके दयाल प्रतिपाल मुगुननि-माल, मोखपुर पंथिनकों तुमी एक साथ ही। द्यानतके साहब ही तुमही अजायव हो, पिंड ब्रहमंड माहिं देखनिकौं माथ हौ // 1 // ___ चौवीसा-छंद (आठ रगण) भान भौ-भावना ग्यान लौ लावना, ध्यानकों ध्यावना पावना सार है। स्वामिकौं अच्चिकै कामकौं वच्चिकै, रामकों रच्चिकै सच्चकौं धार है। सल्लकों भेदिकै गलकों छेदिक, अल्लकों वेदिकै खेद खैकार है। रोपकौं नहकै दोपकौं भट्ठकै, सोपकौं लट्ठकै अट्ठकौं जार है // 2 // सवैया इकतीसा। चाहत है सुख पै न गाहत है धर्म जीव, सुखको दिवैया हित भैया नाहिं छतियां / दुखते डरै है पै भरै है अघसेती घट, दुखको करैया भयदैया दिन रतियां // Scanned with CamScanner Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (248) तथा // 3 // लायौ है बबूलमूल खायो चाहै अंव भूल, दाहजुर नासनकों सोवै सेज ततियां। द्यानत है सुख राई दुख मेरकी कमाई, देखौ रायचेतनिकी चतुराई बतियां // 3 // सवैया तेईसा। को गुरु सार वरै सिव कौन, निसापति को किह सेव करीजै। . कौन बली किम जीवनको फल,धर्म करें कब क्या अघ छीजै॥ कर्म हरैकुन कौन करै तप, स्वामिको सेवक कौन कहीजै। द्यानत मंगल क्यौं करि पाइय, पारस नाम सदा जपिलीजैष्ट कौन बुरा तम कौन हरै, तजिये न कहा किहकों तजि दीजै। क्या न करै किहकौं न धरै, किहतूं लरियै किहमैं न रहीजै। का सहुभिन्न चलै कि नहीं,व्रत स्वामिकौ देखिकै क्याउचरीज द्यानत काम निरंतर कौन सो, पारस नाम सदा जपिलीजैप का सहु दान कहा उपजै अध, को गृह ऊपर काहि पड़ीजै। कौन करै थिर कैसे हैं दुर्जन, क्यों जस कौन समान गनीजै॥ का कहु पालियै धर्म भजै किम, धर्म बड़ा कहु कौन कहीजै। द्यानत आलस त्याग कहा सुभ,पारस नाम सदा जपिलीजै सवैया इकतीसा। निज नारि खोय पूछ पसुपंछी वृच्छ सब, तुम कहीं देखी सु तो तीनलोक ग्याता है। हर्नाकुस पेट फाखौ कंस जरासिंधु मायौ, ताकौं कहैं कृपासिंधु संतनिको त्राता है। बैल असबार दोय नार औ त्रिसूल धार, गलमै वघंवर दिगंवर विख्याता है। (249) ऐसी ऐसी बात सुनि हांसी मोहि आयत है, सूरजमैं अंधकार क्यों कर समाता है // 7 // चारौं गति भाव यार सोलही कपाय 'सार', तीनों जोग 'पासे' टार दोप 'दाव' पर हैं। जीव मरै कर्म रीत सुभा सुभ 'हार जीत' संयोग वियोग सोई मिलि मिलि विछर हैं। चवरासी लाख जोनि ताके चवरासी भौन, चारौं गति विकथामैं सदा चाल करें हैं। चौपरके ख्यालमैं जगत चाल दीसत है, पंचमकौं पाय ख्यालकों उठाय धेरै हैं // 8 // सुनि हो चेतन लाल क्यों परे हो भवजाल, बीते हैं अनादि काल दीसत कंगाल हौ। देखत दुख विकराल तिन्हीसों तेरौ ख्याल, कछु सुध है संभाल डोलत वेहाल हो / घरकी खवरि टाल लागि रहे और हाल, विष गहि सुधा चाल तज दीनी वाल हो / गेह नेहके जंजाल ममता लई विसाल, त्यागिकै