________________ नोट पंथ हरना // 49 // ( 18) मांस मद दारी आखेट चोरी पर,नारी विसन क्रोध मान माया लोभ धरना एकांत विनय विपरीत संसय अग्यान एई भाव त्यागिक निगोद पंथ हरना नरकदुःख। सीत नर्कमाहिं परै मेरुसम उस्न गोला, उस्त नर्क सीत गोला बीचमै विलायौ है। छेदनता भेदनता काटनता मारनता, चीरनता पीरनता नाना भाँति तायौ है / रोग छयानवै विख्यात एक एक अंगुलमैं, परनारी भोगी आगि-पूतली जलायौ है। सागरौंकी थिति पूरी करी ते अनंती वार, अजहूं न समुझे है तोहि कहा भायों हैं // 50 // 9 भूख तो विसेस जो असेस अन्न खाइ जाइ, मिलै नाहिं एक कन एतौ दुःख पायौ है / / तृषा तौ अपार सब अंबुधिको नीर पीवै, पावै नाहिं एक बूँद एतौ कष्ट गायौ है // आँखकी पलक मान साता तौ तहां न जन, क्रोधभाव भूरि वैर उद्धत वतायौ है। सागरोंकी थिति पूरी करी ते अनंती वार अजहूं न समझे है तोहि कहा भायौ है / / / 51 // ----पुण्यपाप कथन, छप्पय। कबहुं चढ़त गजराज, बोझ कबहूं सिर भारी।। कबहुं होत धनवंत, कबहुं जिम होत भिखारी / / (10) कबहुं असन लहि सरस, कबहुं नीरस नहिं पावत / कबहुं वसन सुभ सघन, कबहुं तन नगन दिखावत // कवहूं सुछंद बंधन कबहुं, करमचाल बहु लेखिये / यह पुन्यपाप फल प्रगट जग, राग दोप तजि देखिये॥५२॥ कबहुं रूप अति सुभग, कबहुं दुर्भग दुखकारी। कबहुं सुजस जस प्रगट, कबहुं अपजस अधिकारी // कबहुं अरोग सरीर, कबहुं बहु रोग सतावत / कवहं वचन हित मधुर, कवहं कछ वात न आवत // कवहूं प्रवीन कवहूं मुंगध, विविधरूप जन पेखिये / यह पुन्यपापफल प्रगट जग, राग दोष तजि देखिय॥५३॥ मिथ्यादृष्टि कथन, सवैया इकतीसा। नारीरस राचत है आठौं मद माचत है, रीझि रीझि नाचत है मोहकी मगनमैं / ग्रंथनकौं वाचत है विपैकौं न वाचत है, आपनपो वांचत है भ्रमकी पगनमैं // स्वारथकौं जांचत है स्वारथ न जांचत है,... पाप भूरि सांचत है कामकी जगनमैं / पोपत है पांचनकौं सहै नर्क आंचनकौं, ऐसी करतूति करै लोभकी लगनमैं // 54 // ग्रंथनके पढ़ें कहा पर्वतके चढ़ें कहा, कोटि लच्छि व कहा कहा रंकपनमैं / 1 खच्छन्द, खतंत्र। 2 मुग्ध, मूर्ख / 3 विषयोंको नहीं छोड़ता है 4 आत्मत्वसे वंचित होता है। 5 अपने मतलबके लिये याचना करता है 6 आत्महित / 7 संचित करता है / 8 पांचों इंद्रियोंको। 1 रंडीबाजी। Scanned with CamScanner