________________ (141) (140) कविता पखान करी लोगनिमें रीझ परी. सपमाहिं बुद्धि धरी चंचलता छोरिक। एक बिना सबै हेय, ऐसी दया क्यों न लेय छहौं धर्ममाहिं ध्येय पाप डोरि तोरिक। कोमलता हियेकी सहेली आप ही अकेली. स्वर्गकी नवेली निधि करै दुख बोरिकै // 3 // महालोगवधा / 'पाय दो अटपटात जान हू थकत जात, कटि हू पिरात गात घात बात बनी है। छाती छवि छीज गई पीठ हू सकुच भई, हाथ हलै चलै नई जरा पौन घनी है // बैन गह्यौ रूप और आंखि लाज तजी ठौर, कान वान सुनें कौन आन वनी अनी है। काल असवारीपै हुस्यारी मृत वासनकी, (?) डूबै जहां बांस तहां पोरी किन गनी है // 4 // दानखरूप। अजस विहार करै वारिधि हू जाय परै, आपदा प्रसंग हरै विस्न (?) एक हू कहां। क्रोधकी न जौन होय लोभकी न पौन होय, नरकको न गौन होय कौन कहै दुख तहां // पापको विनास होय भोगभूमिवास होय, स्वर्गमैं निवास होय शत्रु को रहै जहां। साधनकै दान” निधान-पुंज व्योम देत, या समान दूसरौ न मोटौ गुन है इहां // 5 // सजनता। टानको विसन जाप ग्यानमै रिस न काप, खानको न तिसना प मिसना सरलता। सोमता सुभाव लिये जोमकी न बात हिये, मोमरीति लई गई मानकी गरलता // . भोगनसों विरमात जोगनसौं निजरात, लोगनकी सुनत बात दोपमें न लरता / रोस रीति भाननकी तोप प्रीति ठाननकों, मोखफल खाननकों वई है वर लता // 6 // शोकनिवारण। पीतम मरेकी सोच कर कहा जीव पोच, तजे ते अंनते भव सो कछू सुरत है। एक आवै एक जाय ममतासी बिललाइ, रोज मरे देखे सुने नैक ना झुरत है। पूतसौं अधिक प्रीत वह ठान विपरीत, यह तौ महा अनीत जोग क्यों जुरत है। मरनौ है सूझै नाहिं मोहकी गहलमाहिं, काल है अवैया स्वास नौवति घुरत है // 7 // धनतृष्णानिवारण / एकनकै सैकड़े हजार लाख कोटि दर्व, रोज आवै रोज जाहि ताहि ना खबर है। एक हाट हाट माहिं वाट वाट विललाहिं, कौड़ी कन पावे नाहिं नैक ना सवर है // 1 मिस-छल / Scanned with CamScanner