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________________ (32) रूप रस गंध फास पुदगलको विलास, मूरतीक रूपी विनासीक जड़ कहिए // याही अनुसार परदर्वको ममत्त डारि, अपनौ सुभाव धारि आपमाहिं रहिए। करिए यही इलाज जातें होत आपकाज, राग दोष मोह भावको समाज दहिए // 93 // मिथ्याभाव मिथ्या लखौ ग्यानभाव ग्यान लखौ, कामभोग भावनसौं काम जोरजारिक। परकौ मिलाप तजौ आपनपौ आप भजौ, " / पापपुन्य भेद छेद एकता विचारिकै॥ आतम अकाज करै आतम सुकाज करै, पावै भवपार मोख एतौ भेद धारिकै। यातै हूं कहत हेर चेतन चेतौ सबेर, मेरे मीत हो निचीत एतौ काम सारिकै // 94 // अडिल्ल / अहो जीव निरग्रंथ, होय विषयन तजौ। निरविकलप निरद्वंद, सुद्ध आतम भजौ // तत्त्वनिमें परधान, निरंजन सोइ है। अविनासी अविकार, लखें सिव होइ है // 95 // मंदाक्रान्ता। देखौ देखौ भविक अधुना, राजते नाभिनंदा / घोरं दुःखं भजत भजते, सेवते सौख्यकंदा // . . मूह / 2 इस समय। ( 33 ) जाको नामै जपत अमरा, होत ते मुक्तिराजा / एई, एई भवदधिवि, धर्मरूपी जिहाजा // 16 // ज्ञाताका चिन्तवन / / सिद्धौ सुद्धौ अमल अचलौ, निर्विकल्पो अवंधौ / स्वच्छं भावं अजर अमरौ, निर्भयौ ज्ञानबंधौ // बर्नातीतौ रसविरहितौ, फासभिन्नं अगंधी। सोहं सोहं निज निजविषै, पैश्यतो नैव अंधौ // 97 // बुद्ध्यातीतौ अखल अतुलं, चेतनं निर्विकारौ / क्रोधं मानं रहित अछलं, लोभभिन्नं अपारौ॥ रागं दोष रहित अखयं, पर्म आनंदसिंधौ / सोहं सोहं निज निजविषै, पश्यतो नैव अंधौ // 98 // अक्षातीतौ गुणगणनिलौ, निर्गदौ अप्रमादौ / लोकालोकं सकल लखितं, निर्ममत्तौ अनादौ // सारं सारं अतनु अमनं, शब्दभिन्नं निरंधौ / सोहं सोहं निजनिजविष, पश्यतो नैव अंधौ // 99 / षद्रव्यकथन सवैया इकतीसा / जीव और पुद्गल धरम अधरम व्योम, काल एई छहौं द्रव्य जगके निवासी हैं। एक एक दरवमैं अनंत अनंत गुण, अनंत अनंत परजायके विकासी हैं। 1 वर्णरहित / 2 देखता नहीं है। ध. वि.३ Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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