हजै निहाल द्यानत दयाल हो // 9 // सवैया तेईसा। संग कहा न विपाद वढावत, देह कहा नहिं रोग भरी है। काल कहा नित आवत नाहिं नैं,आपद क्यान नजीक धरी है नर्क भयानक है कि नहीं, विषयासुखसौं अति प्रीति करी है। प्रेतके दीप समान जहानकों, चाहत तो बुधि कौन हरी है 10 Scanned with CamScanner Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (250) क्रोध सुई करै करमौंपर,मान सही (1) बढ़ाव। माँ तन तांच॥ नसो कहिलावै पायसौं जूझे। अघसा न अरूझे।। पतारस बूझे। मनसो जु निरंजन सूझै 13 हे परकष्ट निवारत, लोभ सुई तपसौं तन गुरु देवपै कीजिये, दोप सुई न विपै सुख, मोडसई जु लखै सब आपसे, द्यानत सज्जन सोकर पीर सुई पर पीर विडारत, धीर सुई जु कपायसोने नीति सुई जो अनीति निवारत, मीत सुई अघसों न औगुन सो गुन दोप विचारत,जो गुन सो समतारस मंजन सो जु करै मन मंजन, अंजन सो जु निरंजन ध्यान सुई कछु चिंत करे नहीं, ग्यान सुई कछु वात न दान सुई जु विवेकसौं दीजिये, जान सुई दुख जानकै बानि सुई सुभ ग्यान बढ़े घट, ग्यान सुई परमें नहिं म / मंजन सोजु करै मन मंजन, अंजन सोजु निरंजन सह मालिनी। कर कर नर धर्म पर्म सम प्रदाता, हर हर नर पापं दुःख संताप भ्राता। यह जिन उपदेसं सर्व संसार सारं, भवजलनिधि धारं जान चढ़ि (2) होहि पारं // 14 // वसंततिलका। तूही जिनेस करुनाकर दीनबंध, स्वामी त्रिलोकपति ईसुर ग्यानखंध / वंदौं त्रिकाल जगजाल निकाल मोहि, दाता महंत भगवंत प्रसन्न होहि // 15 // सुन्दरी। रहित दोष अठारै देव हैं, गुरु सदा निरग्रंथ सु एव हैं। धरमश्रीजिनभाख प्रमान है, मुकतिपंथ यही सरधान है 16 (251) भुजंगप्रयात / सहे दुःख नर्क निगोदं अपारं, अजी नाहिं छाईत अक्षं विकारं / सहक विवेकी भए जात बारे, भले जी भले जी भले प्राणप्यारे // 17 // करखा (रावं लघु)। अथिर सब जगत वन तनक नहिं कहिं सरन, चतुरगति दुख धरन हरन साता। इक सु अध उरध भुव अन सु तन अन सु तव, असुच पुदगल अधुव तजत ग्याता // ममत असरव करत निरममत सवर रत, सुहित निरजर भरत धरत ध्याता। मुनत त्रिभुवन अचल गुनत अवगम अटल, दुलभ अनभव अमल सिव प्रदाता // 15 // सवैया तेईसा। भूख लगै दुख होहि अनंत, सुखी कहिये किम केवल ग्यानी। खात विलोकत लोक अलोककौं, देखि कुदर्व भखै नहिं पानी खायकै नींद करें सब जीव, न स्वामिॉनींदकी नाम निसानी केवलग्यानीअहार करैं नहिं, सांची दिगंबर ग्रंथकी वानी 19 जिनगुणसम्पत्ति व्रतके तिरेसठ उपवास, छप्पय / . पोड़सकारन जान, ठान पड़िवा व्रत सोलै। पंच कल्यानक सांच, पांच पांचै अघ छोले // दस जनमत दस ग्यान, वीस गुन बीसौं दसमी / Scanned with CamScanner Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (252 चौदै गुन सुरकृत्य, बार दस चौदस धरमी // गुन आठ प्रातहारजांनेके, आठ अष्टमी कीजिये। द्यानत त्रेसठ उपवास कर, तीर्थकर पद लीजिये 20 विश्वाराघातभावलाग, सवैया इकतीसा / भूमि कहै मोपै गिरि सागरको बोझ नाहिं, कोलसेती टलै दुष्ट ताकी महा भार है। दसरथ बोल सार रामकों दियौ निकार, राजनीति लंघी वात लंधी न करार है / / नख सिख अंगनिमैं एकै मुख गुनकार, सांच वचन प्रभुजीकै भयौ ओंकार है। ऊंट वाड़ गाड़ी पाड़ चलता ही भला कहै, ऐसे वे सरमके जीवनकों धिकार है // 21 // धैर्य भाव / अंजनी सुसर सास मात तात. निकास, सीता सती गर्भवती रामजीनें छारी है। प्रदुमन सिला तलें धस्यौ पाप ताप भखौ. रामचंद वनवास महा त्रासकारी है / पंडवा निकलि गए कैसे कैसे कष्ट भए, सिरीपाल कोटी भट सह्यौ खेद भारी है। द्यानत बड़ौंका दुःख छोटनिकौं सीख कहै, दुखमाहिं सुख लहै सोई ग्यानधारी है // 22 // (253) वैयावृत अरहंतभक्ति आचारजभक्ति, बहुश्रुतभक्ति प्रवचनभक्ति साधनी // पट आवस्यक काल मारगप्रभाव चाल, वातसल्ल प्रतिपाल सोलही अराधजी। तीर्थकर कारन हैं कर्मके निवारन हैं, मोखसुख धारन हैं टारन उपाधजी // 23 // उनसठि लाख सहस सत्ताईस चालीस, कोडाकोड़ि वर्ष आदिनाथजीकी आव है। तीन कोडाकोड़ि ग्यारै लाख चौ सहस कोड़, एते वर्ष ब्रह्मा आव लोकमैं कहाव है। उन्नीस लाख पचपनसै पचपन ब्रह्मा, आदिनाथ आवमें हुए मुए फलाव है। एक कोडाकोड़ि बहन लख असी हजार, कोड़ि वर्ष वाकी रहे जानौ धर्म न्याव है // 24 // सबैया तेईसा। इंद्र अनेक विवेककी टेक, तुही प्रभु एककौं सीस नबावें / मौलि महा मनि नैन दिखें धन,लाल सुपेद नखौं महि आवे॥ पाटल वन रमाघर चन, सरोज उभै गुन प्रीति बढ़ावें। भौरज नाहिं धरै जड़भाव हरें, सुमरै सुख क्यौं नहिं पावें 25 वुद्धि कहै बहुकाल गए दुख, भूर भए कबहूं न जगा है। मेरौ कह्यौ नहिं मानत रंचक,मोसौं विगार कुनार सगा है। देहुरी सीख दया तुम जा विध, मोहको तोरि दै जेम तगा है। गावहुंगी तुमरौ जस मैं, चलरी जिसपैनिज पेम पगा है 26 दर्सनविसुद्धि विनै सदा सील ग्यान भने, संवेग सुदान तप साधकी समाधजी। Scanned with CamScanner Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (254) धर्मप्रशंसा, सवैया इकतीसा। चिंतामन जान कहीं पारस पाखान कहीं, ' कल्पवृच्छ थान कहीं चित्रावेलि पेखिये। कामधेनु रूप कहीं पोरसा अनूप कहीं, बनी है रसायन जवाहर विसेखियै // नृपकी प्रताप कहीं चंद भान आप कहीं, दीपजोति व्याप कहीं हेमरासि लेखिये। फैलि रह्यो ठौर ठौर भेख गह्यौ और और, एक धर्म भूप सब लोक माहिं देखिये // 27 // रतनौंकी खानि कहीं गंगाजल पानि कहीं, सीत माहिं घाम पौन सीतल सुगंध हैं। बड़े वृच्छ फल छांहिं अतर गुलाव माहिं, मेघकी भरन परै बहु मेवा खंध है // तंदुल सुवास कहीं आभूपन रास कहीं, अंबर प्रकास अति मोहको निबंध है। एक