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________________ कहा०॥७॥ (154) द्यानत प्रीतिसहित सिर नावें। जनम जनम यह भक्ति कमावै // कहा। वर्धमानकी आरती, राग गौरी / करौं आरती वर्धमानकी। पावापुर निरवान थानकी // टेक // राग विना सब जग-जन तारे। दोष विना सब कर्म विडारे // करौं० // सील धुरंधर सिव-तिय-भोगी। मनवचकायन कहिये जोगी // करों० // 2 रत्नत्रयनिधि परिगह डारी। ग्यान-सुधा-भोजन व्रत-धारी / करौं०॥३॥ लोकअलोकव्यापि निज माहीं। सुखमय इंद्री सुख दुख नाहीं // करौं० // 4 // पंचकल्यानकपूज्य विरागी। विमल दिगंबर अंवरत्यागी // करौं० // 5 // गुनमनिभूपन भूषन स्वामी। जगत उदास जगंतरजामी // करौं० // 6 // कहै कहां लौँ तुम सब जानौ / द्यानतकी अभिलाख प्रमानौ // करो० // 7 // . वृषभनाथकी आरती / कहा ले आरती भगत करें जी। तुम लायक नहिं हाथ परै जी // टेक॥ .. छीर जलधिको नीर चढ़ायौ। कहा भयौ मैं भी जल लायौ // कहा०॥१॥ (155) उजल मुक्ताफलसी पूजी। पै तंदुल और न दूजी // कहां // 2 // कलपवृच्छ-फलफूल तुम्हार।. अखक क्या ले भगति विथार // कहा०॥३॥ जनसौं चंदन अगर न लागे। सुगंध धरै तुम आगे // कहा०॥४॥ सम कोटि चंद रवि नाहीं। दीपक जोति कहो किह माहीं // कहा०॥५॥ ग्यानसुधाभोजन व्रतधारी। नेवज कहा करें संसारी // कहा० // 6 // द्यानत सकत समान चढ़ावै / कपा तिहारीतें सुख पावै // कहा०॥७॥ . परमात्माकी आरती। मंगल आरती आतमराम / तन मंदिर मन उत्तम ठाम // टेक // सम रस जल चंदन आनंद / तंदुल तत्त्व-सरूप अमंद // मं० // 1 // समैसार फूलनकी माल। अनुभौ सुख नेवज भरि थाल // मं // 2 // दीपक ग्यान ध्यानकी धूप / निर्मल भाव महा फलरूप // मं० // 3 // सुगुन भविक जन धा भगति प्रवीन || मं०॥४॥ धुनि उत्साह सु अनहद ग्यान।। परमसमाधिनिरत परधान // मं०॥५॥ Scanned with CamScanner
SR No.035338
Book TitleDhamvilas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDyantrai Kavi
PublisherJain Granthratna Karyalay
Publication Year1914
Total Pages143
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size61 MB
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