________________ (207) धीर // 1 // (206) आठ गणछन्द / दोहा / वरधमान सनमति महा, वीर अति महावीर। वीर पंच जिस नाम सो, नमौं अंत जिन धीर। सोरठा। सब संसार अनित्य, नित्य एक परमातमा। वंदि कहूं सुन मित्त, आठ छंद गन आठके // 2 // यगण / अकर्ता च कर्ता अभुक्ता च भुक्ता, अनेका अनित्ता निता एक उक्ता। मरै ऊपजै ना मरै ना पजै है, सदा आतमा स्वांग ऐसे सजै है // 3 // रगण। चेतना आन है आन देही यही, तेयपै भेद ज्यौं भेद जानौ सही। त्यागिय देहके नेहकी थापना, देखियै जानिये आतमा आपना // 4 // तगण। जो देह सो देह जो ग्यान सो ग्यान, संबंधके होततें होत ना आन / जो भेदविग्यान धारंत धीवंत, सो नास भौचास स्यौ-वास वासंत // 5 // . भगण। केवल दर्सन ग्यान विराजत, लोक अलोक लखें गुण छाजत / कर्म ढक्यौ नहिं आप पिछानत, सो परमातम क्यों नहि जानत // 6 // .. जगण। न राग न दोप न बंध न मोप, सदा अपने गुनमंडित कोप / सुभाव रमै पर भावनि खोय, . तिसै परमातमको पद होय // 7 // - ‘सगण। जिसकी थुति इंद्र करै हरखे, जिसके गुन साध सदा परखै। जिसकौं नित वेद वतावत है, सु तुही निजमैं किन ध्यावत है // 8 // नगण। धरम गगन जम अधरम, वध अवध पुदगल करम / पर विरहत सुपदसहत, सुगुन गहत सु सुख लहत // 9 // __ मगण। सत्तोहं तत्तोहं गेयोहं ग्याताई, ग्यानोहं ध्यानोहं ध्येयोहं ध्याताहं / पर्मोहं धर्मोहं सर्मोहं वुद्धोहं, रिद्धोहं वृद्धोहं सिद्धोहं सुद्धोहं // 10 // सोरठा। वारै अच्छर छंद, चार सहस अरु छयानवै। द्यानत हम मतिमंद, भेद कहां लौं कहि सकें॥११॥ इति आठगणछंद। Scanned with CamScanner