धर्मसेती सव ठौर जै जै कार होय, ताही धर्म विना घर बाहरमैं धंध है // 28 // नर्क पसुतै निकास करै स्वर्ग माहिं वास, संकटकौं नास सिवपदको अंकूर है। दुखियाको दुख हरै सुखियाकौं सुख करै, विघन विनास महामंगलको मूर है // गज सिंह भाग जाय आग नाग हू पलाय, रन रोग दांध बंध सबै कष्ट चूर है। (255) ऐसौ दयाधर्मको प्रकास ठौर ठौर होहु, तिहुँ लोक तिहुं काल आनंदको पूर है // 29 // इधै कोट उधैं बाग जमना यह है वीच, पच्छमसौं पूरवली असीन (2) प्रवाहसीं / अरमनी कसमीरी गुजराती मारवारी, नराँसेती जामै बहु देस बसें चाहसौं॥ रूपचंद बानारसी चंदजी भगोतीदास, जहां भले भले कवि द्यानत उछाहसौं। ऐसे आगरेकी हम कौन भांति सोभा कहैं, बड़ौ धर्मथानक है देखियै निवाहसौं // 30 // सहरमैं नहर है ठौर ठौर मीठे कूप, बाजार बहुत चौरा वसती सघन है। आन देसौंसेती जहां स्रावक अधिक वसैं, सुखी सब लोग अति ही उदार मन है // दान नित देत पूजा भावसौं परम हेत, सास्त्र सुनें हैं सचेत होत जागरन है। इंद्रपथ नाम वन्यौ इंद्रहीको सांचौ धाम, दिल्ली सम और देस माहिं नाहिं धन है // 31 // आगरेमैं मानसिंह जौहरीकी सैली हुती, दिल्ली माहिं अव सुखानंदजीकी सैली है। इहां उहां जोर करी यादि करी लिखी नाहिं, ऐसे भाव आलससौं मेरी मति मैली है। आगरेमैं बड़े उपकारी थे विहारीदास, तिन पोथी लिखवाई तब थोरी फैली है Scanned with CamScanner Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घर माहि भापसी यसअग्रवाल नाम (257) धरम विलासमें अनेक ग्यान परकास, सव माहिं भगवान भगवान भगवान तार है // 35 // अग्र नाम तपसी बसेसों अगरोहा भया, तिसकी संतान सब अग्रवाल गाए हैं। ठारै सुत भए तिन ठार गोत नाम दये, .. तहांसों निकसिकै हिसार माहिं छाए हैं। फिर लालपुर आय व्यक 'चौकसी' कहाय, गोलगोती वीरदास आगरेमें आए हैं। * ताहीके सपूत स्यामदासके द्यानतराय, देस पुर गाम सारे साहमी कहाए हैं // 36 // ( 256) दिली माहिं लागू होय पोथी पूरी लिखवाई.. ऐसी साहिबराय सुगुननकी थैली है // 3 // दिलीमैं नहरि आई तैसें यह कविताई, धाम धाम जल ठाम ठाम यह वानी है। केई पूजा पढ़ें केई पद रागसेती रटैं, सुनि सुख बढे बहु धर्मबुद्धि सानी है। बहुत लिखावै बहु सास्त्रको वचावै सदा, . लिख लेय जावै बहु सांच प्रीत ठानी है। दिल्ली माहिं सब ठौर ग्रन्थ यह फैलत है, तैसे सव देस फैलौ सवै सुखदानी है // 33 // आगरौ गुननिको जहानाबाद रहै कोय, सुधरूप धरमविलासकौ प्रकास है। धरमविलास धर्मके कियें सदा विलास, धर्मको विलास यह धरम विलास है // धर्मकों करै है कोय आपहीमैं धर्म होय, : वस्तुको सुभाव सोय कभी नाहिं नास है। निज सुद्ध भावमें मगन रही आठौं जाम, वाहज हू हेत बड़ौ ग्रंथको अभ्यास है // 34 // पूजा बहु परकार दानके कवित्त सार. चरचा अपार पट दवेको विचार है। भगतिको अधिकार पदनिको विसतार, अध्यातमको निहार बानीको विथार है॥ अखर बावनी धार लोकालोक निरधार, . कोप भाव निरवार कथा हू उदार है। छप्पय / पुरनि माहिं आगरौ, आगरौ आन नाहिं तुल / अगर सुवास प्रकास, तास सम अगरवाल कुल // वीरदास महावीरदासतें, नाम धस्खौ जन / नेमिनाथ तन स्याम, दासतें स्यामदास भन // धन द्यानतदार विचारिक, द्यानत नाम प्रवानिया / कवि नगर नाम दादा पिता, निज नामारथ आनिया 37 सवैया इकतीसा / सत्रहसय तेतीस जन्म व्याले पिता मर्न, अठताले व्याह सात सुत सुता तीन जी। च्याले मिले सुगुरु बिहारीदास मानसिंघ, तिनौं जैन मारगका सरधानी कीन जी // पछत्तर माता मेरी सील बुद्धि ठीक करी, सतत्तरि सिखर समेद देह खीन जी। ध. वि. 17 Scanned with CamScanner Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीनजी // 38 // (258) कल आगरेमैं कछु दिल्ली माहिं जोर करी, , अस्सी माहिं पोथी पूरी कीनी परवीनजी ..छप्पय / गाय हंस उतकिप्ट, मधम मृतिका सुक जानौ / चलनी छाज पखान, फूटघट महिप प्रवानी // जोंक वोक फनधार, और मंजार उलू हूव / ए दस भेद जघन्य जान, स्रोता चौदह धुव / जो जो सुभाव धारक सहज, सो सो नाम धरावई, सो धन्य पुरुष संसारमैं,धरम ध्यान मन लावई 39 - सवैया इकतीसा। सात विस्न त्याग वारै व्रतसौं कियौ है राग, कंदमूल फूल साग सब त्याग करे हैं। बैंगन करोंदे तूत पेठा वेर तरबूज, .. . जामुन गोंदी अंजीर खिरनीसौं टरे हैं / चामधीव तेल जल हींग वासी पकवान, विदल अचार मुखेसों ( ? ) थरहरे हैं। जल छान लेत रात पानी नाज तजि देत, दसैनसों हेत ऐसे ग्याता गुन भरे हैं // 40 // . छप्पय / आप पढ़ा कछु होय, सुना कछु होय जथारथ। समझ ग्यान वैराग, क्रिया नित करत मुकत पथ // नई उकति नहिं धरै, जुगत बहु विध उपजावै / पिछले आगम देखि, कठिनकौं सरल बनावै // सुभ अच्छर छंद प्रगट अरथ, परमारथ वरनन करै / द्यानत ममता त्यागी सुकवि, जव जस बानी विसतरै 41 (259) राबया इकतीसा / कोयलको बोल जहां काक हू कलोल करें, मोरनिको घोर तहां मैंडकको सोर है। तूतीको सवद उहां तीतुर हू बोलत हैं, पानी माहिं मच्छको न मछलीको जोर है (?) // खग विद्याधर खग पंछी नभ गौन करें, वनमें मृगेंद्र मृग चाल ताही ओर है। तैसें वह कवि तामैं मैं भी लघु कवि ताम, गुन लीजी दोप मति कीजी लखि खोर है // 42 // भानके प्रकास दीपके उजास दीसै वस्तु, राह माहिं वारी माहिं गज दिष्टि आवै है / उरदू बाजार छोटे बड़े हैं दुकानदार, थोरा व्रत बहु व्रत व्रती नाम पावै है // राजा परजाकै सुतका उछाह एक सा है, नौ ग्रहमैं (?) हीरा अरु मूंगा हू कहावै है। तैसें कविताकी गिनतीमैं हम कविता है, वचन विलाससेती न्यारौ आप भाव है // 43 // घातिया करम नास लोकालोक परकास, सरवग्य कैसौ ग्यान हम कहां पायौ है। संसकृत प्राकृत न भाषा हु अलप वद्धि नाममाला पिंगल हू पूरा नाहिं आयौ है // इस माहिं कवि चातुरी कछु करी है नाहिं, सूधा धर्म मारगको उपदेस गायौ है। भूमंडल माहिं रविमंडल ज्यौं उदै करै, धरमविलास सबहीके मन भायौ है // 44 // Scanned with CamScanner Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (260) अच्छर मात्रा छंद, अरथ जो अमिल बखाना। जान अजान प्रमाद, दोपतें भेद न जाना। संत लेहु सब सोध, बोधधर हो उपगारी। बालक ऊपर कटक, कौन धारै मतिधारी // इस सबद गगनमें सुकविखग, अपना सा उद्यम गहै पावै न पार सुभ धान वसि, परमानंद दसा लहै // 45 // सवैया इकतीसा / अकवर जहांगीर साहजहां भए बहु, लोकमैं सराहैं हम एक नाहिं पेखा है। अवरंगसाह बहादरसाह मौजदीन, फरकसेरनें जेजिया दुख विसेखा है // द्यानत कहां लग वड़ाई करै साहवकी, जिन पातसाहनको पातसाह लेखा है। जाके राज ईत भीत विना सव लोग सुखी, बड़ा पातसाह महंमदसाह देखा है // 46 // जैनधर्म अधिकार दीसै जगमाहिं सार, और मतके फकीरसेती जती सुखी है। . सव मत माहिं रात दिन पसु जेम खाहिं, स्रावक विवेकी निसत्यागी गुरुमुखी है // : जल अनछानेसों नहारू आध व्याध होय, : पानी पीयें छान कभी होत नाहिं दुखी है। सांच धर्म सब लोक जान जान सुखी होय, सांच वात कही, नाहिं कही आप रुखी है॥४७॥ (261) चैत सब मास माहिं उत्तम वसंतसेती, सर्व सिद्धा त्रोदसी कहें हैं सब लोकर्म / सतभिखा है नछत्र सतको कथन अत्र, सुभ जोग महा सुभ धर्मके संजोगमैं // गुरु पूजनीक गुरुवार कृस्न पच्छ धार, सेत है है तीन वार आगम प्रयोगमैं / सत्रहसै अस्सी सोले भाव रीत चित्त वसी, ग्रंथ पूरा कीना हम सुद्ध उपयोगमै // 18 // एक सुध आतम सधै है सात भंगनते, आठौं गुनमई परभावनसे सुंन है। यही सुभ संवतके सोलै सब आंक भए, सोलै भावसेती बंधै तीर्थकर पुंन है // इसमें अधिकार भी उनासीके सोलै आंक, . सोलहौं कपाय नासकारी महा गुंन है। जातनमें ग्यान जात बातनमें ध्यान वात, धातनमैं बड़ी धात जैसैं हेम हुंन (?) है // 49 // छप्पय। जबलौं मेर अडोल, छोडि भ्रम रुचि उपजाऊ / जबलों सूर प्रताप, पाप संताप मिटाऊ // जबलौं चंद उदोत, जोति सबके घर भासै। जवलौं स्री जिनधर्म, सर्वको सुख परकासै // जबलौं भुव मंगल गगन थिर, तवलौं ग्यान हिये धरौ। इसधर्मविलास अभ्याससौं, सब ही भवसागर तरौ॥५०॥ Scanned with CamScanner Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (262) (263) कथा देखो आदिनाथजीके दस परजाय, वृत संघ निकीडत चंद्रामन भेव है। गनती अनंत विरलन देय औ सलाक, दीपोदधि नाम गिनी आवै नाहिं, छेव है। जीव कर्म दर्व तत्त्व ग्यान पूजा ठानी लोक, सबै बहु भेद भाख तीर्थकर देव है। भोग चक्रवर्तिजीकै समोसनकी विभूति, जैनधर्मके समान जैनधर्म एव है // 51 // बुद्धिका निवास होय सुद्धता प्रकास होय, मुद्धता विनास होय उद्धता प्रभावना। दानकी पिछान होय ग्यानका निदान होय, ध्यानका विग्यान होय मानका मिटावना // इंद्री सव जेर होय मन जैसे मेर होय, मोहका अंधेर खोय जोतिका जगावना। जगतै निकास लेह मोख माहिं करै गेह, धरमविलास ग्रंथ आगमकी भावना // 52 // छप्पय / सावन जल विन दियें, मैल गुनका सब खोवै / जाका डर अवधार, कवित निरदूखन होवै॥ जो दुख देय न सोय, कौन सम ताकौं जानौ। दोष विराने चूरि, आपने सिरपै ठानौ // यह दुष्ट पुरुष जैवंत जग, चार बड़े उपगार हैं। दुरजनकौं सज्जन सम लखें, ते ग्याता सिरदार हैं 53 अच्छरसेती तुक भई, तुकसो हुए छंद / छंदनसी आगम भयो, आगम अरथ मुछेद / / आगम अरथ सुछंद, हमीने यह नहिं कीना / गंगाका जल लेय, अरघ गंगाकी दीना / / सबद अनादि अनंत, ग्यान कारन विन मच्छर / मैं सबसेती भिन्न, ग्यानमय चेतन अच्छर // 54 // छप्पय / धन धन सी जिनराज, काज सब जियके सारी। धन धन सिद्ध प्रसिद्ध, रिद्ध सब विध विसतारौ // धन धन हो तुम सुर, सूर दुखको निरवारौ। धन धन हौ उवझाय, लाय अंमृत विष डारौ / जग धन्न धन्न सब साधु तुम, वकता स्रोता सुख करो। द्यानत हे माता सरसुती, तुम प्रसाद सब नर तरी // 55 // इति पूरण पंचातिका। श्री जिनराज रिद्ध सत्रु विनरवारौ ! धन धन सिद्धप्रामुर, सूर अमृत विपातामुख कर समाप्त। Scanned with CamScanner Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ORTANTRahan FORSECS REAPHYAYASADRISTRISTIA जैनग्रन्थरत्नाकर कार्यालयमें मिलनेव वाली कुछ पुस्तकें / बनारसीविलास-बनारसीदासजीकी समस्त कवितायो, फ और उन्हींका लिखा हुआ जीवनचरित सहित 1- र - वृन्दावनविलास-कविवर , वृन्दावनजीकी का - संग्रह ... ... .. ... ... 0-12-0 प्रद्यम्नचरित्र-सरल हिन्दी भाषाम ...2-12-0 सप्तव्यसनचरित्र-सात व्यसनोंके सेवन करनेवालोंकी : क्या दुर्दशा होती है यह सरल हिन्दी भाषामें विस्तार साथ दर्शाया है .... ... .....-:4- (र चचाशतक-सरल हिन्दी टीकासहित न्यायदीपिका- मूलसंस्कृत और सरल हिन्दी / टीका सहित ................. 0-12-0 / / मोक्षमार्गप्रकाश-बचनिका पं० टोडरमलजीकृत 1-12-0 / ज्ञानसूर्योदय नाटक-श्रीवादिचन्द्रसूरिके संस्कृत ग्रन्थका b. सरल हिन्दी अनुवाद .... .... .... 0-8-07 इनके सिवाय और भी सब जगहके छपे हुए जैनग्रंथ संस्कृत. हिन्दी, मराठीके हमारे यहां मिलते हैं / सर्व साधारणोपयोगी ( उत्तमोत्तम पुस्तकें भी बिक्रीके लिये हर समय मौजूद रहती हैं। 6 बड़ा सूचीपत्र मंगाकर देखिये। मिलनेका पता-जैनग्रन्धरत्नाकर कार्यालय हीराबाग पो० गिरगांव-बम्बई. 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